दिल्ली एमसीडी चुनाव में मेहनतकश जनता के समक्ष विकल्प क्या है?

आदित्य

4 दिसम्बर को दिल्ली में एमसीडी के चुनाव होने वाले हैं। मतलब यह कि फिर से सभी चुनावबाज़ पार्टियों द्वारा झूठे वादों के पुल बाँधे जायेंगे। चाहे भाजपा हो, कांग्रेस हो या आम आदमी पार्टी, सभी के द्वारा जुमले फेंके जायेंगे। ऐसे में मेहनतकश जनता के पास सिर्फ़ कम बुरा प्रतिनिधि चुनने का ही विकल्प होता है और आज के समय में तो कम बुरा तय करना भी मुश्किल होता जा रहा है। सच्चाई तो यही है कि इन सभी में से कोई भी मज़दूर-मेहनतकश जनता का विकल्प नहीं है। पर इस बार मेहनतकश-मज़दूरों के एक क्रान्तिकारी विकल्प के रूप में “भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी (RWPI)” द्वारा करावल नगर पश्चिम (वार्ड 248) और शाहाबाद डेरी (वार्ड 28) से दो प्रतिनिधि खड़े किये जा रहे हैं। मतलब यह कि आम मेहनतकश आबादी के पास भी कम-से-कम इन दो वॉर्डों में अपना विकल्प, एक क्रान्तिकारी विकल्प चुनने का मौक़ा है। ‘मज़दूर बिगुल’ पहले भी RWPI की हिमायत करता रहा है क्योंकि RWPI का अन्तिम लक्ष्य सिर्फ़ चुनाव में भागीदारी नहीं बल्कि क्रान्तिकारी रास्ते से मज़दूर सत्ता की स्थापना और समाजवादी व्यवस्था का निर्माण करना है।
हमें साथ में यह भी जान लेने की ज़रूरत है कि पूँजीवादी व्यवस्था में कराये गये चुनाव के ज़रिए बेरोज़गारी, महँगाई, ग़रीबी, भुखमरी, भ्रष्टाचार आदि से कभी मुक्ति नहीं मिल सकती। कारण यह कि यह पूरा चुनावी तंत्र ही धनबल और बाहुबल पर चलता है। चुनावों में बड़े व छोटे-मँझोले पूँजीपति लाखों-करोड़ों का चन्दा चुनावबाज़ पार्टियों को देते हैं, जो बदले में अपने पूरे शासनकाल के दौरान तन-मन-धन से उनकी सेवा में लगी रहती हैं। इसलिए मेहनतकश आबादी की सभी परेशानियों का ख़ात्मा सिर्फ़ और सिर्फ़ इन्क़लाबी तरीक़े से ही हो सकता है जैसाकि रूस के मेहनतकश अवाम ने करके दिखाया था और जिस इन्क़लाब की बात शहीद-ए-आज़म भगतसिंह ने भी की थी। लेकिन उस लक्ष्य तक पहुँचने के लिए यह ज़रूरी है कि मज़दूरों के पास उनका अपना एक स्वतंत्र राजनीतिक पक्ष हो, जो उनके हक़ और अधिकार की बात कर सके और तमाम मुद्दों पर आम मज़दूरों का पक्ष स्पष्ट तौर पर रख सके और जो पूँजीपतियों के नहीं बल्कि मज़दूर वर्ग और इन्साफ़पसन्द लोगों के दम पर चलता हो। पूँजीवादी चुनाव एक ऐसी ही महत्वपूर्ण राजनीतिक प्रक्रिया और राजनीतिक क्षेत्र है। यहाँ पर भी रणकौशलात्मक तौर पर क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग द्वारा हस्तक्षेप अनिवार्य होता है अन्यथा मज़दूर वर्ग इस या उस पूँजीवादी दल के पीछे घिसटता रहता है। संक्षेप में, समाज के हर राजनीतिक क्षेत्र में मज़दूर वर्ग की स्वतंत्र राजनीतिक उपस्थिति अनिवार्य होती है।
दूसरा कारण यह है कि पूँजीवादी जनवाद के दायरे में जो अधिकार मज़दूर वर्ग लड़कर हासिल कर सकता है, वह भी हासिल करने के लिए उसके क्रान्तिकारी राजनीतिक पक्ष की पूँजीवादी चुनावों में भी मौजूदगी होना अनिवार्य है। आज तक़रीबन सभी पार्टियाँ बड़े पूँजीपतियों और व्यापारियों या फिर छोटे और मँझोले मालिकों व व्यापारियों की ही नुमाइन्दगी करती हैं। जैसे भाजपा और कांग्रेस बड़े पूँजीपतियों और व्यापारियों की पार्टियाँ हैं, वहीं ‘आम आदमी पार्टी’ छोटे और मँझोले मालिकों, ठेकेदारों, व्यापारियों के हितों की नुमाइन्दगी करती है। अन्य चुनावी पार्टियों का चरित्र भी कुछ ऐसा ही है और वे सभी छोटे या बड़े, औद्योगिक, वित्तीय या व्यापारिक पूँजीपति वर्ग और उनकी चाकरी करने वाले उच्च मध्य वर्गों की ही नुमाइन्दगी करती हैं। इस समय कोई ऐसी पार्टी नहीं है जो कि दिल्ली के क़रीब 75 फ़ीसदी ग़रीब और निम्न मध्यवर्ग के आम मेहनतकश लोगों और मज़दूरों की नुमाइन्दगी करती हो। चूँकि चुनावों में मज़दूरों-मेहनतकशों का कोई स्वतंत्र पक्ष मौजूद ही नहीं होता, इसलिए हम कभी इस तो कभी उस पूँजीवादी पार्टी को वोट देने को मजबूर होते हैं।

चुनावबाज़ पार्टियों की हक़ीक़त

सबसे पहले बात दिल्ली की सत्ता सम्भाल रहे आम आदमी पार्टी की करते हैं। यह तो समय के साथ ही साफ़ हो गया है कि ज़रूरत पड़ने पर वोट बैंक की फ़िरकापरस्त राजनीति करने के मामले में यह भी भाजपा से कहीं कम नहीं है और किसी भी स्तर तक जाने को तैयार है। चाहे हिन्दू वोट बैंक के लिए साम्प्रदायिक तनाव बनाने की बात हो या ऐसी कोई भी बयानबाज़ी करने की। हर क़दम पर यह अपनी अन्ध-धर्मभक्ति और अन्ध राष्ट्रवाद के लिए नीचता पर उतरते रहे हैं। बात करें दिल्ली में किये गये काम की तो यह अपने पूरे कार्यकाल में दिल्ली के खाते-पीते मालिकों-व्यापारियों की सेवा में जी-जान से लगी हुई है। चुनाव में टिकट भी ऐसे फ़ैक्टरी मालिकों और ठेकेदारों को ही दी जा रही है। दिल्ली की आँगनबाड़ी की महिलाएँ लगातार 38 दिनों तक केजरीवाल के घर के बाहर हड़ताल पर बैठी रहीं, लेकिन वह एक बार उनसे मिलने तक नहीं आया और अलग-अलग तिकड़म भिड़ाकर और भाजपा के राज्यपाल के साथ मिलकर हड़ताल को तोड़ने में लगा रहा तो वहीं दूसरी तरफ़ पंजाब में चुनाव के समय वहाँ की आँगनबाड़ी कर्मियों से झूठे वादों के पुल बाँधता रहा। उसके किये गये तमाम वादे झूठे साबित हुए हैं। आइए, एक-एक करके उसके झूठों पर नज़र डालें।
‘आप’ की सरकार ने यह वादा किया था कि उनके सत्ता में आने के बाद मज़दूरों की न्यूनतम मज़दूरी बढ़ायी जायेगी और ठेका प्रथा को ख़त्म कर दिया जायेगा। लेकिन उनके ये सारे वादे जुमले ही साबित हुए। इतना ही नहीं जब यही ठेका मज़दूर केजरीवाल को उनका वायदा याद दिलाने सचिवालय पहुँचे तो उनपर बर्बरता से लाठीचार्ज करवा दिया गया। केजरीवाल सरकार ने यह भी वायदा किया था कि कच्ची कॉलोनियों को बिना शर्त नियमित किया जायेगा व इन कॉलोनियों में बुनियादी सुविधाएँ दी जायेंगी। अब यह सरकार यह काम न करने के बहाने के तौर पर तरह-तरह की शर्तें लगा रही है। ऐसा ही वादा केजरीवाल ने पानी और बिजली को लेकर किया था। दिल्ली सरकार का दावा कि उसने दिल्ली के हर घर को 700 लीटर मुफ़्त पानी दे दिया है, बिल्कुल बेबुनियाद है। सच यह है कि मज़दूरों के रिहायशी इलाक़ों में बड़ी आबादी बाहर गलियों में लगी टोटियों से पानी भरती है। वहीं मुफ़्त बिजली के लिए भी अब सरकार नयी-नयी अड़चनें लगा रही है। सत्ता में आने के पहले इसी सरकार ने 55,000 सरकारी पदों पर भर्ती और 8 लाख नये रोज़गार का वायदा भी किया था। लेकिन सबको पता है कि सरकार द्वारा कितनी नौकरियाँ निकाली गयीं और कितनी भर्तियाँ की गयीं। इसी तरह 500 नये स्कूल खोलने की बात कही थी। पिछले दो सालों में एक भी नया स्कूल नहीं खोला गया। दूसरी तरफ़ इसी पार्टी ने अपने प्रचार के ख़र्च में पिछले दस सालों में 4273% का इज़ाफ़ा किया है और पिछले एक साल में लगभग 500 करोड़ रुपये प्रचार पर ख़र्च किये हैं। इन आँकड़ों से यह साफ़ है कि आम आदमी की पार्टी होने का दावा करने वाली ‘आप’ सरकार असल में उन छोटे व मँझोले पूँजीपतियों की सरकार है जो इनको सालों लाखों-करोड़ों का चन्दा देते हैं और बदले में ये उनके लिए पूरी बेशर्मी से काम में लगे रहते हैं।
अब बात करते हैं केन्द्र में बैठी भाजपा सरकार की। वैसे तो भाजपा अब इतनी नंगी हो चुकी है कि उसकी सच्चाई बताने की भी ज़रूरत नहीं है। फिर भी हम यहाँ कुछ तथ्यों और आँकड़ों पर नज़र डालेंगे। यह तो साफ़ ही है कि केन्द्र में सत्तासीन यह सरकार बड़े पूँजीपतियों यानी कि अडानी-अम्बानी जैसों की सरकार है। भाजपा के सत्ता में आते ही इनकी सम्पत्ति में दिन दूना रात चौगुना इज़ाफ़ा होने लगा था और आज तो यह दुनिया में सबसे अमीरों की सूची में पहुँच गये हैं। देश में महँगाई और बेरोज़गारी चरम सीमा पर हैं। पेट्रोल-डीज़ल के दाम 100 रुपये तक पहुँच चुके हैं , गैस सिलेण्डर के दाम भी हज़ार को पार कर चुके हैं, आलू-प्याज़, सब्ज़ियों और तेल के दाम तो पहले ही आसमान छू रहे थे। दूसरी तरफ़ सरकारी नौकरियाँ तो निकल नहीं रहीं पर हर सरकारी चीज़ को बेचा ज़रूर जा रहा है और भर्तियाँ ठेके पर ली जा रही हैं। हर तरह की पेंशन स्कीम को धीरे-धीरे ख़त्म किया जा रहा है। लोग इन पर बात नहीं करें इसलिए जाति-धर्म के मुद्दे समय-समय पर उछाले जाते रहते हैं। लव-जिहाद जैसी आधारहीन बातों को हवा दी जाती है। हालिया श्रद्धा-आफ़ताब घटना इसी का उदाहरण है जिसे लव-जिहाद के रूप में लोगों के सामने परोसा जा रहा है जबकि इससे जुड़े असली सवालों को गायब कर दिया जा रहा है। उसी समय जब ऐसी घटना उत्तर प्रदेश में मुसलमान के बजाय एक हिन्दू पति ने की तो उसको मीडिया में कहीं जगह नहीं मिली! कहीं जाति के नाम पर एक बच्चे को पीटकर मार दिया जाता है तो कहीं बलात्कारियों का स्वागत फूल मालाओं के साथ किया जाता है।
दिल्ली में आँगनबाड़ी की हड़ताल के समय भी भाजपा की पोल खुल गयी थी जब उनके राज्यपाल आँगनवाड़ी की महिलाओं से मिलने तक को राज़ी नहीं थे। दिल्ली नगर निगम में तो कई जगह भाजपा के ही मंत्री विराजमान हैं लेकिन उन इलाक़ों में भी न तो सफ़ाई होती है न ही पीने के पानी की सही व्यवस्था है। कुल मिलाकर बात यह है कि भाजपा का पूँजीपति-प्रेम जगज़ाहिर है। अत: यह कभी भी आम अवाम का, मेहनतकश-मज़दूरों का विकल्प हो ही नहीं सकती।
इसके बाद हम कांग्रेस और अन्य पार्टियों की बात करते हैं। वैसे तो कांग्रेस जनता के बीच तो लम्बे समय पहले ही भरोसा खो चुकी थी, पर संकट के दौर में यह पूँजीपतियों के भी उतने काम की नहीं रह गयी है। यही कारण है कि आज कांग्रेस हर जगह मारी-मारी फिर रही है। ऐसे भी दिल्ली की जनता ने कांग्रेस पर तो सालों भरोसा किया, पर बदले में मिली सिर्फ़ बदहाली। आज दिल्ली की इस हालत के लिए कांग्रेस भी उतनी ही ज़िम्मेदार है। यही वह पार्टी है जिसकी सरकारों ने श्रम क़ानूनों में बदलाव, निजीकरण आदि की शुरुआत की थी जिसे भाजपा सरकार तानाशाही तरीक़े से आगे बढ़ा रही है। बाक़ी छोटी पार्टियाँ भी चुनाव के ख़र्चे के लिए पूँजीपति वर्ग के किसी न किसी हिस्से पर निर्भर रहती हैं। इसलिए इनमें से कोई भी बहुसंख्य मेहनतकश आबादी की नुमाइन्दगी कर ही नहीं सकती।
अब जब एमसीडी का चुनाव सर पर है तब सब फिर से झूठ पर झूठ बोले जा रहे हैं। केजरीवाल नारे लगा रहा है कि ‘कूड़े का पहाड़ हटाना है, केजरीवाल को जिताना है’, तो जनाब पिछले इतने सालों से दिल्ली में आप की ही तो सरकार रही है, तब याद नहीं आया? करावल नगर, मेट्रो विहार से लेकर बवाना तक में मज़दूरों के जो हालात हैं, उसे आज तक क्यों सही नहीं किया गया। पक्का मकान देने की बात करने वाले जाकर देखें कैसे वहाँ के लोग झुग्गियों में खुले नालों के किनारे जीने को मजबूर हैं। दूसरी तरफ़ भाजपा भी यह वायदा कर रही है कि मकान की व्यवस्था सभी के लिए की जायेगी, जबकि भाजपा के नियंत्रण वाली इसी एमसीडी द्वारा जब झुग्गियाँ तोड़ी जा रहीं थीं तो ये चुप बैठे थे। जिनके ख़ुद के उम्मीदवार करोड़पति और अरबपति हों उनसे आम जनता उम्मीद भी कैसे कर सकती है?

विकल्प क्या है?

इसके लिए एकमात्र विकल्प एक ऐसी ही पार्टी हो सकती है जो मेहनतकश-मज़दूरों और इन्साफ़पसन्द लोगों के दम पर चलती हो। एक ऐसी पार्टी जो सर्वहारा वर्ग का नज़रिया पेश करती हो। एक ऐसी पार्टी जो शोषणमुक्त समाज बनाने की बात करती हो, और ऐसे समाज बनाने का रास्ता इन्क़लाब के रास्ते को ही मानती हो। क्योंकि बिना क्रान्तिकारी तरीक़े से आये बदलाव में बस सत्ता परिवर्तन होगा, उससे आम मेहनतकश की ज़िन्दगी में कोई परिवर्तन नहीं आयेगा। एक ऐसी पार्टी जो इस पूँजीवादी चुनाव की प्रक्रिया को मज़दूरों का पक्ष रखने के लिए इस्तेमाल करती हो।
‘भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी (RWPI)’ एक ऐसी ही पार्टी है जो उपरोक्त तमाम क्रान्तिकारी उसूलों को मानती है। RWPI की तरफ़ से इस एमसीडी चुनाव में दो प्रतिनिधि खड़े किये जा रहे हैं। एक करावल नगर से और दूसरा शाहाबाद डेरी से। मज़दूरों और मेहनतकशों के सामने अब उनका अपना ख़ुद का विकल्प है इसलिए अब उन्हें पूँजीपतियों और सरमायेदारों की पार्टियों को वोट देने की कोई आवश्यकता नहीं है। यह सच है कि पूँजीवादी चुनाव से मज़दूर वर्ग के ऐतिहासिक कार्यभारों को पूरा नहीं किया जा सकता है। समूची आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में आमूलगामी व क्रान्तिकारी बदलाव के बिना हमें बेरोज़गारी, भूख, महँगाई से स्थायी तौर पर निजात नहीं मिल सकती है। लेकिन पूँजीवादी चुनावों में मज़दूर वर्ग का स्वतंत्र राजनीतिक पक्ष अनुपस्थित रहने के कारण समाज में जारी वर्ग संघर्ष में मज़दूर वर्ग कमज़ोर पड़ता है, वह पूँजीपति वर्ग का पिछलग्गू बनता है और साथ ही वह अपने उन अधिकारों को भी नहीं हासिल कर पाता है जिन्हें सैद्धान्तिक तौर पर पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे के भीतर हासिल किया जा सकता है, जैसे कि आठ घण्टे का कार्यदिवस, न्यूनतम मज़दूरी, आवास का अधिकार आदि। भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी ने यह घोषणा की है कि अगर उसका प्रत्याशी जीतता है तो वह सिर्फ़ और सिर्फ़ एक कुशल मज़दूर जितना ही वेतन लेगा और बाक़ी का पैसा विकास निधि में डाल दिया जायेगा।

मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2022


 

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