भारत-चीन सीमा पर मामूली झड़प और फ़ासीवादी प्रचारतंत्र को मिला अन्धराष्ट्रवादी उन्माद उभारने का मौक़ा
लता
दिसम्बर 9 को तवांग के यांगसे क्षेत्र में भारतीय सेना और चीन की सेना के बीच मुठभेड़ हुई। यह मुठभेड़ बन्दूक़ों या हथियारों से नहीं बल्कि छड़ी, डण्डे और लाठी से हुई। दोनों तरफ़ की सेना के जवानों को मामूली चोटें आयीं लेकिन किसी की मौत नहीं हुई है। अख़बारों में या समाचार चैनलों में यह ख़बर 12 दिसम्बर के बाद आनी शुरू हुई। गोदी मीडिया के चैनलों ने जवानों की इस मुठभेड़ को इस तरह प्रचारित करना शुरू किया मानो सीमा पर कोई भयंकर युद्ध चल रहा है या युद्ध की तैयारी हो रही है! वह 4 से 5 मिनट का वीडियो आप लोगों में से भी कइयों ने देखा होगा और आपको भी लगा होगा कि यह तो बेहद मामूली झड़प है अगर हम इसकी तुलना सीमा पर होने वाली लड़ाइयों से करें। लेकिन गोदी मीडिया को तो मोदी नाम जपने और अन्धराष्ट्रवाद फैलाने का मौक़ा मिलना चाहिए! तमाम चैनलों पर दिखाया जाने लगा कि भारत युद्ध की तैयारी कर रहा है या कि भारतीय सेना के पास कितने प्रभावी, घातक और आधुनिक हथियार हैं।
ज़ी न्यूज़, रिपब्लिक टीवी, सुदर्शन चैनल, आजतक आदि गोदी चैनलों को यदि आप लगातार देखें तो ऐसा लगेगा मानो अभी देश की एकमात्र समस्या है सीमा विवाद और युद्ध इसका एकमात्र समाधान। सीमा पर अक्सर दोनों तरफ़ की सेनाओं के बीच ऐसी झड़पें और मुठभेड़ होती रहती हैं। लेकिन जब गोदी मीडिया बेरोज़गारी, महँगाई, ग़रीबी, भुखमरी और बीमारी जैसे असल मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए धर्म, जाति और अन्धराष्ट्रवाद का जैसे हौव्वा बनाती रहती है तो ऐसे में यह मुद्दा झोले में टपके आम की तरह गोदी मीडिया को मिल गया! फिर क्या था तिल का ताड़, राई का पहाड़ और बात का बतंगड़ बनना चालू हो गया। जवान मात्र लाठी-डण्डों से लड़ रहे थे लेकिन चैनल पर ऐंकरिंग करने वालों ने मशीनगन फ़ायरिंग, फ़ाइटर जेट, तोप, मिसाइल और बम के धमाके तक दिखा दिये! लगातार चीन की हार अपनी जीत की बात करते मोदी की तारीफ़ में कसीदे पढ़े जा रहे थे। वहीं विपक्ष सरकार पर देश की सुरक्षा को नज़रअन्दाज़ करने का आरोप लगा रहा था। कइयों ने तो गलवान घाटी में हुई हार की भी याद दिलायी। यह बात भी सही है कि आज जब दोनों तरफ़ की सेना मात्र कुछ मिनटों के लिए उलझी और फिर यथास्थिति बहाल हो गयी तो मोदी जी की इतनी प्रशंसा हो रही है, लेकिन जून 2020 को जब गलवान घाटी में चीनी सेना एल.ए.सी. (लाइन ऑफ़ एक्चुअल कन्ट्रोल यानी नियंत्रण की असल सीमारेखा) को लाँघकर भारतीय क्षेत्र में घुस आयी थी और भारतीय भूभाग पर बफ़र ज़ोन बना दिया उसकी चर्चा गोदी मीडिया क्यों नहीं करती? उस समय कई जगह तो चीनी सेना भारतीय भूभाग में 40 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र से अधिक अन्दर घुस आयी थी। पूर्वी लद्दाख के चूसुल गाँव में 40 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र अब बफ़र ज़ोन बन गया है। यहाँ भारतीय सेना नहीं जा सकती। जून 2020 से पहले यह भारतीय भूभाग में आता था और यहाँ स्थानीय चरवाहे अपने मवेशी लेकर जाया करते थे। यहाँ भारतीय सेना अपने ही बड़े भूभाग में गश्त नहीं लगा सकती।
सबसे पहली बात यहाँ यह समझना है कि इस प्रकार की झड़पें, सीमा पर मुठभेड़, विवाद या फिर बाक़ायदा युद्ध के पीछे कभी भी दोनों देशों की जनता का कोई हित या उनका कोई आपसी बैर नहीं होता है। इस प्रकार की घटनाओं के पीछे हमेशा ही इन देशों के पूँजीवादी हुक्मरानों के हित और उनके विस्तारवादी व साम्राज्यवादी मंसूबे होते हैं। चीन एक साम्राज्यवादी देश के रूप में उभर चुका है और भारत की अपनी साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाएँ हैं। चीन दुनिया के स्तर पर चौधराहट की चाहत रखता है और अमेरिका से चौधरी का ख़िताब धीरे-धीरे छीन भी रहा है। वहीं भारत एशिया के स्तर पर क्षेत्रीय साम्राज्यवादी व विस्तारवादी महत्वाकांक्षाएँ रखता है। दोनों की सरहदें मिलती हैं, उनमें 1962 में भारतीय विस्तारवाद के कारण एक युद्ध हो भी चुका है और आज चीन स्वयं एक पूँजीवादी-साम्राज्यवादी देश बन चुका है, तो सीमा विवाद का बना रहना लाज़िमी है। ऐसे में, बीच-बीच में चीनी आक्रामकता के उदाहरण भी पेश होते रहते हैं, सीमा पर मुठभेड़ें और झड़पें भी होती रहती हैं।
बात यहाँ सीमा पर हार या जीत की नहीं है। मेहनतकश जनता के लिए देश काग़ज़ पर बना एक नक़्शा मात्र नहीं होता है बल्कि उसमें रहने वाली जनता से बनता है। मज़दूर वर्ग जनवादी और न्यायपूर्ण रूप से सरहदों में निर्धारण का पक्ष लेता है और किसी अन्य पक्ष द्वारा ग़ैर-जनवादी और अन्यायपूर्ण तरीक़े से आक्रामकता प्रदर्शित करने पर केवल आत्मरक्षा के क़दम के तौर पर सैन्य कार्रवाई का पक्ष लेता है। भारत-चीन सीमा विवाद का एक पुराना इतिहास है जिसके मूल में भारतीय पूँजीपति वर्ग की विस्तारवादी महत्वाकांक्षा थी। आज जब चीन एक साम्राज्यवादी देश में तब्दील हो चुका है तो उसका विस्तारवाद हावी हो चुका है। पूँजीवादी विश्व में सरहदों का विवाद कभी भी सुलझाया नहीं जा सकता। इसकी दो प्रमुख वजहें हैं। पहला युद्ध में जीत हासिल करने वाला शक्तिशाली पक्ष ही हमेशा सीमारेखा का निर्धारण करता है। इसलिए हर एक युद्ध के बाद हुए समझौते में ही अगले युद्ध के बीज होते हैं। इसलिए सीमा पर विवाद स्थाई तौर पर बना रहता है। दूसरी बात, सभी पूँजीवादी देश आज भयंकर आर्थिक संकट से गुज़र रहे हैं। सभी जगह आम मज़दूर मेहनतकश जनता बेरोज़गारी, महँगाई, बीमारी, भुखमरी और आवास की समस्या का सामना कर रही है। ऐसे में संकट के बीच-बीच में ज़्यादा गहरा हो जाने की स्थिति में सत्ता वर्ग जनता के आक्रोश पर पानी के छींटे डालता रहता है। आक्रोश सड़कों पर फूट न पड़े इसके लिए पूँजीवादी सत्ताएँ अपने पास कुछ रामवाण नुस्खे तैयार रखती हैं। इनमें अन्धराष्ट्रवाद सबसे कारगर नुस्ख़ों में से एक है। बाक़ी सभी नुस्ख़े उदाहरण के लिए भारत में जाति, धर्म, क्षेत्र और भाषा आदि कभी-कभी कम प्रभावी हो सकते हैं लेकिन अन्धराष्ट्रवाद की लहर लगभग हमेशा ही कामयाब रहती है।
चीन या पाकिस्तान की सीमा पर सेना की झड़प होने पर या तनाव बढ़ने पर चारों ओर युद्ध की चीख़-पुकार होने लगती है। यह चीख़-पुकार भाजपा की सरकार जब भी रही है तब ज़्यादा हुई है क्योंकि भाजपा की सरकार खुले तौर पर पूँजीपतियों की सेवा में दोनों हाथ जोड़कर खड़ी रहती है और निजीकरण, उदारीकरण और खुले बाज़ार की नीतियों को नंगे तौर पर लागू करती है जिससे जनता में भयंकर महँगाई, बेरोज़गारी, भुखमरी और बीमारियाँ बढ़ती हैं। ऐसे में, जनता के ग़ुस्से को शान्त करने और उनका ध्यान भटकाने के लिए भाजपा सरकार जनता के बीच अन्धराष्ट्रवाद, साम्प्रदायिकता, सवर्णवाद और जातिवाद की ज़हरीली राजनीति भड़काती है। अगर ऐसा नहीं है और भाजपाई सच्चे राष्ट्रवादी हैं तो फिर अभी चीन के साथ जितना व्यापार हो रहा है या पाकिस्तान के साथ जितना व्यापार हो रहा है, भारत सरकार उसे समाप्त क्यों नहीं कर देती है? उनके साथ सारे कूटनीतिक रिश्ते समाप्त क्यों नहीं कर देती? गलवान में 20 से अधिक जवानों की मौत हुई। युद्ध के दौरान चीनी मालों के प्रतिबन्ध की माँग उठने पर भारत सरकार ने व्यापार पर प्रतिबन्ध तो नहीं लगाया लेकिन मात्र कुछ एक सौ मोबाइल ऐप पर प्रतिबन्ध लगाया! यह क़दम कितना प्रतीकात्मक था इसका अन्दाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि 2020 जुलाई के बाद से चीन दूसरे नम्बर का देश बन गया है जिसके साथ भारत का व्यापार सबसे अधिक है! इतना ही नहीं निर्यात की तुलना में भारत चीन से मालों का कहीं अधिक आयात करता है। वर्ष 2021-22 में भारत-चीन के बीच 115.83 अरब डॉलर का व्यापार रहा। यह राशि कुल विदेशी व्यापार का 11.93 प्रतिशत रही। चीन के साथ निर्यात घाटा 73.13 अरब डॉलर का था यानी कुल व्यापार में 73.13 अरब डॉलर का माल भारत ने चीन से अधिक आयात किया। असल में वर्ष 2021-2022 का निर्यात घाटा वर्ष 2020-21 की तुलना में दो गुना अधिक था यानी 2020-21 में यह 44.02 अरब डॉलर था। वर्ष 2021-2022 का निर्यात घाटा अभी तक का सबसे अधिक बड़ा घाटा था। यह अनुमान लगाया जा रहा है कि निर्यात घाटा आने वाले समाय में और अधिक बढ़ने जा रहा है। लॉकडाउन के समय को छोड़ दिया जाये तो हर महीने चीन से आयात बढ़ा है। जून 2020 में 3.32 अरब डॉलर का आयात आया और गलवान मुठभेड़ के महीने यानी जुलाई 2020 में यह आयात 5.43 अरब डॉलर हो गया, यानी जून की तुलना में दो गुना अधिक उसके बाद से यह हर महीने बढ़ता ही गया है जो इस वर्ष जुलाई में सबसे अधिक 10.24 अरब डॉलर पहुँच गया था। जुलाई 2020 के बाद से वित्त वर्ष 2021-22 के लिए चीन से आयात प्रति महीने औसत 7.88 अरब डॉलर बना रहा। वर्ष 2022-23 के महीनों में यह औसत 8.61 अरब डॉलर पहुँचा रहा। वर्ष 2020-21 में भारत के कुल आयात का 15.42 (94.57 अरब डॉलर) प्रतिशत चीन से रहा। चीन के साथ इस वर्ष भारत का व्यापार घाटा 51 अरब डॉलर जो पिछले वर्ष की तुलना में 39 प्रतिशत अधिक है यानी यह पिछले वर्ष 37 अरब डॉलर था। आयात और निर्यात के बीच का अन्तर आज 80 प्रतिशत है जो अभी से 20 साल पहले 60 प्रतिशत था।
चीन से मुख्य तौर पर बिजली के सामान, बिजली उपकरण, बिजली उपकरणों के कल पुर्ज़े, साउण्ड रिकॉर्डर और रिप्रोडूसर, टेलीविज़न, नूक्लियर रिएक्टर, बॉयलर, मशीन उपकरण और मशीनों के कल-पुर्ज़े, रासायनिक पदार्थ, प्लास्टिक, प्लास्टिक के सामान, खाद आदि का आयात होता है। भारत में हो रहे चीनी मालों के बढ़ते आयात का अनुपात देखकर आप अन्दाज़ा लगा सकते हैं कि व्यापार के मामले में भारत की निर्भरता चीन पर अधिक है। सस्ते मालों का उत्पादक होने के नाते चीन तेज़ी से विश्व व्यापार में अपनी बढ़त बना रहा है।
फिर हमारे दिमाग़ में यह सवाल क्यों नहीं आता कि जब गलवान पर झड़प चल रही थी तो उस समय छोटे दुकानदारों, सड़कों पर ठेला और रेहड़ी लगाने वालों पर चीनी सामान और खिलौनें रखने पर आरएसएस, विश्व हिन्दू परिषद, हिन्दू सेना, जैसे हिन्दुत्ववादी व फ़ासीवादी संगठन के अर्द्ध पागल, सनकी और बर्बर कार्यकर्ता हमले क्यों कर रहे थे? छोटे दुकानदारों, सड़कों पर ठेला और रेहड़ी लगाने वालों ने स्वयं चीन जाकर सामान लाये तो नहीं होंगे। उन्हें यह सामान तब ही मिला होगा जब देश के स्तर पर इन सामानों का आयात हुआ होगा। इन बेचारों के पास इतनी पूँजी और साधन तो नहीं होते कि स्वयं चीन जाकर सामान ला सकें। फ़र्ज़ करें कि कोई जाकर लाता भी है तब भी सामानों के भारत में प्रवेश करने की अनुमति तो भारत सरकार ही देगी। अगर कोई कहता है कि तस्करी भी होती है। होती है लेकिन उस स्थिति में आपको तस्करी के सामान इस तरह छोटी दुकानों और रेहड़ी पर इतने सस्ते में खुले तौर पर नहीं मिलेंगे। सामान आ ही तब रहे हैं जब व्यापार हो रहा है। और दो देशों के बीच व्यापार बिना देशों के हुक्मरानों की आपसी समझ के हो ही नहीं सकता।
भारत और चीन के बीच पिछले दो सालों के व्यापार को देखते हुए क्या यह कहा जा सकता है कि भारत सरकार ने चीन को मुँहतोड़ जवाब दिया या कि व्यापार प्रतिबन्ध लगाकर सीमा विवाद को अपने पक्ष में करने के लिए आर्थिक दबाव डाला? नहीं! चीन के साथ व्यापार इतना लम्बा-चौड़ा हो रहा है और जब प्रतिबन्ध लगाने की बात आयी तो बस ऐप पर प्रतिबन्ध लगाया गया! यदि भारत में हो रहे आयात पर ध्यान दें तो आप देखेंगे कि आयात मालों में अधिक हिस्सा मशीन उपकरणों का है। निश्चित ही ये मशीनें सस्ती होंगी इसलिए ख़रीदा जा रहा है। मशीनों का इस्तेमाल मज़दूर-मेहनतकश तो करते नहीं हैं। आयात का फ़ायदा यहाँ का पूँजीपति वर्ग उठा रहा है जो अपने मालों की क़ीमत को कम करने के लिए सस्ती और उन्नत मशीनें मँगाते हैं। ज़रूरत पूँजीपति वर्ग की है और यही वजह है कि व्यापार पर प्रतिबन्ध नहीं लग सकता!
चीन की तरह ही हम देख सकते हैं कि पाकिस्तान सीमा का हंगामा प्रत्येक चुनाव के पहले होता है। पाकिस्तान को नेस्तोनाबूत कर देने और इस्लामाबाद तक तोप लेकर जाने की माँग बेदम होकर मोदी भक्त लगाते हैं। इन भक्तों को इस बात का अन्दाज़ा नहीं होगा कि मोदी के दोस्त अम्बानी और अडानी की कितने करोड़ डॉलर की पूँजी पाकिस्तान में लगी हुई है। ‘जंग-जंग’ चिल्ला रहे मीडिया को ये सारी ख़बर है लेकिन इस पर सब चुप्पी साधे हुए हैं।
अगर देशों की सत्ताओं के बीच रिश्ते की सच्चाई यह है तो फिर हमारे बीच इतना युद्धोन्माद क्यों? क्यों आरएसएस के लोग और भाजपा के नेता-मंत्री गोदी मीडिया के कार्यक्रमों में जाकर युद्ध का उन्माद भड़काते हैं? क्यों चुनावों के पहले सीमा पर कुछ न कुछ होता ही है और चारों ओर “बदला-बदला” सुनाई देने लगता है? सीमा पर फ़ायरिंग या जवानों की मौत होने पर बदला लेने और युद्ध की बात तो होती है लेकिन उस समय पूरी तरह व्यापार बन्द करने, चीन जैसे साम्राज्यवादी देश की सम्पत्ति ज़ब्त करने और रिश्ते समाप्त करने की बात क्यों नहीं होती? जवाब इतना सरल नहीं है लेकिन अगर आप थोड़ा ध्यान से सोचें तो कठिन भी नहीं है।
सबसे पहली बात बेरोज़गारी, ग़रीबी, महँगाई, मज़दूरों के काम करने की अमानवीय परिस्थितियाँ, कम मज़दूरी, इन सभी समस्याओं का सामना चीन, भारत और पाकिस्तान की आम मज़दूर-मेहनतकश जनता कर रही है। सभी जगह पूँजीपति मालामाल हो रहे हैं जबकि मज़दूर-मेहनतकश बेहाल, कंगाल और फटेहाल होते जा रहे हैं। कोरोना काल के बाद मज़दूरों की स्थिति बद से बदतर हो रही है और यह बात भारत पर भी उतनी ही लागू होती है जितनी चीन और पाकिस्तान पर। इन देशों के ग़रीब किसानों-मज़दूरों और आम लोगों की आपस में कोई दुश्मनी नहीं है। तीनों देशों की जनता अपने-अपने शासक वर्गों की लूट का शिकार है। इन देशों में पूँजीवादी व्यवस्था का संकट लाइलाज बीमारी बन चुका है जिसकी क़ीमत जनता कमरतोड़ महँगाई और बढ़ती बेरोज़गारी के रूप में चुका रही है। निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों के विनाशकारी नतीजे दोनों देशों के लोग झेल रहे हैं और आम जनता का बढ़ता असन्तोष बार-बार सड़कों पर फूट रहा है जिससे दोनों के हुक्मरानों की नींद हराम है। अभी चीन में कोरोना बीमारी की वजह से लगे प्रतिबन्धों को लेकर हुआ प्रतिरोध ऐतिहासिक था। चीनी मज़दूरों के काम की अमानवीय परिस्थितियों की ख़बरें अक्सर आती रहती हैं। जीवनस्थिति भी बेहद कठिन है। अपने देश की स्थिति आपसे छुपी नहीं है। पाकिस्तान में भी हाल ऐसा ही है। ऐसे में जनता का ग़ुस्सा नियंत्रण से बाहर न हो जाये इसलिए जनता का ध्यान भटकाने के लिए सीमा पर तनाव बनाये रखना और अन्धराष्ट्रवाद को हवा देते रहना हिन्दुस्तान-चीन-पाकिस्तान या कहें पूँजीवादी राष्ट्रों के शासकों के लिए रामबाण नुस्ख़े-सा काम करता है।
जब पूँजीवादी देशों में युद्ध होता भी है तो उसके पीछे इन देशों की मेहनतकश जनता का कोई बैर नहीं होता है बल्कि इन देशों के पूँजीपति वर्ग की विस्तारवादी व साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाएँ होती हैं। पूँजीपति वर्ग के इन हितों को समूचे देश के “राष्ट्रीय” हितों के रूप में पेश किया जाता है; किसी झण्डे, किसी नक़्शे, किसी गीत के प्रति भावोन्माद भड़काया जाता है और हर नागरिक की इन प्रतीकों के प्रति वफ़ादारी की माँग की जाती है। लेकिन इन सबके पीछे असल में उसी पूँजीवादी शासक वर्ग के हित होते हैं, जो हम मज़दूरों-मेहनतकशों को रोज़ अपने फ़ैक्टरी-कारख़ानों में उसी प्रकार निचोड़ते हैं, जिस प्रकार शिकंजी में नींबू निचोड़ा जाता है। ये न तो हमें हमारा न्यूनतम वेतन देते हैं, न पक्की नौकरी और न ही अन्य श्रम अधिकार। लेकिन जब इन पूँजीपति वर्गों के हितों और साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं के लिए युद्ध भड़काया जाता है, तो लुटेरों के इस झगड़े में सरहदों पर मरने के लिए भी हम ग़रीब मेहनतकश मज़दूरों और किसानों के बेटे-बेटियाँ ही भेजे जाते हैं। उनके मुनाफ़े के यज्ञ में भी बलि हम ग़रीबों की ही चढ़ायी जाती है। इन्हीं मंसूबों को पूरा करने के लिए एक अमूर्त “राष्ट्र”, “पितृभूमि”, “मातृभूमि” के प्रति जज़्बात उभाड़े जाते हैं जबकि सच्चाई यह है कि कोई देश उसमें रहने वाले मेहनतकश लोगों से बनता है जो हरेक चीज़ का उत्पादन करते हैं और देश को चलाते हैं। जब तक ये मेहनतकश लोग शोषण से मुक्त नहीं हैं, अपने ही देश के पूँजीपतियों, धन्नासेठों, दलालों, धनी व्यापारियों, ठेकेदारों, जॉबरों, डीलरों के हाथों रोज़ लुट रहे हैं, तब तक उनकी आज़ादी का क्या मतलब है? हम किसके लिए लड़ें और क्यों मरें? हमारा दुश्मन देश के बाहर नहीं देश के भीतर है, इस बात को हम जितनी जल्दी समझ लेंगे, उतना बेहतर होगा।
देश के भीतर 80 प्रतिशत आबादी बेहद असुरक्षा, ग़रीबी में जी रही है। भयंकर बेरोज़गारी, बीमारी, भोजन और आवास का संकट झेल रही है। वहीं मुट्ठीभर आबादी ऐशों-अय्याशियों के समन्दर में गोते लगाती है, देश के 80.8 प्रतिशत सम्पत्ति पर अधिकार सबसे अमीर ऊपर की 10 प्रतिशत आबादी का है और देश की बाक़ी बची 80 प्रतिशत आबादी में से 50 प्रतिशत के पास मात्र देश की कुल सम्पदा का 2.1 प्रतिशत है। आप समझ ही सकते हैं जब मज़दूर-किसान-मेहनतकश के बेटे-बेटियाँ सीमा पर अपनी जान दे रहे होते हैं तो वे इन धन्नासेठों की सम्पत्ति की रक्षा कर रहे होते हैं और इन्हीं के साम्राज्यवादी और विस्तारवादी मंसूबों की क़ीमत चुका रहे होते हैं।
इतना ही नहीं हम मज़दूर और आम मेहनतकश जनता को यह समझना बेहद ज़रूरी है कि पूँजीवादी व्यवस्था में युद्ध भी एक व्यापार होता है। पूँजीवादी विश्व में सबसे बड़ा और महँगा व्यापार हथियारों, जंगी विमानों और पोतों का होता है। जीडीपी का सबसे बड़ा हिस्सा हथियारों की ख़रीद-फ़रोख़्त और सेना के रख-रखाव में ख़र्च होता है। पब्लिक सेक्टर के विशाल सामरिक उद्योग तो सेना को कल-पुर्जे़, हथियार आदि सप्लाई करते ही हैं, दुनिया के सभी साम्राज्यवादी देशों की हथियार-निर्माता कम्पनियों से ख़रीदारी करने वाले तथाकथित “तीसरी दुनिया” के देशों में भारत सबसे आगे है। इतना ही नहीं और अब तो अडानी-अम्बानी और अन्य निजी कम्पनियों को हथियार बनाने और सुरक्षा के काम सौंपे जा रहे हैं। और तो और सभी क्षेत्रों की तरह यहाँ भी सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों को कम और निजी क्षेत्रों के पूँजीपतियों को बढ़ावा दिया जा रहा है जिसकी सबसे नंगी मिसाल राफ़ेल घोटाला है। आज पूरी दुनिया के साम्राज्यवादी देशों की अर्थव्यवस्थाएँ संकट में हैं। युद्धों में होने वाली तबाही और हथियारों की बिक्री उनके संकट को तात्कालिक तौर पर दूर करने में हमेशा काम आते हैं। ये साम्राज्यवादी गिद्ध भी चाहते हैं कि भारतीय उपमहाद्वीप में सैनिक तनाव की आग सुलगती रहे। अगर युद्ध भड़कता है तब तो साम्राज्यवादी गिद्धों की चाँदी होगी। भारत सरकार जनता का पेट काटकर जमकर हथियार ख़रीदेगी और अमेरिका, फ़्रांस, इंग्लैण्ड, जर्मनी के साम्राज्यवादियों को अपना संकट थोड़ा और टालने का मौक़ा मिल जायेगा। साथ ही, भारत में हथियार बनाने वाले पूँजीपतियों को भी फ़ायदा पहुँचेगा।
हमें यह भी समझना होगा कि पूँजीवादी विश्व में सरहद का निर्धारण युद्ध में विजयी शक्तिशाली देश करता है। इसलिए अगले युद्ध के बीज युद्ध के बाद होने वाले समझौते में ही होते हैं और सीमा विवाद जारी रहता है। चीन एक साम्राज्यवादी देश है जो आर्थिक तौर पर भी भारत से कहीं ज़्यादा शक्तिशाली है। सामरिक तौर पर भी चीन और भारत में कोई तुलना नहीं की जा सकती है। लेकिन बीच-बीच में भारत भी अपनी शर्तों को लागू करने के लिए विश्व के अन्य साम्राज्यवादी देशों के साथ समीकरण बनाकर दवाब बनाने का प्रयास करता है। भारत एशिया में अपनी क्षेत्रीय चौधराहट स्थापित करने की अपनी साम्राज्यवादी महत्वकांक्षाएँ रखता है। दोनों देशों की पूँजीवादी राज्यसत्ताएँ विस्तारवादी मंसूबे रखती हैं। ऐसे में सीमा विवाद के समाधान की कोई गुंजाइश नहीं है। ऐसे में यदि कोई साम्राज्यवादी युद्ध भड़कता है, तो उसके पीछे केवल दोनों देशों के हुक्मरानों और आम तौर पर साम्राज्यवाद का हित होगा हालाँकि उनके युद्ध के महायज्ञ में बलि देने के लिए अन्धरष्ट्रवाद फैलाकर जनता को आमंत्रित किया जायेगा।
जब साम्राज्यवाद और फ़ासीवाद अन्धराष्ट्रवादी भावनाओं का उन्माद हमारे बीच पैदा कर रहा होता है तो अक्सर मध्यवर्ग की तरह ही हम मज़दूर वर्ग के भी लोग युद्ध छेड़ देने के सुर में सुर मिलाने लग जाते हैं। हमें कुछ पल ठहरकर सोचना चाहिए कि युद्ध किसके हितों के लिए हो रहा है और अगर वह हुआ तो हमें क्या मिलेगा? कारगिल युद्ध के कारण अर्थव्यवस्था पर क़रीब 10 हज़ार करोड़ का अतिरिक्त बोझ पड़ा था और नयी सैनिक चौकियों तथा अन्य नियमित सामरिक ख़र्चों के रूप में हज़ारों करोड़ का सालाना ख़र्च बढ़ गया था। पिछले कुछ वर्षों से सरकार का फ़ौजी ख़र्च लगातार बढ़ता ही रहा है। फ़ौजी ख़र्च अभी ही स्वास्थ्य, शिक्षा और तमाम सामाजिक सेवाओं पर होने वाले कुल ख़र्च के तीन गुने से भी अधिक रहा है। यह अलग बात है कि इस भारी-भरकम सैन्य ख़र्च के बावजूद न तो सीमाओं पर घुसपैठ रुकी, न आतंकवादी घटनाएँ और न ही समय-समय पर दोनों ओर से होती रहने वाली गोलीबारी रुकी है। बल्कि यह घटनाएँ बढ़ ही रही हैं। ज़ाहिर है, यह सारा ख़र्च हमसे ही वसूला जाता है तमाम करों के ज़रिए जो कि महँगाई को बढ़ाते हैं। लेकिन पूँजीपतियों, नेताओं-मंत्रियों की अय्याशियों में तो कभी कोई कमी नहीं आती है और पूँजीपतियों को अरबों-खरबों के करों की छूट मिलती रहती है। फिर इस ख़र्च को भी हम मज़दूर-मेहनतकश के कन्धों पर ही डाल दिया जाता है। ऐसे में, हम मज़दूरों को यह समझ लेना चाहिए कि युद्ध के इस शोर में सुर मिलाना बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना वाली वाली बात होगी। सभी देशों के मज़दूरों-मेहनतकशों से हमारी एकजुटता है और सभी साम्राज्यवादियों और पूँजीपति वर्गों से हमारी दुश्मनी। लेकिन हमारा सबसे बड़ा दुश्मन हमारे देश के भीतर, हमारे देश का पूँजीपति वर्ग है। हर हालत में हमारे संघर्ष का निशाना हमारा यह दुश्मन ही होना चाहिए।
मज़दूर बिगुल, जनवरी 2023
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