मुनाफ़ा और महँगाई मिलकर दो ज़िन्दगियाँ खा गये
तेजिन्दर, एक टेक्सटाइल मज़दूर, लुधियाना
लुधियाना के कश्मीर नगर के बसन्ता मल टेक्सटाइल में काम करने वाले छट्टू नाम के नलिया बांयडर की बीवी बच्चे मुनाफ़े की भेंट चढ गये। यह मज़दूर पिछले दो वर्ष से बसन्ता मल टेक्सटाइल में काम करता था। इस कारख़ाने में कुल पैंतीस-चालीस मज़दूर बहुत ही अमानवीय परिस्थितियों में काम करने पर मजबूर हैं। फैक्ट्री में कोई श्रम कानून लागू नहीं है। न तो बोनस है न फ़ण्ड न कोई ई-एस-आई- कार्ड। बारह से पन्द्रह घण्टे काम करना पड़ता है। तन्ख्वाह के नाम पर महज़ चार से पाँच हज़ार रुपये मिलते हैं जो उनकी गुज़र-बसर के लिए नाकाफ़ी होता है। छट्टू भी साढ़े चार हज़ार तन्ख्वाह पाता था जिसमें पति-पत्नी और दो बच्चों का निर्वाह बड़ी मुश्किल से होता था। उसकी बीवी को सात महीने का गर्भ था। इतनी कम तन्ख्वाह में परिवार का गुज़ारा ही बड़ी मुश्किल से हो पाता था। अच्छी ख़ुराक कहाँ से मिले। सारा पैसा कमरे का किराया और राशन का बिल देने में ख़त्म हो जाता था। पत्नी के शरीर में खून की कमी होने की वजह से हालत ख़राब हो गयी। उसे पास के एक निजी अस्पताल में लेकर गये। हालत बहुत गम्भीर थी उसे तुरंत अस्पताल में भर्ती करने की ज़रूरत थी मगर वहाँ भी मुनाफ़े का दानव मुँह खोले बैठा था। उससे दस हज़ार रुपया कैश तुरन्त जमा करने को कहा गया। पहले पैसा जमा करवाओ तब भरती होगी।
वह उनके सामने रोया-गिड़गिड़ाया। मिन्नतें कीं कि अभी भरती कर लीजिये मैं दो घण्टे में इन्तज़ाम करके जमा करा दूँगा। मगर डॉक्टरी के पेशे की आड़ में डाका डालने वाले उन लुटेरों को थोड़ी भी दया नहीं आयी। उसे अस्पताल से वापस लौटा दिया गया। असहाय होकर पत्नी को कमरे पर वापस लेकर आ गया। मोहल्ले की किसी दाई को बुलाकर डिलिवरी करवायी। खून की कमी तो पहले से ही थी। डिलिवरी के समय ज़्यादा खून रिसाव की वजह से रात को साढे़ आठ बजे पत्नी की मौत हो गयी। सुबह तड़के पाँच बजे शिशु की भी मौत हो गयी। जिस मालिक के पास वह काम करता था उसने उसकी सहायता तो क्या करनी थी हाल-चाल भी पूछने नहीं आया।
सराहनीय काम किया उसकी फ़ैक्ट्री और आसपास के फ़ैक्ट्री मज़दूरों ने जिन्होंने अपनी वर्ग एकता और वर्ग भावना की मिसाल पेश की। सैकड़ों मज़दूर ख़बर सुनते ही उसके कमरे पहुँचे। अन्तिम क्रिया करने और उसके घर जाने का आर्थिक इन्तज़ाम किया। आखिरी समय तक दो-ढाई सौ मज़दूर उसके साथ डटे रहे। उसको अहसास नहीं होने दिया कि वह अकेला और बेसहारा है।
हम मज़दूरों में कछ अन्धविश्वासी लोग होते हैं जो ऐसी घटनाओं को भाग का लिखा कहते हैं। क्या यह उसके भाग में लिखा था कि चिकित्सा का इन्तज़ाम रहते हुए भी पैसे के अभाव में उसका लाभ न ले पाये। अगर उसके फ़ैक्ट्री मालिक ने उसका ई-एस-आई- बनाया होता और अस्पताल में चिकित्सा मिली होती तब तो नसीब का लिखा मिट जाता। साथियो, यह नसीब का खेल नहीं है। यह लूट का खेल है जो देश का पूँजीपति शासक वर्ग हम गरीब मज़दूरों के साथ खेल रहा है।
छट्टू के पत्नी-बच्चों का मामला अकेला मामला नहीं है। ऐसे मामले लुधियाना शहर में सैकड़ों होते हैं जो प्रकाश में नहीं आते। छट्टू का मामला तो टेक्सटाइल मज़दूर यूनियन से जुड़ा होने की वजह से सामने आया जिसने गौशाला-कश्मीर नगर के मज़दूरों की अगुवाई की थी। जिस तरह हड़ताल में मज़दूरों ने वर्ग एकता का परिचय दिया था वैसे ही छट्टू वाले मामले में भी वर्ग भावना का परिचय दिया।
मज़दूर बिगुल, फरवरी 2011
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