फ़ासिस्ट मोदी सरकार की धुन पर केचुआ का केंचुल नृत्य

आकाश

केन्द्रीय चुनाव आयोग अर्थात ‘केचुआ’। इसकी कोई रीढ़ की हड्डी नहीं बची है। वह इस बात को बार-बार नंगे रूप में साबित भी कर रहा है। खासकर पिछले कुछ सालों में वह भाजपा की गोद में लोट-लोट कर फ़ासीवाद की गटरगंगा से लगातार पूरे समाज में गन्द फैला रहा है। आज यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि केचुआ भाजपा के विंग की तरह ही काम कर रहा है। पिछले कुछ समय से हर दिन ऐसे तथ्य सामने आ रहे हैं जो इसे और पुख़्ता कर रहे हैं। हालिया समय में बिहार में ‘स्पेशल इण्टेन्सिव रिविज़न’ (एसआईआर) के तहत नागरिकता प्रमाण के आधार पर 65 लाख लोगों को वोटर लिस्ट से काटने और पिछले 7 अगस्त को राहुल गाँधी द्वारा पेश किये गए तथ्यों के बाद यह जगज़ाहिर हो गया कि आज इक्कीसवीं सदी का फ़ासीवाद किस तरीक़े से हमारे जनवादी अधिकार छीन रहा है। पिछले कुछ चुनावों में सीधे-सीधे धाँधली करके भाजपा की डूबती नैया को बचाना हो या फिर लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी के ख़िलाफ़ खड़े हो रहे लोगों की उम्मीदवारी को ही रद्द कर देना हो, केचुआ द्वारा फ़ासीवादी मोदी सरकार के समक्ष साष्टांग दण्डवत करने की कई मिसालें मिल जायेंगी।

ऐसा नहीं है कि इसके पहले की सरकारों के काल में कभी धाँधली और फर्जीवाड़ा नहीं किया गया। पहले भी जहाँ गुण्डे-बदमाशों को चुनावी पार्टियों का टिकट मिलता था, वहाँ वे बूथ कैप्चर, फर्ज़ी वोटर और अन्य प्रकार के कारनामे करते ही थे। लेकिन आज यह काम व्यवस्थित तरीक़े से ख़ुद फ़ासीवादी सरकार और उसकी एजेंसियाँ करवा रही हैं। आज राज्य के समूचे उपकरण पर फ़ासीवादी कब्ज़े का एक व्यवस्थित परिणाम है। एक पूरी योजना के तहत चुनावों की प्रक्रिया को बेअसर और बेमतलब बना दिया गया है। एक पूँजीवादी समाज में जनता के पास जो भी राजनीतिक अधिकार होते हैं, उसमें सबसे अहम राजनीतिक अधिकार मतदान व अपना प्रतिनधि चुनने का औपचारिक अधिकार होता है। अभी हम इसमें नहीं जाते कि चुनने के लिए क्या विकल्प हैं, लेकिन फिर भी इस अधिकार के ज़रिये पूँजीवादी राजनीति, नीति-निर्माण व सरकार के काम के तौर-तरीक़ों में जनता का कुछ दख़ल होता है और कम-से-कम वह किसी सरकार से असन्तुष्ट या नाराज़ होने पर उसे सज़ा देने का यानी उसे हराने का औपचारिक अधिकार रखती है। आज यह बुनियादी लोकतान्त्रिक अधिकार ही केचुआ द्वारा रंगा-बिल्ला की जोड़ी शह पर छीन लिया गया है।

 केचुआ का काला चिट्ठा

चुनाव आयोग के सरकार की कठपुतली होने कई प्रातिनिधिक उदाहरण हैं जिनमें से एक है 2023 में मोदी सरकार द्वारा बनाया गया क़ानून ‘मुख्य चुनाव आयुक्त एवं अन्य चुनाव आयुक्त (नियुक्ति, सेवा शर्तें और पदावधि) विधेयक’। इस क़ानून के बनने के पहले सुप्रीम कोर्ट की घोषणा के अनुसार चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति करने वाली कमिटी में प्रधानमन्त्री, लोकसभा विपक्ष के नेता और मुख्य न्यायाधीश शामिल होते थे मगर नए क़ानून के तहत अब चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति करनेवाली चयन समिति में प्रधानमन्त्री, कैबिनेट मन्त्री और लोकसभा में विपक्ष के नेता होंगे। साफ़ ज़ाहिर है अगर प्रधानमन्त्री और कैबिनेट मन्त्री सरकार के ही होंगे अर्थात भाजपा की सरकार है तो भाजपा के ही होंगे और विपक्ष के नेता का कोई भी मत हो वह मायने नहीं रखेगा। तीन में से दो लोग अर्थात जिन्हें सरकार चाहेगी वही चुनाव आयुक्त बनेगा। इस क़ानून के आने के बाद बिल्कुल ऐसा ही हुआ है। 2023 से जितने चुनाव आयुक्त बने हैं वह चुनाव आयुक्त कम भाजपा के प्रवक्ता ज़्यादा लगते हैं।

वैसे इसके पहले भी 2014 से लेकर 2023 तक चुनाव आयोग की डोर मोदी सरकार ने थाम रखी थी। साल 2019 में अशोक लवासा ने मुख्य चुनाव आयुक्त के बतौर नरेन्द्र मोदी और अमित शाह को क्लीन चिट देने से मना कर दिया था। उनके अनुसार मोदी और शाह ने चुनावी प्रक्रिया का उल्लंघन किया था। मगर फ़िर वही हुआ जो कई विपक्षी नेताओं और सरकार की नीतियों की आलोचना करने वालों पर होता आया है, अशोक लवासा के परिवार के कई लोगों के पीछे मोदी सरकार ने अपने सबसे प्रिय तोते यानी कि ईडी को लगा दिया। अन्त में लवासा को अपने पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा। आज तक लवासा के नोट को सार्वजनिक नहीं किया गया है। यही कारण है कि 2023 में इस क़ानून को बनाने को ज़रूरत पड़ी ताकि चुनाव आयोग पर भी शिकंजा कसा जा सके। जब मोदी सरकार की तमाम मन्दिर-मस्जिद, पाकिस्तान, गाय-गोबर और भोंपू गोदी मीडिया के अप्रत्याशित प्रचार के बाद भी जनता में सरकार के जन-विरोधी नीतियों के ख़िलाफ़ और महँगाई, बेरोज़गारी के ख़िलाफ़ भयानक आक्रोश था, तब मोदी-शाह की जोड़ी को सत्ता से जाने की किसी भी गुंजाइश को ख़त्म करना ज़रूरी हो गया था, तब चुनाव आयोग को पूरी तरह नियन्त्रित करने के लिए इस क़ानून को लाया गया था। इसके बाद के लोकसभा चुनाव समेत महाराष्ट्र, कर्नाटक, झारखण्ड, कश्मीर के विधानसभा चुनावों और चण्डीगढ़ लोकल चुनाव में भाजपा को जिताने के लिए अप्रत्याशित तौर पर धाँधली सामने आयी है।

लोकसभा चुनाव के प्रचार के दौरान प्रधानमन्त्री खुद कई बार आचार संहिता का उल्लंघन करते रहे। मुग़ल, मटन, मस्ज़िद, मंगलसूत्र, धार्मिक उन्माद और साम्प्रदायिकता उनके भाषण के केन्द्र में था पर केचुआ रेंगता रहा। उस दौरान देशभर से बीस हज़ार से ज़्यादा लोगों ने इसपर चुनाव आयोग को लिखा पर आयोग बेसुध पड़ा रहा। 19 अप्रैल 2024 के पहले चरण के चुनाव की शाम आयोग ने कहा 60 प्रतिशत की वोटिंग हुई और अन्तिम पोलिंग उन्होंने प्रकाशित ही नहीं किया। इसके पहले आयोग अगले दो या तीन दिन में अन्तिम पोलिंग प्रकाशित करती आयी है। जब इसपर सवाल उठने लगे तो 11 दिन बाद अन्तिम पोलिंग के आँकड़े दिये जिसमें उन्होंने 6 प्रतिशत की वृद्धि कर दी! यह भी ऐतिहासिक था। अन्तिम पोलिंग आख़िरी समय में किये गये वोटिंग की बढ़त को जोड़ता है जो कि ज़्यादा से ज़्यादा दो से तीन प्रतिशत तक जा सकता है। ऐसे ही बाकी चरणों में भी आयोग के तौर-तरीकों पर कई सवाल उठे और आयोग इसपर सीनाजोरी करता रहा। इसके साथ ही ईवीएम को लेकर भी सवाल उठते रहे हैं और कहीं न कहीं अन्धभक्तों को छोड़कर सभी जानते हैं कि ईवीएम के ज़रिये मोदी सरकार द्वारा जनादेश चुराया जाता रहा है। 2024 के लोकसभा चुनाव के दौरान देशभर में आम नागरिक ईवीएम की विश्वसनीयता पर सवाल उठाते रहे एवं इसके ख़िलाफ़ देशभर में चुनाव आयोग के दफ्तरों में आम नगरिकों समेत तमाम विपक्षी पार्टियों ने ज्ञापन सौंपे और विरोध प्रदर्शन किया। मगर केचुआ और भाजपा एक ही सुर में इसे नकारते हुए अपना राग अलापते रहे। ईवीएम मशीन में गड़बड़ी की सम्भावना को देखते हुए जब आयोग से 100 प्रतिशत वीवीपैट की गिनती की माँग की गयी तो उसने साफ़ मना कर दिया! इससे पहले 2019 के लोकसभा चुनाव के समय भी 21 विपक्षी पार्टियों ने जब सुप्रीम कोर्ट में 50 प्रतिशत वीवीपैट की जाँच की याचिका दी तो आयोग ने कोर्ट में दिए शपथ पत्र में झूठ बोला कि 2017 से 2019 के बीच अलग-अलग चुनावों के 1500 मतदान केन्द्रों पर वीवीपैट की गिनती में एक भी गलती नहीं मिली, जबकि 2017 के दिसम्बर में गुजरात विधानसभा चुनाव में 4 क्षेत्रों वागरा, अंकलेश्वर, द्वारका और भावनगर के वीवीपैट गिनती में ग़लती पायी गयी थी। 2019 के लोकसभा चुनाव में 370 सीटों पर कुल डाले गए वोट और गिने गए वोट के बीच फ़र्क मिला जिसका केचुआ के पास कोई जवाब नहीं था। ठीक इसी तरह 2018 में कर्नाटक विधानसभा चुनाव में वीवीपैट में गलतियाँ पायी गयी थीं। इस पूरे समय में केचुआ और भाजपा के बयानों को देखें तो अन्तर कर पाना मुश्किल है कि दोनों अलग-अलग संस्था हैं। साल 2019 में आरटीआई के ज़रिए यह पता चला कि 20 लाख ईवीएम ग़ायब हैं जिसका आयोग ने कोई ज़िक्र तक नहीं किया है। यह आज तक रहस्य बना हुआ है कि इतनी बड़ी संख्या में ईवीएम कहाँ गये? लेकिन यह खुला रहस्य बन चुका है और जनता को पता है कि 20 लाख ईवीएम कहाँ हैं। आज जहाँ दुनियाभर के तमाम देश ईवीएम को सुरक्षित नहीं मानते हैं और वापस बैलेट पेपर से चुनाव करवा रहे हैं वहीं दूसरी तरफ़ भाजपा और हमारे देश का चुनाव आयोग ईवीएम पर अटूट आस्था रखते हैं! जिन देशों में ईवीएम से चुनाव हो भी रहे हैं वहाँ ईवीएम सॉफ्टवेयर के सोर्स कोड को सार्वजनिक किया गया है। मगर हमारे देश में इसे गुप्त रखा गया है। दुनियाभर के इन्जीनियर यह साबित कर चुके हैं कि साइड चैनल अटैक करके ईवीएम के साथ समझौता किया जा सकता है। यहाँ तो चुनाव आयोग ही हैक हो रखा है!

जब ईवीएम पर बड़े पैमाने पर सवाल खड़े होने लगे और भाजपा की जीत और आयोग की निष्पक्षता पर सवाल उठने लगे तब आयोग ने अपनी आका पार्टी भाजपा के लिए पहले से की जा रही वोटरलिस्ट धाँधली और वोट चोरी को भी अपना एक हथियार बना लिया। वोटरलिस्ट में बड़े पैमाने पर गड़बड़ी करके भाजपा अपनी जीत दर्ज करती रही। पिछले साल हुए लोकसभा चुनाव और महाराष्ट्र, झारखण्ड, कश्मीर और दिल्ली विधानसभा चुनावों में और उसके पहले कर्नाटक विधानसभा चुनाव में बड़े पैमाने पर वोटरलिस्ट में धाँधली सामने आयी है। इसके तहत बड़ी संख्या में फर्ज़ी मतदाता जोड़े गए, चयनात्मक तरीक़े से मतदाताओं के वोट करने के अधिकार को छीना गया, समुदाय विशेष की संख्या के अनुसार चुनाव क्षेत्रों को पुनः परिभाषित किया गया और चुनाव आयोग के कर्मचारी ही भाजपा के लिए फर्जीवाड़ा करते हुए सीसीटीवी वीडियो में पाये गये। पिछले साल महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के ठीक पहले आख़िरी 5 महीने में 47 लाख नए वोटर जोड़े गए जबकि इसके पहले पिछले पाँच सालों में कुल 37 लाख नए वोटर जोड़े गए। यह चमत्कार चुनाव आयोग और भाजपा की कृपा से ही हो सकता है। चुनाव में सीधे-सीधे धाँधली की बात जब सामने आयी और कोर्ट ने मतदान केन्द्रों की सीसीटीवी फुटेज साझा करने के लिए सरकार से कहा तब चुनाव आयोग से “सलाह” के बाद सरकार ने निर्वाचन संस्थान सम्बन्धित नियम 1961 की धारा 93(2) (ए) में ही बदलाव कर दिया। इसके तहत अब सीसीटीवी फुटेज को 45 दिन के अन्दर समाप्त कर दिया जाता है! ज़ाहिर है जब विपक्ष ने चुनाव आयोग पर सवाल उठाया तो मुख्य चुनाव आयुक्त आकर यह कहते हैं कि इतनी वीडियो देखने में कई साल लगेंगे तो विपक्ष यह वीडियो लेकर क्या करेगा इसीलिए हम नहीं दिखायेंगे! चुनाव आयुक्त के ऐसे मूर्खतापूर्ण बयानों की एक पूरी श्रृंखला हालिया समय में देखी जा सकती है। हाल ही में मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने यह तक कह दिया कि सीसीटीवी दिखाने से हमारी माँ और बहनों की इज़्ज़त चली जाएगी! जब राहुल गाँधी ने साक्ष्य सामने रखते हुए चुनाव आयोग से सीधे सवाल किया तो चुनाव आयोग ठोस सवालों के जवाब देने के बजाय गोल-गोल घुमाता रहा और ऐसी कई मूर्खतापूर्ण बयानबाजी कर सीनाजोरी करता रहा।

आज जब बिहार में मतदाता सूची का “विषेश गहन पुनरीक्षण” किया जा रहा है ऐसे में यह बात खुलकर सामने आ चुकी है कि किस तरीक़े से आम लोगों के वोट देने के अधिकार पर हमले किए जा रहे हैं। पिछले एक महीने से लगातार ऐसे तथ्य सामने आ रहे हैं जिसके आधार पर कोई भी व्यक्ति आज चुनाव आयोग पर भरोसा नहीं कर रहा। बिहार में बड़े पैमाने पर फर्जीवाड़ा सामने आ रहा है। जहाँ एक तरफ़ 65 लाख लोगों को पहले चरण में मतदाता सूची से बाहर कर दिया गया वहीं दूसरी तरफ़ कई फर्ज़ी वोटर जोड़े गए। मुज़फ़्फ़रपुर में एक ही पते पर 269, जमुई में एक ही पते पर 247 मतदाता का नाम दर्ज है। ऐसे ही सिर्फ तीन विधानसभा में 80 हज़ार से ज्यादा मतदाता फर्ज़ी पते पर पाये गये हैं। खुद बिहार के उपमुख्यमन्त्री विजय कुमार सिन्हा का नाम दो विधानसभा की मतदाता सूची में पाया गया। जब आयोग नंगा होने लगा तब उसने मतदाता सूची का डिजिटल डाटा हटाकर स्कैन्ड कॉपी डाल दिया ताकि कोई जाँच न कर पाये, क्योंकि उसमें कम्प्यूटर पर लिस्ट में कोई नाम या नम्बर सर्च करना बहुत मुश्किल है। जब आयोग से बाहर किए गए 65 लाख लोगों की सूची माँगी गई तो कोर्ट में उसने इसे सार्वजनिक करने से मना कर दिया। लगातार जनदबाव और उठते सवाल के बाद कोर्ट के कहने पर उसे सार्वजनिक करना पड़ा।

अब यह पानी की तरह साफ़ हो चुका है कि चुनाव आयोग पूर्ण तरीक़े से फ़ासीवादी मोदी सरकार की कठपुतली बन चुका है। मुख्य चुनाव आयुक्त बीजेपी दफ़्तर से संचालित होते हैं। पर यह कोई आकस्मिक घटना नहीं है। आज तमाम संवैधानिक संस्थाओं, कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका पर फ़ासीवादी शिकंजा अभूतपूर्व तरीक़े से प्रतिबिम्बित हो रहा है। वजह यह है कि 20वीं सदी के हिटलर व मुसोलिनी जैसे फ़ासीवादियों के समान आज के फ़ासीवादी खुले तौर पर तानाशाहाना क़ानून लाकर संसद, विधानसभाओं और चुनावों को भंग नहीं करते, क्योंकि इसके कारण कालान्तर में जनता का असन्तोष इस क़दर बढ़ता है कि वह एक ज्वालामुखी बनकर फूटता है। इसलिए आज के फ़ासीवादी अपने पुरखों की ग़लतियों से सबक़ लेते हुए पूँजीवादी लोकतन्त्र के खोल को बनाये रखते हैं, लेकिन अन्दर का गूदा एक लम्बी प्रक्रिया में चट कर जाते हैं। यानी बस खोल बचा रहता है, लेकिन अन्दर से खोखला होता जाता है। फ़ासीवादी सरकार व सत्ता के समूचे उपकरण पर अन्दर से कब्ज़ा कर लेते हैं चाहे वह पुलिस, सेना, नौकरशाही हो या ईडी, केचुआ, न्यायपालिका हो। नतीजतन, चुनाव होते हैं, लेकिन जनता के मतदान व निष्पक्ष व स्वतन्त्र चुनाव का अधिकार छीन लिया जाता है। आज यही हो रहा है।

अतः जो लोग यह समझ रहे हैं कि संविधान बचाओ का नारा देकर या न्यायपालिका के ज़रिये बुर्जुआ जनवाद को बचाकर फ़ासीवाद को हरा देंगे वह शेखचिल्ली का सपना पाले हुए हैं। ठीक उसी तरह जिस तरह लोकसभा चुनाव के परिणाम आने के बाद वही लोग खु़श हो रहे थे कि कम से कम मोदी सरकार ख़ुद पूर्ण बहुमत पर नहीं बनी है बल्कि नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू के सहारे सत्ता में पहुँची है तो वे खुलकर जन विरोधी नीतियों को लागू नहीं कर पायेंगे। लेकिन एक साल के अन्दर ही उनके अरमान चूर हो गये। हम मज़दूर वर्ग को यह समझना पड़ेगा कि आज फ़ासीवाद को हराने का एक ही तरीक़ा है, वह है हम मज़दूर वर्ग की अगुवाई में जनक्रान्ति। आज विपक्षी दल राहुल गाँधी के नेतृत्व में वोटचोरी के विरुद्ध बिहार में सड़कों पर हैं। यह अच्छी बात है। लेकिन इस अभियान का लक्ष्य बिहार का चुनाव मात्र है। कांग्रेस व अन्य पूँजीवादी विपक्षी दल इसी रूप में इस लड़ाई को लड़ सकते हैं और ठीक इसीलिए देश की मेहनतकश जनता को यह लड़ाई उनके हाथों में नहीं छोड़नी चाहिए। उन्हें स्वयं सड़कों पर उतरना होगा और एक व्यापक जनान्दोलन के रूप में फ़ासीवादी रंगा-बिल्ला सरकार और समूची पूँजीवादी व्यवस्था को चुनौती देनी होगी।

 

मज़दूर बिगुल, अगस्त 2025

 

 

‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्‍यता लें!

 

वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये

पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये

आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये

   
ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीऑर्डर के लिए पताः मज़दूर बिगुल, द्वारा जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020 बैंक खाते का विवरणः Mazdoor Bigul खाता संख्याः 0762002109003787, IFSC: PUNB0185400 पंजाब नेशनल बैंक, निशातगंज शाखा, लखनऊ

आर्थिक सहयोग भी करें!

 
प्रिय पाठको, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘मज़दूर बिगुल’ लगातार आर्थिक समस्या के बीच ही निकालना होता है और इसे जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की ज़रूरत है। अगर आपको इस अख़बार का प्रकाशन ज़रूरी लगता है तो हम आपसे अपील करेंगे कि आप नीचे दिये गए बटन पर क्लिक करके सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग भी करें।
     

Lenin 1बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन