भारतीय रेल : वर्ग-समाज का चलता-फिरता आर्इना

शिशिर गुप्ता

अंग्रेज़़ों ने औपनिवेशिक भारत में 1853 में पहली बार अपनी सेना के आवागमन के लिए रेलवे की शुरुआत की थी और कालान्तर में इसका प्रयोग अपने वाणिज्यिक हितों को साधने के लिए भी किया था। और स्वाभाविक ही अपनी साम्राज्यवादी कारगुज़ारियों पर पर्दे डालने के लिए आम जनता के यातायात के लिए भी इसका प्रयोग करने दिया गया था। और उसी समय से आम भारतीयों के लिए अलग कि़स्म के डि‍ब्बे और अंग्रेज़ों और उनके तलवे चाटने वाले भारतीय राजे-रजवाड़ों और ज़मींदारों के लिए अलग तरह के डिब्बे थे। फिर 1947 आया और देश आज़ाद हुआ। देश की आम मेहनतकश जनता में अपने सुनहरे भविष्य को लेकर एक उम्मीद जगी। नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस सत्ता में आयी और रेलवे का राष्ट्रीयकरण कर दिया और कोयला, स्टील जैसे तमाम भारी उद्योग जनता के ख़ून-पसीने के दम पर खड़े किये गये। मगर तब से अब तक बीते 70 सालों के रिकॉर्ड को देखकर कोई भी सयाना इन्सान शायद इस मुगालते में तो नहीं होगा कि कीन्सियाई नुस्खों को अपनाकर तथाकथित ‘नेहरूवादी समाजवाद’ के नाम पर कांग्रेसियों ने देश की जनता को जमकर चूना लगाया है। वैसे तो धीरे-धीरे सारी सरकारी कम्पनियाँ प्राइवेट हाथों में बेची जा रही हैं, मगर रेलवे में अभी तक इसकी बस गुपचुप तरीक़े से शुरुआत भर की गयी है। तो इससे पहले रेलवे का भी पूरी तरह निजीकरण हो जाये, आइए समझने की कोशिश करते हैं कि राज्य संचालित रेलवे होने से क्या आम मेहनतकश आबादी को कोई ख़ास फ़ायदा पहुँच रहा है क्या? यानी इसे बचे-खुचे ‘समाजवाद’ को भी थोड़ा टटोलकर देख ही लेते हैं।

समाजवाद का जो मतलब हम समझते हैं, उसमें तो समाजवादी निज़ाम यथासम्भव तेज़ी से समाज में मौजूद वर्गों के विभिन्न संस्तरों के ख़ात्मे की तरफ़ बढ़ती है और इसके लिए उत्पादन व्यवस्था से लेकर सांस्कृतिक क्षेत्र में मौजूद वर्ग-समाज की अभिव्यक्तियों के ख़िलाफ़ कड़े से कड़े फ़ैसले लागू करती है। पर भारतीय रेल में भी क्या ऐसी कोई कोशिश की गयी है? हममें से लगभग हर किसी ने रेल यात्रा तो की ही है और उसके स्वरुप से भी भलीभाँति परिचित हैं। तो आपने कभी क्या सोचा है कि आज़ादी के 70 सालों बाद आज भी रेल में जनरल, शयनयान (स्लीपर) और वातानुकूलित (एयरकण्डिशण्ड) डिब्बों का वर्गीकरण क्यों मौजूद हैं? अभी भी भारत की बहुसंख्यक जनसंख्या ट्रेनों के जनरल डिब्बों में भेड़-बकरियों की तरह चलने के लिए क्यों मजबूर है? ट्रेन के सभी डिब्बों को वातानुकूलित क्यों नहीं किया जाता, जिससे समाज का आम आदमी भी आराम से यात्रा कर सके?

आँकड़ों की जुबानी

क्या आप जानते हैं कि वित्तीय वर्ष 2013-2014 में पूरे वर्ष के दौरान ट्रेन में सफ़र करने वाले यात्रियों की कुल संख्या 8.4 अरब थी और इनमें 7.7 अरब लोगों ने यानी तक़रीबन 92 प्रतिशत लोगों ने ट्रेन के दूसरे दर्जे (सेकण्ड क्लास) यानी कि जनरल डिब्बों में ही सफ़र किया। शयनयान श्रेणी की हालत भी वैश्विक पैमानों के हिसाब से निहायत ही घटिया है, मगर उनमें भी यात्रा करने वाले कुल यात्रियों की संख्या अरबों में नहीं बल्कि मात्र 58 करोड़ थी।

ये जनरल डिब्बों में भेड़-बकरियों की तरह चलने वाले 92 प्रतिशत लोग कौन हैं? असल में भारत में लगभग 93 प्रतिशत लोगों के यहाँ उनके परिवार के कुल सदस्यों के द्वारा कमाई जाने वाली राशि 10000 रुपये से भी कम है, जबकि हर परिवार में औसतन 5 लोग रहते हैं। ये 93 प्रतिशत लोग छोटे-मँझोले किसान, खेतिहर मज़दूर, रिक्शेवाले, दिहाड़ी पर काम करने वाले शहरी मज़दूर इत्यादि हैं जिनके दम पर आज भारत तथाकथित विकास की राह पर तेज़ी से आगे बढ़ रहा है, जिनके दम पर ट्रेनों के वातानुकूलित डिब्बों के शीशों को चमकाया जा रहा है, मगर जो ख़ुद शौचालय जैसी मूलभूत आवश्यकताओं की निहायत ही घटिया हालतों वाले डिब्बों में चलने के लिए मजबूर हैं। यहाँ तक कि लम्बी दूरी वाली ट्रेनों में तो शौचालय में ही 5 से 7 लोग भरे होते हैं, इस पूरे समाज का अपने ख़ून-पसीने से निर्माण करने वाली मेहनतकश अवाम के आत्मसम्मान पर भला इससे बड़ा आघात और क्या हो सकता है?

आइए अब ये समझने की कोशिश करते हैं कि ऐसा होता क्यों है? इस सवाल का सबसे आसान जवाब है पैसा! जिसके पास जितना पैसा है यानी जिसकी जितनी ‘औक़ात’ है, वो उसी हिसाब से जनरल, शयनयान या वातानुकूलित डिब्बे में चल सकता है। मगर अगला सवाल आता है, कि ऐसा क्यों है कि हममें से किसी की कम और किसी की ज़्यादा ‘औक़ात’ है? इसका जवाब है – पूँजीवाद! हम एक ऐसी अर्थव्यवस्था में रहते हैं जिसमें सूई से लेकर जहाज़ बनाने वाली जनता ख़ुद तो गन्दी बस्तियों में और रेल के गन्दे जनरल डिब्बों में चलने के लिए अभिशप्त है, वहीं दूसरी ओर धनपशु जिनका कुल काम है मज़दूरों को जानवरों की तरह हाँकते रहना, वे अपने आलीशान फ़ार्म हाउस में रहते हैं और पहले दर्जे के वातनुकूलित डिब्बों और हवाई जहाज़ में सफ़र करते हैं। एक ओर तो इन परजीवी धनपशुओं की जमातों और उनके मध्यम और उच्च-मध्यमवर्गीय पिछलग्गुओं के लिए दूरन्तो, शताब्दी और राजधानी जैसी स्पेशल ट्रेनें चलायी जाती हैं जिसमें कोई मज़दूर कभी बैठने के बारे में सोच भी नहीं सकता, दूसरी ओर जनरल डिब्बों में जानवरों की तरह लदकर जाने को बेबस आम लोग।

इसी बीच जब से मोदी सरकार आयी है, उन्होंने बुलेट ट्रेन चलाने की भी बात शुरू की है। इसके अन्तर्गत अहमदाबाद से मुम्बई के बीच 508 किमी लम्बी तेज़-रफ़्तार (संचालन गति 320 किमी प्रति घण्टा) वाली लाइन का निर्माण किया जाना है। जिसकी कुल लागत लगभग 1 लाख करोड़ रुपये होगी और उसमें से 0.1 प्रतिशत की ब्याज दर पर 79000 करोड़ रुपये जापान से लोन लेकर लगाये जायेंगे। इस प्रोजेक्ट के 2023 तक पूरा होने की उम्मीद है। अहमदाबाद से मुम्बई के बीच इस ट्रेन की सम्भावित टिकट दर 3300 रुपये के आसपास बतायी जा रही है। आपमें से कितने लोग 2023 में इस दर पर इस तरह की अत्याधुनिक तकनीक वाली ट्रेन का इस्तेमाल कर पायेंगे? स्पष्ट कर दें कि हम किसी भी क्षेत्र में आधुनिकतम तकनीक के प्रयोग के ख़िलाफ़ नहीं हैं। मगर सवाल करना हमारा मूलभूत हक़ है, इसलिए हम पूछेंगे कि ये बुलेट ट्रेन किसके लिए? ऐसा सम्भव क्यों नहीं है कि देश की मेहनत-मज़दूरी करके पेट पालने वाली आम जनता भी विज्ञान के करिश्मों से रूबरू हो सके? ज्ञान किसी की बपौती नहीं है, यह एक सामूहिक सम्पत्ति है और ऐतिहासिक रूप से इसकी जड़ें मानव श्रम में ही निहित हैं, मगर फिर भी आज के समाज में सर्वाधिक श्रम करने वाला ही सर्वाधिक ज़लालत में जीने को मजबूर है। ज़रा सोचिए, इस पूरी बुलेट ट्रेन की परियोजना को लागू करने में सबसे ज़्यादा हाड़तोड़ मेहनत करने वाले कौन होंगे? मज़दूर! और क्या वे ख़ुद कभी इसका प्रयोग कर पायेंगे? नहीं! सोचिए क्यों?

अभी तक तो हम बात कर रहे थे रेलवे में सफ़र करने वालों की। रेलवे में काम करने वालों के हालात भी कोई बहुत अच्छे नहीं हैं।

रेलवे में ठेके पर काम करने वालों के हालात

इस समय रेलवे में अनुमानित तौर पर 4 लाख से भी ज़्यादा लोग ठेका प्रथा पर काम कर रहे हैं। ठेके का काम मुख्यतः ट्रेनों, प्लेटफ़ॉर्म, रेलवे ट्रैक की सफ़ाई में दिया जाता है। इसके अलावा शयनयान श्रेणी वाले डिब्बों में बिस्तर से सम्बन्धित सामान जैसे चद्दर, कम्बल इत्यादि की सप्लाई, उनकी धुलाई एवं साफ़-सफ़ाई और रखरखाव में भी ज़्यादातर ठेके के मज़दूरों से काम लिया जाता है। इस तरह के काम में कभी-कभी बहुत कम सोने को मिलता है, और यात्रियों और ठेकेदारों द्वारा जो गलियाँ मिलती हैं, वो अलग से। हर यात्रा में सैकड़ों यात्रियों की सेवा में मात्र 4 से 6 अटेण्डेण्ट लगे होते हैं। उसमें भी यदि किसी की विवेक एक्सप्रेस (4236 किमी लम्बा रूट) या किसी और लम्बी दूरी की ट्रेन में ड्यूटी लग जाये, तो शिफ़्ट कई दिन तक चलती है।

ज़्यादातर संविदा कर्मचारी 20 से 30 साल के बीच हैं और इनकी मासिक आमदनी बमुश्किल 4 से 6 हज़ार रुपये तक होती है। ट्रेन में होने पर तो उन्हें खाना मिल जाता है, मगर हाल्ट होने पर उन्हें ख़ुद से इन्तज़ाम करना पड़ता है। यही नहीं, अगर कोई सामान खो जाये तो उसकी क़ीमत भी उन्हें ही चुकानी पड़ती है। एक कम्बल के लिए उन पर 850 रुपये का जुर्माना लगता है, चद्दर या तकिये के खोल के लिए 300 रुपये और चेहरा पोंछने वाली तौलिया के लिए 75 रुपये। इन कर्मचारियों को कोई चिकित्सा भत्ता नहीं मिलता है, और उन्हें कोई स्वास्थ्य बीमा भी नहीं मिलता है। एजेंसियाँ भर्ती के वक़्त मुफ़्त भोजन, मुफ़्त यात्रा और आसान काम का लालच देकर नयी भर्तियाँ कर तो लेती हैं, मगर सच्चाई इससे कोसों दूर होती है। चूँकि यात्री लगभग हर स्टेशन पर चढ़ते हैं, इसलिए अटेण्डेण्ट को पूरी यात्रा में जगना पड़ता है। उनके सोने के लिए कोई अलग से व्यवस्था नहीं होती, इसलिए या तो वे यान्त्रिकी टीम के साथ सोते हैं या शौचालय के पास बनी अलमारियों में ही सो जाते हैं। किसी यात्री के पैसे या सामान खो जाने का इल्ज़ाम भी अटेण्डेण्ट के सर ही आता है।

क्यों करती है सरकार संविदा पर भर्ती?

सातवें वेतन आयोग के द्वारा एकत्रित किये गये आँकड़ों के आधार पर भारत की केन्द्र सरकार ने 2012-2013 में 300 करोड़ रुपये संविदा या अस्थायी कर्मचारियों पर ख़र्च किए थे, जिसमें रेलवे मन्त्रालय का हिस्सा सबसे ज़्यादा था। इसी तरह राज्य सरकारें भी विभिन्न विभागों में धीरे-धीरे ज़्यादा से ज़्यादा काम ठेके पर देना शुरू कर चुकी है। असल में भारत में नव-उदारवादी नीतियों के आगमन के बाद से ये तो देर-सवेर होना ही था। टाटा-बिड़ला-अडानी-अम्बानी जैसे पूँजीपतियों के सैकड़ों-करोड़ों के चन्दे पर पलने वाली पार्टियों ने नेहरूवादी नक़ली समाजवाद के चोले को भी अब पूरी तरह से उतार फेंका है, और नंगे एवं बेशर्म तरीक़े से जनता के ख़ून-पसीने से खड़ी की गयी राज्य द्वारा संचालित कम्पनियों को भी धीरे-धीरे औने-पौने दामों पर प्राइवेट हाथों बेचकर पूँजीपतियों को मज़दूरों का ख़ून चूसने की खुली छूट दी जा रही है। रेलवे में चूँकि कुल 13 लाख़ कर्मचारियों में से 10 लाख़ से ज़्यादा अराजपत्रित यानी कि श्रेणी C या D में आते हैं, और इनमें से ज़्यादातर निजीकरण के विरोध में होंगे, अतः रेलवे को आसानी से प्राइवेट हाथों में बेचना सरकार के लिए आसान नहीं है, इसलिए बाक़ी कई सरकारी विभागों की तरह रेलवे ने अब नयी भर्तियाँ कम से कम करके ज़्यादा से ज़्यादा काम ठेके पर देना शुरू कर दिया है और बड़े ही गुपचुप तरीक़े से धीरे-धीरे रेलवे के निजीकरण की शुरुआत की है।

नव-उदारवाद का तर्क ही यही है कि सरकार का हस्तक्षेप हर क्षेत्र में कम से कम किया जाये और उत्पादन की दुनिया और उसे संचालित करने वाले क़ानूनों को ज़्यादा से ज़्यादा निजी हाथों में दे दिया जाये। इसलिए पब्लिक सेक्टर की कम्पनियों को बेचा जाना या रेलवे और तमाम अन्य विभागों में बड़े पैमाने पर ठेके पर काम दिया जाना कहीं से भी अप्रत्याशित नहीं है। इसलिए आप भी अगर इस मुगालते में हैं कि किसी विभाग के ‘सरकारी’ बने रहने से आम जनता को कोई ख़ास लाभ मिलने वाला है तो हम कहेंगे कि आप जितनी जल्दी इस मुगालते को दूर कर लें, उतना ही अच्छा! पूँजीवादी निज़ामों के अन्दर भी कुछ राज्य संचालित कम्पनियाँ हो सकती हैं, मगर वो समाजवाद नहीं ‘राज्य पूँजीवाद’ होता है।

बहरहाल, आज अपने आस-पास जितनी भी समस्याएँ देख रहे हैं उनमें कुछ भी अप्रत्याशित नहीं है। मज़दूर और मेहनतकश कारख़ानों से लेकर अपनी बस्तियों में पशुवत जीवन जीने को विवश हैं, तब इसमें क्या अचरज की बात है कि उनके साथ रेल विभाग भी जानवरों जैसा बर्ताव करता है। इसलिए साथियो, यदि आप इतना समझ पा रहे हैं कि कैसे मुट्ठी भर धनिकों की अय्याशियों के लिए करोड़ों बहुसंख्यक जनसंख्या खटमल की तरह रोज़ाना पिस रही है और उसके समाधान की दिशा खोज रही है तो वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था को लेकर किसी मुगालते में न रहें, दो-चार राहतें-रियायतें इसी व्यवस्था की चौहद्दी के अन्दर भी यदि कोई आपको दिला सकता है तो वो मेहनतकशों की एक क्रान्तिकारी पार्टी ही कर सकती है। आख़िरी और मुक़म्मल इलाज तो बस एक ही है – मज़दूर क्रान्ति!

मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2017


 

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