कुसुमपुर पहाड़ी में अन्तरराष्ट्रीय स्त्री दिवस पर सांस्कृतिक संध्या : एक शाम संघर्षों के नाम
लता
मुझमें साँस लेती है आज़ादी।
मेरा ज़ेहन सपनों की वादी है।
बग़ावत मेरी धमनियों–शिराओं में
खून बनकर बहती है।
कितनी–कितनी हारों के बाद भी
दिल मेरा तैयार नहीं छोड़ने को
लड़ते रहने की ज़िद।
कई बार काटे गये मेरे पंख
पर रात भर में ही
वे फिर उग आये
और मैं निकल पड़ी खुले आकाश में
तूफ़ानों के प्रदेश की यात्रा पर।
दिल्ली घरेलू कामगार यूनियन की ओर से 8 मार्च अन्तरराष्ट्रीय स्त्री दिवस के अवसर पर कुसुमपुर पहाड़ी के मद्रासी मन्दिर पार्क में सांस्कृतिक संध्या का आयोजन किया गया। कामगार स्त्री दिवस के महत्व और आज के दौर में इसकी प्रासंगिकता को लेकर दिल्ली घरेलू कामगार यूनियन की ओर से 4 मार्च से कुसुमपुर पहाड़ी की गलियों में अभियान चलाया जा रहा था और मज़दूरों-मेहनतकशों को इस अवसर पर होने वाले सांस्कृतिक संध्या की सूचना दी जा रही थी। कुसुमपुर के स्त्री व पुरुष मज़दूरों को बताया गया कि कार्यक्रम में नाटक और गीतों के साथ दिल्ली घरेलू कामगार यूनियन की माँगों और कामों पर भी चर्चा होगी। अभियान के दौरान मज़दूरों ने कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए सहयोग भी किया।
8 मार्च शाम जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से आयी नाटक की टोली ने गलियों में घूम-घूम कर नाटक का प्रचार किया। शाम होते-होते कार्यक्रम स्थल पर लोगों की अच्छी तादाद इकट्ठा हो गयी थी। दिल्ली घरेलू कामगार यूनियन की ओर से मंच का संचालन करते हुए लता ने कार्यक्रम में आये लोगों का स्वागत कियाl कार्यक्रम की शुरुआत शशि प्रकाश के लिखे गीत ‘दुनिया के हर सवाल के हम ही जवाब हैं’ से हुई। दिल्ली विश्वविद्यालय से आयी ‘दिशा’ की सांस्कृतिक टीम ने यह गीत प्रस्तुत किया। गीत के बाद दिल्ली घरेलू कामगार यूनियन की ओर से लता ने मौजूद लोगों को 8 मार्च अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर स्त्री दिवस के इतिहास से अवगत कराया। लता ने बताया कि यह पैसेवालों की दुनिया के “मदर्स डे” और “फादर्स डे” जैसे तमाम सस्ते बाज़ारू ‘डेज़’ की तरह “वुमन्स डे” भी एक अन्य “डे” नहीं है। यह असल में अन्तरराष्ट्रीय कामगार स्त्री दिवस है और इसका इतिहास मज़दूर स्त्रियों के ख़ून, क़ुर्बानियों, जज़्बे और जद्दोजहद से लिखा गया था। 1857 में न्यूयॉर्क शहर के कपड़ा मिलों में काम करने वाली स्त्रियों ने बेहद कम मज़दूरी, लम्बे काम के घण्टों और काम की ख़तरनाक परिस्थितियों के ख़िलाफ़ अपने हक़ों के लिए हड़ताल की शुरुआत की। पुलिस ने इन स्त्रियों का बर्बर दमन किया। लेकिन जुझारू और कर्मठ स्त्रियाँ दूनी मेहनत से अपने संघर्ष में जुट गयीं। वे 6-6 इंच मोटी बर्फ़ से ढँकी सड़कों पर सुबह-सुबह हड़ताल की पिकेटिंग के लिए निकल जाया करती थीं। दो साल बाद इन औरतों ने अपनी यूनियन बनायी। इस दौरान स्त्री मज़दूरों का आन्दोलन यूरोप में भी ज़ोर पकड़ रहा था। 1904 में रेडीमेड मिल व जूता बनाने वाली फैक्ट्री में काम करने वाली औरतों ने काम के घण्टे 16 से 10 करने की माँग को लेकर आन्दोलन किया। जिसमें कई स्त्रियों को जेल जाना पड़ा। लेकिन इसके बाद भी संघर्षों और लड़ाइयों का सिलसिला जारी रहा। 1908 में न्यूयॉर्क में सुई उद्योग की स्त्री मज़दूरों ने वेतन बढ़ाने की माँग को लेकर प्रदर्शन किया। 30,000 हज़ार से अधिक मज़दूर औरतें एक बार फिर न्यूयॉर्क शहर की सड़कों पर हड़ताल के लिए उतरीं। इसबार इनकी माँगों में मतदान करने के अधिकार की माँग भी शामिल थी। विश्व के अलग-अलग कोनों में मज़दूर औरतों का आन्दोलन और उनकी राजनीतिक भूमिका तेज़ी से बढ़ रही थी। 1910 में कोपेनहेगन में आयोजित मज़दूर वर्ग की पार्टियों के दूसरे अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन में जर्मनी की कम्युनिस्ट नेता क्लारा ज़ेटकिन ने 8 मार्च को अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर स्त्री दिवस के रूप में मनाने का प्रस्ताव रखा जिसे सर्वसम्मति से पारित किया गया। 8 मार्च 1917 को ही रूस में निरंकुश ज़ारशाही से रूसी मज़दूर “रोटी, शान्ति और आज़ादी” की माँग करते सड़कों पर उतरे जिसमें बड़ी संख्या में मज़दूर औरतें थीं। ज़ार ने पुरुषों, औरतों और बच्चों सबका बर्बर दमन किया। मज़दूरों और आम मेहनतकश में इस दमन से भयंकर आक्रोश फैला और वह ज़ारशाही को उखाड़ फेंकने को सड़कों पर उतरे। 8 मार्च की इस घटना को रूसी क्रान्ति की शुरुआत कहते हैं। लम्बे समय से रूस में ज़ार के शोषण और उत्पीड़न के ख़िलाफ़ मज़दूरों और आम मेहनतकशों को क्रान्तिकारी ताक़तें संगठित कर रही थीं। इनमें सबसे अग्रिम भूमिका बोल्शेविक पार्टी की थी। बोल्शेविक पार्टी के नेतृत्व में ही हज़ारों-हज़ार स्त्रियाँ पुरुषों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर ज़ारशाही को समाप्त कर सर्वहारा सत्ता स्थापित करने के लिए संघर्षरत थीं। मज़दूरों ने 7 नवम्बर 1917 को (रूसी कैलेण्डर के अनुसार 25 अक्टूबर) महान रूसी सर्वहारा क्रान्ति को साकार किया। इस तरह ही चीन में हुई मज़दूर क्रान्ति को सफल बनाने में चीनी स्त्रियाँ क्रान्ति की अगली क़तारों में खड़ी थीं।
आगे कार्यक्रम में बताया गया कि यह दिन हम मज़दूरों का त्योहार है। मज़दूर-मेहनतकश आबादी के लिए उनके संघर्ष और जीत ही असल उत्सव और त्योहार होते हैं और इन्हें मनाने का मतलब होता है अपने इतिहास से सीखकर अपने आज और भविष्य के संघर्षों की तैयारी करना। औरतों के संघर्षों को याद करते हुए ‘दिशा’ की सांस्कृतिक टीम की अगली प्रस्तुति थी “महिलाएँ गर उठी नहीं तो ज़ुल्म बढ़ता जायेगा”।
ज्ञात हो कि पिछली 16 फ़रवरी को कुसुमपुर में दिल्ली घरेलू कामगार यूनियन के इकाई का गठन हुआ था। कार्यक्रम में बताया गया कि घरों में काम करने वाली कई स्त्रियों ने यूनियन की सदस्यता ली है। लता ने बताया कि 29 जनवरी 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि देश में घरेलू मज़दूरों को भयंकर असुरक्षित परिस्थितियों में घोर शोषण और उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। इसके पीछे की सबसे अहम वजह है घरेलू कामगारों को मज़दूर का दर्ज़ा हासिल नहीं होना। इस कारण ही जो कुछ भी मौजूदा श्रम क़ानून हैं घरेलू कामगार उनसे बाहर हो जाते हैं, जैसे न्यूनतम मज़दूरी अधिनियम 1948, मज़दूरी भुगतान अधिनियम 1936, समान मज़दूरी अधिनियम 1976, काम की जगह पर स्त्रियों के साथ यौन उत्पीड़न अधिनियम 2013, आदि। सुप्रीम कोर्ट ने मोदी सरकार को जल्द से जल्द एक कमेटी बनाने का निर्देश दिया है। इस कमेटी में श्रम एवम् रोज़गार मंत्रालय, सामाजिक न्याय व सशक्तिकरण मंत्रालय, महिला एवम् बाल विकास मंत्रालय और क़ानून एवम् न्याय मंत्रालय को शामिल करने का निर्देश दिया है। कमेटी का काम होगा 6 महीने के अन्दर घरेलू कामगारों के लिए उनके व्ययसाय के अनुकूल श्रम क़ानून बनाने और मौजूदा श्रम क़ानूनों के दायरे में उन्हें शामिल करने की सिफ़ारिशें पेश करना। इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि घरेलू मज़दूरों के साथ न्यायपूर्ण श्रम व्यवहार हो इसके लिए भारत को अन्तरराष्ट्रीय श्रम मानकों का पालन करना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने इसके लिए अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन के घरेलू कामगार कन्वेंशन 2011 (संख्या 189) का हवाला दिया है। सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश को देखते हुए घरेलू कामगारों को घरेलू कामगारों के समूचे क्षेत्र को विनियमित करवाने के लिए क़ानून बनवाने के अपने संघर्ष को और तेज़ करने की ज़रूरत है। कार्यक्रम में दिल्ली घरेलू कामगार यूनियन के साथियों ने उपस्थित मज़दूर स्त्री और पुरुषों से यूनियन में संगठित होने का आह्वान किया। मज़दूरों को समझना होगा कि सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश अपने आप लागू नहीं होगा। इसे लागू करवाने के लिए घरेलू कामगारों को बड़ी संख्या में यूनियन के बैनर तले संगठित हो कर सड़कों पर उतरना होगा।
यूनियन पर बातचीत के बाद अगले कार्यक्रम के तौर पर ‘दिशा’ की नाट्य टोली ने सफ़दर हाशमी के नाटक ‘राजा का बाजा’ का मंचन किया। दर्शकों ने नाटक को बहुत सराहा। नाटक के बाद दिल्ली विश्वविद्यालय से आयी ‘दिशा’ की सांस्कृतिक टीम ने “कदम मिलाओ साथियो” गीत प्रस्तुत किया। गीत के बाद अगल नाटक “तमाशा” दिशा, जेएनयू की नाट्य टोली ने ही प्रस्तुत किया। दर्शकों ने इस नाटक को विशेष तौर पर सराहा। मदारी और जमूरे के हर मज़ाक़ पर जनता ने खूब आनन्द लिया।
इसके बाद दिल्ली घरेलू कामगार यूनियन से लता ने लोगों को बताया कि हमें पूँजीपतियों की चाकरी करने वाली तमाम चुनावबाज़ पार्टियों के फ़रेब को समझने की ज़रूरत है और इनमें से सबसे अधिक भाजपा की ज़हरीली राजनीतिक को समझने की ज़रूरत है क्योंकि भाजपा और संघ परिवार मज़दूर-मेहनतकशों की एकता को धर्म, जाति, भाषा, राष्ट्र और क्षेत्र के नाम पर तोड़ते हैं। जब भी मज़दूर-मेहनतकश रोज़गार, शिक्षा, स्वास्थ्य, भोजन, आवास या अपने राजनीतिक माँगों को लेकर उतरता है तो भाजपा की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति हमारे बीच बँटवारा पैदा कर हमारी लड़ाई को कमज़ोर बनाती है। हमें इस फ़ासीवादी राजनीति को समझना होगा और अपने हक़ अधिकार हासिल करने के लिए एकजुट और संगठित होना होगा।
कार्यक्रम की आख़िरी प्रस्तुति थी “यूनियन गीत” जिसे दिशा, डीयू की सांस्कृतिक टोली ने पेश किया। मौजूद सभी लोगों ने दोनों नाटकों और गीतों को सराहा उनका खुलकर मज़ा लिया। साथ ही 8 मार्च अन्तरराष्ट्रीय स्त्री दिवस के इतिहास को ध्यान से सुना। मौजूद मज़दूर स्त्रियों और पुरुषों ने यूनियन बनाने और संगठित होकर अपने हक़ अधिकार के लिए संघर्ष करने की बात पर सहमति जतायी। बुलन्द नारों के साथ कार्यक्रम का समापन किया गया।
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