हथियारों का जनद्रोही कारोबार और राफ़ेल विमान घोटाला
अमित
लॉकहीड मार्टिन, बोईंग, रेथीओन, बीएई सिस्टम, नार्थरोप ग्रुमैन। हो सकता है कि आपमें से बहुत से लोगों ने ये नाम पहले कभी न सुने हों। ये नाम आज के समय में दुनिया की 5 सबसे बड़ी हथियार बनाने वाली कम्पनियों के हैं। इन 5 में से 4 कम्पनियाँ अमेरिका की हैं। इनमें से बीएई सिस्टम एक ब्रिटिश कम्पनी है। दुनिया भर में लगातार फैलते हुए हथियारों के बाज़ार का 60% हिस्सा अमेरिकी कम्पनियों के क़ब्ज़े में है। अभी हाल ही में भारत की फ़्रांस के साथ राफ़ेल विमानों की ख़रीद को लेकर बहुत हो-हल्ला मचा। जो कम्पनी राफ़ेल विमान बनाती है, उसका नाम है – दसॉल्ट एविएशन। रक्षा सौदों को लेकर पहले भी बहुत से मामले उठाये जाते रहे हैं। आगस्टा वेस्टलैण्ड का मामला अभी भी बहुत पुराना नहीं हुआ है। आज़ादी आने के बाद से ही कभी जीप घोटाले से लेकर बोफ़ोर्स घोटाले तक… अगर गिना जाये तो देशहित में किये गये इन घोटालों की एक लम्बी फ़ेहरिस्त है। ‘राष्ट्रवादी’ भाजपा ने भी पिछली बार सत्ता में आने पर ही ताबूत घोटाला करके अपने देशभक्त होने का सबूत पेश कर दिया था। ऐसे में राफ़ेल विमान की ख़रीद में घोटाले का मामला कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
लेकिन सबसे पहले यह समझना ज़रूरी है कि राफ़ेल के बाद मचे इस शोर-शराबे के पीछे की कहानी क्या है? यूपीए सरकार के समय में फ़्रांसीसी कम्पनी दसाल्ट ने सबसे कम क़ीमत की बोली लगाकर यूरोफ़ाइटर को हराकर भारत को लड़ाकू विमान सप्लाई करने का अधिकार हासिल किया था। 2012 से ही विमान के ख़रीद की प्रक्रिया की शुरुआत कर दी गयी थी। उस दौरान भारत सरकार और दसाल्ट एविएशन के बीच यह समझौता हुआ था कि 530 करोड़ रुपये प्रति विमान की दर से भारत सरकार दसाल्ट से 18 लड़ाकू विमान ख़रीदेगी और 108 विमानों को भारत सरकार की कम्पनी हिन्दुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड तकनीक प्राप्त करके बनायेगी। बाद में फ़्रांस दौरे पर नरेन्द्र मोदी ने इस डील को रद्द करने की घोषणा की और लगभग 1600 करोड़ रुपये प्रति विमान की दर से दसाल्ट एविएशन से 36 विमान ख़रीदने का फ़ैसला लिया। बिज़नेस स्टैण्डर्ड ने यह अनुमान लगाया है कि तत्कालीन रक्षा मन्त्री मनोहर पर्रीकर के बयान से यह ज़ाहिर हो रहा है कि यह फ़ैसला लेने में उचित कमेटियों से राय नहीं ली गयी। लेकिन सोचने की बात है कि जब इस पूँजीवादी मशीनरी का हर हिस्सा मेहनतकश वर्ग के हितों के ख़िलाफ़ जाकर पूँजीपतियों की तिजोरी भरने के ही काम आता है, तो इस व्यवस्था की सेवा करने वाली इस या उस कमेटी से सलाह ले लेने से भी बस यह होता कि लूट को एक क़ानूनी जामा पहना दिया जाता। पिछली डील को रद्द करने के बाद जब नये सिरे से विमान ख़रीद की सौदेबाज़ी शुरू हुई तो इसमें और अन्य कम्पनियों को आमन्त्रित करके कम क़ीमत पर बेहतर विमान ख़रीदने की बजाय सिर्फ़ दसाल्ट के साथ ही सौदेबाज़ी कर ली गयी। इतना ही नहीं, भारत सरकार की कम्पनी हिन्दुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड इस नयी डील से ग़ायब हो चुकी है। जबकि इस डील के पीछे का एक मक़सद हिन्दुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड को तकनीक हस्तान्तरित करके इस क्षेत्र में आत्म निर्भर बनना भी था।
इस फ़ैसले के पीछे मोदी सरकार का यह तर्क है कि विमानों को अपग्रेड किया गया है। लेकिन असल बात कुछ और ही है। दरअसल पिछली डील रद्द करने के दो हफ़्ते बाद ही दसाल्ट एविएशन और रिलायंस के बीच का एक जॉइंट वेंचर बना लिया गया जो डील करने वाली मुख्य कम्पनी है। इसके बाद दसाल्ट एविएशन ने हिन्दुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड द्वारा बनाये जाने वाले 108 विमानों की गारण्टी लेने से भी इनकार कर दिया। केन्द्र में बैठी भाजपा सरकार गोपनीयता का हवाला देकर इस पूरे मसले को देशहित से जोड़ रही है। समझा जा सकता है कि अपने आकाओं के हित साधने का काम किया जा रहा है और नाम दिया जा रहा है देशहित का। वास्तव में पूँजीवादी व्यवस्था में चुनावी पार्टियाँ जब भी देशहित की बात करें, तो सही मायने में वह अम्बानी, अडानी जैसे लोगों के हितों की ही बात कर रही होती हैं।
स्टाकहोम इण्टरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टिट्यूट नाम की एक संस्था के अध्ययन के मुताबिक़ आज भारत दुनिया में हथियारों का सबसे बड़ा ख़रीदार देश है। दुनिया के सबसे ज़्यादा सैन्य ख़र्च वाले देशों में भारत का स्थान पाँचवाँ है। जबकि शिक्षा पर ख़र्च के मामले में यह बांग्लादेश और नेपाल जैसे देशों से टक्कर ले रहा है। इस बार के बजट में भी पिछली बार की तरह कुल बजट का 12% हिस्सा देश की रक्षा के लिए कुर्बान किया गया है। दूसरी ओर शिक्षा के बजट को कुल बजट के 3.7% से घटाकर 3.5% कर दिया गया। आज दुनिया में हथियारों का कुल बाज़ार 375 बिलियन डॉलर का पहुँच गया है, जो कि दक्षिण अफ़्रीका जैसे देश की कुल जीडीपी से भी ज़्यादा है। दुनिया भर में सेनाओं पर एक दिन होने वाला ख़र्च लगभग 1600 बिलियन डॉलर है, जो कि भारत द्वारा एक साल में शिक्षा और चिकित्सा पर किये जाने वाले कुल ख़र्च का लगभग 75 गुना है। संयुक्त राष्ट्र के एक अनुमान के मुताबिक़ 30 बिलियन डॉलर के निवेश से दुनिया से भुखमरी का ख़ात्मा किया जा सकता है। दुनिया में इस समय लगभग 1 अरब लोग प्रतिदिन भूखे सोते हैं, जबकि भारत में यह आँकड़ा लगभग 20 करोड़ है।
अपने इस कुकृत्य को जायज़ ठहराने के लिए ही आम जनता के दिलों में देशभक्ति की आग जलाये रखने की कोशिश में कभी चीन तो कभी पाकिस्तान का भय दिखाया जाता है। वास्तव में देश की सुरक्षा के पीछे मुट्ठी भर मुनाफ़ाखोरों के हितों की सुरक्षा छिपी होती है।
आँकड़े बता रहे हैं आर्थिक संकट के इस भयंकर दौर में भी दुनिया भर में हथियार उद्योग में 2002 से 2016 के बीच 87% की वृद्धि हुई है। विश्व शान्ति और सुरक्षा के नाम पर स्थापित किये गये संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य दुनिया के सबसे ज़्यादा सैन्य ख़र्च वाले देशों में शामिल हैं। पूरी दुनिया की शान्ति और सुरक्षा को स्थापित करने की ज़िम्मेदारी ये किस तरह निभाते हैं, उससे हम सभी अच्छी तरह वाकिफ़ हैं। वास्तव में आज विश्वव्यापी आर्थिक संकट ने विश्व पूँजीवाद की कमर तोड़कर रख दी है। ऐसे समय में अर्थव्यवस्था को धक्का देकर कुछ और आगे खिसका देने का सबसे आज़माया तरीक़ा है – युद्ध के ज़रिये हथियारों की बिक्री। राफ़ेल विमानों के सौदे से पहले दसाल्ट एविएशन की हालत भी बहुत ख़राब थी। आर्थिक संकट से निज़ात पाने के लिए आज विश्व की एक बड़ी आबादी को युद्ध की त्रासदी झेलने के लिए धकेल दिया गया है। साम्राज्यवादी ताक़तों ने पूरे मध्य पूर्व को अपना चारागाह बना रखा है, जहाँ से वह एक तरफ़ तेल निचोड़ लेती है, तो दूसरी ओर युद्ध में झोंककर हथियार की बिक्री से अपने चक्के को कुछ देर के लिए और गतिशील कर देती है। इसके सबूत विभिन्न संस्थाओं द्वारा पेश किये गये ताज़ा आँकड़े हैं जो यह बता रहे हैं कि पिछले पाँच सालों में हथियारों का व्यापार शीतयुद्ध के बाद से सर्वाधिक है। इस माँग की सबसे बड़ी वज़ह पश्चिम एशिया और एशिया के देशों में हथियार की माँग का बढ़ना है। अकेले सऊदी अरब के हथियार की ख़रीद में पिछले 5 वर्षों में 212% की वृद्धि हो गयी, जो कि सैन्य ख़र्च के मामले में भारत से ऊपर चौथे स्थान पर है। विश्व शान्ति के ठेकेदार और लोकतन्त्र के सबसे बड़े चौधरी अमेरिका द्वारा ख़तरनाक हथियार रखने का आरोप लगाकर दूसरे देशों पर हमला कर देना, जगह-जगह सीमा विवाद भड़काकर, आतंकवाद का नाम लेकर युद्ध की आग लगाने जैसे काम आम हैं। संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद के यही स्थायी सदस्य दुनिया में सबसे ज़्यादा परमाणु हथियार रखने वाले देश भी हैं। दुनिया के कुल परमाणु हथियारों का 93% केवल दो देशों अमेरिका और रूस के पास है।
ऐसे समय में एक बात तो तय है कि यह स्थिति ऐसे ही नहीं बनी रहेगी और आने वाले समय में दो ही विकल्प बचेंगे। साम्राज्यवादी दुनिया हथियारों की अन्धी होड़ में या तो पूरी इंसानियत को विनाश के गड्ढे में धकेल जाने दिया जाये या फिर लूट और शोषण पर टिकी इस व्यवस्था को जड़ से उखाड़ फेंकने और एक समाजवादी समाज के निर्माण के लिए लड़ाई लड़ी जाये।
मज़दूर बिगुल, फ़रवरी 2018
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन