उपराष्ट्रपति महोदय, हम बताते हैं कि “शिक्षा के भगवाकरण में ग़लत क्या है”!
– लता
हाल ही में देश के उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने कहा कि शिक्षा के भगवाकरण में बुरा क्या है और लोगों को अपनी औपनिवेशिक मानसिकता छोड़कर शिक्षा के भगवाकरण को स्वीकार कर लेना चाहिए। लेकिन सच्चाई तो यह है कि सारे भगवाधारी उपनिवेशवादियों के चरण धो-धोकर सबसे निष्ठा के साथ पी रहे थे और इनके नेता और विचारक अंग्रेज़ों से क्रान्तिकारियों के बारे में मुख़बिरी कर रहे थे और माफ़ीनामे लिख रहे थे। इसलिए अगर औपनिवेशिक मानसिकता को छोड़ने की ही बात है, तो साथ में भगवाकरण भी छोड़ना पड़ेगा क्योंकि भगवाकरण करने वाली ताक़तें तो अंग्रेज़ों की गोद में बैठी हुई थीं और उन्होंने आज़ादी की लड़ाई तक में अंग्रेज़ों के एजेण्टों का ही काम किया था। जो वास्तव में क्रान्तिकारी थे और उपनिवेशवादियों के ख़िलाफ़ लड़ रहे थे, उनका स्पष्ट कहना था कि किसी धार्मिक प्रतीक या रंग को कभी देश का प्रतीक नहीं बनाया जा सकता है। वे भगवाकरण और हर प्रकार के धार्मिक प्रतीक या रंग में देश की पहचान को रंगे जाने के ख़िलाफ़ थे। भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरू जैसे महान क्रान्तिकारी संघ और हिन्दू महासभा जैसे संगठनों के बारे में क्या सोचते थे ये सभी को पता है। उनका स्पष्ट मानना था कि धर्म हर व्यक्ति का अपना निजी मसला होना चाहिए और देश की पहचान किसी धर्म के साथ नहीं बननी चाहिए। इसलिए वेंकैया नायडू के इस बयान का असली मक़सद संघ परिवार के फ़ासीवादी एजेण्डा को आगे बढ़ाना है, जनता की चेतना का साम्प्रदायिकीकरण करना है, जनता को धर्म पर बाँटना है। यह साज़िश बड़े पैमाने पर संघ परिवार चला रहा है, जैसा कि हालिया तमाम घटनाओं से स्पष्ट होता है।
रामनवमी के अवसर पर देश के अलग-अलग हिस्सों में जिस तरह का उन्माद और हिंसा देखने को मिले यह किसी भी सभ्य सज्जन इन्सान के लिए चाहे वह धार्मिक हो या न हो मान्य नहीं है। हाथ में भगवा झण्डा लिये संघ परिवार के लम्पट सड़कों पर आतंक मचा रहे थे। कहीं मस्जिदों पर चढ़कर भगवा झण्डा फहराया, कहीं मस्जिद को आग लगा दी, दुकानें जलायीं, मार-पीट की। इन सभी घटनाओं में पुलिस मौजूद थी लेकिन मूक दर्शक बनकर। पुलिस ने एक बार भी दंगाइयों को रोकने का प्रयास तक नहीं किया। कह सकते हैं सारी घटनाओं को पुलिस संरक्षण में अंजाम दिया गया। जेएनयू भी एक बार फिर सुर्ख़ियों में घसीटा गया। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के गुण्डों ने विश्वविद्यालय परिसर में एक सोची समझी साज़िश के तहत शाकाहारी-माँसाहारी भोजन का विवाद पैदा किया जिसमें बाहर से आये कई गुण्डे भी शामिल थे। इन्होंने मिलकर आम छात्रों के साथ मार-पीट की। यहाँ भी पुलिस मूक दर्शक बनी खड़ी रही। किसी ग़ैर-मुद्दे को मुद्दा कैसे बनाया जाता है इसकी महारत संघ परिवार को हासिल है। देश में ग़रीबी, भुखमरी, बेरोज़गारी, महँगाई जैसे मुद्दे तो जैसे समाप्त हो गये हैं! वास्तव में, देश में आज भयंकर बेरोज़गारी, ग़रीबी और महँगाई है, ठीक इसीलिए संघ परिवार धार्मिक उन्माद फैलाकर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण कर रहा है, ताकि जनता का असली मुद्दों से ध्यान भटकाया जा सके। देश मानो इन वास्तविक समस्याओं पर विजय प्राप्त कर चुका है इसलिए अब हमारे लिए सबसे प्रमुख मुद्दा रह गया है यह पता करना कि किसी विश्वविद्यालय के छात्र क्या खाते हैं? वैसे जेएनयू के सभी छात्रावासों में पहले से तय मेनू के अनुसार खाना बनता है जिसमें तीन दिन शाकाहारी और माँसाहारी दोनों प्रकार का भोजन होता है। अन्य विश्वविद्यालयों में भी सप्ताह में कुछ दिन मांसाहारी भोजन बनता है। छात्र अपनी इच्छा से भोजन का चयन करते हैं। दूसरी बात परिसर में हर तरह के पर्व त्योहार मनाये जाते हैं। लेकिन किसी भी छात्रावास के अन्दर कोई धार्मिक अनुष्ठान करने की इजाज़त नहीं होती है। परिषद के छात्रों ने अनुष्ठान किया और इन्तज़ार करते रहे कि कोई आपत्ति करे। लेकिन किसी के कुछ न कहने पर उन्होंने हॉस्टल में माँसाहारी भोजन बनने को मुद्दा बना दिया। मुद्दा कुछ भी नहीं था लेकिन एक योजना के तहत इसे मुद्दा बनाना गया। नयी शिक्षा नीति को लागू करने के लिए लगातार जेएनयू जैसे सार्वजनिक विश्वविद्यालयों को बदनाम करना संघ के लिए आवश्यक है। आने वाले दिनों में जब जेएनयू के छात्र फ़ीस वृद्धि को लेकर या शिक्षा के निजीकरण को लेकर आन्दोलन करेंगे तो आम जनता उनका समर्थन नहीं करे इसलिए इसे बार-बार बदनाम किया जाता है। जेएनयू एकमात्र ऐसा विश्वविद्यालय है जिसमें मात्र 120 रुपये में आज भी छात्र एक सत्र की पढ़ाई करते हैं।
वैसे तो ऐसे किसी मुद्दे पर मीडिया में लगातार ख़बर चलना और चर्चा करना देश की मज़दूर मेहनकश आबादी के साथ भद्दा मज़ाक़ है जो हर रोज़ भुखमरी, बेरोज़गारी और महँगाई की मार झेल रही है। लेकिन संघ और भाजपा सरकार इन दिनों इसके अलावा और कुछ कर भी नहीं रहे हैं। और उन्हें ऐसा ही करना है क्योंकि भाजपा सरकार मेहनतकश जनता के हितों के अनुसार देश नहीं चला रही है और चला भी नहीं सकती है, बल्कि अडानी, अम्बानी और टाटा-बिड़ला जैसे कॉरपोरेट घरानों की मैनेजिंग कमेटी का ही काम कर रही है और वह भी सबसे ज़्यादा कुशलता और तानाशाहाना तरीक़े से। जनता का वोट लेकर संसद में पहुँचने पर और फिर वहाँ नंगे तौर पर पूँजी की चाकरी करने की स्थिति में जनता के ग़ुस्से को क़ाबू में करने के लिए धर्म-जाति के नाम पर बवाल खड़ा करना इनकी सख़्त ज़रूरत है। यदि लोग धर्म और जाति के नाम पर बटेंगे नहीं तो इनसे सवाल पूछेंगे। पूछेंगे कि काला धन जो देश में आने वाला था वह कहाँ गया, 2 करोड़ नौकरियाँ हर वर्ष देने का वायदा था वह कहाँ गया, देश को महँगाई-मुक्त बनाने का वायदा कहाँ गया।। “बहुत हुई महाँगाई की मार अबकी बार मोदी सरकार!”, ऐसे वायदे तो आप सभी भूल ही गये होंगे। लेकिन वहीं वाट्सअप यूनिवर्सिटी से आने वाला ज्ञान सुबह से शाम तक बताता है कि हिन्दू ख़तरे में हैं। हम भी आँख-दिमाग़ बन्द कर यह मान लेते हैं। लव जिहाद, अर्बन नक्सल, राष्ट्रद्रोही न जाने कैसे-कैसे झूठे बेहूदा वीडियो और तस्वीरों पर हम विश्वास करते हैं और इन्हें सच मानते हुए ग़ुस्से और नफ़रत से उबलने लगते हैं। हिन्दुओं की ही तरह अन्य धर्मों को मानने वाली मेहनतकश आबादी भी हर रोज़ दो जून की रोटी के लिए जद्दोजहद करती है। चाहे हिन्दू हो या मुसलमान, दलित हो या स्वर्ण, देश की ग़रीब मेहनतकश आबादी 12-12 घण्टे हाड़-तोड़ मेहनत करती है और इसके बाद भी परिवार की ज़रूरतें पूरी नहीं कर पाती। कई तो एक साथ दो-दो नौकरियाँ कर रहे होते हैं लेकिन तब भी बच्चों की दवाई, माँ-बाप का इलाज कुछ नहीं जुड़ पाता। इन परेशानियों के समाधान की कोई बात नहीं मिलती लेकिन ऐसे उन्मादियों के वीडियो ज़रूर रोज़ मिलते हैं जिनमें नारे लग रहे होते हैं ‘भूखे हम सो जायेंगे लेकिन हिन्दू धर्म को बचायेंगे’। हमें भी लगने लगता है कि हम ऐसे एहसानफ़रामोश नहीं बनना चाहते जो कि धर्म से ज़्यादा पेट की सोचे! इसी बेवक़ूफ़ी में तमाम लोग फँसे हुए हैं। हम मज़दूरों को ऐसी मूर्खतापूर्ण बातों में नहीं फँसना चाहिए और इस बात को समझना चाहिए कि आज देश और दुनिया में दो ही जमातें हैं: अमीर और ग़रीब। अगर धर्म को बचाने की इतनी ही परवाह है भाजपा और संघ परिवार के दंगाइयों को तो वे सो जायें ख़ाली पेट! वैसे भी वे कुछ बनाते या पैदा करते तो हैं नहीं, तो उन्हें कुछ मिलना भी नहीं चाहिए। लेकिन हम मज़दूर-मेहनतकश भूखे पेट क्यों सोयें धर्म के उन्माद में? हम क्यों अपने ही भाइयों का ख़ून बहायें इन संघी दंगाइयों के फ़रेब में फँसकर?
क्या यह सोचने की बात नहीं है कि भूखे रहने की भी ज़िम्मेदारी हमारी और धर्म रक्षा की भी ज़िम्मेदारी हमारी! आलीशान मकानों में रहने वाले पूँजीपति, कारख़ानों में आपका शोषण करने वाले मालिक, उनके बच्चे तो सड़कों पर भगवा झण्डा लिये धर्म की रक्षा में नहीं निकलते? अमित शाह के बेटे का व्यापार दिन दुनी रात चौगुनी तरक़्क़ी कर रहा है। साथ ही वह आईसीसी का अध्यक्ष भी है। किसी भी नेता या मंत्री के बारे में पता करें वे स्वयं और उनके बच्चे ऊँचे-ऊँचे मकानों में रहते हैं। विदेशों की यात्राएँ करते हैं और अय्याशी-भरा जीवन जीते हैं। अपने को प्रधान सेवक कहने वाले नरेन्द्र मोदी जी करोड़ों की गाड़ियों में घूमते हैं। उनका अपना निजी जेट है और अब रहने के लिए 13,450 करोड़ का सेण्ट्रल विस्टा बनने जा रहा है। इन सबको भी देखते हुए अगर हम मूर्ख बनते रहेंगे तो अपने ही भाइयों के ख़ून से अपने हाथ रंगते रहेंगे। हमारी एकता टूटती रहेगी और फूट डालो राज करो की नीति को लागू करते हुए पूँजीपति वर्ग और उनके नेता मंत्री हमारा शोषण करते रहेंगे, महँगाई से हमें बेहाल करते रहेंगे और दंगों में हमारे घर जलवाते रहेंगे।
इनकी एक दूरगामी योजना देश की पूरी शिक्षा के पाठ्यक्रम से जुड़ती है। नवउदारीकरण के दौर में जिस तरह राज्य की सभी ज़िम्मेदारियों को निजी हाथों में खुले तौर पर सौंपा जा रहा है उनमें सबसे प्रमुख है शिक्षा का बाज़ारीकरण। नयी शिक्षा नीति के तहत सभी उच्च शिक्षा के संस्थानों को निजी हाथों में सौंपने की योजना है। बाज़ार में शिक्षा फिर हर किसी की जेब के अनुसार मिलेगी। अच्छी शिक्षा के लिए मोटी रक़म और कम पैसों में भगवा शिक्षा ही मिलेगी। मतलब जितने भी सरकारी स्कूल होंगे उनमें दीनानाथ बत्रा की पाठ्य पुस्तकें पढ़ाई जायेंगी और अच्छे महँगे स्कूलों में बढ़िया पढ़ाई ताकि ग़रीबों के बच्चे संघ के दंगाई बने और अमीरों के बच्चे इंजीनियर, डॉक्टर, वैज्ञानिक, नेता, व्यापारी, अधिकारी। हालाँकि महँगे स्कूलों और विश्वविद्यालयों में भी भगवा शिक्षा का परिष्कृत रूप मौजूद होगा ताकि इन संस्थानों में भी संघ और भाजपा के प्रति वफ़ादारी बनी रहे।
हाल ही में इतिहास और विज्ञान की पाठ्य पुस्तकों में बढ़ते भगवाकरण यानी मनगढ़न्त इतिहास और अवैज्ञानिक दावों पर सवाल उठाने पर देश के उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने बयान दिया कि देश की शिक्षा के भगवाकरण में हर्ज़ ही क्या है? कहा कि ‘भगवाकरण’ का अर्थ ‘भारतीयकरण’ है और यह मैकॉले की शिक्षा नीति का विरोध है।
पहली बात ‘भगवाकरण’ और ‘भारतीयकरण’ एक दूसरे के पूरक नहीं हैं। भगवाकरण का अर्थ है हिन्दुत्व की साम्प्रदायिक विचारधारा को अपनाना, जिसका मक़सद हिन्दुओं का भला करना नहीं है। नाम से धोखा न खाइए। ग़रीब हिन्दुओं की भी यह विचारधारा उतनी ही दुश्मन है। इसका मक़सद है ग़रीबों को बाँटकर रखना ताकि पूँजीपतियों के हितों की सेवा की जा सके। देश का फ़ासीवादी संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ इस फ़ासीवादी विचारधारा को 1925 से देश में लागू करने का प्रयास कर रहा है। इस पूरी विचारधारा पर यहाँ लिखा नहीं जा सकता बस संक्षेप में यह कह सकते हैं कि यह मज़दूर-विरोधी, मुसलमान-विरोधी, स्त्री-विरोधी, दलित-विरोधी, अल्पसंख्यक-विरोधी, दमित राष्ट्र व राष्ट्रीयता विरोधी विचारधारा है। यह एक ऐसे हिन्दू राष्ट्र के निमार्ण की बात करती है जहाँ मज़दूर (हिन्दू मज़दूरों समेत), मुसलमान, स्त्री, दलित, अल्पसंख्यक सब अनुशासन में रहेंगे। आज इनके अनुशासन में नहीं होने की वजह से देश की सारी परेशानियाँ हैं! इतिहास में एक ऐसे राष्ट्र की छवि प्रस्तुत की जाती है जब सभी समाज में अपनी-अपनी जगह काम करते थे और बिना सवाल किये ख़ुश रहते थे! यह ‘ख़ुशहाल हिन्दू राष्ट्र’ नष्ट हो गया क्योंकि मज़दूरों, मुसलमानों, स्त्रियों, दलितों, अल्पसंख्यकों आदि को अधिकार मिलने लगे और उन्होंने पूरे समाज का तालमेल बिगाड़ दिया। इसलिए हिन्दुत्व की विचारधारा इस तालमेल को फिर से बहाल करना चाहती है! यह इन सबों को इनकी असली जगह पर लाना चाहती है। इन्हें ही काल्पनिक शत्रु की तरह पेश किया जाता है जिन्होंने हिन्दू राष्ट्र को नष्ट कर दिया था! सबसे बड़े दुश्मन के तौर पर मुसलमानों को प्रस्तुत किया जाता है। इस सोच के इर्द-गिर्द तमाम झूठे इतिहास, पूर्वाग्रहों और सफे़द झूठ की धुँध फैलायी जाती है। सूचना तंत्र पर आज इनका पूर्ण नियंत्रण है उसके माध्यम से यह काम बेहद आसान हो गया है। मोबाइल फ़ोन, टीवी चैनलों, अख़बार, पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से विद्यालयों, विश्वविद्यालयों, सरकारी संस्थानों, कारख़ानों, ग़रीब बस्तियों, और दफ़्तरों में ऐसे सफ़ेद झूठ और तथ्यविहीन इतिहास फैलाये जा रहे हैं। इसे ही उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ‘भारतीयकरण’ का नाम दे रहे हैं। तर्क, इतिहास और विज्ञानविहीन कट्टरपन्थी विचारधारा किसी भी रूप में भारतीय नहीं है। यह विचारधारा जिसकी स्वयं की पैदाइश जर्मनी और इटली के फ़ासीवाद से हुई है वह भारतीयकरण का दावा कर रहे हैं! जर्मनी और इटली की तरह ही बड़ी इजारेदार पूँजी की सेवा करने वाली यह विचारधारा मज़दूर, अल्पसंख्यक, स्त्री विरोधी है। इसका भारतीय इतिहास और भारतीय संस्कृति से कोई लेना-देना नहीं है। इतिहास में इनकी जगह ग़द्दारों की है। पहले आज़ादी के संघर्ष से ग़द्दारी की, क्रान्तिकारियों की मुख़बिरी की और आज पूँजी की चाकरी करने के लिए आम-मज़दूर मेहनतकश आबादी के साथ दुश्मनी निभा रहे हैं। अपनी साम्प्रदायिक राजनीति के तहत दंगों की हिंसा में ग़रीब-मेहनतकश मज़दूर आबादी की आहूति देते हैं।
रही बात मैकॉले की शिक्षा नीति की तो आज़ादी के बाद देश के बुर्जुआ शासकों ने निश्चित ही अंग्रेज़ियत को बनाये रखा। देश के तमाम शिक्षा के उच्च संस्थानों में अंग्रेज़ी का बोल-बाला बना रहा। यह भी सच है कि इसके कारण भारतीय जनमानस में अंग्रेज़ियत की और औपनिवेशिक मानसिकता का प्रभाव आज तक मौजूद है। लेकिन संघ परिवार के ग़द्दार ख़ुद ही मैकॉले और उपनिवेशवादियों की गोद में बैठे थे, वे किस मुँह से इसका विरोध करेंगे? अंग्रेज़ों की चाटुकारिता करने वाला संघ आज मैकॉले को क़ब्र से खोदकर इसलिए ला रहा है कि इसके नाम पर वह तर्क और शोध आधारित इतिहास को और विज्ञान को ख़ारिज कर सके और देश की जनता को कूपमण्डूक बना सके क्योंकि इसके बिना उन्मादी फ़ासीवादी भीड़ पैदा कर पाना नामुमकिन है। जर्मनी और इटली में भी किताबों की होली जलायी जाती थी। अगर हम इनकी साज़िश नहीं समझ पायेंगे तो भारत में भी सड़कों पर ऐसी होलियाँ जलायी जायेंगी और उनमें तर्क और इतिहास धू-धू करके जलते रहेंगे।
अगर उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू पूछते हैं कि शिक्षा के भगवाकरण में हर्ज़ ही क्या है तो इसका जवाब होगा कि ऐसे भगवाकरण से गली-गली में संघ के लम्पट पैदा होंगे जिनका रिमोट कण्ट्रोल बीजेपी और संघ के नेताओं के हाथ में होगा। जैसे ही ग़रीबी, भुखमरी, बेरोज़गारी, महँगाई और बीमारी से त्रस्त जनता सड़कों पर उतरेगी तो उन्हें सबक़ सिखाने, उनके बीच फूट डालने और उनकी एकता को बाँटने के लिए भगवा शिक्षा से पैदा रोबोट काम में लाये जायेंगे।
आज सवाल पूछा जाना चाहिए कि फ़ैक्टरियों और कारख़ानों में बारह से अठारह घण्टे काम करने के बाद भी देश की आम मेहनतकश जनता की प्रगति क्यों नहीं हो रही है? वहीं देश के पूँजीपति हर रोज़ अमीर कैसे होते जा रहे हैं? देश के पढ़े-लिखे नौजवान सड़कों पर हैं और बच्चों की बड़ी आबादी अनपढ़ है। क्या देश को स्कूल-कॉलेजों की ज़रूरत नहीं है? क्या इन जगहों पर देश के पढ़े-लिखे नौजवानों को नौकरी नहीं मिल सकती? क्या देश में अस्पतालों और डॉक्टरों की ज़रूरत नहीं है? तो फिर क्यों नये मेडिकल कॉलेज नहीं खोले जा रहे हैं? क्या देश को आवास, पुल, सड़क आदि की आवश्यकता नहीं हैं? क्या देश को आज लाखों-लाख इंजीनियरों की आवश्यकता नहीं है? तो फिर सड़कों पर क्यों इंजीनियर बिना रोज़गार भटक रहे हैं? शिक्षा का भगवाकरण नहीं बल्कि सबको शिक्षा और सबको रोज़गार और वैज्ञानिक व तर्कसंगत शिक्षा का नारा बुलन्द किया जाना चाहिए। शिक्षा को पूरी तरह धर्म से अलग करने का नारा बुलन्द किया जाना चाहिए।
अगर हम इन सवालों को पूछेंगे तो समझ पायेंगे कि क्यों उपराष्ट्रपति को शिक्षा के भगवाकरण से कोई आपत्ति नहीं है। शिक्षा का भगवाकरण उनके लिए पागल उन्मादियों की सेना पैदा करेगा जिसकी ज़रूरत आने वाले दिनों में पूँजी के गहराते संकट के साथ बढ़ने जा रही है।
मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2022
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