अन्धकार को दूर भगाओ, मज़दूर मुक्ति की मशाल जगाओ
मनन, शिमला
आज से कई साल पहले जब धरती पर जीवन की शुरुआत ही हुई थी तो उस समय मनुष्य अँधेरे, बिजली चमकने, तथा बारिश जैसी चीज़ों से डरा करता था। परन्तु ज्ञान-विज्ञान के प्रचार-प्रसार के कारण धीरे-धीरे मनुष्य ने अपने डर पर विजय प्राप्त कर ली। आज विज्ञान ने इतनी तरक़्क़ी कर ली है कि इंसान बड़ी-बड़ी नदियों के पानी को बाँधकर उससे बिजली उत्पन्न कर रहा है तथा हर रोज़ नये-नये आविष्कार कर रहा है। कहने का मतलब यह है कि अँधकार अज्ञानता का प्रतीक है, जब तक मनुष्य किसी चीज़ के बारे में नहीं जानता है तब तक उसके मन को शंका और डर घेरे रहते हैं। परन्तु जैसे ही वह उनके बारे मे जानना शुरू कर देता है तो धीरे-धीरे डर का स्थान आत्मविश्वाश ले लेता है।
इसी तरह आज हम भी एक अन्धकारमय और भयानक दौर से गुज़र रहे हैं। हममें से कई लोग ऐसा मानते हैं कि आज जिस ग़रीबी, बदहाली, और भूखमरी का जीवन हम जी रहे हैं, उससे बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं है। ऐसा इसलिए है क्योंकि अभी हमने मज़दूरों के ग़ौरवशाली इतिहास को जाना नहीं है, जब रूस और चीन में हमारे भाई-बहनों ने अकूत कुर्बानियाँ देकर अपना राज क़ायम किया था तथा प्रगति के नये-नये कीर्तिमान स्थापित किये थे। हर रोज़ हम हज़ारों की संख्या में अपनी मज़दूर बस्तियों से कारख़ानों की तरफ़ निकलते हैं और 12-14 घण्टे अपना हाड़-मांस गलाकर केवल अँधेरा होने पर ही अपने दड़बेनुमा कमरों में वापिस आ पाते हैं। इसी तरह अपना और अपने परिवार का पेट पालने के लिए हम हर दिन ख़ून-पसीना एक करके मालिकों की तिजोरियाँ भरने में जुटे रहते हैं। परन्तु इतनी कड़ी मेहनत करने के बावजूद भी जहाँ आज हमें और हमारे परिवार को दो वक़्त की रोटी जुटाना भी मुश्किल पड़ रहा है, वहीं दूसरी तरफ़ हमारा ख़ून चूस-चूस मालिकों की तोंद लगातार फूलती जा रही है। जहाँ एक तरफ़ सरकार इन मुट्ठीभर धनकुबेरों के ऐशो-आराम के लिए बड़े-बड़े रिहायशी इलाक़े बना रही है जिनमें महँगे स्कूल और अस्पताल जैसी तमाम सुविधाएँ मौजूद हैं, वहीं दूसरी तरफ़ शहर को साफ़-सुथरा बनाने के नाम पर हमारी बस्तियों पर बुलड़ोजर चलाया जा रहा है। जहाँ एक तरफ़ अमीरों के बच्चे साफ़-सुथरे और महँगे स्कूलों में पढ़ने जाते हैं, वहीं दूसरी तरफ़ हमारे बच्चे स्कूल जाने की उम्र में अपना और अपने परिवार का पेट पालने के लिए मेहनत-मज़दूरी करने को मज़बूर हैं। मालिक और उनके पैसे से चलने वाली तमाम चुनावी पार्टियाँ चाहती हैं कि यह अँधकारमय युग क़ायम रहे ताकि वह लगातार हम पर राज कर सके।
वे जानते हैं कि अगर हम अपने अधिकारों के लिए एकजुट होना शुरू हो जायें तो जिन आलीशान महलों में वे रह रहे हैं, उनकी दीवारें सिर्फ़ हमारे नारों और क़दमों के शोर से ही काँपना शुरू कर देंगी। इसीलिए वे लगातार हमसे कहते रहते है़ कि अपने अधिकारो को जानने और उनके लिए संघर्ष करने से कुछ हासिल नहीं होगा, मज़दूरों का काम तो बस इतना है कि वो मालिकों का मुनाफ़ा लगातार बढ़ाते रहने के लिए दिन-रात खटते रहे। लेकिन यह तो हमें तय करना है कि क्या हम यूँ ही लगातार मालिकों की गुलामी करते रहेंगे? या फिर खु़द की और अपनी आने वाली पीढ़ियों की आज़ादी के लिए लड़ने की तैयारी में जुट जायेंगे? अगर हम चाहते हैं कि हमारी आने वाली पीढ़ियाँ एक आज़ाद दुनिया में साँस ले तो आज जो सबसे बड़ा काम हमारे सामने है, वो है अपने अधिकारों और मज़दूरों के ग़ौरवशाली इतिहास के बारे में जानकारी हासिल करें। परन्तु सिर्फ़ इतने से ही काम नहीं बनेगा बल्कि मज़दूर मुक्ति के सपने को पूरा करने के लिए ज़रूरी है कि इन विचारों को हम जितना ज़्यादा हो सके अपने मज़दूर साथियों तक पहुँचाये। इसके लिए ज़रूरी है कि अपनी-अपनी मज़दूर बस्तियों में अध्ययन चक्र तथा पुस्तकालय स्थापित करें। हालाँकि, इस बात में कोई शक नहीं है कि यह एक लम्बा और मुश्किल रास्ता है लेकिन हर लम्बी यात्रा की तैयारी छोटे-छोटे क़दमों से ही होती है।
मज़दूर बिगुल, फरवरी 2016
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