बजट 2023-24 : मोदी सरकार की पूँजीपरस्ती का बेशर्म दस्तावेज़
मज़दूरों, ग़रीब मेहनतकश किसानों और आम मेहनतकश आबादी की लूट और पूँजीपतियों-अमीरज़ादों-धन्नासेठों को छूट
ग़रीबों को लाभ पहुँचाने वाली सभी योजनाओं के मद में कटौती, पूँजीपतियों को लाभ पहुँचाने का पूरा इन्तज़ाम
सम्पादकीय अग्रलेख
किसी भी देश का बजट उस देश में वर्गों के बीच के सम्बन्धों की एक तस्वीर पेश करता है। पूँजीवादी सरकारों के बजट में पूँजीवादी सरकारों का वर्ग चरित्र साफ़ तौर पर झलकता है। साथ ही, न सिर्फ़ पूँजीपति वर्ग और मज़दूर वर्ग के बीच का अन्तरविरोध उसमें साफ़ तौर पर प्रकट होता है, बल्कि अन्य वर्गों से पूँजीपति वर्ग के रिश्तों के बारे में भी यह दस्तावेज़ काफ़ी कुछ उजागर करता है। मिसाल के तौर पर, यह औद्योगिक-वित्तीय पूँजीपति वर्ग जो कि शासक गुट में प्रभुत्वशाली स्थान रखता है और खेतिहर पूँजीपति वर्ग जो कि शासक गुट में अधीनस्थ स्थान रखता है, के बीच के सम्बन्ध, पूँजीपति वर्ग और उच्च मध्य वर्ग तथा मध्य-मध्य वर्ग के बीच के रिश्ते, पूँजीपति वर्ग और मज़दूर वर्ग व ग़रीब किसानों के जनसमुदायों के बीच रिश्ते और पूँजीपति वर्ग के विभिन्न धड़ों के आपसी रिश्ते के बारे में बजट का दस्तावेज़ खुलासे करता है और उनके आपसी शक्ति-सन्तुलन की एक तस्वीर पेश करता है।
सर्वहारा वर्ग के महान शिक्षक लेनिन ने कहा था कि मज़दूर वर्ग एक राजनीतिक वर्ग यानी सर्वहारा वर्ग के रूप में अपने आपको तभी खड़ा कर सकता है, जबकि न सिर्फ़ वह अपने और पूँजीपति वर्ग के बीच के अन्तरविरोध को सही तरीक़े से समझे, बल्कि वह समाज के सभी वर्गों के बीच के आपसी रिश्तों की एक सन्तुलित समझदारी बनाये। केवल तभी वह व्यापक जनसमुदायों को अपने राजनीतिक नेतृत्व में पूँजीपति वर्ग के विरुद्ध संगठित कर सकता है, अपने दुश्मन वर्गों को सही तरीक़े से समझ सकता है और पूँजीवादी सत्ता और मेहनतकश जनता के बीच के अन्तरविरोध का हल कर सकता है। यानी, केवल तभी वह व्यापक मेहनतकश जनसमुदायों को पूँजीपति वर्ग के राजनीतिक और विचारधारात्मक वर्चस्व से मुक्त कर सकता है और जनता के स्वत:सफूर्त आन्दोलनों को वह ताक़त दे सकता है, जो पूँजीवादी व्यवस्था का ध्वंस कर सर्वहारा वर्ग के शासन और समाजवाद को स्थापित कर सके।
समाज के सभी वर्गों के बीच आपसी सम्बन्धों और विशेष तौर पर इन सभी वर्गों से पूँजीपति वर्ग के सम्बन्ध को उजागर करने के मामले में पूँजीवादी सरकारों द्वारा प्रस्तुत बजट एक विशेष स्थान रखता है। 2023-24 के वित्तीय वर्ष के लिए मोदी सरकार की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा पेश बजट भी इस काम को बख़ूबी करता है।
यह बजट मोदी सरकार द्वारा पेश आख़िरी पूर्ण बजट है। अगले वर्ष जो बजट लोकसभा चुनावों के कुछ महीने पहले पेश होगा, वह समूचे वित्तीय वर्ष हेतु पूर्ण बजट नहीं होगा। इसलिए भी इस बजट का सर्वहारा दृष्टि से विश्लेषण एक महत्व रखता है। यह दिखलाता है कि मोदी सरकार ने पिछले 9 वर्षों में अपने अन्य सभी बजटों के समान उस वर्ग की सेवा की है, जिसके द्वारा बहाये गये हज़ारों करोड़ रुपयों के बूते वह सत्ता में पहुँची है। यह कोई भी सचेत मज़दूर जानता है कि पूँजीवादी चुनावों में अमूमन उसी की जीत होती है, जिसके पीछे पूँजीपति वर्ग की समूची आर्थिक ताक़त, मीडिया, उसके तमाम कारकून और बाहुबल खड़ा होता है। यह मुग़ालता किसी मूर्ख व्यक्ति को ही हो सकता है कि जनता तय करती है कि कौन शासन करे! सभी जानते हैं कि समूचे समाज में उसी वर्ग का बौद्धिक-सांस्कृतिक दबदबा भी क़ायम होता है, जिसका आर्थिक व राजनीतिक दबदबा होता है। इसलिए जनता की राय बनाने के तमाम उपकरणों पर जिस वर्ग का नियंत्रण होता है, वही वर्ग सामान्य परिस्थितियों में और किसी क्रान्तिकारी शक्ति के अभाव में, व्यापक जनसमुदायों की राय का निर्माण करने की ताक़त रखता है। दूसरे शब्दों में, पूँजीपति वर्ग जनता की “सहमति” का निर्माण कर उससे अपने शासन हेतु “सहमति” लेता है। इसलिए सभी जानते हैं कि चुनावों में आम तौर पर जीत उसी पूँजीवादी पार्टी की होती है, जिसके पीछे बुर्जुआ वर्ग की ताक़त खड़ी होती है।
उपरोक्त मानकों और कारणों के आधार पर हमें मौजूदा बजट का भी विश्लेषण करना चाहिए और उसके अनुसार वर्ग संघर्ष या वर्ग शक्तियों के मौजूदा सन्तुलन को भी समझना चाहिए। केवल तभी हम अपनी कमज़ोरियों, अपने कार्यभारों, अपने मित्रों और अपने शत्रुओं को समझ सकते हैं।
मज़दूरों और मेहनतकश आबादी के लिए इस बजट में क्या है?
सबसे पहले तो हमें यह देखना चाहिए कि बजट में शहरी और ग्रामीण मज़दूर वर्ग, ग़रीब किसान आबादी, शहरी व ग्रामीण अर्द्धसर्वहारा आबादी तथा निम्न व मध्यम मध्य वर्ग के लिए क्या है। आम तौर पर कहें, तो जनता के विभिन्न वर्गों के लिए बजट क्या कहता है।
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने संसद में अपने बजट भाषण में दावा किया कि मौजूदा बजट विकास के फल को नौजवानों, स्त्रियों, किसानों, पिछड़ी व दलित जातियों व जनजातियों तक पहुँचायेगा। ग़ौर करिएगा, इसमें मज़दूरों का नाम कहीं नहीं लिया गया है। साथ ही, समूचे बजट भाषण में कहीं भी महँगाई की भयंकर मार की कोई चर्चा या ज़िक्र तक नहीं किया गया है। एक ऐसे समय में यह एक नंगई और अश्लीलता की इन्तहाँ है, जबकि भारत की आम मेहनतकश आबादी अभूतपूर्व महँगाई की मार झेल रही है। यह शासक वर्ग की मैनेजिंग कमेटी यानी मौजूदा मोदी सरकार की प्राथमिकताओं को भी दर्शाता है। जब हम बजट में अलग-अलग मदों व योजनाओं के लिए किये गये धन आवण्टन पर एक निगाह डालते हैं, तो यह और भी साफ़ हो जाता है कि मोदी सरकार की प्राथमिकता विशेष तौर पर बड़े पूँजीपतियों और गौण रूप में मँझोले और छोटे पूँजीपतियों की सेवा करना है।
सबसे पहले उस ‘प्रधानमंत्री ग़रीब कल्याण योजना’ (पीएमजीकेवाई) की बात करते हैं, जिसके तहत 10 किलोग्राम मुफ़्त अनाज राशनकार्ड धारकों को देने का प्रावधान कोविड काल में मोदी सरकार ने किया था और जिसका प्रचार करके आख़िरी उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव किसी तरह से जीता था। जनवरी 2023 से 10 किलोग्राम मुफ़्त अनाज मिलना बन्द हो गया है। सबसे पहले तो यह जान लेना चाहिए कि हर योजना की तरह यह योजना भी एक पुरानी योजना थी, जिसका मोदी सरकार ने बस नाम बदल दिया था। 2013 से ही ‘राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा’ क़ानून के तहत सभी राशनकार्ड धारकों को रु. 3/किलो की दर से चावल और रु. 2/किलो की दर से गेहूँ दिया जा रहा था। बाद में, मोदी सरकार ने इसे मुफ़्त देने का प्रावधान किया और योजना का नाम बदलकर प्रधानमंत्री ग़रीब कल्याण योजना कर दिया। कोविड काल में मोदी सरकार ने जो भयंकर कुप्रबन्धन किया, जिसके कारण लाखों भारतीय लोगों को अपनी जान गँवानी पड़ी, करोड़ों लोगों को रोज़गार से हाथ धोना पड़ा और जीवन-स्तर में भयंकर गिरावट आयी, उससे पैदा होने वाली अलोकप्रियता को देखते हुए और उत्तर प्रदेश में आने वाले विधानसभा चुनावों को देखते हुए, मोदी सरकार ने घोषणा की थी कि अब 5 किलोग्राम की जगह 10 किलोग्राम मुफ़्त अनाज दिया जायेगा। इस योजना की अवधि बढ़ाकर बाद में उसे 2022 के दिसम्बर महीने तक चलाया गया क्योंकि इसी दौर में कई अन्य राज्य चुनाव भी आये। लेकिन पूँजीपति वर्ग का यह लगातार दबाव था कि इस योजना को बन्द किया जाये क्योंकि यह व्यापक मज़दूर और मेहनतकश आबादी की ज़रूरतमन्दी को कम कर रही थी, उनकी मोलभाव की क्षमता को बढ़ा रही थी और नतीजतन मज़दूरी पर बढ़ने का दबाव पैदा कर सकती थी। चूँकि यह मोदी सरकार के मौजूदा कार्यकाल का आख़िरी पूर्ण बजट था, इसलिए मोदी सरकार ने पूँजीपति वर्ग की ज़रूरतों को ध्यान में रखते हुए मुफ़्त अनाज की मात्रा वापस घटाकर 5 किलोग्राम कर दी। जो 5 किलोग्राम अनाज कम किया गया है, उसकी वजह से अब आम मेहनतकश आबादी को पुरानी राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा योजना के समय की तुलना में भी ज़्यादा घाटा होगा। क्योंकि वह ज़रूरत का अतिरिक्त 5 किलोग्राम अनाज अब रु. 15 में नहीं, बल्कि बाज़ार में क़रीब रु. 100 में ख़रीद पायेगी। दूसरे शब्दों में, आम मेहनतकश आबादी को मोदी सरकार के इस क़दम से सीधे-सीधे बड़ा घाटा होगा और उसकी अर्थव्यवस्था और भी डाँवाडोल हो जायेगी क्योंकि उसकी कमाई का पहले से बड़ा हिस्सा अब खाद्यान्न पर ख़र्च होगा। इसका कारण मोदी सरकार ने यह बताया है कि अब कोविड की आपात स्थिति समाप्त हो गयी है और ग़रीब लोगों को अब अनाज की उतनी ज़रूरत नहीं है! यह मोदी सरकार के तमाम सफ़ेद झूठों में से नया सफ़ेद झूठ है। यदि सरकारी आँकड़ों पर ही निगाह दौड़ाएँ तो आम ग़रीब आबादी की हालत अभी भी उतनी ही ख़राब है क्योंकि उसके पास रोज़गार नहीं है और ऊपर से महँगाई भी उस समय के मुक़ाबले कुछ बढ़ी ही है। इसे कहते हैं ग़रीबी में आटा गीला होना!
हमें यह भी समझ लेना चाहिए कि यह कोई “मुफ़्त” अनाज नहीं है और न ही यह मोदी सरकार का कोई अहसान है। जो मेहनतकश ग़रीब आबादी देश में सभी चीज़ों और सेवाओं का उत्पादन करती है, उसकी खाद्य सुरक्षा की गारण्टी लेना और उसे पर्याप्त और पोषणयुक्त भोजना मुहैया कराना सरकार की ज़िम्मेदारी है। इसके लिए भारी अप्रत्यक्ष करों के रूप में भी देश की जनता पहले ही आवश्यकता से ज़्यादा क़ीमत चुका चुकी है।
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून के तहत फ़ण्ड को रु. 2.14 लाख करोड़ से घटाकर इस वर्ष रु. 1.37 करोड़ कर दिया गया है; इसी क़ानून के तहत ग़ैर-केन्द्रीय खाद्य प्राप्ति के लिए बजट को भी रु. 72,282 करोड़ से घटाकर रु. 59,793 करोड़ कर दिया गया है और जिसे पहले मिड-डे मील योजना के तौर पर जाना जाता था और जिसका नाम बदलकर मोदी सरकार ने प्रधानमंत्री पोषण योजना कर दिया था, उसके लिए भी बजट को रु. 12,800 करोड़ से घटाकर रु. 11,600 करोड़ कर दिया गया है। कुल खाद्य सब्सिडी को रु. 2.87 लाख करोड़ से रु. 1.97 लाख करोड़ कर दिया गया है।
तो सबसे बड़ा झटका जो मोदी सरकार ने मौजूदा बजट में देश की आम मेहनतकश ग़रीब जनता को दिया है वह है ‘प्रधानमंत्री ग़रीब कल्याण योजना’ के तहत निशुल्क मिलने वाले अनाज की मात्रा में भारी कमी, यानी उसे आधा कर दिया जाना और आम तौर पर समूची खाद्य सब्सिडी को घटा दिया जाना।
अब आते हैं दूसरे बड़े झटके पर जो कि बजट 2023-24 ने ग़रीब किसानों को दिया है। प्रधानमंत्री किसान योजना के तहत सभी किसान परिवारों को प्रति वर्ष रु. 6000 दिये जाते हैं। ज़ाहिर है, यह राशि ही ग़रीब किसानों के साथ एक बेहूदा मज़ाक़ है। प्रति वर्ष रु. 6000 का अर्थ है रु. 500 प्रति माह! आज की महँगाई के दौर में इसका क्या अर्थ है? लेकिन धनी किसानों और पूँजीवादी ज़मीन्दारों के शोषण के कारण पहले ही क़र्ज़ और बदहाली में दबे किसानों को मोदी सरकार की नीतियों ने इतनी दरिद्रता में पहुँचा दिया है कि उसे रु. 6000 प्रति वर्ष भी अपनी राजनीतिक चेतना की कमी के कारण “मोदी जी का उपहार” मालूम पड़ता है! यानी, पहले इन्सान को भुखमरी की रेखा पर पहुँचा दो और फिर उसे ख़ैरात देकर एहसानमन्द महसूस कराओ! यह मोदी सरकार का पुराना रवैया है जो सभी ग़रीब मेहनतकशों के प्रति वह अपनाती रही है। लेकिन मौजूदा बजट में अब इस राशि को देने के लिए आबण्टित फ़ण्ड को भी इतना कम कर दिया गया है कि 12 करोड़ लाभार्थी किसानों (जिसमें से क़रीब 10 करोड़ 2 हेक्टेयर से कम ज़मीन रखने वाले ग़रीब किसान हैं) को यह राशि मिल ही नहीं सकती है। यानी, एक प्रकार का धोखा या फ़्रॉड ग़रीब किसानों के साथ किया गया है। पिछले वित्तीय वर्ष में यह मद था रु. 70,000 करोड़। मौजूदा बजट में इसे घटाकर रु. 60,000 कर दिया गया है।
इसी प्रकार, जिस उज्ज्वला योजना को लेकर मोदी सरकार ने देश में इतना भ्रम का धुआँ फैलाया था उसकी सच्चाई यह है कि आम ग़रीब मेहनतकशों के घर में यदि सिलिण्डर पहुँचा भी है तो वह ख़ाली पड़ा है और खाना लकड़ी पर पक रहा है क्योंकि सिलिण्डर भरवाने की सामर्थ्य एक दिहाड़ी मज़दूर, ठेका मज़दूर, खेतिहर मज़दूर, ग़रीब किसान या अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले कामगार में नहीं है। आगे भी इस सिलिण्डर के ख़ाली रहने की पूरी व्यवस्था मोदी सरकार ने इस बजट में कर दी है। पेट्रोलियम उत्पादों पर कुल सब्सिडी को रु. 9171 करोड़ से रु. 2257 करोड़ कर दिया गया है। ज्ञात हो कि 2020-21 में यह रु. 37,000 करोड़ रुपये थी। इस प्रकार रसोई गैस से लेकर डीज़ल और पेट्रोल के भी आगे और महँगा होने की पूरी तैयारी जनता को कर लेनी चाहिए। हम सभी जानते हैं कि पेट्रोल व डीज़ल की क़ीमतों में वृद्धि का असर यह होता है कि सभी चीज़ें महँगी हो जाती हैं क्योंकि परिवहन इस पर निर्भर करता है जिसकी बढ़ी हुई लागत के कारण हर चीज़ की क़ीमत ऊपर जाती है।
अब आते हैं एक अन्य मद पर जो गाँवों के ग़रीबों को कम-से-कम एक तात्कालिक, हालाँकि बिल्कुल नाकाफ़ी राहत देता है। महात्मा गाँधी ग्रामीण रोज़गार गारण्टी योजना या मनरेगा। इस पर सरकार ने बजट में भारी कटौती की है। पिछले वित्तीय वर्ष में इसको आबण्टित राशि थी रु. 89,400 करोड़ जिसे इस बजट में घटाकर रु. 61,000 करोड़ कर दिया गया है। मोदी सरकार की दलील है कि यह एक माँग-संचालित योजना है और चूँकि कई राज्यों में मनरेगा के तहत काम ही नहीं हुआ, इससे यह साबित हो जाता है कि इस योजना के तहत काम की गाँवों में माँग कम हो गयी है! यह वैसी ही बात है कि यह कहा जाये कि भारत के मेहनतकश लोग आज से 20 वर्ष पहले के मुक़ाबले आज कम भोजन खा रहे हैं, यानी भोजन की माँग उनमें कम हो गयी है! सच्चाई यह है कि वे कम भोजन खा पा रहे हैं क्योंकि उनकी औसत वास्तविक आय ही घट गयी है। उसी प्रकार कई राज्यों में मनरेगा के तहत काम नहीं हुआ तो इसकी वजह यह है कि उनके पास मनरेगा के तहत फ़ण्ड ही नहीं था या फिर भ्रष्टाचार और त्रुटिपूर्ण सरकारी तंत्र के कारण मनरेगा के तहत काम नहीं दिया जा सका। एक ऐसे समय में जब कि ग्रामीण बेरोज़गारी दिसम्बर 2022 में अपने चरम पर यानी 7.7 प्रतिशत पर पहुँच गयी है और महँगाई भी अपने चरम पर यानी लगभग 6.1 प्रतिशत पर पहुँच गयी है, उस समय मोदी सरकार की यह लफ़्फ़ाज़ी हलक़ के नीचे नहीं उतर सकती है कि मनरेगा के तहत काम की माँग ही कम हो गयी है। सच्चाई यह है कि अन्य कोई विकल्प न होने की स्थिति में मनरेगा के तहत काम की माँग पहले से ज़्यादा है और जिन्हें मिल भी पा रहा है, उन्हें साल में 100 दिन का काम नहीं मिल पा रहा है। ऐसे में, मोदी सरकार द्वारा मनरेगा के बजट में इतनी भारी कटौती गाँव के ग़रीबों के पेट पर लात मारने के समान है। इसके कारण, उनमें ज़रूरतमन्दी और बेहद कम मज़दूरी पर काम करने की शर्तों को स्वीकार करने की ग़रज़ बढ़ेगी। इसका फ़ायदा गाँवों में किसको होगा? इसका फ़ायदा गाँवों में पूँजीवादी फ़ार्मरों व कुलकों यानी धनी किसानों व पूँजीवादी भूस्वामियों को होगा जो हमेशा से ही मनरेगा के वास्तव में ख़िलाफ़ थे; इनके सामने आम ग़रीब ग्रामीण मज़दूरों व अर्द्धसर्वहारा के मोलभाव की क्षमता घट जायेगी। साथ ही, आम तौर पर समूचे पूँजीपति वर्ग को इसका फ़ायदा मिलेगा क्योंकि यह न सिर्फ़ औसत ग्रामीण मज़दूरी को और नीचे गिरायेगा बल्कि कुल औसत मज़दूरी को भी नीचे गिरायेगा। इस समय जब दुनियाभर का और हमारे देश का पूँजीपति वर्ग मुनाफ़े की गिरती औसत दर के संकट का शिकार है और उत्पादकता में कोई नयी छलाँग लगती नहीं दिख रही है, जबकि पूँजी निवेश में आम तौर पर मशीनों व कच्चे माल पर निवेश का हिस्सा बढ़ रहा है, तो मुनाफ़े की दर नैसर्गिक तौर पर गिर रही है और उत्पादकता में किसी नये नवोन्मेष के अभाव में मुनाफ़े की गिरती औसत दर को बढ़ाने का एकमात्र रास्ता है आम तौर पर मज़दूरी के औसत स्तर को नीचे गिराना। मोदी सरकार की तमाम नीतियाँ फ़िलहाल इसी काम को अंजाम दे रही हैं, ताकि पूँजीपतियों, धन्नासेठों और अमीरज़ादों को राहत दी जा सके।
गाँव के ग़रीबों के एक अन्य हिस्से यानी ग़रीब व मँझोले किसानों पर एक और चोट करते हुए मोदी सरकार ने खाद पर सब्सिडी को घटाते हुए रु. 2.25 लाख करोड़ से घटाकर 1.75 लाख करोड़ कर दिया है। इसका अर्थ यह है कि आने वाले साल में खाद की क़ीमतें बढ़ेंगी। जो पूँजीवादी खेती करने वाले बड़े फ़ार्मर हैं, उनकी खेती की लागत भी इससे बढ़ेगी। लेकिन उनके लिए यह उतनी बड़ी समस्या नहीं है क्योंकि यदि वे खुले बाज़ार में बेचते हैं, तो खाद की क़ीमतों में हुई बढ़ोत्तरी सीधे क़ीमतों में स्थानान्तरित हो जायेगी क्योंकि यह एक उत्पादन के साधन की लागत में हुई बढ़ोत्तरी है। हम सभी जानते हैं कि मज़दूरी में होने वाली बढ़ोत्तरी से क़ीमतों में बढ़ोत्तरी नहीं होती। ठीक यही बात एडम स्मिथ नहीं समझ पाये थे और डेविड रिकार्डो ने समझी थी और बाद में ट्रेडयूनियनवादी नेता वेस्टन ने नहीं समझी थी, जिसे मार्क्स ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘मज़दूरी, दाम और मुनाफ़ा’ में समझाया था। यदि मज़दूरी बढ़ती है, तो नये मूल्य में, यानी वर्तमान प्रत्यक्ष मानवीय श्रम द्वारा जो नया मूल्य पैदा हुआ है, उसमें मज़दूरी और मुनाफ़े की हिस्सेदारी में मज़दूरी का हिस्सा बढ़ जाता है और मुनाफ़े की दर कम हो जाती है। लेकिन यदि उत्पादन के साधनों की क़ीमतें बढ़ने की वजह से लागत में बढ़ोत्तरी होती है तो यह बढ़ोत्तरी सीधे क़ीमत बढ़ोत्तरी में स्थानान्तरित हो जाती है। यदि पूँजीवादी किसान सरकारी मण्डी में बेच रहा है, और उसका नेतृत्व यह दावा कर रहा है कि उसकी लागत बढ़ जायेगी और उसके मुनाफ़े में कमी आयेगी तो उसे अक्टूबर 2022 में सरकारी लाभकारी मूल्य में हुई बढ़ोत्तरी पर भी बोलना चाहिए था। अक्टूबर 2022 में गेहूँ के लिए लाभकारी मूल्य को 2022-23 के रु. 2015 प्रति क्विण्टल से बढ़ाकर रु. 2125 कर दिया गया (इसमें लागत प्रति क्विण्टल रु. 1065 है, जिसमें कि मज़दूरी, मशीन, बैल, लगान, बीज, खाद, प्राकृतिक खाद, सिंचाई लागत, उपकरणों व खेत में मौजूद निर्मित ढाँचों की घिसाई दर, डीज़ल/बिजली का ख़र्च, कार्यशील पूँजी पर ब्याज़, पारिवारिक श्रम की काल्पनिक लागत, और विविध ख़र्च शामिल हैं! यानी, 100 प्रतिशत का मुनाफ़ा!), जौ के लिए इसे रु. 1635 प्रति क्विण्टल से बढ़ाकर रु. 1735 प्रति क्विण्टल (60 प्रतिशत मुनाफ़ा), चने के लिए रु. 5230 प्रति क्विण्टल से रु. 5335 प्रति क्विण्टल (66 प्रतिशत मुनाफ़ा), मसूर के लिए रु. 5500 प्रति क्विण्टल से बढ़ाकर रु. 6000 प्रति क्विण्टल (85 प्रतिशत मुनाफ़ा), राई और सरसों के लिए रु. 5050 प्रति क्विण्टल से रु. 5450 प्रति क्विण्टल (104 प्रतिशत का मुनाफ़ा) कर दिया गया था। इसके पहले ख़रीफ़ फ़सलों में भी लाभकारी मूल्य में इसी प्रकार की बढ़ोत्तरी की गयी थी। महँगाई बढ़ने और सरकार द्वारा सार्वजनिक वितरण प्रणाली का ध्वंस करने और निशुल्क अनाज वितरण को कम करने का एक कारण यह बढ़ता हुई लाभकारी मूल्य भी रहा है और अगर सरकार ऐसा न भी करती तो सरकारी ख़रीद से बढ़ते बजट घाटे को सन्तुलित करके उसकी क़ीमत भी अप्रत्यक्ष करों को बढ़ाकर जनता से ही वसूलती।
इसलिए यदि खाद की क़ीमतें बढ़ती हैं, तो पूँजीवादी उत्पादन करने वाली पूँजीवादी फ़ार्मरों व कुलकों के मुनाफ़े की दर में कुछ कमी आ सकती है। लेकिन साधारण माल उत्पादन करने वाले छोटे किसान के लिए खाद की क़ीमतों में कोई भी विचारणीय बढ़ोत्तरी उसे क़र्ज़ के बोझ में दबा सकती है, उसे खेती से ही बाहर कर सकती है क्योंकि खेती की कुल लागत बढ़ने पर गाँव के धनी किसानों पर वह और भी निर्भर हो जायेगा क्योंकि ये ही धनी किसान उसे ऊँची ब्याज़ दर पर लूटने वाले सूदख़ोर भी हैं। इसलिए खाद की क़ीमतों में बढ़ोत्तरी का सबसे भारी नुक़सान आम मेहनतकश ग़रीब किसान आबादी को उठाना पड़ेगा। आम ग़रीब किसान आबादी की यह माँग बनती है कि खाद व अन्य खेती के इनपुट पर सब्सिडी को बढ़ाने के लिए धनी किसानों व पूँजीवादी भूस्वामियों समेत समूचे पूँजीपति वर्ग पर विशेष कर लगाया जाये ताकि कम दरों पर खाद आम मेहनतकश किसान आबादी को उपलब्ध हो सके और इस सब्सिडी का बोझ अप्रत्यक्ष करों के रूप में देश की मेहनतकश जनता पर न पड़े।
मज़दूरों और मेहनतकशों के लिए जो भी कल्याणकारी या रोज़गारी-सम्बन्धी योजनाएँ चलायी जा रही हैं, उनके लिए आबण्टित बजट में भी मोदी सरकार ने कटौती की है। श्रम व रोज़गार मंत्रालय के फ़ण्ड को पिछले वर्ष के रु. 16,084 करोड़ से घटाकर रु. 12,434 करोड़ कर दिया गया है। इसका मक़सद भी ठीक वही है कि मज़दूरों को राज्य से मिलने वाली हर कल्याणकारी या रोज़गार सम्बन्धी राहत को ख़त्म किया जाये, ताकि पूँजीपति वर्ग के समक्ष उसकी मोलभाव की क्षमता को कम किया जा सके और औसत मज़दूरी को और भी नीचे गिराया जा सके। ठीक इसी लक्ष्य को हासिल करने के लिए मोदी सरकार ने श्रम कल्याण मंत्रालय को आवण्टित फ़ण्ड में भी भारी कटौती की है। इसे पिछले साल के रु. 120 करोड़ से घटाकर रु. 75 करोड़ कर दिया है। जैसा कि आप देख सकते हैं कि पहले भी मज़दूरों के कल्याण के लिए आबण्टित फ़ण्ड इतना कम था कि उसे मज़दूरों के साथ एक भद्दा मज़ाक़ ही कहा जा सकता था। अब यह भद्दा मज़ाक़ और भी अश्लील होता जा रहा है।
इसी प्रकार, 2019 में मोदी सरकार ने प्रधानमंत्री कर्मयोगी मानधन पेंशन योजना शुरू की थी, जिसका मक़सद यह था कि 18 वर्ष से ऊपर के अनौपचारिक क्षेत्र के मज़दूर (उन्हें “कर्मयोगी” नाम दिया गया है, जो ख़ुद ही स्पष्ट है : मज़दूर कर्मयोग करें और उनकी मेहनत से पैदा होने वाले फल का पूँजीपति जमकर भोग करें!) 60 वर्ष के बाद रु. 3000 की पेंशन पा सकें। इसके लिए भी इन अनौपचारिक क्षेत्र के मज़दूरों को हर महीने रु. 55 जमा कराने होंगे! बहरहाल, 60 वर्ष की उम्र के बाद जीवनपर्यन्त उन्हें रु. 3000 पेंशन देने का वायदा करने वाली इस योजना के लिए बजट में आबण्टित फ़ण्ड को पिछले वर्ष के रु. 50 करोड़ से घटाकर रु. 3 करोड़ कर दिया गया है! आश्चर्य है! इतने में तो यह योजना लागू की ही नहीं जा सकती है! यानी, यहाँ भी ‘झूठ बोलो, ज़ोर-ज़ोर से झूठ बोलो, बार-बार झूठ बोलो’ के अपने मंत्र को मोदी सरकार ने यहाँ फिर से दुहरा दिया है। इसी प्रकार, जिस आत्मनिर्भर भारत रोज़गार योजना के तहत सरकार रोज़गार सृजन के दावे कर रही थी, उसके बजट को 65 प्रतिशत घटा दिया गया है। पिछले वित्तीय वर्ष में यह रु. 6400 करोड़ था जिसे इस वर्ष घटाकर रु. 2272 करोड़ कर दिया गया है।
यानी, मज़दूरों को किसी भी प्रकार से लाभ पहुँचाने वाली योजनाओं में आबण्टित फ़ण्ड में कटौती की गयी है। साथ ही, ग़रीब किसानों व अर्द्धसर्वहारा वर्ग के कामगारों को लाभ पहुँचाने वाली हर योजना में फ़ण्ड की कटौती की गयी है। समूची मेहनतकश आबादी के लिए जारी बेहद नाकाफ़ी कल्याणकारी योजनाओं के फ़ण्ड को भी पहले से घटा दिया गया है। कुल मिलाकर इसका मक़सद यह है कि मुनाफ़े की औसत दर के गिरने से बिलबिलाये हुए पूँजीपति वर्ग को राहत देने के लिए समूची मेहनतकश आबादी की मोलभाव की ताक़त को कम किया जाये, उन्हें ज़्यादा ज़रूरतमन्द और ग़रज़मन्द बनाया जाये और औसत मज़दूरी को और नीचे गिराया जाये। मोदी सरकार को इलेक्टोरल बॉण्ड्स के ज़रिए अरबों-खरबों रुपये देने वाले पूँजीपतियों का क़र्ज़ तो मोदी सरकार को चुकाना ही था और वह चुका ही रही है। इन बजट नीतियों के ज़रिए वह पूँजीपति वर्ग को यह वायदा कर रही है कि मन्दी के दौर में मज़दूर वर्ग के अधिकारों को छीनने के लिए और आवाज़ उठाने पर उसे कुचलने के लिए भाजपा की फ़ासीवादी सरकार से अच्छा विकल्प उसे नहीं मिलेगा और इस बात के लिए पूँजीपति वर्ग को लुभा रही है कि 2024 के आम चुनावों के पहले भी पूँजीपति वर्ग का पूरा समर्थन भाजपा को ही मिले।
इसी बजट में मोदी सरकार ने यह भी दिखला दिया है कि वह धार्मिक अल्पसंख्यकों, दलितों, आदिवासियों और औरतों के रूप में अतिशोषण के लिए तैयार एक बेहद अरक्षित और कमज़ोर आबादी को भी पूँजीपतियों के सामने थाली में परोस रही है। ग़ौरतलब है कि धार्मिक व जातिगत अल्पसंख्यक आबादी और स्त्रियाँ पूँजीपतियों द्वारा अतिशोषण के लिए एकदम उपयुक्त होते हैं क्योंकि अपने सामाजिक उत्पीड़न व दमन के कारण उनकी सामाजिक स्थिति कमज़ोर होती है और उनका बेहद कम मज़दूरी द्वारा अतिशोषण भी आसान हो जाता है और प्रतिरोध की गुंजाइश भी कम रहती है। मोदी सरकार ने दलितों, आदिवासियों, धार्मिक अल्पसंख्यकों और स्त्रियों के हितैषी होने के जितने दावे किये हैं, उनकी सच्चाई इन सामाजिक समुदायों के लिए बजट में आबण्टित राशि से सामने आ जाती है।
सबसे पहले धार्मिक अल्पसंख्यकों के कल्याण हेतु आबण्टित मद पर आते हैं। अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय हेतु आबण्टित राशि को पिछले वर्ष के रु. 5020.5 करोड़ से लगभग 40 प्रतिशत कम करके रु. 3097.6 करोड़ पर ला दिया गया है। विशेषकर, मुसलमानों के प्रति भाजपा और मोदी सरकार का रवैया किसी से छिपा नहीं है। किसी भी तरह से उनके ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाना और उन्हें देश की समस्याओं के लिए ज़िम्मेदार ठहराने का झूठ प्रसारित करना और उन्हें व्यापक जनता को आपस में बाँटकर समूची जनता की शक्ति को ही कमज़ोर कर देना, संघ परिवार की पुरानी नीति रही है, ठीक वैसी ही नीति जो जर्मनी में हिटलर ने यहूदियों के विरुद्ध अपनायी थी और फिर जर्मन मज़दूर वर्ग का एक हिस्सा भी इसमें बह गया था, जिसका नतीजा यह हुआ था कि वह भी हिटलर के फ़ासीवादी उभार के सामने पराजित हुआ क्योंकि वह नस्ल के आधार पर बँट गया। भारत के मज़दूरों-मेहनतकशों को मोदी सरकार और संघ परिवार धर्म के उन्माद में बहाकर बाँटना चाहते हैं और एक नक़ली दुश्मन के तौर पर अल्पसंख्यकों को खड़ा करके पूँजीवाद और फ़ासीवाद के सारे विनाशकारी नतीजों के लिए उन्हें ज़िम्मेदार ठहराना चाहते हैं। उनकी यह सोच धार्मिक अल्पसंख्यकों के कल्याण हेतु जारी कार्यक्रमों के फ़ण्ड में भारी बजट कटौती में सामने भी आ गयी है।
इसी प्रकार, सामाजिक न्याय व सशक्तीकरण मंत्रालय के फ़ण्ड में मात्र 7.75 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी की गयी है, जबकि पिछले वर्ष से औसत महँगाई दर 8.4 प्रतिशत थी। यानी वास्तव में इस मंत्रालय को दिये गये फ़ण्ड को वास्तविक मूल्य के अर्थों में देखें तो कम किया गया है। उसी प्रकार, विकलांग लोगों के सशक्तीकरण के लिए बने मंत्रालय के फ़ण्ड में भी मात्र 1.05 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी की गयी है, जो वास्तव में दिये गये फ़ण्ड में एक वास्तविक कटौती है। महिला एवं बाल विकास मंत्रालय को दिये गये फ़ण्ड में मात्र 1.1 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी की गयी है, जिसे महँगाई दर से प्रतिसन्तुलित किया जाये, तो वास्तव में यह जारी फ़ण्ड में की गयी कमी है। इससे मोदी सरकार का यह इरादा भी ज़ाहिर हो जाता है कि आँगनबाड़ी, आशा जैसी स्कीमों में काम करने वाली स्कीम वर्करों को मज़दूर मानने और उन्हें उनके श्रम अधिकार, वेतन आदि देने की कोई योजना मोदी सरकार ने नहीं बनायी है; उल्टे उनके फ़ण्ड में कटौती कर इन योजनाओं को ही क्रमिक प्रक्रिया में कमज़ोर बनाने और इसमें काम करने वाली स्कीम वर्करों के रहे-सहे हक़ों पर भी डाका डालने की मंशा मोदी सरकार ने ज़ाहिर कर दी है।
अगर ऊपर से देखें तो यह लग सकता है कि आदिवासी आबादी के लिए जनजातीय मामलों के मंत्रालय के फ़ण्ड में रु. 8451.92 करोड़ में बढ़ोत्तरी कर उसे 12,461.88 करोड़ कर दिया गया है। लेकिन सच्चाई यह है कि इसका बड़ा हिस्सा एकलव्य मॉडल रिहायशी स्कूल की योजना में रु. 2000 करोड़ से रु. 6000 करोड़ की बढ़ोत्तरी के कारण है। अन्य सभी योजनाओं में या तो कोई विशेष बढ़ोत्तरी नहीं की गयी है, या फिर कुछ कटौती की गयी है।
स्त्रियों के लिए बजट में कुल आबण्टित राशि में मामूली बढ़ोत्तरी की गयी है। आर्थिक सर्वेक्षण के संशोधित आकलन के अनुसार, बजट में रु. 2.18 लाख करोड़ आबण्टित होने का अनुमान था, जबकि रु. 2.23 लाख करोड़ आबण्टित किये गये हैं। यह कुल बजट का 4.96 प्रतिशत है, जबकि पिछले वित्तीय वर्ष में इस मद में हुआ ख़र्च कुल बजट का 5.52 प्रतिशत था। यानी बजट में हुई बढ़ोत्तरी और मुद्रास्फीति से तुलना करें, तो स्त्रियों के लिए जारी स्कीमों में अन्तर्गत ख़र्च पहले से घटा है, हालाँकि रुपयों की मात्रा के रूप में यह बढ़ा हुआ दिख सकता है।
समूची जनता के लिए महत्वपूर्ण सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था पर निर्धारित ख़र्च भी मोदी सरकार की प्राथमिकताओं को दिखला देता है। वैसे ऊपर से देखें तो स्वास्थ्य के लिए आबण्टित बजट ख़र्च पिछले वित्तीय वर्ष के मुक़ाबले रु. 38,038 से बढ़ाकर रु. 41,789 करोड़ किया गया है। यानी, लगभग 9 प्रतिशत की नॉमिनल बढ़ोत्तरी। लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि इस बजट को बढ़ाकर ऐसे दिखाया गया है कि मोदी सरकार ने जल और सफ़ाई के बजट को भी अब स्वास्थ्य बजट में जोड़ दिया है। ऐसे में ज़ाहिरा तौर पर बढ़ोत्तरी नज़र आयेगी लेकिन वास्तव में उसमें कमी की गयी है। लेकिन अगर नक़ली बढ़ोत्तरी को भी देखें और इसे पिछले वर्ष से इस वर्ष तक की औसत मुद्रास्फीति दर से प्रतिसन्तुलित करें तो इसमें लगभग शून्य बढ़ोत्तरी की गयी है। वह भी तब जबकि कोविड काल ने दिखला दिया था कि हमारे देश की स्वास्थ्य व्यवस्था कितनी लचर है और उसमें कितने सुधार की आवश्यकता है। लेकिन जो सरकार व्यवस्थित तौर पर निजीकरण में भरोसा करती है, ज़ाहिरा तौर पर वह सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था को जानबूझकर लचर अवस्था में रखेगी, उसे और भी ख़राब बनायेगी, ताकि प्राइवेट सेक्टर को फ़ायदा हो और निजी अस्पताल और नर्सिंग होम फलें-फूलें। वास्तव में, स्वास्थ्य क्षेत्र में निजीकरण को बढ़ावा देने वाली आयुष्मान भारत योजना में ही असली फ़ण्ड बढ़ोत्तरी हुई है, रु. 6427 करोड़ से रु. 7200 करोड़। राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन में पिछले वर्ष के मुक़ाबले रु. 37,159 करोड़ के मुक़ाबले कमी करके रु. 36,785 करोड़ ही दिया गया है।
इसी प्रकार शिक्षा पर ख़र्च में भी नॉमिनल बढ़ोत्तरी को छोड़ दें तो वास्तविक अर्थों में मोदी सरकार ने कटौती की है। लक्ष्य है शिक्षा के क्षेत्र में निजीकरण की प्रक्रिया को और ज़्यादा रफ़्तार देना। शिक्षा के लिए पिछले साल के रु. 1.04 लाख करोड़ रुपये की तुलना में इस बार रु. 1.12 लाख करोड़ रुपया निर्धारित किया गया है। अगर इसे मुद्रास्फीति से प्रतिसन्तुलित कर दें तो यह वास्तव में शिक्षा के बजट में कमी है। कुल बजट का मात्र 0.37 प्रतिशत शिक्षा के लिए आबण्टित किया गया है। मोदी सरकार से पहले के दौर में यह कुल बजट का क़रीब 0.65 प्रतिशत के आस-पास हुआ करता था। लेकिन मोदी सरकार इसे सबसे नीचे लाने वाली सरकार साबित हुई है।
प्रधानमंत्री आवास योजना में रु. 48,000 करोड़ से रु. 79,590 करोड़ की अच्छी-ख़ासी बढ़ोत्तरी की गयी है। लेकिन यहाँ भी हम मज़दूरों-मेहनतकशों को दो बातें समझ लेनी चाहिए। पहली बात, पहले की सरकारी आवास योजनाओं में सरकार मकान बनाकर देती थी। इस योजना में निजी पूँजीपति यानी बिल्डर मकान बनायेंगे और सरकार इस फ़ण्ड से उनको सब्सिडी देगी। लेकिन सरकार सब्सिडी कहाँ से दे रही है? वह आपसे और हमसे लेने वाले अप्रत्यक्ष करों के ज़रिए यह सब्सिडी देगी। यानी, इस योजना में वास्तव में जनता के नाम पर निजी बिल्डरों को फ़ायदा पहुँचाया जाना है। इसीलिए इसमें इतनी फ़ण्ड बढ़ोत्तरी की भी गयी है। दूसरी बात यह है कि मोदी सरकार आँकड़ों को छिपाकर झूठे दावे करने में कुशल है। अभी तक यह नहीं बताया गया है कि पिछले वित्तीय वर्ष में इस योजना के तहत वास्तव में कितने ग़रीबों को घर हासिल हुए हैं। इसलिए वास्तव में क्या हुआ है, यह किसी को नहीं मालूम। बस घोषणाएँ हैं, कुछ राशियाँ हैं, ठोस तौर पर कुछ भी नहीं है।
अब आते हैं इस पर कि यह बजट पूँजीपति वर्ग को क्या देता है।
पूँजीपति वर्ग के लिए बजट की सौग़ात
वैसे तो ऊपर जिन-जिन बजट आबण्टनों के ज़रिए व्यापक मेहनतकश जनता को पूँजीपति वर्ग के समक्ष अरक्षित, कमज़ोर, ज़रूरतमन्द और ग़रज़मन्द बनाया गया है, वे सभी नीतियाँ सीधे-सीधे पूँजीपतियों को ही लाभ पहुँचाती हैं, लेकिन बजट ने कुछ विशिष्ट आबण्टन भी किये हैं जो कि अलग-अलग मात्रा में समूचे पूँजीपति वर्ग को फ़ायदा पहुँचाते हैं।
सबसे पहले छोटे और मँझोले पूँजीपति वर्ग की बात करते हैं, जिसको मिलने वाला फ़ायदा बड़े पूँजीपति वर्ग के मुक़ाबले बेशक कुछ कम हो सकता है, लेकिन वह निश्चित तौर पर भारी फ़ायदा है। सरकार ने सूक्ष्म, छोटे व मँझोले उपक्रमों के लिए पिछले वित्तीय वर्ष में रु. 5455 करोड़ आबण्टित किया था, इस वर्ष के संशोधित आकलन के अनुसार उसे रु. 15,700 करोड़ आबण्टित किये जाने थे, लेकिन बजट ने वास्तव में उसे रु. 21,422 करोड़ आबण्टित किये हैं। इसके अलावा, ऋण लेने को इन छोटे व मँझोले पूँजीपतियों के लिए आसान बना दिया गया है, कई प्रकार के लाइसेंस व अनुमतियाँ लेने से उन्हें और समूचे पूँजीपति वर्ग को ही छूट दे दी गयी है। मिसाल के तौर पर, 39,000 अनुपालनों को समाप्त कर दिया गया है और 3400 क़ानूनी अपराधों को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया है। इन दोनों का फ़ायदा निश्चित तौर पर बड़े पूँजीपति वर्ग को भी मिलेगा, लेकिन मुनाफ़े का मार्जिन ज़्यादा होने और उत्पादकता ज़्यादा होने से ज़्यादा प्रतिस्पर्द्धी होने के कारण बड़े पूँजीपति वर्ग को इन तमाम अनुपालनों और नियमों को तोड़ने की चिन्दीचोरी उस हद तक नहीं करनी पड़ती जितनी कि छोटे पूँजीपतियों को करनी पड़ती है। इसलिए इसका भी सबसे बड़ा फ़ायदा छोटे और मँझोले पूँजीपतियों को मिलेगा। चुनावों के ठीक पहले मोदी सरकार इस वर्ग को नाराज़ नहीं कर सकती है और इसीलिए बड़ी पूँजी की ज़्यादा निष्ठा से सेवा करने के बावजूद उसे छोटे व मँझोले पूँजीपति वर्ग का भी ध्यान रखना है और उसे रखा भी गया है।
बड़े कारपोरेट घरानों यानी बड़े पूँजीपति वर्ग ने पहले ही अपनी दो प्राथमिकताओं को मोदी सरकार से साझा कर दिया था : पहला था बड़े पैमाने पर अवरचनागत परियोजनाओं में निवेश करना जो दो तरह से पूँजीपति वर्ग को फ़ायदा पहुँचाता है। पहला, निजीकरण के ज़रिए ये निवेश बड़े पूँजीपतियों के मुनाफ़ा पीटने के अवसर मुहैया कराता है; दूसरा, समूचा बजट आबण्टन जो कि अवरचना निर्माण पर किया जाना है, उसका नोडल अवरचना के क्षेत्र में होना है, यानी एक्सप्रेस-वे, एयरपोर्ट, बन्दरगाह आदि का निर्माण, न कि आम जनता के लिए ज़रूरी इन्फ़्रास्ट्रक्चर में, यानी आर्टिरियल सड़कें, गाँवों और शहरों के ग़रीब इलाक़ों में अवरचना निर्माण आदि। निश्चित तौर पर, इस प्रकार का निवेश रोज़गार भी पैदा करता है। लेकिन इसमें रोज़गार सृजन की दर लगातार घटती रही है क्योंकि ठेकाकरण और अनौपचारिकीकरण तथा मशीनीकरण ने प्रति इकाई रोज़गार इस क्षेत्र में कम किया है। इसमें होने वाला निवेश मूलतः पूँजीपति वर्ग को ही फ़ायदा पहुँचाने वाला है। पिछले वर्ष के रु. 7.28 लाख करोड़ के मुक़ाबले इस वित्तीय वर्ष में मोदी सरकार ने इस पर रु. 10 लाख करोड़ का पूँजी निवेश करने की योजना बनायी है। ज़ाहिर है, यह ख़र्च होने की प्रक्रिया में भी पूँजीपतियों को लाभ पहुँचायेगा और ख़र्च होने के बाद भी।
एक तीसरा कारण भी है जिसके चलते बड़ा पूँजीपति वर्ग अवरचना के विकास में दिलचस्पी ले रहा है और मोदी सरकार ने इसमें निवेश बढ़ाकर उसकी दिलचस्पी का सकारात्मक रूप से जवाब भी दिया है। यह कारण यह है कि राष्ट्रीय मॉनीटाइज़ेशन पाइपलाइन की योजना के तहत मोदी सरकार अधिकांश एयरपोर्ट, बन्दरगाह, राजमार्ग आदि जैसी अवरचनाएँ निजी पूँजीपतियों को लम्बी लीज़ पर सौंपने वाली है। इसलिए पहले जनता के धन से इन अवरचनागत निर्माण कार्यों को पूरा किया जायेगा, उनके ठेके भी पूँजीपतियों को दिये जायेंगे, उनमें मज़दूरों को पूरी तरह से निचोड़ने के लिए श्रम क़ानूनों से भी पूरी छूट दी जायेगी और जब ये बन जायेंगे तो इन्हें लम्बी लीज़ के नाम पर मुनाफ़ाख़ोरी के लिए पूँजीपतियों को सौंप दिया जायेगा। इसीलिए जनता के लिए तात्कालिक तौर पर सबसे ज़रूरी अवरचना का निर्माण करने पर मोदी सरकार का कोई ज़ोर नहीं है।
अब मोदी सरकार द्वारा बजट में पूँजीपतियों विशेष तौर पर वित्तीय पूँजीपति वर्ग को फ़ायदा पहुँचाने वाले एक क़दम पर आते हैं। महिलाओं के कल्याण के लिए निर्मला सीतारमण ने स्त्रियों के आत्मसहायता समूहों पर काफ़ी बात की। उन्होंने कहा यह सामूहिक-उद्योग होंगे। लेकिन इसके पीछे वास्तव में क्या मंशा है? इन समूहों को सूक्ष्म ऋण योजनाओं के तहत बेहद ऊँची ब्याज़ दरों पर ऋण दिये जायेंगे। भयंकर ग़रीबी और बेरोज़गारी के कारण कोई विकल्प न होने की सूरत में तमाम महिलाएँ इस प्रकार की योजना के तहत अपना अतिशोषण करवाने को तैयार भी मिल जाती हैं। वास्तव में, रोज़गार-विहीन विकास के मॉडल ने मज़दूरों-मेहनतकशों की एक अच्छी-ख़ासी आबादी से “शोषित होने का अधिकार” भी छीन लिया है और उसे स्वरोज़गार के नाम पर अनौपचारिक क्षेत्र में “आत्मनिर्भर” उद्यमी बनने को मजबूर कर दिया है, जो हमेशा भूख, कुपोषण और बीमारी में रहता है और अक्सर अकाल मृत्यु का शिकार हो जाता है। ऐसे में, वित्तीय पूँजी के हाथों लुटने के वास्ते ऐसे आत्मसहायता समूह बनाने के लिए भी हर क्षेत्र में भारी संख्या में महिलाएँ मिल जाती हैं और पूँजीपतियों को लूट का एक और अवसर मुहैया होता है। यही कारण है कि इस बजट में इस पर मोदी सरकार ने काफ़ी ज़ोर दिया है।
अब बजट भाषण में मोदी सरकार की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के कुछ खोखले दावों पर आते हैं।
वित्त मंत्री सीतारमण ने दावा किया कि वैश्विक मन्दी के बावजूद उम्मीद है कि भारत की अर्थव्यवस्था 7 प्रतिशत की दर से बढ़ेगी जो कि तमाम उभरती अर्थव्यवस्थाओं में सबसे ज़्यादा होगा। उनका दावा था कि पिछले नौ वर्षों में, यानी मोदी सरकार के कार्यकाल में औसत प्रति व्यक्ति आय दोगुनी हो गयी है और अब रु. 1.97 लाख प्रति वर्ष यानी रु. 16,416 प्रति माह हो गयी है। वैसे तो यह स्वयं बेहद कम है, लेकिन इसमें सीतारमण ने यह नहीं बताया कि रुपयों में अभिव्यक्त इस बढ़ोत्तरी को अगर पिछले नौ साल में बढ़ी महँगाई से प्रतिसन्तुलित किया जाये, तो वास्तविक आय बढ़ोत्तरी कितनी होगी? शायद कुछ भी नहीं या फिर नाममात्र की। प्रति व्यक्ति आय कुल उत्पादन के नॉमिनल मूल्य को जनसंख्या से भाग देकर निकाला जाता है। लेकिन यदि देश में तरक़्क़ी का सही आकलन करना है, तो भौतिक रूप में उत्पादन की बढ़ोत्तरी को जनसंख्या से भाग दिया जाना चाहिए, या अगर उसे रुपये में ही निकालना है, तो मुद्रास्फीति के साथ उसे प्रतिसन्तुलित करके ही निकाला जा सता है। अन्यथा इसका कोई अर्थ नहीं है। सच्चाई यह है कि 2022-23 के लिए केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन का जो आख़िरी आँकड़ा है उसके अनुसार पिछले तीन वर्षों में वास्तविक प्रति व्यक्ति आय में केवल 2 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है।
दूसरी बात यह है कि प्रति व्यक्ति आय अपने आप में कुछ भी नहीं बताती। यह भी देखना होगा कि देश में कुल आय में अमीरों का हिस्सा कितना है और ग़रीबों का हिस्सा कितना है। तभी पता चल सकता है कि विकास की सारी मलाई कहीं अमीरज़ादे तो नहीं चाट रहे हैं? अगर आँकड़ों को देखें तो यही बात साबित होती है। मोदी सरकार के आने के ठीक पहले, यानी 2012-13 में देश की 30.7 प्रतिशत सम्पदा पर ऊपर के 1 प्रतिशत सबसे अमीर लोगों का क़ब्ज़ा था, देश की 62.8 प्रतिशत सम्पदा पर देश के 10 प्रतिशत सबसे अमीर लोगों का क़ब्ज़ा था, बीच के 40 प्रतिशत लोगों का 30.8 प्रतिशत हिस्से पर क़ब्ज़ा था, जबकि सबसे ग़रीब नीचे के 50 प्रतिशत लोगों का मात्र 6.4 प्रतिशत पर अधिकार था। मोदी सरकार के लगभग 9 साल बीतते-बीतते 2023 में क्या हालत हो गयी है? आज देश के ऊपर के 1 प्रतिशत सबसे अमीर लोगों का देश की सम्पदा के 40.6 प्रतिशत पर क़ब्ज़ा है, 10 प्रतिशत सबसे अमीर लोगों का 72 प्रतिशत पर क़ब्ज़ा है, बीच के 40 प्रतिशत का 25 प्रतिशत पर क़ब्ज़ा है, जबकि नीचे के सबसे ग़रीब 50 प्रतिशत लोगों का 3 प्रतिशत पर क़ब्ज़ा है! यानी देश में पैदा हो रही कुल सम्पदा (जो कि वे ही अपनी मेहनत से पैदा करते हैं) में आम मेहनतकश ग़रीब आबादी यानी मज़दूर, ग़रीब किसान, अर्द्धसर्वहारा वर्ग, निम्न मध्यवर्ग का हिस्सा लगातार घटता गया है, जबकि सबसे अमीर पूँजीपति वर्ग, धनी फ़ार्मरों, पूँजीवादी ज़मीन्दारों और उच्च मध्यवर्ग का हिस्सा लगातार बढ़ता गया है। इसलिए अपने आप में प्रति व्यक्ति आय बढ़ने का हम मेहनतकशों के लिए कोई मतलब नहीं है क्योंकि पूँजीवाद समूची सम्पदा को तो बढ़ाता ही रहता है। सवाल है कि इस सम्पदा का वितरण किस रूप में हो रहा है और यह भी पूँजी संचय का आम नियम होता है कि कुल सम्पदा में पूँजीपति वर्ग तथा उसके पिछलग्गू वर्गों का हिस्सा बढ़ता जाता है जबकि आम मेहनतकश आबादी का हिस्सा घटता जाता है। अगर हम केवल मज़दूर आबादी की बात करें जो कि संगठित क्षेत्र में काम करती है तो आज संगठित क्षेत्र में पैदा होने वाले हर रु. 10 में से मज़दूर वर्ग को केवल 23 पैसे मिलते हैं। मुनाफ़े और मज़दूरी का यह अनुपात बताता है कि मज़दूर वर्ग सापेक्ष तौर पर भी और नवउदारवाद के पूरे दौर में निरपेक्ष तौर पर भी दरिद्र होता गया है क्योंकि इस दौर की नीतियाँ ही औसत मज़दूरी को गिराने की ओर लक्षित हैं ताकि मुनाफ़े की गिरती औसत दर के संकट से पूँजीवाद को निजात दिलायी जा सके।
सीतारमण ने यह भी दावा किया कि सकल घरेलू उत्पाद 15.4 प्रतिशत बढ़ा है। लेकिन यह भी मुद्रास्फीति के बिना आकलित दर है। मुद्रास्फीति के साथ वास्तविक तौर पर देखें तो यह वृद्धि दर 6.5 प्रतिशत के क़रीब है। लेकिन बजट ख़र्च में वास्तविक बढ़ोत्तरी मात्र 1.5 प्रतिशत के क़रीब बैठती है। यानी वास्तव में बजट ख़र्च सकल घरेलू उत्पाद में हुई बढ़ोत्तरी की तुलना में कम हुआ है। यह कमी ठीक इसीलिए आयी है क्योंकि आम मेहनतकश आबादी के कल्याण के लिए चलायी जाने वाली सरकारी योजनाओं हेतु फ़ण्ड में भारी कटौती की गयी है। इसी प्रकार सीतारमण ने यह भी दावा किया कि अगले वर्ष महँगाई दर मात्र 4 प्रतिशत रहेगी और सकल घरेलू उत्पाद में नॉमिनल अर्थों में (वास्तविक अर्थों में नहीं) 10.5 प्रतिशत की दर से बढ़ोत्तरी होगी! लेकिन इसी सरकार के आर्थिक सर्वेक्षण ने सकल घरेलू उत्पाद दर का आकलन 6.5 प्रतिशत पर रहने का किया है!
खाते-पीते मध्यवर्ग को पूँजीपति वर्ग का पिछलग्गू बनाने के लिए मोदी सरकार का तोहफ़ा
खाता-पीता मध्यवर्ग काफ़ी ख़ुश है। वजह यह है कि मोदी सरकार ने प्रत्यक्ष करों में कमी की है और पूँजीपति वर्ग और साथ ही उसके पिछलग्गू खाते–पीते मध्यवर्ग को लाभ पहुँचाया है। पहले आयकर के छह स्लैब्स थे जिन्हें घटाकर अब पाँच स्लैब कर दिया गया है। साथ ही, न्यूनतम कर योग्य आय को रु. 2.5 लाख से बढ़ाकर रु. 3 लाख कर दिया गया है। अब रु. 3 लाख प्रति वर्ष की आय तक कोई कर नहीं लगेगा, 3 से 6 लाख की आय वाले को 5 प्रतिशत आयकर देना होगा, 6 से 9 लाख प्रति वर्ष वाले को 10 प्रतिशत, 9 से 12 लाख प्रति वर्ष वाले को 15 प्रतिशत, 12 से 15 लाख प्रतिशत वर्ष वाले को 20 प्रतिशत और 15 लाख प्रति वर्ष से अधिक वालों को 30 प्रतिशत आयकर देना होगा। नयी आयकर व्यवस्था में आयकर में छूट की सीमा को रु. 5 लाख प्रति वर्ष वालों से बढ़ाकर रु. 7 लाख प्रति वर्ष तक कर दिया गया है, जिसे अपनाने वाले खाते-पीते मध्यवर्ग को साल में क़रीब रु. 34000 रुपये का फ़ायदा होगा। लेकिन मध्य मध्य वर्ग को मिलने वाला यह फ़ायदा उस फ़ायदे के मुक़ाबले मामूली है जो कि उच्च वर्ग और उच्च मध्य वर्ग को मिलेगा। मिसाल के तौर पर, रु. 2 करोड़ रुपये की आय वाले को अब 37 प्रतिशत की बजाय 25 प्रतिशत आयकर देना होगा। मिसाल के तौर पर, यदि किसी की वार्षिक आय रु. 5.5 करोड़ है, तो उसे हर साल रु. 20 लाख का फ़ायदा होगा। यानी अमीरों को और ज़्यादा अमीर बनाने की पूरी तैयारी है। अधिकतम आयकर दर को 42.7 प्रतिशत से घटाकर 37 से 25 प्रतिशत तक ला दिया गया है। यानी, करों से मुक्ति सबसे ज़्यादा सबसे अमीर लोगों को दी गयी है, यानी पूँजीपति, बड़े व्यापारी, ऊँची तनख़्वाहें उठाने वाले पेशेवर आदि। मध्य मध्य वर्ग को भी कुछ हज़ार का फ़ायदा दिया गया है, ताकि आगे फिर से वह 2024 के चुनावों में मोदी के लिए ताली-थाली बजाये, हालाँकि उसे असली लाभ कुछ भी नहीं मिला है। वजह यह कि तीन वर्ष पहले जिसकी वार्षिक आय रु. 5 लाख प्रति वर्ष थी, वह अब सरकारी नौकरियों व संगठित क्षेत्र की नौकरियों में भत्तों में हुई बढ़ोत्तरी के साथ वैसे ही 6.5 से 7 लाख प्रति वर्ष तक पहुँच रही थी। उसे वास्तव में वही मिल रहा है जो उसे तीन साल पहले मिल रहा था। लेकिन आँकड़ों की बाज़ीगरी से मूर्ख बनने के लिए मध्यवर्ग हमेशा तैयार बैठा रहता है।
अमीरज़ादों के लिए इन टैक्स–कटौतियों के कारण सरकार को भारी घाटा होने वाला है और वह वैसे भी ग़रीबों की बात आते ही पैसे की कमी का रोना रोने लगती है। तो फिर इन अमीरों को इतनी छूटें क्यों दी गयीं? अगर कहीं कर कम करने थे, तो रसोई गैस, पेट्रोल, डीज़ल समेत तमाम वस्तुओं और सेवाओं पर लगने वाले अप्रत्यक्ष करों को कम किया जाना चाहिए था, जिससे कि मेहनतकश जनता को राहत मिलती, महँगाई कम होती। लेकिन मोदी सरकार भला ऐसा क्यों करने लगी?
निष्कर्ष
जैसा कि हम देख सकते हैं, इस साल के बजट का एक संक्षिप्त विश्लेषण या उस पर एक सरसरी निगाह ही इस बात को दिखला देती है कि मोदी सरकार की प्राथमिकताएँ एक पूँजीवादी सरकार और विशेष तौर पर नवउदारवाद के दौर की फ़ासीवादी सरकार के तौर पर क्या हैं। नवउदारवाद के पूरे दौर में और विशेष तौर पर मोदी सरकार के दौर में भारत के पूँजीवादी विकास की पूरी कहानी वास्तव में मज़दूर वर्ग और व्यापक मेहनतकश आबादी की औसत मज़दूरी को कम करने पर आधारित है।
इसका लाभ समूचे पूँजीपति वर्ग को अलग-अलग मात्रा में मिलता है, चाहे वह बड़ा इजारेदार व ग़ैर-इजारेदार वित्तीय-औद्योगिक पूँजीपति वर्ग हो, मँझोला व छोटा औद्योगिक पूँजीपति वर्ग हो, बड़े व मँझोले व्यापारी हों, ठेकेदारों-जॉबरों और बिचौलियों का पूरा वर्ग हो, धनी पूँजीवादी किसान व पूँजीवादी ज़मीन्दार हों, या फिर पूँजीपति वर्ग के अहलकार की भूमिका निभाने वाला उच्च मध्यवर्ग हो।
इसमें नुक़सान उठाने वाले वर्ग हैं शहरी और ग्रामीण मज़दूर वर्ग, शहरी और ग्रामीण अर्द्धसर्वहारा वर्ग, ग़रीब किसान वर्ग, निम्न मध्यवर्ग, अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाली तथाकथित “स्वरोज़गार-प्राप्त” आबादी। ये वे वर्ग हैं जिनको अपनी वास्तविक वर्गीय माँगों को समझना होगा और एकजुट होकर मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़ और मौजूदा फ़ासीवादी मोदी सरकार के ख़िलाफ़ लड़ना होगा।
इसमें शहरी सर्वहारा वर्ग और विशेष तौर पर शहरी औद्योगिक सर्वहारा वर्ग की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण और नेतृत्वकारी होगी। इसलिए इस वर्ग को अपने आपको एक राजनीतिक वर्ग के तौर पर संगठित करना होगा। केवल वही व्यापक जनसमुदायों में पूँजीपति वर्ग की पूँजीवादी विचारधारा और राजनीति के वर्चस्व को तोड़कर उसे पूँजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध और नयी समाजवादी क्रान्ति के लिए संगठित कर सकता है।
आज हममें इस राजनीतिक चेतना की कमी है। इसलिए पूँजीपति वर्ग और उसके भोंपू हमें हमारे ही वर्ग हितों के विपरीत अपने दुश्मनों का समर्थन करने और उनके ख़ेमे में ले जाने का काम करते हैं। इसलिए हमें अपने वास्तविक वर्ग हितों को समझना होगा, अपने मित्रों और अपने शत्रुओं को पहचानना होगा और मौजूदा बजट का विश्लेषण करने के पीछे भी हमारी असली मक़सद यही है कि इस काम में वर्ग सचेत मज़दूर साथियों की सहायता की जाये।
मज़दूर बिगुल, फरवरी 2023
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन