चण्डीगढ़ मेयर चुनाव: फ़ासीवादी दौर में मालिकों के लोकतन्त्र का फूहड़ नंगा नाच
अविनाश
देख फकीरे लोकतन्त्र का फूहड़ नंगा नाच।
पैसे को यह खुदा बताए राम को आवे लाज
संसद और विधानसभा में दल्लों की बारात
मन्त्री–सन्त्री–तन्त्री के घर नोटों की बरसात।
किसका गिरेबाँ किसने फाड़ा किसका दामन चाक
पूँजी के किस टुकड़खोर का चेहरा लगता साफ
यहाँ सत्य को झुलस रही है संविधान की आँच
देख फकीरे लोकतन्त्र का फूहड़ नंगा नाच।
(‘हवाई गोले’ नाटक से)
पूँजीवादी लोकतन्त्र दिन-प्रतिदिन फूहड़पन और अश्लीलता के नित्य नये उदहारण पेश कर रहा है। पूँजीवादी लोकतन्त्र के तहत ईमानदारी, नैतिकता, विचारधारा व अन्य तमाम आदर्शों का खुले आम केंचुल नृत्य (स्ट्रिप्टीज़ नृत्य जिसमें नाचने वाला अपने कपड़े उतारता चला जाता है) चल रहा है। इस साल 2024 में, दुनिया भर के 80 से ज्यादा देशों में चुनाव होने जा रहे है यानी पूरी दुनिया की लगभग आधी आबादी चुनाव में भाग लेगी। पाकिस्तान और सर्बिया में हाल में हुए चुनावों में घपले-घोटालों की ख़बर सामने आ चुकी है। प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में भारत को ‘मदर ऑफ़ डेमोक्रेसी’ कहा था। भारत में भी लोकतन्त्र के महापर्व के तहत, इस साल लोकसभा चुनाव होने जा रहे है। अभी आने वाले समय में लोकसभा चुनावों में क्या क्या होने वाला है, उसकी एक झलक हाल ही में हुए चण्डीगढ़ मेयर चुनाव में देखने को मिलती है। जहाँ अनिल मसीह जो चण्डीगढ़ चुनाव में रिटर्निंग ऑफिसर थे और अन्दर से भाजपा के दलाल निकले, वह खुलेआम चुनावी नतीजों की प्रक्रिया में धाँधली करते हुए पाए गए हैं। इसका वीडियो वायरल हुआ और उसके बाद चुनावी प्रक्रिया का माख़ौल कैसे बनाया जाता है यह सबने देखा।
चण्डीगढ़ मेयर चुनाव घटनाक्रम: फ़ासीवाद के दौर में पूँजीवादी लोकतन्त्र की राजनीतिक अश्लीलता का जीता-जागता उदाहरण
चण्डीगढ़ मेयर चुनाव दरअसल 18 जनवरी को होने वाले थे, लेकिन जब ‘आप’ और कांग्रेस के पार्षद कार्यक्रम स्थल पर पहुँचे, तो उन्हें बताया गया कि मतदान स्थगित कर दिया गया है क्योंकि पीठासीन अधिकारी अनिल मसीह बीमार हो गए हैं। केन्द्र शासित प्रदेश चण्डीगढ़ का प्रशासन 6 फरवरी को चुनाव कराना चाहता था। लेकिन पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाये जाने के बाद 30 जनवरी को चुनाव कराने का आदेश दिया गया।
चुनाव से पहले, ‘आप’ के पास 13 पार्षद और कांग्रेस के पास 7 पार्षद थे, जिससे इण्डिया गठबन्धन को 36 सदस्यीय सदन में स्पष्ट तौर पर बहुमत मिलने वाला था। भाजपा के पास 15 वोट थे – उसके 14 पार्षदों के, साथ ही उसके चण्डीगढ़ लोकसभा सांसद (जिनके पास नियमों के तहत एक वोट है) किरन खेर का वोट था। भाजपा ने कहा कि उसे शिरोमणि अकाली दल (SAD) के पार्षद का समर्थन प्राप्त है और इसलिए उनके पास कुल 16 वोट है।
30 जनवरी को हुए चुनाव के नतीजे में अनिल मसीह ने जानबूझकर फ़र्जी तरीके से आम आदमी पार्टी (आप)-कांग्रेस के उम्मीदवार कुलदीप कुमार ‘टीटा’ के पक्ष में डाले गए आठ मतपत्रों को अमान्य कर दिया था। यानी भाजपा को फ़ायदा पहुँचाने के लिए वोटों की चोरी की गयी। इसका वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो गया था। पीठासीन अधिकारी मसीह द्वारा आप-कांग्रेस के आठ वोटों को अवैध घोषित करने के बाद, भाजपा के सोनकर को निर्वाचित घोषित किया गया। वीडियो में मसीह को मतपत्रों पर निशान लगाते हुए, बड़े आराम से देखा जा सकता है। इसके बाद कुलदीप कुमार ने उच्च न्यायालय और फिर उच्चतम न्यायालय का रुख किया।
सुप्रीम कोर्ट ने चण्डीगढ़ के मेयर के लिए 30 जनवरी को हुए चुनाव के नतीजे को यह पाते हुए रद्द कर दिया कि पीठासीन अधिकारी अनिल मसीह ने जानबूझकर आम आदमी पार्टी (आप)-कांग्रेस के उम्मीदवार कुलदीप कुमार ‘टीटा’ के पक्ष में डाले गए आठ मतपत्रों को अमान्य कर दिया था।
भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) डी वाई चन्द्रचूड़ और न्यायमूर्ति जे.बी.पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने परिणाम को “क़ानून के विपरीत” बताते हुए और कुलदीप कुमार को “वैध रूप से निर्वाचित उम्मीदवार” घोषित कर दिया। अदालत ने कहा कि वह लोकतन्त्र के “मजाक” और “हत्या” से “स्तब्ध” है, वैसे चुनाव-दर-चुनाव यह एक आम बात बनती जा रही है। वैसे तो सुप्रीम कोर्ट को भाजपा के फ़ासीवादी शासन में और भी बहुत-सी चीज़ों पर स्तब्ध होना चाहिए था, मसलन, ईवीएम घोटाले पर, भाजपा नेताओं के बेधड़क दिये जा रहे साम्प्रदायिक भाषण पर, ईडी व अन्य केन्द्रीय संस्थाओं के सीधे भाजपा द्वारा विपक्षियों को डराने-धमकाने और पूँजीपतियों से चन्दा वसूली पर, आदि। मगर सुप्रीम कोर्ट लगता है हफ्ते में कुछ ही दिनों स्तब्ध होता है! बहरहाल।
इस बीच भाजपा ने आप के तीन पार्षद को भाजपा में शामिल कर लिया। यदि अदालत ने केवल परिणाम को रद्द करने के बजाय नए सिरे से चुनाव का आदेश दिया होता, तो AAP-कांग्रेस की संख्या 20 से गिरकर 17 हो जाती, जबकि भाजपा के वोट बढ़कर 19 हो गए होते (SAD पार्षद और सांसद खेर के वोट सहित)। संसद या राज्य विधानसभाओं के चुनावों के विपरीत, नगरपालिका चुनावों में कोई दलबदल विरोधी क़ानून नहीं है। इसलिए भाजपा बड़े आराम से चुनाव जीत जाती, भले ही सुप्रीम कोर्ट के फैसले से भाजपा के अरमान गुब्बारे से निकलती हवा की तरह फुस्स हो गए। मगर फ़ासीवाद के दौर में पूँजीवादी लोकतन्त्र की गटर-गंगा में गोता लगाते हुए चण्डीगढ़ मेयर चुनाव भाजपा द्वारा चुनाव में जीतने की छटपटाहट साफ़ तौर पर स्पष्ट कर रहा है। इसके लिए साम-दाम-दण्ड-भेद का इस्तेमाल करके किसी भी तरह से चुनाव जीतने की कोशिश लगातार जारी रहती है। साथ-साथ व्यवस्था के अन्दर तक फासीवादीकरण की प्रक्रिया की भी झलक अच्छी तरह से देखने को मिलती है, जहाँ सरेआम चुनावों में धाँधली देखने को मिल रही है। वहीं रीढ़विहीन विपक्ष इस मुद्दे पर एक कारगर ज़मीनी आन्दोलन खड़ा करने में नाकामयाब रहा है, महज़ जुबानी जमाखर्ची के अलावा यह मामला पूरी तरह से रफा-दफा कर दिया गया है।
ऐसे में कुछ लोग लोकतान्त्रिक संस्थानों से काफी उम्मीदें लगा कर बैठे है। खास तौर से जब इलेक्टोरल बॉण्ड्स और चण्डीगढ़ मेयर चुनाव में फैसले आये है, तब से कुछ लोगों की न्यायपालिका व लोकतान्त्रिक संस्थानों के प्रति विश्वसनीयता बढ़ गयी है। लोकतन्त्र के स्तम्भ न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका या फिर मीडिया में किस तरह से संघी घुसपैठ हुई है और इसका किस तरह फासीवादीकरण हुआ, यह किसी से छुपा हुआ नहीं है। न्यायपालिका में ही ज्ञानवापी से लेकर तमाम अन्य फैसले व जज अभिजीत गंगोपाध्याय का भाजपा से टिकट लेकर लोकसभा चुनाव लड़ना, आदि सिर्फ़़ और सिर्फ़़ न्यायपालिका के फासीवादीकरण की और इशारा कर रहा है। ऐसे में न्यायपालिका द्वारा इलेक्टोरल बॉण्ड्स जैसे मुद्दे पर जो निर्णय बहुत आम बात होनी चाहिए थी, वो अविश्वसनीय प्रतीत हो रही है।
इलेक्टोरल बॉण्ड्स की प्रणाली का आना ही अपने आप में भाजपा द्वारा पूँजीपतियों और खुद अपने आपको दी गयी सौगात थी। चूँकि कल तक पूँजीपतियों द्वारा जो पैसा छुप-छुपा कर दिया जाता था, सरकार ने उसके लिए क़ानूनी मान्यता प्रदान कर दी। निश्चित तौर पर भाजपा ने ही इसका सबसे ज्यादा फ़ायदा उठाया जिसके तहत सिर्फ़ 2022-2023 में ही सबसे ज्यादा भाजपा को इलेक्टोरल बॉण्ड्स से 1300 करोड़ रुपए मिले है। जबकि भाजपा को इलेक्टोरल बॉण्ड्स से कुल 6,565 करोड़ रुपए मिले जो कुल इलेक्टोरल बॉण्ड्स का 55 प्रतिशत है। इसलिए अटकलें लगनी शुरू हो गयी हैं कि ऐसा मुमकिन है कि मोदी सरकार के दौर में जिस प्रकार कई घोटालों की फ़ाइलें जल गयीं या ग़ायब हो गयीं वैसे ही इस मामले में भी यह गुँजाइश है की इलेक्टोरल यूनीक कोड से जुड़े कागज़ जल जाये या तोड़-मरोड़ कर इसका डाटा दिया जाये या फिर डाटा ही न निकले। वैसे तो सुप्रीम कोर्ट रोज़-रोज़ स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया को फटकार लगा रहा है, लेकिन एस.बी.आई. भी ढीठ की तरह हर सूचना को देने में देर किये जा रहा है। मोदी सरकार के (अ)मृत काल सबकुछ सम्भव है!
वही चण्डीगढ़ मेयर चुनाव में सब कुछ सामने होने के बाद भी अगर सुप्रीम कोर्ट फैसला नहीं देता, तो वैसे भी व्यवस्था के पास शरीर को ढकने के लिए जो थोड़ा बहुत सूत का धागा बचा है, वो भी निकल जाता। पूँजीवादी लोकतन्त्र के खोल को बचाये रखना आज के दौर के फ़ासीवादी ख़ासियत है। इसी के साथ व्यवस्था के कुछ आन्तरिक अन्तरविरोध भी पैदा होते हैं। व्यवस्था और पूँजीपति वर्ग की दूरदर्शी पहरेदार के तौर पर न्यायपालिका के कुछ फ़ैसले मोदी सरकार के हितों के विपरीत जा सकते हैं। लेकिन इसके आधार पर अगर कोई न्यायपालिका या क़ानूनी एक्टिविज़्म के ज़रिये, संविधान की माला जपते फ़ासीवादी संघ परिवार व मोदी-शाह सरकार से टकराने का सोच रहा है तो भविष्य में उसे लगने वाला सदमा उसे पागलखाने भी पहुँचा सकता है।
आज फ़ासीवाद का विकल्प पूँजीवादी लोकतन्त्र नहीं, बल्कि आमूलगामी व्यवस्था परिवर्तन और समाजवादी व्यवस्था है
2024 के लोकसभा चुनावों की तैयारी में भाजपा सरकारी संस्थानों का इस्तेमाल करके चुनाव में अपनी जीत को सुनिश्चित करने के लिए कैसे एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा रही है, यह तो सबको ही दिख रहा है। आगे आने वाले चुनावों में क्या होगा, ‘चण्डीगढ़ मेयर चुनाव’ इसकी छोटी सी झलक मात्र थी। 2019 के ही लोकसभा चुनाव में ईवीएम से छेड़छाड़ की दर्जनों घटनाएँ सामने आईं थीं। इस पर इलेक्शन कमीशन ने कुछ भी नहीं किया था। 100 प्रतिशत वीवीपैट से मिलान की बात को बड़ी तीव्रता के साथ भाजपा, इलेक्शन कमीशन और सुप्रीम कोर्ट ने रोक दिया था। इलेक्शन कमीशन ने 50 प्रतिशत वीवीपैट से मिलान की बात मानने से भी मना कर दिया था, जबकि 370 सीटों में वोटों में अन्तर पाया गया था। 2024 के लोकसभा चुनाव में भी ईवीएम एक अहम और ज़रूरी मुद्दा है। फिर अभी चुनाव आयुक्त अरुण गोयल ने अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया है। अब चुनाव आयुक्त भी भाजपा द्वारा लाए गए नए क़ानून के तहत चुन लिया गया है, यानी प्रधानमन्त्री अब खुद अपने हाथों से चुनाव आयुक्त नियुक्त करेंगे। ऐसे में समझदार के लिए इशारा काफ़ी होता है की दाल में कुछ काला नहीं, बल्कि पूरी की पूरी दाल काली है।
फिर भी कुछ लोग किसी “शुद्ध (पूँजीवादी) लोकतन्त्र” की वकालत करते हुए,“हमारा महान संविधान”, “न्यायपालिका”, “गंगा ज़मुनी तहजीब”, “नेहरूवियन समाजवाद” का भजन गा रहे हैं। दरअसल ऐसे लोग अनालोचनात्मक तरीके से इतिहासउन्मुख होकर पूँजीवादी लोकतन्त्र को देख रहे होते है, जिसकी वजह से पूँजीवादी लोकतन्त्र के क्षरण और पतनशील होते हुए चरित्र को वो पहचानने से इनकार कर देते है। फ़ासीवाद को लेकर ब्रेख्त की बात उन तमाम लोगों के लिए सही जान पड़ती है, जब उन्होंने कहा था कि “जो लोग पूँजीवाद के खिलाफ हुए बिना फ़ासीवाद के खि़लाफ़ हैं, जो बर्बरता से निकलने वाली बर्बरता पर विलाप करते हैं, वे उन लोगों की तरह हैं जो बछड़े को मारे बिना उसका माँस खाना चाहते हैं” दरअसल यह तमाम लोग फ़ासीवाद को समझना ही नहीं चाहते है। वो फ़ासीवाद को लेकर हमेशा मुगालते में रहना चाहते है। ऊपर से, वे इक्कीसवीं सदी के फ़ासीवाद को समझने से इन्कार कर रहे हैं, जो हिटलर के समान आपवादिक क़ानून लाकर लोकतन्त्र को खुले तौर पर भंग नहीं करता है, बल्कि उसके खोल को बनाये रखता है और उसे बनाये रखते हुए हर वह कुकर्म करता है, तो बीसवीं सदी के फ़ासीवाद ने किये थे। आज फ़ासीवाद से संघर्ष का मसला समाजवाद और सर्वहारा अधिनायकत्व की स्थापना का मसला है, पूँजीवादी जनवाद की पुनर्स्थापना का मसला नहीं, क्योंकि उसे औपचारिक तौर पर भंग ही नहीं किया गया।
इक्कीसवी सदी में पूँजीवादी लोकतन्त्र और पूँजीपति वर्ग अपनी वह बची-खुची प्रगतिशीलता और सम्भावना-सम्पन्नता खो चुका है, जो किसी हद तक उसमें बीसवीं सदी के शुरुआती दशकों में बाकी थी। दीर्घकालिक आर्थिक संकट के मौजूदा दौर में, फ़ासीवाद पूँजीवादी व्यवस्था की एक कमोबेश स्थायी परिघटना बन चुका है, चाहे वह सत्ता में रहे या औपचारिक तौर पर सत्ता के बाहर रहे। पहले कि तरह फ़ासीवाद की ख़ासियत तेज़ गति से उभार और फिर उतनी ही तेज़ गति से पतन नहीं है। फ़ासीवादियों ने भी अपने अतीत से सीखा है। लेकिन आज भी पहले की ही तरह फ़ासीवाद टुटपुँजिया वर्ग का प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन है, जो समूचे पूँजीपति वर्ग लेकिन विशेष तौर पर बड़ी पूँजी की सेवा करता है। पूँजीवादी संकट के दौर में पूँजीपति वर्ग को ऐसी पार्टी चाहिए, जो डण्डे के दम पर मुनाफे के दर को बनाये रखने का काम करे। इसलिए भाजपा को पूँजीपतियों ने सबसे ज्यादा पैसे दिए है और सत्ता में पहुँचाया है। ऐसे में महज़ चुनावी तिकड़मों (इण्डिया गठबन्धन) से फ़ासीवाद को निर्णायक तौर पर हराया नहीं जा सकता है।
आज फ़ासीवाद से लड़ने के लिए जनता के मुद्दों पर ज़मीनी स्तर पर उतर कर जनआन्दोलन खड़ा करने का काम करना होगा। बिना इसके हवा-हवाई या नीम हकीम नुस्खों से फ़ासीवाद को हराया नहीं जा सकता है। इसलिए चण्डीगढ़ मेयर चुनाव एक आम घटना के तौर पर स्थापित हो रही है, जिसपर कही भी शोर या हल्ला नहीं होता है, लोकतन्त्र का फूहड़ नंगा नाच खुलेआम चलता रहता है।
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