एबीजी शिपयार्ड घोटाला
पूँजीवाद अपने आप में ही घोटालों और भ्रष्टाचार का अन्तहीन चक्र है!
– अपूर्व मालवीय
जब से मोदी सरकार आयी है तब से बैंक धोखाधड़ी की ख़बर बहुत आम-सी हो गयी है। ये धोखाधड़ी की घटनाएँ भी दिन दूनी रात चौगुनी तरक़्क़ी करती जा रही हैं। 2015 में विजय माल्या का नौ हज़ार करोड़ का घोटाला सामने आया था! 2018 में नीरव मोदी का चौदह हज़ार करोड़ का घोटाला सामने आया और अब 2022 में तेईस हज़ार करोड़ का घोटाला सामने आया है।
“काला धन लायेंगे, पन्द्रह लाख दिलायेंगे” का जुमला फेंकते-फेंकते ‘जनता का पैसा खुलेआम लुटवायेंगे’ का कारनामा मोदी सरकार ही कर सकती है। ये नया मामला एबीजी शिपयार्ड नामक कम्पनी से जुड़ा हुआ है, जो 28 बैंकों का 22,842 करोड़ रुपये का क़र्ज़ लेकर डकार गयी है।
1985 में बनी यह कम्पनी पानी के जहाज़ बनाने और उनकी मरम्मत का काम करती है। ये शिपयार्ड गुजरात के दाहेज और सूरत में स्थित है।1990 से लेकर 2009 तक इस कम्पनी ने ख़ूब तरक़्क़ी की! 2007 में इसकी तरक़्क़ी से ही प्रभावित होकर उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री रहे नरेन्द्र दामोदर दास मोदी ने क़रीब एक लाख इक्कीस हज़ार वर्ग मीटर की सरकारी ज़मीन इस कम्पनी को आधे से भी कम क़ीमत पर दे दी थी! ये मामला उस समय गुजरात विधानसभा में उठा भी था लेकिन मामला चूँकि तरक़्क़ी का था, इसलिए कुछ भी नहीं हुआ। इस मामले में क्या तरक़्क़ी हुई, पता नहीं! बहरहाल 2008 में आयी विश्वव्यापी मन्दी ने जहाज़रानी उद्योग पर भी बहुत बुरा असर डाला। जहाज़ बनाने के कई ठेके रद्द हो गये। जो जहाज़ बने वो यार्ड में पड़े रह गये! और कम्पनी डूबने लगी। 2013 आते-आते कम्पनी ने बैंकों से ग्यारह हज़ार करोड़ का जो क़र्ज़ लिया था उसे चुकाने में असमर्थ हो गयी। इस क़र्ज़ को 2013 में ही बैंकों ने एनपीए (नॉन परफ़ॉर्मिंग एसेट यानि ऐसा क़र्ज़ जिसके मिलने की कोई उम्मीद नहीं) घोषित कर दिया था। लेकिन मामला यहीं नहीं रुका! 2014 में बैंकों ने इसे फिर से क़र्ज़ दिया। जो 2017 तक जाते-जाते फिर से एनपीए हो गया, यानी बैंक ने इसे न चुकाया जा सकने वाला क़र्ज़ घोषित कर दिया। इसके दो साल बाद 2019 में इस कम्पनी को फ़्रॉड घोषित किया गया। 2020 में इसके ख़िलाफ़ शिकायत दर्ज करायी गयी। इसके ठीक दो साल बाद फ़रवरी 2022 में इसके ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज करायी गयी है। इस एफ़आईआर में यह बताया गया है कि इस कम्पनी को घाटे से उबारने के लिए बैंकों ने जो क़र्ज़ दिये, उस राशि को इस कम्पनी ने कहीं और सम्पत्ति ख़रीदने में इस्तेमाल किया। ग्रुप की अन्य कम्पनियों के क़र्ज़ और अन्य ख़र्चों के भुगतान में इस्तेमाल करती रही। यहाँ तक कि एक बहुत बड़ी राशि को टैक्स हैवन देशों में भी स्थानन्तरित किया गया है, यानी वे देश जो दुनियाभर के भ्रष्टाचारियों को अपने भ्रष्टाचार से लूटे गये धन को बचाने और छिपाने का मौक़ा देते हैं।
यानी जो कम्पनी डूबी उसके कर्मचारियों, मज़दूरों के भविष्य, उनके रोज़गार का, उनकी तनख़्वाह का पता नहीं लेकिन इस कम्पनी के मालिकों, डायरेक्टरों ने अपनी आलीशान ज़िन्दगी और ऐशोआराम का पूरा इन्तज़ाम कर लिया है। वो भी जनता के पैसों के दम पर।
अगर 2013 से 2022 तक के पूरे समय को देखा जाये तो पता चलता है कि इस पूरी नौ साल की अवधि में बैंकों ने ये जानते हुए भी कि एबीजी शिपयार्ड पहले के क़र्ज़ चुका पाने की स्थिति में ही नहीं है, और क़र्ज़ दिया! 2017 में दिवालिया घोषित होने के बावजूद न तो बैंक, न ही आरबीआई, न ही सीबीआई और न ही वित्त मंत्रालय ने एबीजी शिपयार्ड के मालिक ऋषि कमलेश अग्रवाल और कम्पनी के डायरेक्टरों के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई की। इतने बड़े घोटाले के सामने आने के बाद भी कोई गिरफ़्तारी नहीं की गयी है। सरकार और उसकी तमाम एजेंसियाँ इसके मालिकों और डायरेक्टरों को विदेश भाग जाने या कहीं और सेटल हो जाने का पूरा मौक़ा दे रही हैं। और होना भी यही है। पूँजीवादी व्यवस्था में वित्तीय घोटाले का यह आम चलन है जिसमें छोटे पूँजीपति से लेकर बड़े पूँजीपति तक सभी शामिल हैं। चूँकि हमाम में सभी नंगे हैं इसलिए इसमें सज़ा किसी को नहीं होनी है। पूँजीवादी लूट, शोषण और भ्रष्टाचार का ये चक्र यही नहीं रुकता है। करोड़ों-अरबों के क़र्ज़ तले जब कोई कम्पनी डूब जाती है और उसे दिवालिया घोषित कर दिया जाता है तब उसकी नीलामी की जाती है। उस नीलामी में घूम-फिरा करके उस दिवालिया कम्पनी के भूतपूर्व मालिकों या रिश्तेदारों द्वारा ही किसी दूसरी कम्पनी की आड़ लेकर औने पौने दामों में उस कम्पनी को फिर से ख़रीद लिया जाता है।
अब रहा सवाल तेईस हज़ार करोड़ का क्या होगा? इसकी भरपाई कौन करेगा? तो इसका जवाब है – इसकी भरपाई भी जनता ही करेगी! वो कैसे? बैंक जो क़र्ज़ की राशि पूँजीपतियों को देते हैं वो पैसा बैंकों का अपना नहीं होता। आम जनता जो अपनी छोटी-छोटी बचत को बैंकों में जमा करती है वही पैसा बैंक उठाकर कम्पनियों और पूँजीपतियों को देते हैं और उनके मुनाफ़े का एक हिस्सा ब्याज़ के रूप में प्राप्त करते हैं। लेकिन जब कम्पनियाँ या पूँजीपति दिवालिया घोषित हो जाते हैं और बैंकों के क़र्ज़ चुका पाने की स्थिति में नहीं होते तो बैंकों को डूबने से बचाने के लिए पूँजीवादी सरकारें उन्हें बेल आउट पैकेज दिया करती हैं जो जनता के टैक्स से जुटाये गये राजकोष का ही एक हिस्सा होता है। और अपने इस राजकोषीय घाटे को पूरा करने के लिए सरकारें जनता के ऊपर ही और अतिरिक्त टैक्स का भार लगाने के साथ ही तमाम कल्याणकारी योजनाओं, शिक्षा, स्वास्थ्य से लेकर तमाम बुनियादी सुविधाओं में कटौती करने लगती हैं। और इस प्रकार कुल मिलाकर पूँजीवादी लूट, ग़बन, भ्रष्टाचार का चक्र एक बार फिर से और बड़ी लूट, ग़बन, भ्रष्टाचार को अंजाम देने के लिए चलने लगता है।
मज़दूर बिगुल, मार्च 2022
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