अ टेल ऑफ़ टू सिटीज़ (दो शहरों की कहानी): सूरत और इन्दौर की लोकसभा सीट जीतने के लिए भाजपा का षड्यंत्रकारी हथकण्डा

विवेक

 

यह सबसे अच्छा समय था,

यह सबसे बुरा समय था,

यह बुद्धिमत्ता का युग था,

यह मूर्खता का युग था,

यह विश्वास का युग था,

यह संदेह का युग था,

यह प्रकाश का दौर था

यह अंधकार का दौर था,

यह आशा का वसंत था,

यह निराशा का शिशिर था,

हमारे सामने सबकुछ था,

हमारे सामने कुछ नहीं था,

हम सीधे स्वर्ग के रास्ते पर थे,

हम दूसरी ओर भी जा रहे थे

संक्षेप मे,

यह समय आज के समय जैसा

इतना हूबहू था कि,

इसके कुछ सबसे ज्यादा शोर मचाने वाले हुक्मरानों ने,

इसके अच्छाई और बुराई के सबसे ऊँचे दर्जे का पर्याय माने जाने के लिए जोर दिया था

(चार्ल्स डिकेंस के उपन्यास
‘अ टेल ऑफ टू सिटीज़’ से)

 

यह बात अब तथ्य के तौर पर स्थापित हो चुका है कि बेरोज़गारी, महँगाई, शिक्षा, चिकित्सा, आवास आदि बुनियादी सवालों पर मोदी सरकार फ़ेल है। यही वजह है कि वह नये सिरे से साम्प्रदायिक आधार पर आम आबादी को बाँटने का काम कर रही है। प्रधानमंत्री मोदी अब चुनावी रैलियों में अपनी सरकार की उपलब्धियाँ भी नहीं गिना पा रहे हैं, घूम फिर कर अपनी हर चुनावी सभा में मोदी हिन्दुत्व की रक्षा के वायदे, मुस्लिम विरोधी बयान और कांग्रेस के मैनीफ़ेस्टो की अपनी अनोखी झूठी व्याख्यायों व ग़लतबयानी तक सिमट गये हैं। लेकिन इसके बावजद भी भाजपा इस चुनाव में अपने विजय  को लेकर आश्वस्त नहीं है। और शायद यही कारण है कि सूरत और इन्दौर की लोकसभा सीटों पर साम-दाम-दण्‍ड-भेद की नीति के तहत भाजपा ने अपनी जीत सुनिश्चित कर ली। यह पूरा घटनाक्रम 90 के दशक की मसाला हिन्दी फ़िल्मों की पटकथा सरीखा था, जहाँ माफ़िया सरगनाओं के इशारे पर चुनावों के नतीजे पहले से ही फ़िक्स होते है। लेकिन जो कभी काल्पनिक प्रतीत होता था, अब वह वास्तविकता में घटित हो रहा है।

इन दोनों सीटों पर जो घटित हुआ, उसे हमें पहले सिलसिलेवार तरीके से देखना चाहिए। पहला वाकया हुआ सूरत लोकसभा सीट पर जहाँ तीसरे चरण के तहत चुनाव होने थे। वहाँ भाजपा के प्रत्याशी मुकेश दलाल को छोड़कर अन्य सभी 8 प्रत्याशियों ने अपना नामांकन ही वापस ले लिया और कांग्रेस के प्रत्याशी का नामांकन जिला निर्वाचन अधिकारी द्वारा तकनीकी आधार पर रद्द कर दिया गया! कांग्रेस ने सूरत लोकसभा सीट पर सुनील कुम्भानी को टिकट दिया था । नामांकन प्रक्रिया के ख़त्म होने के ऐन पहले प्रत्याशी के नामांकन प्रपत्र पर हस्ताक्षर करने वाले प्रस्तावकों ने यह कह दिया कि उन्होंने किसी भी तरह के नामांकन प्रपत्र पर हस्ताक्षर नहीं किये है। इस तरह प्रस्तावकों के हस्ताक्षरों के फ़र्जी होने के आधार पर जिला निर्वाचन अधिकारी ने नामांकन रद्द कर दिया। इस प्रकरण के बाद से सुनील कुम्भानी लापता है। कांग्रेस के प्रत्याशी की तरफ़ से न तो कोई बयान जारी हुआ और न ही वह ख़ुद मीडिया के समक्ष आया। हाँ, कांग्रेस के स्थानीय नेताओं ने कुछ हो-हल्ला ज़रूर मचाया, केन्द्रीय चुनाव आयोग से इस मामले में हस्ताक्षेप की माँग की, पर इसका कोई असर नहीं हुआ। नतीजतन, बिना वोटिंग हुए भाजपा के प्रत्याशी को विजेता घोषित कर दिया गया। वैसे प्रथमदृष्टया यही लगता है कि कांग्रेस के प्रत्याशी की भाजपा से कोई डील ज़रूर हुई थी तथा नामांकन रद्द हो जाना नैसर्गिक लगे इसके लिए जानबूझकर फ़र्जी हस्ताक्षर वाला एंगल जोड़ा गया है।

यह बात भी थोड़ी अजीब है कि जिस सीट पर भाजपा पिछले तीन दशकों से अपराजेय रही है, वहाँ ऐसा क्या हुआ है कि भाजपा जीतने के लिए इतने तिकड़म लगा रही है? दरअसल पिछला एक दशक सूरत के मँझोले और छोटे कपड़ा उत्पादकों एवं कपड़ा मज़दूरों के लिए मुश्किल भरे रहे हैं। जीएसटी के कारण इन कपड़ा उत्पादकों का मुनाफ़ा एक हद तक घटा है, वहीं कपड़ा उद्योग में लगे मज़दूरों के बीच भी बढ़ती महँगाई के कारण भाजपा के ख़िलाफ़ रोष व्याप्त है। कुल मिलाकर भाजपा का जनाधार सूरत में घटा है। अब यह असन्तोष भाजपा के ख़िलाफ़ वोटिंग में तब्दील भी हो सकता था, लेकिन अपनी षड्यंत्रकारी राजनीति के ज़रिये भाजपा ने किसी तरह अपनी सीट बचा ली है।

वहीं इन्दौर में कांग्रेस के उम्मीदवार अक्षय कान्ति बाम ने वोटिंग के कुछ रोज़ पहले अपना नामांकन वापस ले लिया।  बात यह भी सामने आ रही है कि अक्षय कान्ति बाम पर स्थानीय कोर्ट ने एक पुराने ज़मीन विवाद मामले में, हत्या के प्रयास की भी धारा जोड़ दी है। नामांकन वापस लेने के अगले दिन अक्षय कान्ति बाम भाजपा के बड़े नेता कैलाश विजयवर्गीय के साथ गले में भगवा पटका डाले हुए दिखे। तो क्या इसका यह मतलब है कि कोर्ट की कार्रवाई से बचने के लिए अक्षय कान्ति बाम ने भाजपा की शरण ली? तो क्या यहाँ भी मुक़ाबला पहले से फ़िक्स था? इसका जवाब आप सभी जानते हैं! वैसे अभी भी भाजपा के अलावा 12 प्रत्याशी लोकसभा चुनाव में खड़े हैं। लेकिन कांग्रेस के चुनावी मैदान से बाहर हो जाने के बाद इन्दौर में भाजपा की जीत लगभग तय मानी जा रही है।

इन्दौर लोकसभा सीट पर पिछले चुनाव में भाजपा को 65 प्रतिशत के आसपास वोट मिले थे वहीं कांग्रेस को 31 फ़ीसदी वोट मिले थे। यह भी विदित रहे कि भाजपा यह सीट 1989 से लगातार जीत रही है। यानी कुल मिलाकर इन्दौर लोकसभा सीट भाजपा का गढ़ रही है। परन्तु, उसके बाद भी इस सीट पर भाजपा जीतने के लिए तमाम तरह के प्रपंच रच रही है। इन्दौर में दूसरे प्रत्याशियों ने भी भाजपा पर नामांकन वापस लेने के लिए डराने-धमकाने का आरोप लगाया है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि भाजपा के ख़िलाफ़ देशभर में अलग-अलग अनुपात में ही सही पर एक भाजपा सरकार-विरोधी लहर है। जिसका भय अन्दर ही अन्दर भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को भी है। रही सही कसर चुनावी रैलियों में भाजपा के नेताओं के अनर्गल बयानों और विशेषकर प्रधानमंत्री मोदी द्वारा दिये गये बेतरतीब भाषणों ने भाजपा की लोकप्रियता को नुक़सान पहुँचाया है। 2014 और 2019 में जिस मोदी लहर की बात हो रही थी, वह इस बार मन्द पड़ चुकी है। चुनावों के पहले जो भाजपा अजेय दिखायी दे रही थी, चुनावी प्रक्रिया के मध्य आते आते कमजोर पड़ती दिख रही है। और यही कारण है कि भाजपा अपनी सीटे जीतने के लिए हर हथकण्डा अपना रही है।

वैसे यह षड्यन्त्र सिर्फ़ इन दो शहरों तक सीमित नहीं है। गान्धीनगर की सीट पर खड़े अन्य प्रत्याशियों को डराने-धमकाने की बात सामने आ रही है। इस सीट के एक प्रत्याशी ने वीडियो सन्देश के ज़रिये बताया कि उसे नाम वापस लेने के लिए धमकियाँ दी जा रही है। गान्धीनगर की सीट पर भाजपा के तथाकथित “चाणक्य” अमित शाह चुनाव लड़ रहे है।

खजुराहो में इण्डिया गठबन्धन की तरफ़ से खड़े हुए सपा के उम्मीदवार का पर्चा रद्द कर दिया गया है। पर्चा बेहद मामूली तकनीकी आधार पर रद्द किया गया है। इण्डिया गठबन्धन के खजुराहो सीट पर बाहर होने के बाद भाजपा के लिए अब वहाँ कोई चुनौती नहीं है।

सूरत लोकसभा सीट के मामले में तो केन्द्रीय चुनाव आयोग को तुरन्त संज्ञान देने के बावजूद वह चुप्पी साधे हुए बैठा है। सूरत और इन्दौर में जो भी घटित हुआ वह सीधे तौर पर जनता के चुनने और चुने जाने के जनवादी अधिकार पर हमला था। बुर्जुआ जनवाद के दायरे में भारत की जनता के पास जो भी सीमित अधिकार मिले हुए है, भाजपा और संघ उसे भी छीनने पर अमादा है।

वैसे भाजपा आज जो अलग-अलग लोकसभा सीटों पर षड्यंत्रकारी तरीक़े से अपने विरोधियों को पछाड़ रही है, उसका ट्रेलर चण्‍डीगढ़ मेयर चुनाव में भी दिख चुका था। जब चुनाव अधिकारी वोटों के साथ छेडछाड़ करते हुए कैमरे पर पकड़े गये थे। उस वक़्त भारी विरोध के बावजूद केवल उक्त अधिकारी पर कार्रवाई की गयी, परन्तु इसकी पड़ताल नहीं की गयी कि आख़िर किसके कहने पर चुनावों में उक्त अधिकारी ने धाँधली की!

भाजपा चुनाव जीतने के लिए हर सम्भव हथकण्‍डा अपना रही है। इसके लिए वह ईडी- सीबीआई का इस्तेमाल करके वह पहले ही विपक्ष के नेताओं को डरा रही है, उन्हें जेल पहुँचा रही है। कई इलाक़ों में पुलिस फ़ासीवादी भाजपा की मदद कर रही है। इसका उदाहरण हमने आगरा में देखा है, जहाँ कई इलाक़ों में मुस्लिम मतदाताओं को वोट देने से रोका गया है। वहीं दूसरी तरफ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी अपने काडरों को भाजपा की जीत का मार्ग प्रशस्त करने के लिए उतार दिया है। जगह-जगह से इनकी गुण्डागर्दी की ख़बरें भी आ रही है। अभी हाल ही में अमित शाह की रैली में भाड़े की भीड़ का सच उजागर करने वाले ‘मोल्टिक्स’ नाम के चैनल के पत्रकार की भाजपा के कार्यकर्ताओं ने लिंचिंग करने और उसका कैमरा तोड़ने की कोशिश की।

कुल मिलाकर भाजपा सत्ता में दोबारा आने के लिये न सिर्फ़ सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग करने पर आमादा है बल्कि तृणमूल स्तर पर इसने काडरों को भी उतार दिया है, जो अपनी गुण्‍डागर्दी से इस चुनाव को प्रभावित कर रहे हैं। यह सब पर्दे के पीछे से नहीं बल्कि खुल्लम खुल्ला हो रहा है। अगर यह कहा जाये कि फ़ासीवादी दौर में 18वीं लोकसभा के चुनाव ने एक हद तक भारतीय जनतंत्र की सीमा उजागर कर दी है, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

भाजपा की इन सब कारगुज़ारियों पर केन्द्रीय चुनाव आयोग (केचुआ) धृतराष्ट्र बनकर चुप्पी साधे बैठा है। सूरत और इन्दौर मामले पर तो संज्ञान लेते हुए चुनाव आयोग को जाँच का आदेश देना चाहिए था। इस बात की जाँच होनी चाहिए थी कि क्या भाजपा के प्रत्याशियों ने दूसरे प्रत्याशियों पर दबाव डाला है? जाँच में दोषी पाये जाने पर उनका नामांकन ख़ारिज कर दिया जाता। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हो रहा! होने की कोई उम्‍मीद भी नहीं है। जब सैंया भये कोतवाल, तो डर काहे का!

और अन्त में…..

यह सर्वविदित है कि महज़ चुनाव में भाजपा की हार से फ़ासीवाद की पराजय नहीं होगी। सिर्फ़ मेहनतकश जनता के बदौलत खड़ी क्रान्तिकारी पार्टी के द्वारा खड़े व्‍यापक जुझारू जनआन्दोलनों के द्वारा ही फ़ासीवाद को फ़ैसलाकुन मात देने की शुरुआत जा सकती है। लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि भाजपा के सत्ता में रहने से संघी फ़ासीवादियों को अपना एजेण्डा लागू करने की खुली छूट मिली रहती है, भाजपा के सत्ताच्युत होने के उपरान्त वह तुलनात्मक तौर पर कम ज़रूर होगी। हालाँकि यह भी सच है कि भारतीय पूँजीवादी राज्‍यसत्‍ता के सभी निकायों में, चाहे वह सेना हो, पुलिस हो, नौकरशाही हो, न्‍यायपालिका हो या अन्‍य संवैधानिक निकाय, संघ परिवार की घुसपैठ एक आन्‍तरिक कब्‍ज़े या टेकओवर की हद तक पहुँच चुकी है। इसलिए किसी और पूँजीवादी पार्टी की सरकार बनने पर भी वह फ़ासीवाद पर कोई लगाम कसेगी या कस पायेगी, इसकी सम्‍भावना कम है। वहीं देश का पूँजीपति वर्ग ही किसी अन्‍य पार्टी की सरकार को संघ परिवार और भाजपा के साम्‍प्रदायिक फ़ासीवाद पर निर्णायक रूप से लगाम कसने की इजाज़त नहीं देगा। लेकिन यह भी सच है कि चुनावों में हार से तात्‍कालिक अर्थों में राज्‍य मशीनरी को अपने फ़ासीवादी मंसूबों के लिए इस्‍तेमाल करने की संघ परिवार व भाजपा की क्षमता में परिमाणात्‍मक कमी अवश्‍य आयेगी और यह देश में जनता की क्रान्तिकारी शक्तियों को अपने आपको संगठित और एकजुट करने की एक मोहलत देगा। इसलिए यह ज़रूरी हो जाता है कि इस चुनाव में भाजपा को सत्ता से बाहर किया जाये। इसलिए आवश्यक हो जाता है कि भारत की जनता के पास जो चुनने और चुने जाने का अधिकार है, उस पर हो रहे हमले के ख़िलाफ़ एकजुट हुआ जाये। ऐसे किसी भी घटना पर चुप्पी साध कर उसे नियति नहीं माना जाये बल्कि बार-बार उसे उठाया जाये, सत्ताधारियों और संवैधानिक संस्थाओं को बार-बार कठघरे में खड़ा किया जाए।

 

मज़दूर बिगुल, मई 2024


 

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