आज़ादी की आदिम चाहत, अदम्य साहस और ज़िन्दगी की ललक का नाम है गाज़ा!
अजेय है गाज़ा!!
तय है ज़ायनवादी सेटलर इज़रायल का पीछे हटना!! 
गाज़ा के मुक्तियोद्धाओं के हाथों इज़रायली हत्यारों की लगातार हार जारी है!

लता

फ़िलिस्तीन की जनता के अदम्य साहस ने एक बार फिर सेटलर उपनिवेशवादी ज़ायनवादी इज़रायल को हारने के लिए मजबूर कर दिया है। हत्यारे इज़रायली प्रधानमंत्री नेतन्याहू की सरकार चाहे कितने दावे कर ले गाज़ा में इज़रायल की हताशा स्पष्ट नज़र आने लगी है। हमास को जड़-मूल से समाप्त करने के प्रण और दावों के बीच इज़रायली सेना के भीतर से यह बात निकलकर सामने आने लगी है कि हमास को ख़त्म नहीं किया जा सकता है। इज़रायल द्वारा दबी आवाज़ में हार की यह स्वीकारोक्ति है। इज़रायली सेना के पूर्व अध्यक्ष यारी गोलन ने अपने एक वक्तव्य में कहा कि हमास की सत्ता को समाप्त नहीं किया जा सकता है, कम से कम निकट भविष्य में तो नहीं!”

उत्तरी गाज़ा पर नियंत्रण के तमाम दावों के बीच इज़रायली सेना को उत्तर गाज़ा में सख़्त प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा है। हमास यहाँ से से रॉकेट हमले भी जारी रखे है। एक तरफ़ है इज़रायल का उत्तर गाज़ा पर नियंत्रण का दावा और दूसरी तरफ़ मृत और घायल इज़रायली सैनिकों की बढ़ती संख्या। हालाँकि इज़रायल इस संख्या को छुपाने की तमाम कोशिशें कर रहा है इसके बावजूद जो संख्या आ रही है वह कुछ अलग दास्तान बयान कर रही है। इज़रायली अखबार येदीओथ अहरोनोथा के अनुसार इज़रायल के विभिन्न अस्पतालों में 5000 से अधिक घायल सैनिक भर्ती किये गये हैं। इनमें से 58 प्रतिशत गम्भीर रूप से घायल हैं जिनमें से कई इस क़दर घायल हैं कि उनके हाथ-पाँव काटने की ज़रूरत पड़ रही है। स्वतन्त्र रिपोर्टों के अनुसार, हताहत इज़रायली सैनिकों की वास्तविक संख्या 12,000 से ऊपर है। इज़रायली सेना ने ही माना है कि उसके करीब 200 सैनिक गाज़ा में मारे जा चुके हैं, लेकिन निष्पक्ष प्रेक्षकों के अनुसार यह संख्या 2000 के ऊपर हो सकती है। 16 जनवरी को इज़रायल को अपने सेना की एक पूरी डिवीज़न गाज़ा से बुलाकर वेस्ट बैंक में लगानी पड़ी। इसके पहले, उसकी ख़ास व बेहद प्रशिक्षित गोलानी ब्रिगेड भी गाज़ा में पिटकर भाग चुकी थी। यह दिखाता है कि जब जनता आज़ादी के लिए लड़ती है, हथियारों के बड़े से बड़े ज़खीरे उसके सामने बेकार हो जाते हैं। अपने तमाम आधुनिक सैन्य बल और दुनिया के साम्राज्यवादी शक्तियों के समर्थन के बावजूद इज़रायल को गाज़ा में मुँह की खानी पड़ रही है।

अपनी हार को देखते हुए हताशा में ज़ायनवादी, उपनिवेशवादी नेतन्याहू सरकार ने मासूम बच्चों और गाज़ा के नागरिकों पर हमले को और तेज़ कर दिया है। अपनी पराजय को छुपाने के लिए नेतन्याहू इज़रायल की जनता के सामने गाज़ा के नरसंहार और विनाश को विजय की तरह प्रस्तुत कर रहा है। लेकिन साथ ही वह इस सच्चाई को छुपा नहीं पा रहा कि 100 दिनों से अधिक से चल रहे नरसंहार के बाद भी अभी तक इज़रायली बन्धकों को रिहा क्यों नहीं कराया जा सका है? पूरे उत्तर गाज़ा पर नियंत्रण और दक्षिण गाज़ा पर सघन बमबारी और ज़मीनी हमलों के बाद भी इज़रायल को बन्धक क्यों नहीं मिल रहे हैं? हमास अभी भी किस तरह गाज़ा में शासन कर रहा है और किस प्रकार इज़रायली सेना को खदेड़ रहा है यदि उसके तमाम बड़े नेताओं को समाप्त करने का दावा इज़रायल कर रहा है? 

स्पष्ट है कि हत्यारे नेतन्याहू ने जितने दावे किये उनमें से एक भी पूरा नहीं होता दिख रहा है। नेतन्याहू सरकार ने अपनी जनता को जीत का अहसास दिलाने के लिए गाज़ा के साथ-साथ वेस्ट बैंक पर भी हमले बढ़ा दिये हैं। इसके अलावा कभी लेबनान में हिज़बुल्लाह पर हमले कर रहा है तो कभी ईरान को छेड़ रहा है, ताकि अमेरिकी व यूरोपीय साम्राज्यवाद को मध्यपूर्व में किसी बड़े युद्ध में खींचा जा सके। निश्चित ही, गाज़ा में इज़रायल की हार स्पष्ट दिख रही है। गाज़ा की जनता बहादुरी से लड़ रही है मगर इज़रायल हार को देखते हुए गाज़ा को खून के दलदल में डुबाने की कोशिश कर रहा है। लेकिन उसकी हर कोशिश दुनिया में इज़रायल के अस्तित्व को मुश्किल बना रही है। सभी साम्राज्यवादी देशों में इज़रायल का विरोध अपने चरम पर है, जनता सड़कों पर है और साम्राज्यवादी देशों की सरकारें भी इज़रायल को जारी समर्थन को लेकर मुश्किल में फँसती जा रही हैं। 

गाज़ा की वर्तमान स्थिति 

इस लेख को लिखे जाने तक गाज़ा में युद्ध के 100 से अधिक दिन हो चुके हैं, 24,190 फ़िलिस्तीनियों का नरसंहार हो चुका है जिनमें से 10,000 बच्चे हैं और 7000 औरतें हैं। घायलों की संख्या 60,317 है और 8000 लापता हैं। वहीं वेस्ट बैंक में अभी तक 347 लोग मारे जा चुके हैं जिनमें से 92 बच्चे हैं।  यहाँ घायलों की संख्या 4000 से ऊपर है। गाज़ा के दो-तिहाई से अधिक रिहायशी घर तबाह हो चुके हैं, 370 स्कूल-कॉलेज बर्बाद हो गये हैं और 35 में से 30 अस्पताल इज़रायल ने बम से उड़ा दिये  हैं। इज़रायल ख़ासकर डॉक्टरों, अस्पताल के कर्मचारियों और पत्रकारों को अपना निशान बना रहा है। वेस्ट बैंक में सड़कों पर बच्चों को गोलियाँ मारी जा रही है और हमास के नेताओं की खोज के नाम पर वेस्ट बैंक के तमाम शरणार्थी शिविरों में  नौजवानों पर हमले हो रहे हैं उन्हें मौत के घाट उतार जा रहा है। गाज़ा में ही बड़ी आबादी का विस्थापन हुआ है। आज गाज़ा की आबादी सड़कों पर रह रही है जहाँ न पानी की सुविधा है न ही खाने का इन्तज़ाम, साफ़-सफ़ाई शौचालय तो दूर की बात है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार यदि स्थिति इसी तरह बनी रही तो फ़रवरी महीने तक गाज़ा भयंकर अकाल का शिकार हो जायेगा। इज़रायल न केवल नरसंहार कर रहा है बल्कि तमाम सीमा क्षेत्रों पर पाबन्दी लगाकर जीवन के लिए सभी मूलभूत वस्तुओं और सुविधाओं जैसे दवाइयाँ, चिकित्सा उपकरण, भोजन, पानी आदि को गाज़ा में प्रवेश करने देने में कठिनाई पैदा कर रहा है।

उधर हमास के हमलों में इज़रायल में मरने वालों की संख्या पहले 1,405 बतायी जा रही थी जिसे बदल कर 1,139 कर दिया गया है। घायलों की संख्या 8,730 है। अक्सर इज़रायली आँकड़ों में फेरबदल होती रहती है। वजह साफ़ है विजय की घोषणाओं के बीच बढ़ते आँकड़े इज़रायल की हार की सच्चाई बयान कर रहे हैं और यह भी दिखला रहे हैं कि इज़रायली नस्लवादी फ़ासीवादी लफ़्फ़ाज़, धोखेबाज़ और झूठे हैं। उनके दर्जनों दावों का झूठ इस दौरान पकड़ा गया है।

गाज़ा की जनता का संघर्ष 

1948 के बाद अब तक के सबसे गम्भीर इज़रायली हमले का सामना फ़िलिस्तीन और गाज़ा की जनता कर रही है। इज़रायल ने पूरे गाज़ा पट्टी को खुली जेल में तब्दील कर दिया था। यहाँ से कोई कहीं जा नहीं सकता था और बाहर का कोई व्यक्ति यहाँ आ नहीं सकता था। एक लम्बी फ़ेहरिस्त है सामानों की जिसके प्रवेश पर इज़रायल ने प्रतिबंध लगाया हुआ है। 2008 से गाज़ा में ईंधन जैसे पेट्रोल और डीज़ल पर इज़रायल ने प्रतिबन्ध लगाया हुआ है, बिजली मात्र 4 से 6 घण्टे के लिए रहती है। रोज़मर्रा के समान जैसे पास्ता, शादी के पोशाक, बच्चों की किताबें, चॉकलेट, जैम, डब्बाबन्द फल, फलों के जूस आदि गाज़ा में प्रवेश नहीं कर सकते हैं। गाज़ा की जनता में जीवन के प्रति और अपने हक़ के लिए जो जीवटता है और आज़ादी की आदिम चाहत उसने उन्हें लड़ाकू बनाया है।

वैसे तो इस क्षेत्र में सुरंगों का इतिहास बेहद पुराना है लेकिन 1980-90 के दशक गाज़ा की जनता सुरंग बनाकर इज़रायल के प्रतिबन्ध को तोड़ती रही है। लेकिन 2008-09 के बाद से इज़रायल के प्रतिदिन बढ़ते प्रतिबन्धों को देखते गाज़ा में सुरंगों का एक पूरा सघन जाल बिछाया गया है। निश्चित ही इसमें हमास की नेतृत्वकारी भूमिका है लेकिन गाज़ा की जनता पहले से सुरंग बनाकर इस खुली जेल को तोड़ती रही है। सुरंगों का यह जाल जिसे गाज़ा के लोग ‘गाज़ा अण्डरग्राउण्ड मेट्रो’ कहते हैं गाज़ा की जीवन रेखा बन गयी है। इन सुरंगों से होकर न केवल रोजमर्रा के सामान, चिकित्सा उपकरण, दवाइयाँ गाज़ा पहुँचती है बल्कि युद्ध के उपकरण, हथियार और सुरक्षा उपकरण भी गाज़ा में लाये जाते हैं। गाज़ा की जनता ज़िन्दगी जीना और लड़ना जानती है इसलिए जीने और लड़ने के रास्ते भी निकाल लेती है। प्रत्येक युद्ध के दौरान इज़रायल इन सुरंगों के विनाश का दावा करता है लेकिन हर साल इन सुरंगों की संख्या व लम्बाई बढ़ती जा रही है। कई अखबारों के अनुसार कुछ सुरंगें तो इज़रायल भी जाती हैं। इज़रायल जमीन के ऊपर और ज़मीन के नीचे भी गाज़ा की जनता से खौफ़ज़दा है। ये ‘मेट्रो’ गाज़ा की जीवन रेखा है और इस जीवन रेखा के निर्माता भी स्वयं गाज़ा की जनता है। 

हमने ऊपर लिखा है कि किस तरह रक्तपिपासु नेतन्याहू की सरकार इज़रायलियों से किये तमाम वायदों को पूरा करने में नाकाम रही है और लम्बे समय से जनप्रतिरोध का सामना कर रही है। इज़रायल की जनता युद्ध के गलत प्रबन्धन का आरोप नेतन्याहू पर लगा रही है। कइयों की माँग है कि युद्ध को विराम दिया जाये और बन्धकों को वापस लाया जाये। लेकिन इज़रायल की जनता के बहुलांश के चरित्र को समझना ज़रूरी है। यह सेटलर उपनिवेशवादी आबादी है, जिसका एक छोटा-सा हिस्सा नस्लभेद व इज़रायली शासक वर्ग के धुर दक्षिणपंथ का विरोध करता है। इसका बड़ा हिस्सा फ़िलिस्तीन के सवाल पर नर्म या गर्म नस्लवादी कट्टरपंथ का हामी है और अरब जनता के प्रति और विशेष तौर पर फ़िलिस्तीनी जनता के प्रति नस्लवादी नफ़रत से भरा हुआ है। शान्ति की स्थापना इज़रायल के अन्त और एक सेक्युलर फ़िलिस्तीनी राज्य की स्थापना के साथ ही सम्भव है, जहाँ मूल अरब मुस्लिम, अरब ईसाई, अरब यहूदी, ग़ैर-ज़ायनवादी यहूदी व अन्य समुदायों के लोग बराबर जनवादी हक़ों के साथ रहें।

इज़रायल ने उम्मीद की थी कि इतनी भयानक बमबारी और सैन्य हमलों के बाद जनता के बीच हमास का प्राधिकार ख़त्म हो जायेगा और हमास ख़त्म हो जायेगा। इसके अलावा गाज़ा पर अपना प्रभाव बढ़ाने या गाज़ा को वेस्ट बैंक की तरह अपने नियंत्रण में करने में वह कामयाब हो जायेगा। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हो सका। सालों से कैद, मुफ़लिसी, अपमान और ज़िल्लत की ज़िन्दगी जीने वाली गाज़ा की जनता ने 7 अक्टूबर को ऐलान कर दिया अब ऐसा और नहीं चलेगा! इज़रायल की घेरेबन्दी को तोड़कर उसने आज़ादी का परचम लहराया। ऐसा नहीं था कि गाज़ा की जनता को इस बात का अनुमान नहीं था की प्रतिरोध में इज़रायल क्या करने जा रहा है। ऐसा लग रहा है कि गाज़ा की जनता भी आर-या-पार की लड़ाई के लिए तैयार थी। यही वजह है कि आज इतनी मौत और विनाश के बाद भी गाज़ा की जनता डटी हुई है और इज़रायल को हार स्वीकार करनी पड़ रही है। जनता अपनी आज़ादी और जीने के अधिकार के लिए किसी भी हद तक लड़ने को तैयार होती है, यह बात गाज़ा की जनता ने साबित कर दिया है। इज़रायल को भी हर बीत रहे दिन के साथ इस बात का अहसास हो रहा है और वह बौखलाहट में गाज़ा पर और वेस्ट बैंक पर अपने हमले तेज़ करता जा रहा है। इज़रायल हर कुछ दिन पर हमास के किसी बड़े नेता को मार गिराने का दावा करता है लेकिन हमास का नेतृत्व अभी भी गाज़ा पर बना हुआ है।

इसकी वजह है गाज़ा की जनता के बीच से उनके बेटे-बेटियों का हमास में शामिल होना। हमास पर हम पहले भी लिख चुके हैं और यहाँ भी यह बात देना चाहते हैं कि निश्चित ही हमास की शुरुआत एक कट्टरपंथी इस्लामी संगठन की तरह हुई थी और आज भी उसका चरित्र कट्टरपंथी ही है लेकिन आज का हमास वही पुराना हमास नहीं है। गाज़ा की जनता ने हमास को बदलने, उसके कट्टरपंथ को कमज़ोर करने का काम किया है। यह दीगर बात है कि हमास ने इस प्रक्रिया में ‘दो-राज्य’ समाधान को भी स्वीकार कर लिया जो कि समझौतापरस्ती है। अगर दो-राज्य समाधान सम्भव होता तो वह अब तक हो चुका होता। अब तो इज़रायल इसे खुलेआम नकारता है। लेकिन, फ़िलिस्तीनी मुक्ति संघर्ष ने और हमास में गाज़ा के आम घरों से हो रही भर्तियों ने हमास का चरित्र बदल है।

इसके अलावा गाज़ा में संघर्ष कर रही शक्तियों में सिर्फ़ हमास नहीं है। निश्चित ही हमास सबसे बड़ी ताक़त है लेकिन हमास के अलावा कई इस्लामी जिहादी संगठन और लेफ़्ट शक्तियाँ हैं जो जनता के साथ मिलकर संघर्ष कर रही हैं। यह सच है कि ये शक्तियाँ इतनी नहीं है कि किसी चर्चा का हिस्सा बन सकें लेकिन गाज़ा में इनकी मौजूदगी है। विशेष तौर पर, पिछले दिनों में वामपंथी पी.एफ.एल.पी. (फिलिस्तीन का जनमुक्ति मोर्चा) अपनी ताक़त को कुछ बढ़ाने में सफल हुआ है और उसके योद्धा भी बेहद जुझारू तरीके से इज़रायली हत्यारों से लड़ रहे हैं।

बहरहाल, आज इज़रायल के सारे दावे झूठे साबित हो रहे हैं और नेतन्याहू की सरकार जो युद्ध के पहले भी भ्रष्टाचार और आर्थिक संकट के आरोपों से जूझ रही थी आज युद्ध में मिल रही नाकामी के कारण कहीं अधिक बदनाम और अलोकप्रिय हो रही है। इस समय इज़रायल में युद्ध को विराम देने की माँग उठने के बाद भी इसे जारी रखना नेतन्याहू की मजबूरी है। 

अरब विश्व और गाज़ा का संघर्ष 

फ़िलिस्तीन की जनता और फ़िलिस्तीन का मसला अरब जनता के लिए सबसे महत्वपूर्ण मसला है यह बात हाल ही में हुए ‘ओपीनियन पोल’ (रायशुमारी) में एक बार फिर साफ़ हो गयी है। विभिन्न अरब देशों  की जनता आज विशाल संख्या में सड़कों पर उतरकर गाज़ा और वेस्ट बैंक पर हो रहे हमलों का प्रतिरोध कर रही है और अपने-अपने हुक्मरानों पर दबाव बना रही है। इस दबाव का ही असर है कि बेमन से ही सही लेकिन इज़रायल के विरोध में अरब देशों के हुक्मरानों को  कुछ प्रतीकात्मक प्रतिबन्ध और कुछ प्रतीकात्मक बयान जारी करने पड़ रहे हैं। 

इस क्षेत्र में ईरान की भी अपनी क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाएँ हैं। वह चीन और रूस के साथ मिलकर इस क्षेत्र में अमेरिका के प्रभाव को कम करते हुए अपनी शक्ति को बढ़ाना चाहता है। अभी बेहद कुशलता से ज़ुबानी जमाखर्च करते हुए ईरानी शासक हर दिन बयान जारी कर रहे हैं कि वह बेहद क़रीबी से परिस्थितियों पर नज़र रखे हैं। निश्चित ही सम्भव है कि ईरान गाज़ा को युद्ध में हथियार मुहैया कराने और अन्य मदद कर रहा हो, लेकिन वहाँ की जनता समझ रही है कि यह हर दिन मर रहे बच्चों और भूख व जीवन की सुविधाओं से वंचित गाज़ा की आबादी के लिए पर्याप्त नहीं है। ईरान की जनता के बीच भी असन्तोष बढ़ रहा है। वहीं, दूसरी तरफ़ लेबनान में हिज़बुल्ला भी हमास को खुला समर्थन दे रहा है, हालाँकि वह फ़िलहाल अपने हमलों को कुछ तेज़ करते हुए भी इज़रायल से पूर्ण युद्ध शुरू करने से बच रहा है। याद रहे कि यह वही हिज़बुल्ला है जिसने 2006 में इज़रायली सैन्य ताकत को धूल चटायी थी। बेशक, मध्य-पूर्व में ईरानी धार्मिक कट्टरपंथी सत्ता की धुरी के गाज़ा व हमास के सीमित व विनियमित समर्थन के पीछे उनके अपने मंसूबे व हित हो सकते हैं, लेकिन फिलहाल, वस्तुगत तौर पर उसकी भूमिका कुल मिलाकर सकारात्मक बन रही है, क्योंकि यह मध्य-पूर्व में साम्राज्यवाद के संकट को बढ़ा रहा है।

अरब विश्व की जनता अरब शासकों के प्रतीकात्मक बयानों को समझती है। फ़िलिस्तीन का मुद्दा लम्बे समय से अरब विश्व की गाँठ बना हुआ है। सतह के नीचे घोर असन्तोष सुलग रहा है और यह कभी भी फूट सकता है। लेकिन किसी भी क्रान्तिकारी, प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक नेतृत्व के अभाव में ऐसा असन्तोष किसी न किसी प्रतिक्रियावादी, कट्टरपंथी ताकत को स्थापित करेगा जैसाकि ‘अरब स्प्रिंग’ के दौरान हुआ। फ़िलिस्तीन का संघर्ष अकेला मसला है जो पूरे अरब विश्व के क्रान्तिकारी परिवर्तन की वजह बनने की सम्भावनासम्पन्नता रखता है। हालाँकि इस परिवर्तन को नेतृत्व देने वाली क्रान्तिकारी हिरावल शक्तियाँ अभी बेहद कमज़ोर हैं लेकिन समय हमेशा एक जैसा नहीं रहता। फ़िलिस्तीन की जनता के संघर्ष के ही बूते कालान्तर में नयी शक्तियाँ उभरेंगी और फ़िलिस्तीन से सुलगी आग पूरे अरब विश्व में एक नये क्रान्तिकारी संघर्ष का बिगुल फूँकेगी।

साम्राज्यवादी देशों की आपसी प्रतिस्पर्धा और गाज़ा का संघर्ष 

तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप तैयब एर्दोआन गाज़ा पर इज़रायली हमले की शुरुआत से ही कठोर बयानबाज़ी कर रहे हैं। हालाँकि तुर्की नाटो का भी सदस्य है लेकिन इस समय नाटो देशों के भी आपसी मतभेद खुल कर सामने आ रहे हैं। चाहे यूक्रेन युद्ध हो या गाज़ा युद्ध दोनों में नाटो देशों के बीच दरार उभरकर सामने आयी है। तुर्की पहला अरब देश था जिसने 1949 में इज़रायल को मान्यता दी थी। आज वह पश्चिम के अपने साम्राज्यवादी मित्रों से भी सम्बन्ध बनाये रखना चाहता है साथ ही रूस के साथ अपनी मित्रता को बढ़ा रहा है। अरब विश्व में तुर्की की अपनी महत्वाकांक्षाएँ हैं। इज़रायल के साथ कूटनीतिक और व्यापार सम्बन्ध भी हैं और यह गाज़ा हमले के लिए इज़रायल की आलोचना भी करता है और कई अन्य मसलों पर उसका इज़रायल के साथ अन्तरविरोध भी है। तुर्की की जनता भी इन कलाबाज़ियों को काफ़ी हद तक समझ रही है। 

तुर्की के साथ रूस और चीन की बढ़ती निकटता अमेरिका और नाटो देशों के लिए ख़तरा है। रूस और ईरान तो पहले से ही एक ही धुरी का अंग हैं और ईरान अरब विश्व में अपनी महत्वकांक्षा के लिए इसका इस्तेमाल कर रहा है। यमन के हूती विद्रोही रूस-चीन धुरी के ही अंग हैं और ईरान उनका प्रत्यक्ष समर्थक व अवलम्ब है। हूतियों ने गाज़ा के समर्थन में लाल सागर से इज़रायल जा रहे जहाज़ों का आना-जाना बन्द कर दिया है और ऐसे जहाज़ों पर बमबारी कर रहे हैं। इसके जवाब में अमेरिका ने लाल सागर में “सुरक्षा” के लिए एक मोर्चा बनाया है, हूतियों के ठिकानों पर कुछ बमबारी भी की है, लेकिन यह सब काम नहीं आ रहा है और ईरान खुलकर लाल सागर मसले में अपना हस्तक्षेप बढ़ाता जा रहा है, जो अमेरिका के लिए संकट पैदा कर रहा है।

चाहे चीन हो या रूस किसी भी देश के शासक वर्ग को गाज़ा की जनता और उनके संघर्षों से कुछ लेन-देना नहीं है। रूस जो स्वयं यूक्रेन की जनता पर 2014 से हमले कर रहा है (हालाँकि यूक्रेन में खुद एक अर्द्धनात्सी सत्ता बैठी है और रूस से टकराव के लिए काफ़ी हद तक वह ज़िम्मेदार है) और 2022 से लगातार बमबारी और तबाही कर रहा है वह क्योंकर गाज़ा की जनता के लिए कोई मदद करेगा! चीन हाँगकांग और स्वयं चीन के भीतर जनता के जनवादी अधिकारों को छीनने पर आमादा है, उसकी गाज़ा की जनता से कोई ख़ास सहानुभूति नहीं है। स्पष्ट शब्दों में कहा जाये तो किसी भी साम्राज्यवादी देश के शासक वर्ग की उत्पीड़ित और शोषित जनता के प्रति कोई सहानुभूति नहीं होती। उनके लिए मात्र साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाएँ केन्द्र में होती हैं। इसके अलावा बाक़ी राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय समीकरण होते हैं। अपने कृत्यों के भोंडे सच की लीपापोती के लिए तमाम बयानबाज़ियाँ होती हैं, संगठन होते हैं। साम्राज्यवादी देशों के बनाये संस्थान संयुक्त राष्ट्र को भी इस रोशनी में हम समझ सकते हैं। मात्र आँकड़े बताने और कुछ मानवीय मदद के अलावा पिछले 75 सालों में फ़िलिस्तीन के हक़-अधिकार के लिए संयुक्त राष्ट्र कुछ नहीं कर सका क्योंकि यह हत्यारे शोषक साम्राज्यवादी देशों का मानवतावादी मुखौटा मात्र है। 

गाज़ा का संघर्ष और भारत का मज़दूर वर्ग 

अपने देश में हो रहे अन्याय और अन्य देशों की जनता के साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ़ मज़दूर वर्ग मुखर होकर बोलता है। मज़दूर वर्ग अन्याय से ज़ार-ज़ार होती ज़िन्दगी की कठिनाइयों से वाकिफ़ होता है। इसलिए वह अन्याय के खिलाफ़ खड़ा होता है और अन्याय के खिलाफ़ हो रहे प्रतिरोध संघर्ष को अपना समर्थन देता है, चाहे वह अन्याय दुनिया के किसी भी कोने में हो। गाज़ा की जनता अन्याय के खिलाफ़ बहादुराना संघर्ष की मिसाल है। चाहे रोज़-रोज़ इज़रायल के विस्तारवादी सेटलर औपनिवेशिक मंसूबों के खिलाफ़ संघर्ष हो, ज़िन्दगी जीने के लिए सुरंग बनाने से लेकर तबाह अस्पतालों, घरों, स्कूलों या पार्कों को बार-बार बनाते रहना हो, सभी जगह उनका संघर्ष एक मिसाल है। दुनिया के मज़दूरों के लिए गाज़ा अदम्य व सतत संघर्ष की आज मिसाल बन गया है। गाज़ा हमें सिखलाता है कि उम्मीद, ऊर्जा और जोश के साथ की तरह कठिन और बेहद कुर्बानी भरी परिस्थितियों में भी संघर्ष कैसे जारी रखा जाता है। हम सभी मज़दूर जो अन्याय के खिलाफ़ बेझिझक आवाज़ उठाते हैं हम सबके अन्दर गाज़ा है। हम सभी के लिए गाज़ा जीवन, संघर्ष, साहस और आज़ादी की आदिम चाहत की मिसाल है। 

 

मज़दूर बिगुल, जनवरी 2024


 

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