कम्पनी के लिए एक मज़दूर की जान की क़ीमत महज़ 50,000 रुपये
जीतू,शिवपुरी कॉलोनी, प्याऊ मनियारी रोड, सोनीपत
विगत 6 दिसम्बर 2008 को 17 वर्षीय मज़दूर सोनू की राई औद्योगिक क्षेत्र (सोनीपत) में स्थित प्लास्टिक की एक कम्पनी में मौत हो गयी। कम्पनी के मालिक के मुताबिक़ सोनू ‘पानी पीने के लिए नल के पास गया था और अचानक पैर फिसलने से वह गिर गया और गम्भीर रूप से घायल हो गया। इसके बाद वे उसे राई अस्पताल में ले गये जहाँ डॉक्टर नहीं मिला। फिर सोनू को राजा हरीश्चन्द्र अस्पताल ले गये जहाँ उसकी मृत्यु हो गयी।’ वैसे तो मालिकों की बात पर शायद ही कोई विश्वास करेगा। पर घटना पर ज़रा ग़ौर करें तो स्पष्ट हो जायेगा कि सच्चाई क्या थी? यह घटना रात के 8.30 बजे की है। उसके बाद राई में उन्हें कोई डॉक्टर नहीं मिला। फिर महज 4-5 किमी की दूरी पर स्थित राजा हरीश्चन्द्र अस्पताल में ऑटो से पहुँचने में 11.30 बज गये यानि 3 घण्टे। शव पर चोट का कोई निशान नहीं था।
हक़ीक़त यह थी कि सोनू की राई अस्पताल में जाने से पहले ही मौत हो गयी थी। और अन्य मज़दूरों ने दबी जुबान से बताया कि सोनू की मौत फिसलने के बजाय बिजली का करण्ट लगने से हुई थी। उसके बाद जैसा कि आमतौर पर होता है मालिक, मैनेजर, सुपरवाईजर ने अपने चमचों के ज़रिये यह खबर फ़ैला दी कि उसकी मौत फिसलकर गिरने से हुई थी। सोनू जहाँ रहता था (शिवपुरी में) वहाँ के प्रधान को तथा पुलिस वालों को अपनी तरफ़ मिलाकर बिना पोस्टमार्टम के सोनू की लाश सोनू के घर वालों को दे दी। घर वालों को मालिक ने 50,000 रुपये देने की बात की। हालाँकि मालिक ने तुरन्त कुछ नहीं दिया। जबकि सोनू के घरवालों के पास कफ़न तथा लकड़ी खरीदने तक के भी पैसे नहीं थे। आस-पास के दुकान वालों तथा स्थानीय प्रधान से उधार लेकर सोनू की लाश को जलाया गया।
मालिक 50,000 रुपये देना भी इसलिए माना क्योंकि बात बढ़ने पर सच्चाई सामने आ जाती और दूसरे यह भी कि सोनू बालिग नहीं था। मालिक गैरक़ानूनी ढंग से काम करवा रहा था। सोनू के घरवाले सच्चाई को भाँप चुके थे परन्तु वे चुप रहने पर मजबूर थे। उनका साथ देने वाला कोई नहीं था और जिनसे कार्रवाई की उम्मीद करते वो पुलिस प्रशासन तो मालिक के साथ ही खड़ा था।
इस तरह पैसे की हवस फिर एक मज़दूर की ज़िन्दगी को लील गयी। जिस उम्र में एक नौजवान को स्कूल कॉलेज में होना चाहिये था उस उम्र में वह नौजवान फ़ैक्ट्री में मालिकों के मुनाफ़े के लिए हाड़-माँस गलाते हुए असमय मौत का शिकार बन गया। मालिकों ने मज़दूर की एक ज़िन्दगी को 50,000 रुपये में तौल दिया।
रात को जब चारों ओर सन्नाटा था तो सोनू की माँ की चीख-चीख कर रोने की आवाज़ अन्तरात्मा पर हथौड़े की चोट की तरह पड़ रही थी। और सवाल कर रही थी कि हमारे मज़दूर साथी कब तक इस तरह मरते रहेंगे। कुछ लोगों के लिए हर घटना की तरह यह भी एक घटना थी उसके बाद वे अपने कमरे में जाकर सो गये। क्या वाकई 10-12 घण्टे के काम ने हमारी मानवीय भावनाओं को इस तरह कुचल दिया है कि ऐसी घटनाओं को सुनकर भी इस व्यवस्था को उखाड़ फेंकने की आग नहीं सुलग उठती। एक बार अपनी आत्मा में झाँककर हमें ये सवाल ज़रूर पूछना चाहिए।
बिगुल, जनवरी 2009
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