सीटू की गद्दारी से आई.ई.डी. के मजदूरों की हड़ताल नाकामयाब : मजदूरों को कानूनी विभ्रमों और विजातीय प्रवृत्तियों से छुटकारा पाना होगा

बिगुल संवाददाता

पिछले अंक में हमने इण्टरनेशनल इलेक्ट्रॉन डिवाइसेज, नोएडा के कारख़ाने में मजदूरों की स्थिति पर रपट में बताया था कि पिछले कुछ वर्षों के दौरान मालिकों और प्रबन्धन के कारण वहाँ करीब 300 मजदूर अपने हाथ की उँगलियाँ कटवाकर अपंग हो चुके हैं। इस कारख़ाने में कम्प्यूटर मॉनीटर और टेलीविजन के पिक्चर टयूब समेत कई इलेक्ट्रॉनिक उपकरण बनाने का काम होता है। हमने यह भी बताया था कि किस प्रकार दुर्घटना के शिकार इन मजदूरों को कम्पनी के मालिकान मशीनमैन से हेल्पर बना देते हैं और उन्हें कोई मुआवजा नहीं दिया जाता है। बीती दीपावली के दौरान इस कारख़ाने के मजदूरों ने हड़ताल की थी और कारख़ाने पर कब्जा कर लिया था। सीटू के नेतृत्व ने इस आन्दोलन को अपनी ग़द्दारी के चलते असफल बना दिया था। सीटू के नेतृत्व ने मजदूरों को मुआवजे के लिए संघर्ष करने के लिए प्रेरित करने की बजाय उनके दिमाग़ में यह बात बिठा दी थी कि मालिक उँगलियाँ कटने के बाद भी काम से निकालने की बजाय हेल्पर बनाकर मजदूरों पर अहसान करता है। जब मजदूरों ने दीपावली के दौरान संघर्ष किया तो मालिकों ने छह मजदूरों के ऊपर कानूनी कार्रवाई का नाटक करते हुए उन्हें निलम्बित कर दिया। वास्तव में, इन मजदूरों पर कोई एफ.आई.आर. दर्ज नहीं की गयी थी। लेकिन सीटू के नेतृत्व ने इस बारे में मजदूरों को अंधेरे में रखा और उनको यह बताया कि फिलहाल कारख़ाने पर कब्जा छोड़ दिया जाये और हड़ताल वापस ले ली जाये, वरना उन मजदूरों पर कानूनी कार्रवाई भी हो सकती है। मजदूर हड़ताल वापस लेने को तैयार नहीं थे, लेकिन सीटू ने बन्द दरवाजे के पीछे मालिकों से समझौता करके हड़ताल को तोड़ दिया। नतीजा यह हुआ कि वे छह मजदूर भी काम पर वापस नहीं लिए गये और मजदूरों की वेतन बढ़ाने, बोनस देने आदि की माँगों को भी मालिकों ने नहीं माना। लेकिन सीटू के विश्वासघात की यह महज शुरुआत थी। इसके बाद के घटनाक्रम पर निगाह डालते ही सीटू का मजदूर-विरोधी चरित्र उभरकर सामने आ जाता है।

मजदूरों की बिगुल मजदूर दस्ता कार्यकर्ताओं के साथ बैठक

नवम्बर माह के अन्त में आई.ई.डी. के कुछ मजदूरों का सम्पर्क मजदूर मुद्दों पर डाक्युमेण्ट्री फिल्म बना रहे एक फिल्मकार के जरिये ‘मजदूर बिगुल’ के साथियों से हुआ। इसके तुरन्त बाद करीब 50 मजदूरों की एक टोली के साथ ‘मजदूर बिगुल’ के साथियों की बैठक हुई। इस बैठक में ‘मजदूर बिगुल’ के साथियों ने मजदूरों के समक्ष पिछली असफल हड़ताल की समीक्षा और समाहार रखा और आगे की रणनीति पर चर्चा की। इस बात पर मजदूर सहमत थे कि दीपावली के दौरान हुई हड़ताल में सीटू की बात मानकर कारख़ाने का कब्जा छोड़ने का निर्णय ग़लत था। अगर कब्जा जारी रहता तो छह निकाले गये मजदूरों को भी वापस रखा जा सकता था और मजदूरों की प्रमुख माँगों को भी मान लिया जाता। लेकिन सीटू द्वारा चोर दरवाजे से समझौता कर लिये जाने के कारण हड़ताल टूट गयी और मजदूरों का मनोबल गिर गया। इसके अलावा, मजदूर अभी वे मुद्दे भी नहीं उठा रहे थे जो उन्हें सबसे पहले उठाने चाहिए थे। इसका कारण भी सीटू की सोची-समझी साजिश थी। ‘मजदूर बिगुल’ के साथियों ने अपनी राय रखते हुए कहा कि इस संघर्ष में वेतन बढ़ोत्तरी के साथ-साथ सबसे बड़ा मुद्दा था विकलांग हुए मजदूरों के लिए मुआवजा और आगे ऐसी दुर्घटनाएँ न हों इसके लिए सुरक्षित काम की स्थितियों की माँग। यानी, मशीनों में सुरक्षा उपकरण (सेंसर) लगवाने की माँग। लेकिन सीटू ने यह माँग उठाना भी जरूरी नहीं समझा। किसी कारख़ाने में 300 मजदूरों की उँगलियाँ कट जायें और इसके बावजूद यूनियन काम की सुरक्षित स्थितियों और मुआवजे की माँग न करे, यह आश्चर्यजनक था। लेकिन सीटू की मालिकों से साँठ-गाँठ के चलते यह माँग ही कभी नहीं उठायी गयी।

इस बैठक में सभी मजदूरों ने ‘मजदूर बिगुल’ के साथियों की राय के साथ सहमति जतायी। इस बैठक में ही यह भी तय किया गया कि जल्द ही फिर से हड़ताल की शुरुआत की जायेगी और उसी प्रकार कारख़ाने पर कब्जा किया जायेगा। चूँकि कारख़ाने की यूनियन सीटू से सम्बध्द थी, इसलिए सबसे पहले सीटू के नेतृत्व पर इस बात के लिए दबाव डाला जायेगा कि वह इस संघर्ष में मुआवजे और कार्य-स्थितियों की माँग पर जोर दे और वेतन और बोनस के मुद्दों को उसके साथ उठाया जाये। मजदूरों ने कहा कि इस संघर्ष की शुरुआत होते ही ‘मजदूर बिगुल’ के साथियों को सूचित किया जायेगा और बुलाया जायेगा।

फिर से संघर्ष की शुरुआत और उसकी पृष्ठभूमि

18 दिसम्बर को आई.ई.डी. कारख़ाने के मजदूरों के नेताओं का ‘मजदूर बिगुल’ के साथियों के पास फोन आया और उन्हें कारख़ाने में मजदूरों के साथ बैठक करने के लिए आमन्त्रिात किया गया। उन्हें बताया गया कि मालिकों के साथ अन्तरविरोध काफी बढ़ चुका है और अब मजदूर आर-पार की लड़ाई लड़ने का मन बना चुके हैं। आई.ई.डी. के मजदूर उस समय बहुजन समाज पार्टी के स्थानीय नेता गजराज से मिलकर मध्‍यस्थता करवाने की बात सोच रहे थे। लेकिन ‘बिगुल मजदूर दस्ता’ की राय थी कि किसी भी चुनावी पार्टी के नेता को संघर्ष में शामिल करने से संघर्ष कमजोर पड़ेगा क्योंकि ये चुनावी नेता हमेशा मजदूरों का इस्तेमाल करते हैं और अन्त में मालिकों के हाथों बिककर मजदूरों के संघर्ष को तोड़ देते हैं। वास्तव में इनकी भूमिका हड़ताल तोड़ने वालों की होती है। पहले भी बादाम मजदूरों की पहली हड़ताल में बहुजन समाज पार्टी के एक छुटभैये नेता धर्मेन्द्र भैया ने यही काम किया था। इस पर आई.ई.डी. के मजदूर गजराज से न मिलने को सहमत हो गये। 25 दिसम्बर को आई.ई.डी. के मजदूरों ने मजदूर बिगुल के साथियों से बैठक तय की जिसमें आगे की रणनीति बनानी थी।

इस बीच सीटू के नेता वेतन बढ़ोत्तरी आदि की माँग को लेकर नोएडा के सी.ओ. से मिले थे। यह वार्ता असफल हो गयी थी और सीटू के नेतृत्व ने हड़ताल का नोटिस दिया। लेकिन ताज्जुब की बात यह थी कि सिर्फ तीन दिन (4, 5, 6 जनवरी) की हड़ताल का नोटिस दिया गया था। यह नहीं तय किया गया था कि अगर तीन दिनों की हड़ताल में कोई फैसला नहीं होता है तो मजदूर क्या करेंगे? क्या वे वापस काम पर जायेंगे? या हड़ताल जारी रखेंगे? साफ था कि सीटू मालिकों के साथ मिलकर पहले ही सौदा कर चुकी थी। इस सौदे के मुताबिक तीन दिन की हड़ताल के बाद मालिक कुछेक माँगों पर मानता, जिनका वास्तव में कोई मतलब नहीं होता। इस दुअन्नी को जीतकर सीटू हड़ताल वापस ले लेती। कहने के लिए सीटू की वाहवाही हो जाती कि उसकी हड़ताल के चलते मजदूरों को दुअन्नी ही सही, लेकिन कुछ तो मिला। कारख़ाने की यूनियन के नेतृत्व में कुछ नेता सचेतन तौर पर सीटू का साथ देते हैं और अन्दर से वे भी उतने ही समझौता-परस्त हो चुके हैं। इन नेताओं के चलते ही जब भी कारख़ाने के मजदूर कोई संघर्ष शुरू करते हैं तो सीटू उसमें घुसपैठ कर लेता है और फिर अपनी समझौता-परस्ती और ग़द्दारी से उस संघर्ष को तोड़ देता है।

22 दिसम्बर को ‘मजदूर बिगुल’ के साथियों की आई.ई.डी. कारख़ाने के मजदूरों से फिर से बात हुई तो उन्होंने बताया कि फिलहाल सीटू लड़ने के लिए तैयार हो गयी है और 27 से 31 दिसम्बर तक कारख़ाने के सामने धरना रखा गया है। ‘मजदूर बिगुल’ के साथियों को धरने में शामिल होने के लिए बुलाया गया। सीटू ने मजदूरों को बताया था कि यह धरना मालिकों को चेतावनी देने के लिए रखा गया है। अगर धरने के दौरान कोई वार्ता होती है और मालिकान कुछ माँगें मानते हैं तो फिर हड़ताल करने की आवश्यकता नहीं होगी। लेकिन हड़ताल का नोटिस काफी पहले देकर और इस धरने के दौरान मालिक को पूरी मोहलत देकर सीटू ने इस बात की पृष्ठभूमि तैयार कर दी थी कि मालिक हड़ताल के पहले ही अपने उत्पादन को बढ़ाकर अपने आपको हड़ताल झेलने के लिए तैयार कर ले। खैर, 27तारीख़ को धरना शुरू हुआ और ‘मजदूर बिगुल’ के साथी धरने पर पहुँच गये।

27 से 31 दिसम्बर तक का धरना

सुबह 10 बजे धरना शुरू हुआ। ‘मजदूर बिगुल’ के साथी पहले ही धरना-स्थल पर पहुँच गये थे। करीब 1 घण्टे बाद सीटू का नेता गंगेश्वर शर्मा अपनी कार से धरना-स्थल पर पहुँचा और ठेकेदारों की तरह सीटू के झण्डे और बैनर लगवाने लगा। इस बीच वह कार की चाभी घुमाते हुए मजदूरों से कह रहा था, ”नारे-वारे लगाते रहो!” कुछ समय बाद वह वहाँ से चला गया। इसके बाद धरने पर भीड़ बढ़नी शुरू हुई। पहले ‘मजदूर बिगुल’ के अभिनव को कारख़ाना यूनियन के नेता पवन शर्मा ने सभा को सम्बोधित करने के लिए बुलाया। अभिनव ने अपने वक्तव्य में सवाल उठाया कि हड़ताल सिर्फ तीन दिन की क्यों रखी गयी है? अगर तीन दिन में मालिक माँगें नहीं मानता है तो क्या हम संघर्ष रोक देंगे? दूसरी बात यह कि माँगों में बखरस्त 6 मजदूरों और पहले ले-ऑफ पर निकाले गये 39मजदूरों को वापस रखने की माँग क्यों नहीं रखी गयी है? और तीसरी बात यह कि विकलांग हुए मजदूरों को मुआवजे और सुरक्षित कार्य-स्थितियों की माँग को भी माँगपत्रक में शामिल किया जाना चाहिए। इन चारों माँगों के बिना संघर्ष का कोई अर्थ नहीं होगा। इंजीनियरिंग ग्रेड के वेतन की माँग वाजिब है और उसे निश्चित तौर पर उठाया जाना चाहिए। लेकिन सिर्फ वेतन की लड़ाई लड़कर मजदूर वास्तविक लड़ाई गवाँ बैठेंगे। मजदूर अगर अपने आपको सुरक्षित ही नहीं रख पायेंगे तो काम कैसे करेंगे? इसके बाद बिगुल मजदूर दस्ता के साथियों ने मजदूर एकता के क्रान्तिकारी गीत प्रस्तुत किये। ‘मजदूर बिगुल’ के आशीष ने भी सभा को सम्बोधित किया और दलालों से सावधान रहने की बात की। पहले के संघर्ष की पराजय से सबक लेने की बात करते हुए आशीष ने अभिनव द्वारा बतायी गयी चार माँगों को केन्द्रीय माँग बनाकर संघर्ष करने की बात की।

अभिनव ने आगे अपने वक्तव्य में यह भी कहा कि 3 दिन की हड़ताल का कोई अर्थ नहीं होगा। हमें अपनी हड़ताल को अनिश्चित काल तक चलाना होगा, जब तक कि हमारी माँगें मान नहीं ली जातीं। अन्यथा इस हड़ताल का कोई अर्थ नहीं होगा, मजदूरों की हार होगी और अन्तत: वे निराश होंगे। अगर अब फिर से हड़ताल की गयी है तो फिर से कारख़ाने पर कब्जा करना होगा, उत्पादन ठप्प करना होगा और तब तक इस संघर्ष को जारी रखना होगा जब तक कि हमारी कानून-सम्मत माँगें मान नहीं ली जातीं। मजदूरों ने ‘मजदूर बिगुल’ द्वारा प्रस्तुत योजना पर सहमति जतायी और अन्त तक लड़ने की इच्छा जाहिर की। पहले दिन सीटू का कोई नेता गंगेश्वर के जाने के बाद धरना-स्थल पर नहीं आया।

अगले दिन, यानी 28 दिसम्बर को भी ‘मजदूर बिगुल’ के साथी धरना-स्थल पर मौजूद रहे। इस दौरान सीटू का एक सदस्य ‘मजदूर बिगुल’ के एक साथी के पास आया और बोलने लगा कि आप लोगों को यहाँ किसने बुलाया है और जब हमें जरूरत होगी तो हम आपको बुला लेंगे। फिलहाल, आप लोग यहाँ से चले जायें। इस पर ‘मजदूर बिगुल’ के शाम ने कहा कि हमें यहाँ कारख़ाना यूनियन के नेतृत्व ने बुलाया है और अगर वे नहीं भी बुलाते तो हम आते। यह किसी शादी का भोज नहीं है जिसमें आमन्त्रण पर आया जाये। मजदूर राजनीतिक कार्यकर्ता हर उस जगह जाते हैं जहाँ मजदूर संघर्षरत होते हैं। ऐसे में उनका स्वागत करने की बजाय उन्हें वहाँ से भगाने के पीछे सीटू की क्या मंशा है? वास्तव में, सीटू का उद्देश्य जायज माँगों पर लड़ना था ही नहीं। वह तो शुरू में ही मालिकों से समझौता कर चुकी थी। लेकिन बिगुल मजदूर दस्ता के साथियों की मौजूदगी के कारण मजदूर जुझारू संघर्ष का मन बनाने लगे थे और सीटू की दलाली खाने की योजना खटाई में पड़ने लगी थी। यही कारण था कि सीटू बिगुल मजदूर दस्ता की मौजूदगी से घबराया हुआ था। दूसरे दिन बिगुल मजदूर दस्ता के साथी धरना-स्थल पर मौजूद रहे और मजदूरों का उत्साहवर्द्धन और मार्गदर्शन करते रहे। सीटू का कोई भी नेता दूसरे दिन धरने पर नहीं आया।

तीसरे दिन धरना सुबह से दोपहर तक सामान्य रूप में जारी रहा। आशीष और अजय ने सभा को सम्बोधित किया और बीच-बीच में क्रान्तिकारी गीतों की भी प्रस्तुति की गयी। दोपहर में सीटू के दो नेता गंगेश्वर शर्मा और रामसागर कार से उस समय धरना-स्थल पर पहुँचे जब मजदूरों की संख्या वहाँ काफी कम थी। वे आकर बिगुल मजदूर दस्ता के साथियों से विवाद करने लगे और कहने लगे कि वे यहाँ से चले जायें। इस पर जो मजदूर वहाँ मौजूद थे, उन्होंने सीटू के नेताओं का विरोध किया और कहा कि बिगुल मजदूर दस्ता के साथी लगातार संघर्ष में मौजूद रहे हैं और वे यहाँ से नहीं जायेंगे। इस पर सीटू के नेताओं ने कारख़ाना यूनियन के नेताओं को बुलाया और कहने लगे कि अगर बिगुल के लोगों को यहाँ से नहीं भेजा गया तो वे अपना बैनर और झण्डा लेकर चले जायेंगे। वहाँ मौजूद तमाम मजदूर कहने लगे कि बैनर और झण्डे की धमकी से वे नहीं डरते और जब सीटू नहीं था, तब भी वे संघर्ष कर रहे थे। लेकिन कारख़ाना यूनियन के नेता इस बात से घबरा गये। उन्हें लगा कि अगर कोई बड़ी पंजीकृत यूनियन उनके साथ नहीं होगी तो वे लड़ नहीं पायेंगे। सीटू ने इस बीच बिगुल मजदूर दस्ता के बारे में दुष्प्रचार शुरू कर दिया। दुष्प्रचार में ऐसी हास्यास्पद बातें बिगुल मजदूर दस्ता के बारे में बोली गयीं जो आश्चर्यजनक थीं। जैसे कि एलाइड निप्पोन में गोली बिगुल के लोगों ने चलवायी थी!! इसके अलावा, यह भी कुत्साप्रचार किया गया कि बिगुल मजदूर दस्ता के लोग पहले संघर्ष को आगे ले जाते हैं और फिर ग़ायब हो जाते हैं। इन प्रचारों का सीटू के पास कोई आधार और प्रमाण नहीं था। नतीजतन, इसका कोई ख़ास असर मजदूरों पर नहीं हुआ। लेकिन सीटू की यह बात मजदूरों और ख़ासतौर पर कारख़ाना यूनियन के नेताओं को प्रभावित कर रही थी कि सीटू एक विशाल पंजीकृत यूनियन है और पंजीकृत यूनियन के बिना कोई लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती है। अन्तत: कारख़ाना यूनियन के नेताओं ने बिगुल मजदूर दस्ता के साथियों से कहा कि फिलहाल आप लोग चले जाइये। हम आपको फिर बुलायेंगे। हम सीटू से सावधान रहेंगे और अगर वह लड़ती नहीं है तो हम उसे मजा चखायेंगे। बिगुल मजदूर दस्ता के साथी यह कहकर वहाँ से चले गये कि संघर्ष जीतने की गारण्टी समझौताविहीन जुझारू लड़ाई होती है। यही मजदूरों का वास्तविक पंजीकरण होता है। ‘मजदूर बिगुल’ के लोगों ने मजदूरों से कहा कि अपने ऑंख, नाक और कान खुले रखें। सीटू पर भरोसा न करें और उन चार माँगों से पीछे न हटें। इसके बाद धरना 31 दिसम्बर तक जारी रहा।

1 जनवरी को सीटू और मालिकान के बीच वार्ता हुई जिसमें मालिकों ने चन्द रुपये वेतन बढ़ाने के लिए कहा, लेकिन साथ ही यह भी कहा कि हाउस रेंट व अन्य सुविधाएँ ख़त्म कर दी जायेंगी। निकाले गये 6 लोगों को वापस लेने के बारे में मालिकों ने तीन महीने बाद बात करने के लिए कहा, जिसका अर्थ था कि वे इस माँग पर नहीं मानने वाले हैं। सीटू के लोग इस बात पर सहमत होकर चले आये। लेकिन मजदूर इस पर सहमत नहीं हुए और लड़ाई जारी रखने का निर्णय किया।

हड़ताल की शुरुआत, सीटू की ग़द्दारी, कारख़ाना यूनियन का अवसरवाद और आन्दोलन की पराजय

3 जनवरी को हड़ताल शुरू हो गयी और सीटू की बात मानने को मजदूर राजी नहीं हुए। मजदूर लगातार इस बात के लिए सीटू पर दबाव बनाये हुए थे कि बिगुल मजदूर दस्ता ने जिन मुद्दों को रेखांकित किया है उन पर संघर्ष जारी रखा जाये। 4 जनवरी को भी सीटू मजदूरों को मनाने में लगा रहा कि अभी हड़ताल स्थगित कर दी जाये और 12 तारीख़ से फिर से हड़ताल की जाये। दरअसल, इस दौरान कम्पनी के पास टाटा के पास से एक बड़ा ऑर्डर आया था जिसे उसे समय पर पूरा करना था। इसीलिए सीटू मालिकों की शह पर फिलहाल हड़ताल को ख़त्म करने की बात कर रही थी और लगातार मजदूरों को अपने पंजीकृत यूनियन होने की धौंस जमाकर ब्लैकमेल करने की कोशिश कर रही थी। इस पर भी मजदूर तैयार नहीं हुए। इसके बाद सीटू के नेता वहाँ से बेआबरू होकर चले गये। इसी बीच कारख़ाना यूनियन के नेताओं ने ‘मजदूर बिगुल’ के साथियों को फोन करके कहा कि सीटू वाले भाग गये हैं और आप यहाँ आ जाइये और मंच सँभालिये। जब बिगुल के कुछ साथी कारख़ाने के पास पहुँचे तो वहाँ एक मजदूर पंचम उन्हें मिल गया जिसे कारख़ाना यूनियन के नेताओं ने यह कहकर भेजा था कि उन्हें कहीं बिठाकर चाय-पानी कराओ। उस मजदूर ने बताया कि कारख़ाना यूनियन के नेताओं से मिलने के लिए अभी सीटू वाले आने वाले हैं और अगर वे लड़ने के लिए तैयार नहीं होते हैं तो आप लोग वहाँ चलियेगा। यहाँ एक बात साफ हो गयी थी। कारख़ाना यूनियन का नेतृत्व चाहता था कि सीटू के लोग वहाँ से न जायें। इसके लिए वह बिगुल मजदूर दस्ता के समर्थन को एक बटखरे के तौर पर इस्तेमाल कर रहा था और सीटू को यह सन्देश दे रहा था कि अगर तुम लोग नहीं आते हो तो हमारे साथ बिगुल मजदूर दस्ता तो है ही! यह कारख़ाना यूनियन के नेतृत्व का अवसरवाद था जिसकी कीमत उसने बाद में चुकायी।

सीटू के नेताओं ने कारख़ाने पर पहुँचकर बिगुल मजदूर दस्ता के बारे में जमकर कुत्सा प्रचार किया और कहा कि बिना पंजीकृत यूनियन के कोई संघर्ष नहीं जीता जा सकता है; बिगुल वाले मालिकों से मिल जाते हैं; इनकी कोई फेडरेशन नहीं है, वग़ैरह। शाम को चार बजे तक सीटू वाले बिगुल के बारे में धुन्ध फैलाने का प्रयास करते रहते हैं और फिर भी मजदूरों को सहमत नहीं कर पाये। इसके बाद वे वहाँ से चले गये। इस समय तक मजदूरों के दिमाग़ में एक संशय जरूर बन गया था कि बिना पंजीकरण के कैसे लड़ा जा सकता है? इसके अतिरिक्त, जो कुत्साप्रचार बिगुल मजदूर दस्ता के बारे में किया गया था, उसके कारण कुछ मजदूरों में शक की स्थिति भी पैदा हो गयी थी। लेकिन फिर भी चार बजे बिगुल मजदूर दस्ता के साथियों को कारख़ाने पर बुलाया गया और मंच उनके हवाले कर दिया गया। मजदूर जानना चाहते थे कि बिगुल मजदूर दस्ता की योजना क्या है।

आशीष ने सबसे पहले मजदूरों के कारख़ाना नेताओं की आलोचना रखते हुए कहा कि हमें बटखरे के तौर पर इस्तेमाल न करें। हमारे पास संघर्ष की पूरी योजना है और हम उस पर चलकर जीत हासिल कर सकते हैं। लेकिन इसकी कोई समय-सीमा नहीं तय की जा सकती। बस इतना कहा जा सकता है कि अगर एकजुट,जुझारू और योजनाबध्द तरीके से फैसलाकुन संघर्ष चलाया जाये तो जीत हमारी ही होगी। लेकिन इसके लिए पहले दो नावों पर सवारी करना बन्द करना होगा। सीटू को इस संघर्ष से निकाला जाये, तभी हम इस संघर्ष को नेतृत्व दे सकते हैं। क्योंकि अगर हम अपनी योजना यहाँ लागू कर भी दें तो सीटू उसे असफल बनाने के लिए हर सम्भव प्रयास करेगा और मालिकों की दलाली करेगा। ऐसे में दुश्मन के छिपे हुए सैनिक को अपने शिविर में रखना कहाँ की समझदारी है?मजदूर संघर्ष की योजना पर सहमत थे और उन्हें लग रहा था कि ऐसा कोई रास्ता हो सकता है जिससे सीटू के पंजीकरण का लाभ भी उन्हें मिल जाये और संघर्ष को चलाने की बिगुल मजदूर दस्ता की समझदारी भी हमें मिल जाये। इस पर आशीष ने स्पष्ट किया कि पहले आप सीटू के नेतृत्व में संघर्ष को पूरा लड़ लें और जब आपका पंजीकरण के तर्क से पूरा मोहभंग हो जाये तब हमसे सम्पर्क कीजियेगा। हम इस आन्दोलन में आपके साथ हैं लेकिन जब तक इसमें सीटू का नेतृत्व होगा, हम इसे बाहर से समर्थन देंगे। इसमें शामिल होकर सीटू की समझौता-परस्ती के तहत काम नहीं किया जा सकता है। यह कहकर बिगुल मजदूर दस्ता के साथी 4 जनवरी की शाम वहाँ से चले गये।

अगले दिन, 5 जनवरी को संघर्ष के कमजोर होने की गन्ध मालिकों तक पहुँच चुकी थी। नतीजतन, मालिकों ने 20 और मजदूरों को निकाल बाहर किया, जिसमें कई लोग कारख़ाना यूनियन के नेतृत्व के थे। हड़ताल जारी रही और सीटू के नेता अपनी दलाली के काम में मशगूल रहे। वे लगातार आकर समझौता कर लेने के लिए मजदूरों पर दबाव डाल रहे थे। संघर्ष के ढीले तरीके से खिंचते जाने को लेकर मजदूर निराश हो रहे थे। मजदूरों का एक बड़ा हिस्सा बिगुल मजदूर दस्ता के जाने से भी पस्त हो गया था। उन्हें लगता था कि कारख़ाना यूनियन का नेतृत्व ग़लत कार्रवाइयाँ कर रहा है। लेकिन उसके ख़िलाफ तुरन्त जाने का साहस अभी किसी में नहीं था। वार्ता के लिए 11 जनवरी की तिथि सीटू ने सी.ओ. के साथ मिलकर तय की। लेकिन यह वार्ता असफल रही। इसके बाद 15 जनवरी को यूनियन व मैनेजमेण्ट के बीच श्रम विभाग में वार्ता हुई। इस वार्ता में मालिक इंजीनियरिंग ग्रेड के वेतन और प्रतिवर्ष 40 रुपये की वेतन बढ़ोत्तरी देने के लिए राजी हुए। लेकिन इसके साथ सारे भत्तों को समाप्त कर देने का भी निर्णय किया। यानी कि कुल वेतन बढ़ोत्तरी मामूली हो गयी, जो मालिक 1 जनवरी को ही देने के लिए तैयार था। निकाले गये मजदूरों के बारे में मैनेजमेण्ट ने कहा कि उनके बारे में 2-3 महीने बाद फैसला किया जायेगा। इस समय तक मजदूर काफी थक चुके थे और यह मन बना चुके थे कि यूनियन जो तय कर देगी उस पर वे मान जायेंगे। अगर 6 निकाले गये मजदूरों को वापस नहीं लिया जाता है तो भी वे मान जायेंगे। एक तरह से संघर्ष हारा जा चुका था। यूनियन भी इस समझौते का मानने का मन बना चुकी थी। सीटू ने मजदूरों को थका डालने और पस्त कर देने में काफी केन्द्रीय भूमिका निभायी।

यह रपट लिखे जाने तक जो ख़बर मिली थी उसके अनुसार 18 जनवरी को मालिकों की शर्तों पर मानने के लिए यूनियन तैयार हो जाने वाली थी। ज्यादा उम्मीद भी यही थी। इस दौरान आस-पास के स्थानीय चुनावी नेता आदि भी मजदूरों के बीच आने लगे थे। उन्हें लग रहा था कि इस संघर्ष के जरिये वे भी कुछ फायदा उठा सकते हैं और मालिकों से दलाली खा सकते हैं। इन सबसे मजदूरों का उत्साहवर्द्धन होने की बजाय उत्साह और कम हो रहा था और संघर्ष जीत पाने की उम्मीद अब लोग खोने लगे थे। कुल मिलाकर, मालिकों की शर्तों पर समझौता होते ही सीटू के कारण यह आन्दोलन एक शर्मनाक हार में ख़त्म होगा। मजदूरों को इतना देने के लिए तो मालिक 1 जनवरी को ही तैयार हो जाता। ऐसे में इतने दिनों की हड़ताल का क्या अर्थ था? इतने दिन जो दिक्कतें मजदूरों ने उठायी, वे एक प्रकार से व्यर्थ चली गयीं।

मजदूर वर्ग में मौजूद विजातीय प्रवृत्तियाँ

लेकिन इस हार के लिए सिर्फ सीटू को ही जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। वास्तव में, इस हार के पीछे मजदूर वर्ग में मौजूद कानूनी विभ्रम (यानी पंजीकरण का विभ्रम), अवसरवादिता, अर्थवाद और ट्रेड यूनियनवाद भी जिम्मेदार था। मजदूरों का कारख़ाना नेतृत्व अपना दिमाग़ संघर्ष की रणनीति बनाने,मजदूरों में एकजुटता बनाने और योजना तैयार करने की बजाय बिगुल मजदूर दस्ता के जुझारू तरीकों का और सीटू के पंजीकरण का इस्तेमाल करने में ख़र्च कर रहा था। नतीजा, यह हुआ कि ‘न ख़ुदा ही मिला न विसाले-सनम’।

और नेतृत्व के अलावा मजदूरों के एक हिस्से में भी यह मानसिकता काम कर रही थी कि अगर पंजीकृत यूनियन का साथ छूट गया तो वे अनाथ हो जायेंगे। उन्हें स्वयं से पूछना चाहिए कि सबसे बड़ी पंजीकृत यूनियनों में से होने के बावजूद सीटू ने नोएडा के हालिया मजदूर संघर्षों में क्या भूमिका निभायी है? हर जगह सीटू ने मजदूर संघर्षों को अपनी ग़द्दारी से तोड़ा है और मालिकों के तलवे चाटे हैं। अन्तत: हर जगह मालिकों को ही फायदा पहुँचाया है। चाहे एलाइड निप्पोन का संघर्ष देख लें या फिर हैरिंग इण्डिया का संघर्ष; ग्रैजियानो का संघर्ष देख लें या फिर देश के किसी भी अन्य हिस्से का मजदूर संघर्ष। हर जगह इस पंजीकृत संशोधनवादी यूनियन ने मजदूरों की पीठ में छुरा भोंकने का काम किया है। इसलिए मजदूरों को याद रखना चाहिए कि संघर्ष की ताकत और जुझारूपन ही संघर्ष का पंजीकरण होता है। ताकत से पंजीकरण भी हो जाता है। लेकिन सिर्फ पंजीकरण से ताकत नहीं पैदा हो जाती। माकपा संसदीय वामपन्थियों की सरदार है और इस अर्थ में वह मजदूर वर्ग के मीर जाफरों और जयचन्दों की भी सरदार है। ऐसे में आप उसकी यूनियन सीटू से क्या उम्मीद कर सकते हैं?उसका सारा पंजीकरण धरा का धरा रह जाता है। जैसा कि आई.ई.डी. के संघर्ष में भी हुआ।

इसके अतिरिक्त, इस संघर्ष में यह बात भी उभरकर आयी कि मजदूरों के बीच अर्थवाद की प्रवृत्तिा भी गहरायी से जड़ जमाये हुए थी। जब तक बिगुल मजदूर दस्ता इस संघर्ष में शामिल नहीं हुआ था तब तक वेतन बढ़ोत्तरी और बोनस ही मुख्य माँग बनी हुई थी। जिस कारण से मजदूरों की उँगलियाँ कटी थीं और काम करने की स्थितियाँ ख़तरनाक बनी हुई थीं, उस पर मजदूर कोई माँग नहीं कर रहे थे। संघर्ष के अन्त तक बस इतना हुआ कि यह माँग मजदूरों के दिमाग़ में दर्ज हो गयी। लेकिन अब भी मुख्य जोर वेतन बढ़ोत्तरी पर ही था। इस अर्थवाद की प्रवृत्तिा से भविष्य में मजदूरों को काफी नुकसान उठाना पड़ सकता है। इससे जितनी जल्दी मुक्त हुआ जा सके, हो जाना चाहिए।

एक और कमजोरी जिसके बारे में हमें सोचने की जरूरत है, वह यह है कि इस पूरे संघर्ष में ठेके और दिहाड़ी पर काम करने वाले मजदूरों को साथ लेने की कोई बात नहीं की गयी। वास्तव में उनको साथ लेने की कोशिश ही नहीं की गयी। यह संघर्ष मुख्य तौर पर स्थायी मजदूरों का वेतन बढ़ोत्तरी का संघर्ष था। ये मजदूर तुलनात्मक रूप से सुरक्षित हैं और एक हद तक वेतन बढ़ोत्तरी की लड़ाई तक ही सीमित रहने की मानसिकता के शिकार हैं। ठेका और दिहाड़ी मजदूरों से यह कोई एका महसूस नहीं करते हैं। सुरक्षा की भावना के कारण एक अवसरवाद और जुझारूपन की कमी इनके भीतर घर कर गयी है। जब तक इस प्रवृत्तिा को तोड़कर कारख़ाने के सभी मजदूरों की एकता नहीं बनायी जाती तब तक एक कमजोरी बनी रहेगी। इस कमजोरी के ही कारण वे आपस में एक-दूसरे का भी पूरी तरह साथ नहीं देते। यही तो कारण था कि छह मजदूरों को वापस लेने के मुद्दे को भविष्य पर टालने के लिए यूनियन तैयार हो गयी। लेकिन इस कदम से उन्होंने अपने ही पाँव पर कुल्हाड़ी मारी है। क्योंकि इससे उनके एक-दूसरे पर से परस्पर विश्वास डगमगाया है। कल अगर और मजदूरों को मालिक बाहर करता है तो उनके लिए कौन लड़ेगा? यह फर्क वास्तव में औपचारिक और अनौपचारिक मजदूर का फर्क है और इसके बारे में हम ‘मजदूर बिगुल’ में पहले भी लिखते रहे हैं। आज लड़ने के लिए सर्वाधिक जुझारूपन अनौपचारिक मजदूर दिखला रहा है। स्थायी मजदूरों का संघर्ष अब अलग रहकर अपना अस्तित्व नहीं बचा सकता है। अब मजदूर संघर्ष के एजेण्डे पर अनौपचारिक मजदूरों के मुद्दों को लाकर उन्हें साथ लेकर, एक एकीकृत मजदूर आन्दोलन खड़ा करना होगा। यह मुश्किल है,लेकिन असम्भव नहीं। आई.ई.डी. कारख़ाने के मजदूरों को भी यह बात समझनी होगी।

निष्कर्ष

इन कमजोरियों को दूर करके आई.ई.डी. कारख़ाने के मजदूरों को इस पराजय से सबक लेना होगा। उन्हें इस संघर्ष का समीक्षा-समाहार करना होगा और फिर भविष्य में अपने वास्तविक मुद्दों को लेकर फिर से संघर्ष संगठित करना होगा। इसके लिए उन्हें नये सिरे से अपने कारख़ाने का नेतृत्व संगठित करना होगा और सीटू जैसी ग़द्दार यूनियनों से पीछा छुड़ाना होगा। इसके साथ ही, उन्हें अपने भीतर मौजूद ग़ैर-सर्वहारा प्रवृत्तिायों से मुक्ति पानी होगी और इस बात को समझना होगा कि दुअन्नी-चवन्नी की लड़ाई से आगे बढ़कर ही मजदूर राजनीतिक तौर पर सचेत और संगठित हो सकता है। और बिना राजनीतिक तौर पर सचेत और संगठित हुए दूरगामी तौर पर वे अपने आपको कमजोर करेंगे। यह पराजय अन्त नहीं है। आगे अपने संघर्ष को क्रान्तिकारी और जुझारू तरीके से संगठित करके हम फिर से लड़ सकते हैं। और निश्चित तौर पर जीत भी सकते हैं।

मज़दूर बिगुल, जनवरी 2011


 

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