ज्ञानव्यापी विवाद और फ़ासिस्टों की चालें

– अजीत

आज पूरे देश में बेरोजगारी अपने चरम पर है। महंगाई ने लोगों की कमर तोड़ दी है। आर्थिक संकट लगातार गहराता जा रहा है। मज़दूरों को लगातार तालाबंदी और छँटनी का सामना करना पड़ रहा है। मेहनतकश लोगों की जिंदगी बदहाली में गुजर रही है। ठीक इसी समय भाजपा एवं आरएसएस ने अपने सहयोगी संगठनों के माध्यम से पूरे देश में सांप्रदायिक उन्माद फैलाने की कोशिशें तेज कर दी हैं। जबसे इन फासीवादियों ने सत्ता संभाली है तब से तमाम ऐसे छोटे-छोटे धार्मिक त्योहारों, पर्वों को बड़े पैमाने पर मनवाया जा रहा है, जिन्हें आम तौर पर नहीं मनाया जाता था, एवं उनका इस्तेमाल धार्मिक रूप से अल्पसंख्यक मुसलमानों के खिलाफ सांप्रदायिक उन्माद फैलाने के लिए किया जा रहा है। यह फासीवादी ताकतें धार्मिक रूप से अल्पसंख्यक मुसलमानों को सिर्फ धार्मिक त्योहारों में ही नहीं बल्कि हर मौके पर निशाना बना रही है और उनको दुश्मन के तौर पर प्रस्तुत कर रही हैं। मुसलमानों और इस्लाम से जुड़े विश्वासों, मूल्य-मान्यताओं पर हमला कर रही है। गौ-रक्षा, लव जिहाद, हलाल विवाद, हिजाब, नमाज और लाउडस्पीकर ऐसे कई सारे मुद्दे उठाए जा रहे हैं। इसी क्रम में एक नया मुद्दा उठ गया है- ज्ञानव्यापी मस्जिद का विवाद। इस मसले को लेकर तमाम हिंदुत्ववादी संगठनों ने नफरत एवं सांप्रदायिकता फैलाना शुरू कर दिया है। यह मुद्दा पूरे देश में चर्चा का विषय बना हुआ है।

क्या है मामला?

ज्ञानव्यापी मस्जिद बनारस की बेहद पुरानी मस्जिद है जो काशी विश्वनाथ मंदिर के पास में स्थित है। इसका निर्माण 17 वीं शताब्दी के आस-पास मुगलों के द्वारा किया गया था। हिंदू पक्ष के द्वारा यह कहा जा रहा है कि इस मस्जिद का निर्माण मंदिर तोड़कर किया गया था। इस मस्जिद के नीचे स्वयंभू शिवलिंग है इसलिए इस मस्जिद को यहां से हटा कर यह जमीन हिंदू पक्ष को दे देनी चाहिए। 1992 में बाबरी मस्जिद के ढांचे को गिराने के बाद से ही संघ परिवार ने इस मामले को तूल देना शुरू कर दिया था। बाबरी विध्वंस के समय यह नारा लगाया जाता था कि ‘अयोध्या तो सिर्फ झांकी है, काशी, मथुरा बाकी है।‘
सबसे पहले 1991 में यह मामला कोर्ट में आया और एक याचिका दायर की गई जिसमें कहा गया कि मस्जिद को उसके स्थान से हटाकर वह जगह हिंदू समुदाय को दे देनी चाहिए क्योंकि इसका निर्माण 2000 साल पूर्व राजा विक्रमादित्य ने किया था।17 वीं शताब्दी में औरंगजेब द्वारा इसे तोड़ दिया गया। इस याचिका को दायर करने में काशी विश्वनाथ मंदिर ट्रस्ट भी शामिल था। 1998 में मस्जिद के मैनेजिंग कमिटी ने आवेदन दिया जिसमें ‘प्लेसेस ऑफ वरशिप एक्ट,1991’ का तर्क दिया गया था। यह ऐक्ट 1991 में नरसिम्हा राव सरकार द्वारा लाया गया था जिसके तहत 15 अगस्त 1947 तक जो भी धार्मिक स्थल जिस रूप में मौजूद है उसे उसी रूप में मौजूद माना जाएगा और उसे उक्त धर्म से संबंधित भी माना जाएगा। बाबरी मस्जिद का मामला इस ऐक्ट का अपवाद था क्योंकि उसका मामला आजादी के पहले से कोर्ट में लड़ा जा रहा था। इस आवेदन को निचली अदालत ने तो रद्द कर दिया लेकिन हाई कोर्ट ने इस पर सुनवाई की और इस मुद्दे पर स्टे लगा दिया। अगले 20 सालों तक यह मामला शांत रहा। उसके बाद 2019 में सुप्रीम कोर्ट के अयोध्या राम जन्मभूमि मामले में सुनवाई के बाद एक बार फिर आवेदन किया गया और ज्ञानव्यापी मस्जिद के भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग के द्वारा सर्वे करने की मांग की गई। इस पर हाईकोर्ट ने स्टे लगा दिया।
इसके बाद साल 2022 में यह मामला फिर से तूल पकड़ता है, जब पांच हिंदू महिलाओं ने एक आवेदन दर्ज किया और कहा कि मस्जिद के पिछले दीवार के पास मां श्रृंगारी गौरी स्थल है और मस्जिद की दीवारों पर इसके प्रमाण भी है इसलिए उन्हें वहां पूजा करने की अनुमति दी जाए। वाराणसी के निचले कोर्ट ने इस याचिका की सुनवाई की और एक कमीशन नियुक्त कर कहा की वीडियोग्राफी की जाए कि कहां तस्वीरें मौजूद है। इस कमीशन में वैसे लोगों को नियुक्त किया गया जिनसे मुस्लिम पक्ष को आपत्ति थी। इसके बाद भी कमीशन के सदस्यों को नहीं बदला गया और सर्वे शुरू हुआ। सर्वे बाधित भी हुआ क्योंकि मुस्लिम पक्ष का दावा था कि सर्वे करने आए कमीशन ने बगैर निर्दिष्ट स्थल की जांच किए वीडियोग्राफी शुरू कर दी। मस्जिद परिसर के अंदर की वीडियोग्राफी भी की गयी जो कि कोर्ट के आदेश में नहीं था । इसको लेकर मुस्लिम पक्ष ने हाईकोर्ट में याचिका भी दायर की जो कि हाई कोर्ट के द्वारा खारिज कर दी गई। इस प्रकार वीडियोग्राफी सर्वे जारी रहा। सर्वे होने के बाद यह फुटेज वाराणसी के निचले कोर्ट में जमा कर दिया गया जिस पर फैसला आना अभी बाकी है ।
इस वीडियो के कोर्ट में जमा होने के बाद से ही मुख्य मीडिया ने इस पूरे मामले को एकतरफा ढंग से प्रस्तुत करते हुए यह दिखाया कि वीडियो में साफ तौर से देखा जा सकता है कि मस्जिद परिसर के भीतर एक शिवलिंग है। यह इस बात का प्रमाण है कि इस मस्जिद का निर्माण मंदिर तोड़कर किया गया था। मुख्य मीडिया इस पूरे मसले को मंदिर बनाम मस्जिद के तौर पर प्रस्तुत कर, लोगों में नफरत और धार्मिक उन्माद फैलाने की पूरी कोशिश कर रही है। वैसे इस मीडिया से आज के समय में और कुछ उम्मीद भी नहीं की जा सकती क्योंकि इन बड़े-बड़े मीडिया हाउसेस को फंडिंग बड़े-बड़े पूंजीपति घरानों से ही होती है और यह उनकी ही सेवा करते हैं। इस मामले में भी मीडिया आम लोगों को बांट कर अपने आकाओं की सेवा में जुटी हुई है। मन्दिर के भीतर शिवलिंग के होने की अफवाह को गोदी मीडिया इसीलिए जनता में फैलाने केे प्रयासों में लगा हुआ है।
इस पूरे मामले में कई और भी बातें सामने आई है जैसे कि प्लेसेस आफ वरशिप एक्ट, 1991 की अवहेलना करते हुए यह सर्वे करने का आदेश दिया गया। इसके अलावा इस सर्वे में मस्जिद परिसर के भीतर की वीडियोग्राफी को नहीं रोकना। यह कुछ बातें हैं जो दिखाती है कि आज की न्यायपालिका में किस तरीके से फासीवादी तत्वों ने घुसपैठ कर ली है। इससे पहले भी 2019 में राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद मामले में जिन तर्कों के आधार पर फैसला सुनाया गया वह अपने आप में इस बात का सबूत है कि यह न्यायपालिका इन फासीवादियों के हाथ की बस एक कठपुतली है।
अब यह सवाल उठता है कि आखिर यह मामला अभी के समय में ही क्यों उठाया जा रहा है?
इस ज्ञानव्यापी मस्जिद के मसले को अभी के समय में पूरे देश के सामने सबसे बड़े मुद्दे के तौर पर पेश किया जा रहा है क्योंकि आज लोगों की हालत गरीबी, महंगाई और बेरोजगारी से सबसे ज्यादा खराब है। आर्थिक संकट और गहराता जा रहा है। आम मेहनतकश लोगों में इस सरकार के खिलाफ़ काफ़ी असंतोष और गुस्सा है। ऐसे में आम मेहनतकश आबादी अपने जरूरी मुद्दों महंगाई, गरीबी और बेरोजगारी को भूल जाए इसके लिए ज़रूरी है कि उसके सामने एक नकली मुद्दा पेश किया जाये। यह काम मंदिर-मस्जिद का विवाद काफ़ी अच्छे तरीक़े से कर सकता है। इसीलिए यह मुद्दा उठाया जा रहा है। इससे आम लोग अपने जरूरी मुद्दों पर एकजुट नहीं होंगे और उनकी लड़ाई कमज़ोर होगी। इसलिए आम लोगों को गैर-जरूरी मुद्दों में उलझा कर रखा जा रहा है। यह फासीवादी ताकतें हमेशा से ऐसा ही करती रही है। इन तमाम गैर जरूरी मुद्दों को जरूरी मुद्दों के तौर पर पेश करती रही है और जनता की तमाम परेशानियों का कारण एक नकली दुश्मन को बताती रही है। भारत में काफ़ी समय से धार्मिक रूप से अल्पसंख्यक मुसलमानों को तमाम दिक्कतों एवं परेशानियों का कारण बताया जाता रहा है। इस मामले को तूल देने के पीछे एक और कारण यह है कि आज फासीवादी मोदी सरकार इन नकली मुद्दों की आड़ में लगातार बड़ी पूंजी की सेवा कर रही है और जनता का ध्यान उस ओर जाने से रोक रही है।
अगर हम देश के कई हिन्दू मन्दिरों की बात करें, तो एक दौर में उन्हें भी बौद्ध मठों को तोड़कर बनाया गया था। कुछ को जैनियों के पूजास्थलों को भी तोड़कर बनाया गया था। इसके अलावा, स्वयं हिन्दुओं के भीतर अलग-अलग सेक्टों जैसे कि शाक्त, शैव व वैष्णवों ने एक दूसरे के पूजा स्थलों को तोड़कर अपने पूजा स्थल बनाये हैं। आज क्या उन सभी मन्दिरों को भी तोड़कर पहले वाले धार्मिक पूजा स्थलों को बना दिया जाना चाहिए? और क्या पता की बौद्ध मठों के स्थानों की भी पुरातात्विक जाँच की जाये, तो किसी आदिम कबीले का कोई पूजा स्थल मिल जाये! तो क्या फिर उसके लिए भी आम मेहनतकश जनता को आपस में एक-दूसरे का सिर-फुटौव्वल करना चाहिए? यह प्रतिक्रियावादी शक्तियों का काम है कि वह अतीत के मुर्दे उखाड़कर जनता की भावनाओं को भड़काये और उसे आपस में ही लड़ाये। यही काम आज संघ परिवार और भाजपा सरकार कर रही है।

एक इंसाफपसंद नागरिक होने के नाते इस पूरे मसले को लेकर हमें क्या सोचना चाहिए?

हमें यह सोचना चाहिए कि मंदिर- मस्जिद का मसला हमारे लिए कोई मसला नहीं है। ज्ञानव्यापी मस्जिद, मंदिर तोड़कर बनाई गई थी या नहीं यह हमारे लिए कोई सवाल ही नहीं है क्योंकि अतीत में हुई घटनाओं का बदला वर्तमान में नहीं लिया जा सकता। जिस समय कथित रूप से मंदिर को तोड़ने की बात कही जा रही है वह मध्यकाल का समय था और इसका भी कोई प्रमाण नहीं है कि ज्ञानव्यापी मस्जिद का निर्माण किसी मन्दिर को तोड़कर हुआ था। मध्यकाल में राज्य का आधार धर्म हुआ करता था और सभी धर्म के राजाओं को अपने राज्य के साथ-साथ धर्म को भी स्थापित करना पड़ता था। उस पूरे समय में पूरी दुनिया में ऐसे धार्मिक स्थलों को तोड़ा गया और उनके जगह पर नए धार्मिक स्थल बनाया गये। आज बनारस में भी मौजूद दर्जनों मंदिरों को बौद्धों और जैनों के धार्मिक स्थलों को तोड़कर बनाए जाने का ऐतिहासिक साक्ष्य मौजूद है।यदि हम इतिहास में हुई घटनाओं का वर्तमान से बदला लेना चाहते हैं तो पता नहीं कितने मंदिरों और मस्जिदों को तोड़ना पड़ेगा। फिर तो हम यही करते रह जायेंगे! हमें यह भी बात याद रखनी चाहिए कि मध्यकाल में कोई संविधान, नियम-कानून नहीं था। लेकिन आज है। उस नियम कानून को ताक पर रखकर ऐसे गतिविधियों को अंजाम देने की कोशिश की जा रही है।
आज जरूरत है कि हम नकली और गैर-जरूरी मुद्दों में फंसने की जगह अपने असली मुद्दों को पहचानें और उनपर एक हो जाएं। आज ज़रूरत है इन गैर-जरूरी मुद्दों के पीछे की असली राजनीति को समझने की। आज शासक वर्ग चाहता है कि हमें सांप्रदायिक दंगों की आग में झोंक दें। हमें जाति और धर्म के नाम पर बांट दें लेकिन हमें उसके साजिश को नाकाम करने की जरूरत है। हम ऐसा तभी कर पाएंगे जब हम अपने भीतर से अतार्किक, अनैतिहासिक और अवैज्ञानिक दृष्टिकोण को हटा पाएंगे और अपने असली मुद्दों पर वर्ग के आधार पर एक होते हुए आन्दोलन खड़ा करेंगे। आज के समय के क्रांतिकारियों की जिम्मेदारी है कि वें आम मेहनतकश लोगों तक सही इतिहास की जानकारी ले जायें और इन फासीवादियों की असली मंशा को उजागर करे। तभी जाकर इन फासीवादियों की असली मंशा को नाकामयाब किया जा सकता है।

मज़दूर बिगुल, जून 2022


 

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