दवा उद्योग का आदमख़ोर गोरखधन्धा
नवमीत
चिकित्सा विज्ञान के विकास के हर पड़ाव के साथ मानव ने बीमारियों पर विजय की नई बुलन्दियों को छुआ है। खासतौर पर पिछले 100 साल में इस क्षेत्र में लम्बी छलांग लगी है। आज हमारे पास अधिकतर बीमारियों से लड़ने के लिए दवाओं का ज़खीरा मौजूद है। इतनी दवाओं के निर्माण और उपलब्धता के चलते होना तो यह चाहिए था कि हर नागरिक को हर तरह की दवा समय पर और मुफ़्त में उपलब्ध हो। लेकिन सच्चाई इससे कोसों दूर है। अधिकतम जनसंख्या को जरूरी दवाएँ तक उपलब्ध नहीं हैं और जहाँ उपलब्ध हैं वहाँ अधिकतर लोगों की पहुँच नहीं है। किसी समय मानवीय कहा जाने वाला यह पेशा आज मुनाफ़ा आधारित, अमानवीय और निर्मम खूनचूसू तंत्र में तब्दील हो चुका है। दवा कंपनियों से लेकर डॉक्टर और सरकार तक इस पूरे मकड़जाल को बुनने में एकजुट हैं और हर तरह के क़ानूनों, खोखले नैतिकतापूर्ण भाषणों और अपीलों के बावजूद यह गोरखधन्धा तेजी से मानवता के गले में रस्से की तरह कसता जा रहा है। चलिए इस गोरखधन्धे को समझते हैं और इसकी तह तक चलते हैं।
टावर्स वाटसन नामक एक वैश्विक सर्वेक्षण कम्पनी के अनुसार भारत का दवा उद्योग दुनिया में तीसरा सबसे बड़ा दवा उद्योग है। भारत सरकार के रसायन और उर्वरक मंत्रालय के फार्मास्यूटिकल विभाग के अनुसार 2008-09 के बीच भारत के दवा उद्योग का कुला सालाना कारोबार 21 अरब अमेरिकी डॉलर रहा था। हमारे देश में 2007 में ही छोटी-बड़ी 10,563 दवा कम्पनियाँ थी जो करीब 90,000 ब्राण्ड बनाती थीं। इंडियन ब्रांड इक्विटी फाउंडेशन नामक एक गैर सरकारी संगठन द्वारा किए गए एक सर्वे के अनुसार 2020 तक भारतीय दवा बाज़ार का कारोबार 85 अरब अमेरिकी डॉलर हो जाने की सम्भावना है। बहुत तेजी से बढ़ता हुआ दवा उद्योग हमारे देश में ही नहीं पूरी दुनिया में हथियारों के बाद सबसे ज्यादा मुनाफे़ का कारोबार बनता जा रहा है। और यह यूँ ही नहीं हो रहा है। इसके लिए हर तरह के हथकण्डे इन कंपनियों द्वारा अपनाये जा रहे हैं।
एक हथकण्डा है जेनेरिक और एथिकल दवाओं का भ्रमजाल। अधिकतर लोगों का यह मानना है कि जेनेरिक दवाओं की गुणवता ब्रांडेड एथिकल दवाओं से कमतर होती है। बड़ी दवा कंपनियों द्वारा भी यह भ्रम फैलाया जाता है। पढ़े-लिखे लोग अक्सर इस भ्रम का शिकार हो जाते हैं। सबसे पहले तो देखते हैं कि जेनेरिक दवा आखिर होती क्या है? जब भी किसी नई दवा की खोज होती है तो उसको बनाने वाली कम्पनी उसका पेटेंट करवा लेती है. इस तरह से उस दवा को बनाने और बेचने का अधिकार सिर्फ उसी कम्पनी के पास होता है। ऐसे में यह कम्पनी अपनी मनमानी कीमत के साथ इस दवा को बाज़ार में उतारती है और अकूत मुनाफा कमाती है। पेटेंट की अवधि खत्म हो जाने पर कम्पनी को इस दवा का फ़ॉर्मूला सार्वजनिक करना पड़ता है और इसके बाद दूसरी कंपनियां भी इस दवा को बनाकर बेच सकती हैं। अब कम्पटीशन ज्यादा हो जाने की वजह से ये कंपनियाँ इस दवा को बहुत सस्ता बेचती हैं। इन्हीं सस्ती दवाओं को जेनेरिक दवाएँ कहा जाता है। लेकिन जिस कम्पनी ने सबसे पहले दवा को बाज़ार में उतारा था और दूसरी कंपनियां जो बड़े नामों वाली हैं इसी खास दवा को उतने ही महँगे दामों पर बेचती हैं जितने शुरू में थे। इस महँगे ब्रांड की बिक्री अनवरत जारी रहे इसके लिए दावे किये जाते हैं कि महँगी दवाएं जेनेरिक दवाओं की बजाय गुणवत्ता में बेहतर होती हैं। आम लोग ही नहीं बहुत से डॉक्टर भी विश्वास करते हैं कि जेनेरिक दवाओं की क्वालिटी इतनी अच्छी नहीं होती। आइये देखते हैं इन दावों में कितनी सच्चाई है। अमेरिका के बोस्टन में हार्वर्ड मेडिकल स्कूल में 2008 में 47 हृदय रोगों की जेनेरिक और ब्रांडेड दवाओं पर शोध किया गया और पाया गया कि जेनेरिक दवाएँ अपनी रासायनिक संरचना में ब्रांडेड दवाओं के बराबर हैं। जो अन्तर शोधकर्ताओं को मिला वह उनके बनाने की विधि और गोलियों के आकार और रंग जैसे चिकित्सीय रूप से गैरज़रूरी गुणों में था। 2009 में अमेरिका में ही हुए एक अन्य शोध में भी पाया गया कि जेनेरिक दवाएँ औषधीय गुणों में ब्रांडेड दवाओं के बराबर हैं। इस तरह हम देखते हैं कि यह अन्तर सिर्फ मुनाफे़ का है और यह भी कि मुनाफे़ के लिए किस तरह से लोगों पर महँगी दवाएं थोपी जाती हैं।
चलिए अब हम जानते हैं कि जेनेरिक दवाएँ गुणवत्ता में ब्रांडेड दवाओं के बराबर होती हैं, लेकिन अब एक नया हथकण्डा सामने आता है। जेनेरिक दवाओं की आड़ में नकली दवाओं का कारोबार भी खूब फल-फूल रहा है। तमाम बीमारियों की नकली दवाएँ बाज़ार में उपलब्ध हैं जो मरीज़ को ठीक करना तो दूर उलटे नुकसान ज़्यादा करती हैं। कई मामलों में तो जानलेवा साबित होती हैं। और ये सब सरकार और दवा विभाग की नाक के नीचे होता रहता है। इस गोरखधन्धे की चपेट में वे लोग आते हैं जो महँगी दवा खरीद नहीं सकते और सस्ती जेनेरिक दवाओं के बदले नकली दवाओं के चंगुल में फँस जाते हैं। साफ़ है यह पीड़ित आबादी देश की व्यापक मेहनतकश आबादी है। इसी आबादी को ग़रीबी के चलते पर्याप्त पोषण नहीं मिल पाता और गन्दे वातावरण में रहना पड़ता है जिसकी वजह से बीमारियों की चपेट में भी यही आबादी सबसे अधिक आती है। बीमार होने पर दवा के बजाय नकली दवा के रूप में ज़हर मिलता है जो जानलेवा ही साबित होता है।
अगर नकली दवा से बच भी लिया जाये तो एक नया हथकण्डा तैयार खड़ा है। पिछले साल ख़बर आयी थी कि आन्ध्रप्रदेश और तेलंगाना में अहमदाबाद की एक दवा कम्पनी से उसकी दवाओं की बिक्री बढ़ाने की एवज में 44 डॉक्टरों को कैश और गिफ्ट लेते हुए पकड़ा गया था। इंडियन मेडिकल काउंसिल ने आन्ध्रप्रदेश मेडिकल काउंसिल से इन डॉक्टरों के खिलाफ़ “एक्शन” लेने के निर्देश भी दिये थे। बहरहाल डॉक्टरों के खिलाफ़ एक्शन लिया जाना हालाँकि ज़रूरी है लेकिन इसके लिए सिर्फ डॉक्टर ज़िम्मेदार नहीं हैं। डॉक्टरों और दवा कंपनियों का यह “अपवित्र गठजोड़” कोई नई खोज नहीं है। बहुत पहले से ही दवा कंपनियाँ अपने एजेंटों के ज़रिये यह काम अंजाम देती आ रही हैं। कंपनियों और थोक व्यापारियों के लिए काम करने वाले एजेंट या मेडिकल रिप्रेज़ेंटेटिव अपने “टारगेट” पूरे करने हेतु डॉक्टरों को पकड़ते हैं और कमीशन के एवज़ में डॉक्टरों के भी टारगेट तय होते हैं। यहाँ से शुरू होता है मुनाफे़ की हवस का नंगा नाच जिसमें दवा कम्पनियाँ, दवा विक्रेता और डॉक्टर सभी एक साथ ताल से ताल मिलाते हैं। टारगेट पूरा करने के लिए तमाम तरह की गैर ज़रूरी दवाएँ मरीज़ों पर थोप दी जाती हैं जो बहुत बार उनके स्वास्थ्य को नुकसान भी पहुँचाती हैं। इसके अलावा मरीज़ की जेब पर जो बोझ पड़ता है उसके बारे में लिखने की भी ज़रूरत नहीं है। साथ में बड़ी मात्रा में एंटीबायोटिक दवाओं के बेअसर होने के पीछे एक कारण उनका गैर ज़रूरी इस्तेमाल भी है।
स्पष्ट है कि मामला “एथिकल दवाओं” का नहीं बल्कि “एथिक्स” यानि नैतिकता का है, मानवता का है और मानवीय संवेदनाओं का है। लेकिन पूँजीवाद में मानव, मानवता, मानवीय पेशे, मानवीय संवेदनाओं या नैतिकता का कोई अर्थ नहीं होता है। मुनाफे के घटाघोप में दवा तो मुनाफे़ के लिए बिकती ही है लेकिन साथ में बिकती है ज़िन्दगी, मानवीय मूल्य, मानवता और नैतिकता भी जिनकी कीमत कौड़ियों से भी सस्ती होती है। कुछ लोग डॉक्टरों से सेवा करने की भावुकतापूर्ण अपील करते हैं, कुछ लोग प्रभावशाली नीतियाँ और कड़े क़ानून लागू करने की बात करते हैं तो कुछ लोग कहते हैं कि अच्छे बुरे लोग हर पेशे में होते हैं और आज अच्छे लोगों को आगे आने की जरूरत है। लेकिन यह केवल “कुछ” लोगों, कंपनियों या डॉक्टरों की बात नहीं है जो ऐसे घिनौने काम कर रहे हैं, और न ही कोई मानवतावादी अपील, कड़े से कड़ा क़ानून या चन्द ‘अच्छे’ लोगों की भलमनसहत कुछ अच्छा कर सकती है। यहाँ बात चन्द अच्छे या बुरे लोगों की नहीं है। यहाँ बात इस पूरी मुनाफ़ा आधारित अमानवीय व्यवस्था की है। मुनाफे़ पर क़ायम पूरी पूँजीवादी व्यवस्था ही इंसानियत का ख़ून पीती है। पूँजीवाद अपने आप में ही एक मानवद्रोही व्यवस्था है। यह मानवता की सबसे बड़ी बीमारी है और इसका इलाज किसी जेनेरिक या ब्रांडेड दवा में नहीं बल्कि इस सड़ी हुई व्यवस्था को इंकलाब रूपी ऑपरेशन से काट कर अलग कर देने में है। मानव और मानवता का बचाव इस व्यवस्था में सुधार के रास्ते नहीं बल्कि इस पूरी व्यवस्था को समूल उखाड़ कर और मेहनतकश का लोक स्वराज कायम करके ही हो सकता है।
मज़दूर बिगुल, फरवरी 2016
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