गुड़गाँव में हज़ारों-हज़ार मज़दूर सड़कों पर उतरे – यह सतह के नीचे धधकते ज्वालामुखी का संकेत भर है
बिगुल संवाददाता
बीस अक्टूबर को राजधानी दिल्ली से सटे गुड़गाँव की सड़कों पर मज़दूरों का सैलाब उमड़ पड़ा। एक लाख से ज्यादा मज़दूर इस हड़ताल में शामिल हुए। पूरे गुड़गाँव मानेसर औद्योगिक क्षेत्र में उत्पादन लगभग ठप हो गया। पूरी गुड़गाँव-धारूहेड़ा पट्टी में बावल और रेवाड़ी तक के कारख़ानों पर हड़ताल का असर पड़ा।
इससे एक दिन पहले 19 अक्टॅबर को रिको ऑटो नामक कम्पनी के मज़दूरों के शान्तिपूर्ण प्रदर्शन पर कम्पनी के सिक्योरिटी गार्डों के वेष में भाड़े के गुण्डों ने हमला किया और उनकी चलायी गोलियों से अजीत यादव नाम के मज़दूर की मौत हो गयी। इस कातिलाना हमले में बहुत से मज़दूर घायल भी हो गये। इस हमले ने पूरे इलाके के मज़दूरों में लम्बे समय भीतर ही भीतर सुलगते गुस्से को भड़का देने वाली चिंगारी का काम किया। रिको ऑटो के आन्दोलनरत मज़दूरों के साथ सोना कोयो स्टीयरिंग सिस्टम्स, हीरो होण्डा, बजाज मोटर्स, सनबीम, स्कूटर्स इझिडया, मारुति उद्योग सहित दर्जनों कम्पनियों के मज़दूरों ने रीकोके गेट पर धारना दिया। पूरे इलाके में एक से डेढ़ लाख मज़दूर सड़कें पर उतरे। आसपास के कई जिलों से पुलिस बल बुलाया गया लेकिन मज़दूरों के गुस्से और उग्र तेवरों को देखकर कोई कार्रवाई करने की प्रशासन की हिम्मत नहीं पड़ी।
गुड़गाँव-मानेसर की औद्योगिक पट्टी में पिछले कई महीनों से मज़दूर असन्तोष खदबदा रहा है। पिछली जुलाई से दर्जनभर से ज्यादा कम्पनियों में हड़ताल हो चुकी है। यह इलाका देश में ऑटोमोबाइल कम्पनियों के सबसे बड़े केन्द्रों में से एक है। यहाँ हर महीने करीब 28,000 गाड़ियाँ बनती हैं, यानी देश की कुल कारों और मोटरसाइकिलों का 60 प्रतिशत।
इन अत्याधुनिक कम्पनियों की ऊपरी चमक-दमक के पीछे की काली सच्चाई यह है कि यहाँ मज़दूरों से बेहद कम मज़दूरी पर उजरती गुलामों की तरह काम कराया जाता है। इस इलाके में स्थित ऑटोमोबाइल और ऑटो पार्ट्स बनाने की करीब 800 इकाइयों में काम करने वाले 10 लाख से ज्यादा मज़दूरों में करीब तीन चौथाई ठेका या कैज़ुअल मज़दूर हैं। 12-12 घण्टे कमरतोड़ मेहनत के बाद उन्हें जो न्यूनतम मज़दूरी मिलती है वह कम्पनी के थोड़े से नियमित कर्मचारियों के मुकाबले 5-6 गुना कम होती है। उनके काम की स्थितियाँ बहुत कठिन हैं, मामूली सुविधाएँ भी नहीं मिलतीं और सबसे बड़ी बात यह कि वे एकदम तानाशाही जैसे माहौल में काम करते हैं। मशीनों की रफ्तार बढ़ाकर उनसे बतहाश काम लिया जाता है, और सिर पर सवार सुपरवाइज़र बात-बात पर गालियाँ-धमकियाँ देता रहता है।
सिक्योरिटी गार्ड के नाम पर कम्पनियों ने इलाके के गुण्डों और पहलवानों को भरती कर रखा है जो किसी भी बात पर मज़दूर की पिटाई कर देना अपना अधिकार समझते हैं। ज्यादातर मज़दूर हर समय एक मनोवैज्ञानिक आतंक के साये में जीते और काम करते हैं। थोड़ा भी विरोध करने या किसी सुविधा की माँग करने पर निकालकर बाहर कर दिया जाता है। हर समय अनिश्चितता के माहौल में रहते हैं मज़दूर। मज़दूरों की हड्डियों से मज्जा तक निचोड़कर ये कम्पनियाँ बेहिसाब मुनाफा कमा रही हैं। पिछले एक साल में मन्दी के बावजूद ऑटोमोबाइल उद्योग में 14.5 प्रतिशत की दर से बढ़ोत्तरी हुई। भारत इस समय दुनिया का सबसे तेज़ी से बढ़ता ऑटो बाज़ार बन चुका है लेकिन मज़दूरों की हालत दिन-ब-दिन ख़राब होती जा रही है।
ज्यादातर कारख़ानो में कोई यूनियन नहीं है। यूनियन बनाने की तमाम कोशिशों को मैनेजमेण्ट किसी न किसी तरह नाकाम कर देता है। अगुवा मज़दूरों पर अनुशासनहीनता का आरोप लगाकर उन्हें निकाल दिया जाता है। ज्यादातर कारख़ानों में यूनियन के गठन को लेकर ही टकराव होता रहा है। इन हालात को लेकर मज़दूरों के भीतर ज़बर्दस्त असन्तोष है। जगह-जगह हो रही टकराहटें और हड़तालें सतह के नीचे सुलगते ज्वालामुखी का संकेत दे रही हैं। ये आने वाले तूफान के संकेतक हैं। किसी जुझारू संगठित विकल्प के अभाव के चलते आज वहाँ एटक और सीटू के धन्धेबाज़ नेता हावी हैं।
लेकिन यह स्थिति ज्यादा दिनों तक नहीं चलती रह सकती। देश के ज्यादातर हिस्सों की तरह गुड़गाँव के मज़दूरों की समस्या सिर्फ आर्थिक माँगों की नहीं है। उनकी लड़ाई राजनीतिक अधिकारों की भी है। उन्हें जुझारू ढंग से संगठित करने और उनके संघर्ष को राजनीतिक चेतना देने की ज़रूरत है। माकपा और भाकपा से जुड़ी यूनियनों के नौकरशाह नेता यह काम नहीं कर सकते।
आज मज़दूरों के उग्र तेवर देखकर भाकपा सांसद और एटक के नेता गुरुदास दासगुप्ता जैसे लोग यह बयान भी दे रहे हैं कि अगर पूँजीपतियों के गुण्डे मज़दूरों पर गोलियाँ चलायें तो उन्हें भी हथियार उठाने का हक है। लेकिन वास्तव में ये मज़दूरों के गुस्से की आग पर पानी के छींटे डालने और उन्हें चन्द टुकड़े दिलवाने से ज्यादा कुछ नहीं कर सकते। इन्हीं दासगुप्ता महोदय ने दूसरी जगह फरमाया कि ट्रेड यूनियनें तो सेफ्टी वाल्व का काम करती हैं। पूँजीवादी व्यवस्था के इस धूर्त शुभचिन्तक ने सरकार और पूँजीपतियों को समझाया कि यूनियन बन जाने दो, इससे मज़दूरों के गुस्से के बाहर निकलने का एक ज़रिया हो जायेगा और उन्हें कुछ लॉलीपाप थमाकर शान्त किया जा सकेगा। अगर ऐसा कोई सेफ्टी वाल्व नहीं हो, तो आक्रोश फटकर इस व्यवस्था को ही तबाह कर सकता है। इन धन्धेबाज़ों के लिए ट्रेड यूनियनें वर्ग संघर्ष की पाठशाला नहीं बल्कि महज़ ”सेफ्टी वाल्व” ही हो सकती हैं। लेकिन मज़दूर हमेशा ही इनके भरोसे बैठा नहीं रहेगा। और न ही किसी क्रान्तिकारी विकल्प का इन्तज़ार करता रहेगा। आने वाले दिनों में मज़दूरों के स्वत:स्फूर्त उभार फूट पड़ेंगे। क्रान्तिकारी ताकतों को इन स्थितियों को पहचानना होगा और अपनी तैयारियाँ तेज़ कर देनी होंगी।
बिगुल, नवम्बर 2009
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