देश के आम मेहनतकश लोगों को साम्प्रदायिक अन्धराष्ट्रवाद में बहाने के लिए इतिहास को विकृत करने की संघी साज़िशें

– अमित

फ़ासीवादी ताक़तें झूठे-मनगढ़न्त, अवैज्ञानिक और अतार्किक प्रचार के ज़रिए समाज में अपने आधार का विस्तार करती हैं। वे हर उस चीज़ का विरोध करती हैं और उन्हें नष्ट करने की कोशिश करती हैं जो उनके इस झूठ और अज्ञान पर आधारित दुष्प्रचार और मिथ्याकरण के ख़िलाफ़ समाज को तार्किक और वैज्ञानिक चेतना से लैस करती है। इतिहास के कूड़ेदान में फेंके गये जर्मनी और इटली के फ़ासिस्टों के कुकृत्य इसके साक्षी हैं। चौराहों पर किताबों की होली जलाने की तस्वीरें अभी भी हमें न केवल फ़ासिस्टों की तार्किक, वैज्ञानिक और जनवादी विचारों के प्रति नफ़रत की याद दिलाती हैं बल्कि यह भी बताती हैं कि फ़ासिस्टों की मुहिम के ख़िलाफ़ आम जनमानस के बीच में तर्कणा, जनवाद और वैज्ञानिक विचारों के प्रसार का महत्व क्या है।
इतिहास का निर्माण जनता करती है। फ़ासिस्ट ताक़तें जनता की इतिहास-निर्मात्री शक्ति से डरती हैं। इसलिए वे न केवल इतिहास के निर्माण में जनता की भूमिका को छिपा देना चाहती हैं, बल्कि इतिहास का ऐसा विकृतिकरण करने की कोशिश करती हैं जिससे वह अपनी विचारधारा और राजनीति को सही ठहरा सकें। संघ परिवार हमेशा से ही इतिहास का ऐसा ही एक फ़ासीवादी कुपाठ प्रस्तुत करता रहा है।
पिछले दिनों यूजीसी द्वारा ‘लर्निंग आउटकम बेस्ड करिकुलम फ़्रेमवर्क (LOCF): बीए हिस्ट्री अण्डरग्रेजुएट प्रोग्राम, 2021’ प्रस्तुत किया गया। यूजीसी द्वारा प्रस्तुत इस मसौदे में इरफ़ान हबीब और रामशरण शर्मा जैसे इतिहासकारों की जगह संघ के सत्यकथा-छाप लेखकों की किताबों को पढ़ाने की बात की गयी है। यूजीसी का यह नया पाठ्यक्रम ‘भारतीय इतिहास के गौरवशाली अतीत’ को सामने लाने के लिए बनाया गया है। हर देश के इतिहास में कुछ गौरवशाली होता है और कुछ ऐसा भी होता है जिस पर गौरव नहीं किया जा सकता है। वर्ग संघर्षों का इतिहास ऐसा ही हो सकता है। इसलिए पूरे इतिहास पर झूठा गर्व पैदा करने का काम फ़ासीवादी शक्तियाँ अपने राजनीतिक हितों को पूरा करने के लिए कैसे करती हैं? आइए देखते हैं।
इस गौरवशाली अतीत को सामने लाने के लिए यूजीसी द्वारा पेश किये गये इस नये पाठ्यक्रम से वर्ण-जाति व्यवस्था का उद्गम ग़ायब कर दिया गया है, वहीं पूरे इतिहास के साम्प्रदायिक पाठ को पाठ्यक्रम का हिस्सा बना दिया गया है। अतीत को सामने लाने के लिए हिन्दू धर्म ग्रन्थ पढ़ाने, ‘सरस्वती सभ्यता’ को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाने की क़वायद शुरू की गयी है। इसी को यूजीसी के इस नये सिलेबस में ‘आइडिया ऑफ़ इण्डिया’ (भारत का विचार) का नाम दिया गया है। फ़ासीवादी संघ परिवार और भाजपा के नेताओं ने खुली घोषणा शुरू कर दी है कि अब किसी भी विवादित तथ्य को इतिहास में नहीं पढ़ाया जायेगा। ज़ाहिर है कि इतिहास का जो तथ्य संघ के साम्प्रदायिक-फ़ासीवादी पाठ के ख़िलाफ़ जायेगा, उसे विवादित बताकर इतिहास से बाहर कर दिया जायेगा और वह पढ़ाया जायेगा जो संघ परिवार चाहता है। इसकी शुरुआत पाठ्यपुस्तकों में हल्दीघाटी के युद्ध में राणा प्रताप को विजयी घोषित करके कर दी गयी है!
इसी तरह से अभी हाल ही में दिल्ली विश्वविद्यालय की निरीक्षण समिति ने महाश्वेता देवी, बामा और सुखारथारिणी के लेखों को अंग्रेज़ी के सिलेबस से बाहर कर दिया। महाश्वेता देवी की कहानी ‘द्रौपदी’ एक आदिवासी महिला की कहानी है जो पितृसत्ता, ब्राह्मणवादी मानसिकता और जातिगत भेदभाव के ख़िलाफ़ लड़ रही थी। निरीक्षण समिति ने नन्दिता सुन्दर द्वारा लिखित ‘सबअल्टर्न और सम्प्रभु: बस्तर का मानवशास्त्रीय इतिहास’ पाठ को हटाने की कोशिश की थी। दक्षिणपन्थी शिक्षकों की ओर से 2019 में अंग्रेज़ी पाठ्यक्रम में गुजरात दंगों पर लिखी ‘मनीबेन एलियास बीबीजान’ को हटाने की माँग की गयी थी। उन्होंने इतिहास में नक्सलवाद और साम्यवाद-सम्बन्धी लेखों को भी हटाने की माँग की थी।
सच तो यह है कि संघ परिवार पूरे पाठ्यक्रम को अपनी फ़ासीवादी विचारधारा के प्रचार-प्रसार के एक औज़ार में तब्दील करने में लगा हुआ है। 2019 में ही एनसीईआरटी को संघ परिवार से जुड़े संगठन शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास ने ग़ालिब और टैगोर की रचनाओं, क्रान्तिकारी कवि पाश की कविता, एमएफ़ हुसैन की जीवनी के अंशों, गुजरात के दंगों, मुगल बादशाहों और नेशनल कान्फ़्रेंस सम्बन्धी विवरण हटाने को कह दिया था। राजस्थान में भाजपा सरकार के कार्यकाल में पाठ्यक्रम में श्यामा प्रसाद मुखर्जी, दीन दयाल उपाध्याय, के.एस. सुदर्शन आदि को शामिल कर लिया। सिंधिया को अंग्रेज़ों का मित्र बताने वाली झाँसी वाली रानी कविता को पाठ्यक्रम से बाहर कर दिया गया। मोदी सरकार द्वारा लायी गयी नयी शिक्षा नीति शिक्षा के पूरे तंत्र के फ़ासीवादीकरण का दस्तावेज़ है।
वास्तव में 2014 के बाद नरेन्द्र मोदी के सत्ता में आने के बाद से संघ परिवार और भाजपा द्वारा पूरे इतिहास के विकृतिकरण और भगवाकरण की यह मुहिम कई गुना तेज़ हो गयी है। संघी “विचारक” सुदर्शन राव को आईसीएचआर का प्रमुख बनाये जाने के साथ ही इतिहास में विकृतिकरण के जिस नये दौर की शुरुआत हुई वह प्रहसनात्मक त्रासदी अभी भी जारी है। विज्ञान कांग्रेस में प्राचीन भारत में विमान का आविष्कार होने, प्लास्टिक सर्जरी, स्टेम सेल आदि का ज्ञान होने जैसे मूर्खतापूर्ण दावों को फिर से दुहराया जाने लगा। नरेन्द्र मोदी द्वारा नालन्दा और तक्षशिला, नानक-कबीर और गोरखनाथ समेत पूरे इतिहास को गड्ड-मड्ड कर देना तो बस इस मूर्खता की एक बानगीभर है। शिक्षा का भारतीयकरण करने के नाम पर भगवाकरण की जो मुहिम चलायी जा रही है, उसका ध्वजवाहक दीनानाथ बत्रा को बनाया गया। दीनानाथ बत्रा की किताब ‘तेजोमय भारत’ से उनके इतिहासबोध का एक उदाहरण देखिए – “अमेरिका आज स्टेम सेल रिसर्च का श्रेय लेना चाहता है, मगर सच्चाई यह है कि भारत के बालकृष्ण गणपत मातापुरकर ने शरीर के हिस्सों को पुनर्जीवित करने के लिए पेटेण्ट पहले ही हासिल किया है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि इस रिसर्च में नया कुछ नहीं है और डॉ. मातापुरकर महाभारत से प्रेरित हुए थे। कुन्ती के एक बच्चा था जो सूर्य से भी तेज़ था। जब गान्धारी को यह पता चला तो उसका गर्भपात हुआ और उसकी कोख से मांस का लम्बा टुकड़ा बाहर निकला। व्यास को बुलाया गया जि‍न्होंने मांस के उस टुकड़े को कुछ दवाइयों के साथ पानी की टंकी में रख दिया। बाद में उन्होंने मांस के उस टुकड़े को 100 भागों में बाँट दिया और उन्हें घी से भरी टंकियों में दो साल के लिए रख दिया। दो साल बाद उसमें से 100 कौरव निकले। महाभारत में इस क़िस्से को पढ़ने के बाद मातापुरकर को अहसास हुआ कि स्टेम सेल की खोज उनकी अपनी नहीं है बल्कि वह महाभारत में भी दिखती है।” दीनानाथ बत्रा के इन मूर्खतापूर्ण प्रलापों को बच्चों के इतिहासबोध का हिस्सा बनाने के लिए गुजरात सरकार ने बाक़ायदा सर्कुलर तक जारी कर दिये। क़ुतुबमीनार और ताजमहल के हिन्दू मन्दिर होने, मक्का में स्थित काबा के शिव मन्दिर होने, देश-दुनिया के विभिन्न शहरों और देशों के नाम का हिन्दू नाम होने जैसे इतिहास का फ़ासीवादी कुपाठ सुनने में तो मूर्खतापूर्ण लगता है लेकिन सच्चाई यह है कि इसके पीछे सोचने-समझने वाले शातिर दिमाग़ काम करते हैं।
सत्ता में न रहने पर भी संघ परिवार अपने फ़ासीवादी एजेण्डे को लागू कराने के लिए तरह-तरह की साज़िशें रचता रहा है। 1964 में पीएन ओक के नेतृत्व में इन्होंनें राष्ट्रीय इतिहास पुनर्लेखन संस्थान की शुरुआत की। संघियों के दबाव में ही मुक्तिबोध की रचना ‘भारत : इतिहास और संस्कृति’ को प्रतिबन्धित किया गया था। 1977 में पहली बार सत्ता भागीदारी करने के बाद ही इस फ़ासीवादी गिरोह ने एनसीईआरटी की तमाम पुस्तकों में यह कहते हुए बदलाव कर दिया था कि वह समुदाय विशेष की भावनाओं को आहत करने वाली हैं। इसी दौर में इन्होंने इतिहासकार रामशरण शर्मा की किताब ‘प्राचीन भारत’ को पाठ्यक्रम से बाहर करवा दिया था। आरएसएस से जुड़ी संस्था विद्या भारती से जुड़े स्कूलों में पढ़ाये जाने वाले पाठ्यक्रम को एनसीईआरटी द्वारा 1996 में धार्मिक कट्टरपन्थ और संकीर्णता को बढ़ावा देने वाला पाठ्यक्रम बताया गया था। अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री बनने के साथ ही इतिहास के विकृतिकरण की इस मुहिम की रफ़्तार कई गुना बढ़ गयी। यही वह दौर था जब सती प्रथा को गौरवान्वित करने, क़ुतुबमीनार को विष्णुस्तम्भ बताने, मुगल काल के युद्धों को हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष के रूप में प्रस्तुत करने जैसी चीज़ों को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया गया। तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री मुरली मनोहर जोशी के नेतृत्व में प्राचीन भारत में लोगों के गोमांस खाने के विवरण आदि को कोर्स से हटा दिया गया। यह पढ़ाया जाने लगा कि राजा कुश ने राम मन्दिर बनाया था जिसे यवन राजा मिनाण्‍डर ने तोड़ दिया। भारत में आर्यों के आगमन जैसे इतिहास के कई सारे तथ्यों में बदलाव इसी दौर में किये गये। 2004 में ही भण्डारकर प्राच्य शोध संस्थान में शम्भाजी ब्रिगेड के गुण्डों ने घुसकर आग लगा दी और 18,000 पुस्तकों और 30,000 दुर्लभ पाण्डुलिपियों को नष्ट कर दिया। सत्ता से बाहर होने के बाद फ़ासिस्टों ने अपनी इस नफ़रती मुहिम को और उग्र तरीक़े से आगे बढ़ाया। 2008 में दिल्ली विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल किये गये रामानुजन के निबन्ध ‘300 रामायणाज़’ को लेकर संघियों ने बवाल किया और इतिहास विभाग में घुसकर पुलिस की उपस्थिति में विभागाध्यक्ष से मारपीट की। रामानुजन ने इस निबन्ध में साक्ष्यों के ज़रिए दिखाया था कि भारत में रामायण के लगभग 300 संस्करण प्रचलित हैं।

जनता का इतिहास बनाम फ़ासीवाद द्वारा प्रस्तुत विकृत इतिहास

वास्तव में औपनिवेशिक इतिहास लेखन में भारत के इतिहास को विकृत रूप में पेश करते हुए यूरोपीय उपनिवेशवाद के नज़रिए के आधार पर उसकी व्याख्या की गयी। ज़ाहिर है कि इस पूरे लेखन में औपनिवेशिक हितों के हिसाब से भारत के इतिहास का पाठ प्रस्तुत किया गया। यह प्राच्यवादी व्याख्या एक तरफ़ अनैतिहासिक दृष्टिकोण से भारतीय समाज को एक ठहरे हुए समाज के रूप में प्रस्तुत करती रही। वहीं दूसरी ओर औपनिवेशिक इतिहास लेखन की एक धारा ने भारतीय समाज के इतिहास को हिन्दू सभ्यता, मुसलमान सभ्यता और ब्रिटिश काल के रूप में काल विभाजित किया। इतिहास का यह विभाजन आज के समय में संघी फ़ासीवादियों के कुपाठ को भी एक आधार प्रदान करता है। ग़ौरतलब है कि संघी फ़ासिस्ट भी इतिहास की व्याख्या करते समय एक तरफ़ तो तरह-तरह के अनैतिहासिक-अनर्गल दावे करते हैं, दूसरी ओर इतिहास की इस औपनिवेशिक व्याख्या की ही तरह इतिहास में हिन्दुओं के शासन और उसके बाद मुस्लिमों की ग़ुलामी और ब्रिटिश काल के रूप में इतिहास की व्याख्या भी प्रस्तुत करते हैं।
इस औपनिवेशिक इतिहास-लेखन की प्रतिक्रिया में जो राष्ट्रवादी इतिहास-लेखन शुरू हुआ, वह बहुत हद तक औपनिवेशिक प्रचार का एक जवाबी प्रचार था। डी.डी. कोसम्बी, रामशरण शर्मा, डी.एन. झा, बिपन चन्द्र, सुवीरा जायसवाल जैसे इतिहासकारों ने औपनिवेशिक इतिहास लेखन से विच्छेद करते हुए भारत के इतिहास को सामने लाने में योगदान दिया। इन इतिहासकारों ने सही तथ्यों और तर्कों तथा वैज्ञानिक विश्लेषण के ज़रिए भारतीय इतिहास की सही समझ बनाने में योगदान दिया। डी.डी कोसम्बी ने प्राचीन भारत के ऐतिहासिक भौतिकवादी इतिहास की नींव रखी और बाद में रामशरण शर्मा उनके कार्य को आगे बढ़ाते हुए उसे नयी ऊँचाइयों पर ले गये। इन इतिहासकारों ने इतिहास को राजा-रानी के क़िस्सों, इतिहास के अति महिमामण्डन और उसके चारों ओर लिपटे हुए मिथकीय आवरण से मुक्त कराया तथा इतिहास को गतिहीन और घटनाओं व संयोगों के समुच्चय मात्र के रूप में देखने की धारणा पर चोट की। यही वजह है कि प्राचीन भारत के इतिहास को स्वर्णयुग की तरह पेश करने और रामराज्य के नाम पर ताण्डव मचाने वाले फ़ासीवादियों को इस इतिहासबोध से सबसे ज़्यादा ख़तरा नज़र आता है।
प्रसिद्ध इतिहासकार डी.एन. झा ने इतिहास के भगवाकरण के ख़िलाफ़ अपने कृतित्व और लेखन के ज़रिए जमकर संघर्ष किया। उन्होंने लिखा कि ‘उच्च वर्गों के लिए इतिहास के सभी युग स्वर्णयुग ही रहे हैं, लेकिन आम जनता के लिए वे कभी स्वर्णयुग नहीं रहे। जनता का वास्तविक स्वर्णयुग अतीत के गर्भ में नहीं बल्कि भविष्य के गर्भ में निहित है!’ डी.एन. झा ‘प्राचीन भारत’, ‘पवित्र गाय का मिथक’ जैसी रचनाओं ने न केवल इतिहास की एक सही समझ बनाने में योगदान दिया बल्कि डी.एन. झा ख़ुद आजीवन दक्षिणपन्थी फ़ासिस्ट ताक़तों के ख़िलाफ़ मोर्चे पर डटे रहे। ‘पवित्र गाय का मिथक’ के प्रकाशन के बाद से ही फ़ासिस्ट उन्हें लगातार जान से मारने की धमकी देते रहे। बाद में डी.एन. झा ने विभिन्न इतिहासकारों के साथ मिलकर राम मन्दिर पर एक रिपोर्ट भी प्रकाशित की और उसमें बताया कि ‘न तो इस बात के कोई ऐतिहासिक प्रमाण हैं कि बाबरी मस्जिद का निर्माण मन्दिर को ढहाकर किया गया था और न ही इस बात के कि भगवान राम का जन्म उसी स्थान पर हुआ था, जहाँ कथित राममन्दिर था।’ ज़ाहिर है कि इतिहास के भगवाकरण के रथ के सामने खड़े डी.एन. झा फ़ासिस्टों के जानी दुश्मन थे।
डी.डी. कोसम्बी, रामशरण शर्मा, डी.एन. झा, बिपन चन्द्र, सुवीरा जायसवाल से लेकर इरफ़ान हबीब और रोमिला थापर जैसे इतिहासकारों की धारा संघी फ़ासीवादियों द्वारा इतिहास के विकृतिकरण और भगवाकरण के ख़िलाफ़ एक दीवार की तरह खड़ी है। जब बाबरी मस्जिद के ध्वंस को लेकर मुहिम चलायी जा रही थी, उस दौर में रामशरण शर्मा जैसे इतिहासकार उसको संरक्षित करने के पक्ष में इतिहास कांग्रेस में प्रस्ताव पारित करवा रहे थे। यही वजह है कि इन संघी फ़ासिस्टों द्वारा इन इतिहासकारों, इनके लेखन पर लगातार कीचड़ उछालने और हमले करने का काम जारी है। आरएसएस के मुखपत्र ‘पांचजन्य’ के लेखों में पिछले लम्बे समय से रामशरण शर्मा, डी.एन. झा, रोमिला थापर, सुवीरा जायसवाल जैसे इतिहासकारों पर मिशनरी विचारों से प्रेरित, हिन्दुत्व के प्रति वैर भाव रखने वाले जैसे कुत्सा-प्रचारों की बौछार की गयी है। हाल ही में संघ की शाखा से ज्ञान प्राप्त करके आये भगवान सिंह ने तो उपरोक्त इतिहासकारों के बरक्स ख़ुद को मार्क्सवादी बताते हुए इनको साम्राज्यवादी लेखन का प्रतिनिधि बता डाला है!
लेकिन जैसा कि हमने पहले बताया, फ़ासीवादी केवल इतिहास की सही समझ प्रस्तुत करने वाले मार्क्सवादी इतिहासकारों और उनके लेखन के ख़िलाफ़ कुत्सा-प्रचार तक ही सीमित नहीं रहे, बल्कि उन्होंने तमाम संस्थाओं में घुसपैठ, पाठ्यक्रम में बदलाव आदि के ज़रिए बहुत बड़ी आबादी के इतिहासबोध को बदलने में भी सफलता हासिल की है। 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद के विध्वंस की घटना इस फ़ासीवादी मुहिम की एक प्रतीक घटना है। लम्बे समय तक जनता के बीच में यह मिथ्या प्रचार करके कि बाबरी मस्जिद को एक प्राचीन मन्दिर को तोड़कर बनाया गया है और यह उसी जगह पर बनी है जहाँ पर राम का जन्म हुआ था, फ़ासिस्टों ने देशव्यापी आन्दोलन खड़ा किया। पूरे देश में बड़े पैमाने पर दंगे हुए और लोगों की लाशों को रौंदता हुआ फ़ासिस्टों का रथ अपनी मंज़‍िल तक तब पहुँचा जब कोर्ट ने तमाम पुरातात्विक साक्ष्यों और तथ्यों को दरकिनार करते हुए इस आधार पर फ़ासिस्टों के पक्ष में फ़ैसला दिया कि बहुसंख्यक हिन्दू यह मानते हैं कि उक्त स्थान पर राम का जन्म हुआ था। भारत के पुरातात्विक सर्वेक्षण संस्‍थान (ए.एस.आई.) ने अदालत को 574 पेज की रिपोर्ट सौंपी थी। कई पुरातत्वविदों ने कहा कि मन्दिर के नीचे का अवशेष ‘पुराना ईदगाह’ है, कुछ ने उसे बौद्ध और जैन प्रतीक क़रार दिया। खुदाई करने वाली टीम का अवलोकन करने वाली दो सदस्यों सुप्रिया वर्मा और जया मेनन ने हाई कोर्ट में कहा था कि कुछ प्रतीकों को ‘हिन्दू प्रतीक’ कहा जा रहा है, जबकि ये बौद्ध, जैन या इस्लामिक ढाँचे भी हो सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले में ए.एस.आई. की उसी रिपोर्ट का हवाला देते हुए कह दिया कि ज़मीन के नीचे का अवशेष ‘हिन्दू अवशेष’ है। वह अवशेष राम मन्दिर है या वहाँ राम का जन्म हुआ था, इस बात को स्वयं फ़ैसले में भी नहीं माना गया है।

नये ट्रांसमीटरों के ज़रिए
चली आयी पुरानी बेवक़ूफ़ियाँ,
समझदारी चली आयी मुँहज़ुबानी
(बर्टोल्ट ब्रेष्ट)

संचार-क्रान्ति के इस दौर में पूँजी का वरदहस्त पाकर संघी फ़ासीवादियों ने इतिहास के विकृतिकरण की अपनी मुहिम को नया आयाम दिया है। फ़िल्मों, टीवी चैनलों से लेकर फ़ेसबुक, व्हाट्सएप और ट्विटर जैसे सोशल मीडिया के हर पहलू पर आज फ़ासिस्टों का बोलबाला है। फ़ासिस्टों की आईटी सेल की ताक़त का अन्दाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि अकेले बिहार चुनाव में भाजपा आईटी सेल ने लगभग 9,500 लोगों को तैनात किया था। आरएसएस से जुड़े फ़िल्मकार अपनी फ़िल्मों में इतिहास के सही तथ्यों को उलटकर पेश कर रहे हैं। जानबूझकर इतिहास में छेड़खानी करते हुए फ़िल्मों में मुसलमानों को दुश्मन के रूप में पेश करने, टीवी चैनलों पर इतिहास के फ़ासीवादी संस्करण पर आधारित सीरियल दिखाये जाने जैसी बातें आम हो चुकी हैं। दिन-रात विषवमन करते हज़ारों यूट्यूब चैनल दिन-रात युवाओं की बहुत बड़ी आबादी के दिमाग़ में ज़हर घोल रहे हैं।
संघी फ़ासिस्ट इतिहास को इसलिए भी बदल देना चाहते हैं क्योंकि इनका अपना इतिहास राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन से ग़द्दारी, माफ़ीनामा, क्रान्तिकारियों की मुख़बिरी, हिंसा और उन्माद का रहा है। जब भगतसिंह जैसे क्रान्तिकारी राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन में अपनी शहादत दे रहे थे तो उस दौर में संघी फ़ासिस्टों के पुरखे लोगों को समझा रहे थे कि अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़ने की बजाय मुसलमानों और कम्युनिस्टों के ख़िलाफ़ लड़ना चाहिए। संघी फ़ासिस्टों के गुरु “वीर” सावरकर का माफ़ीनामा और ब्रिटिश सत्ता के प्रति वफ़ादारी, अटल बिहारी वाजपेयी जैसे लोगों द्वारा मुख़बिरी और गाँधी की हत्या में संघ की भूमिका के इतिहास को अगर फ़ासिस्ट सात परतों के भीतर छिपा देना चाहते हैं तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार की इमारत को तोड़कर दस्तावेज़ों को नष्ट कर देना, ब्रिटिशकालीन फ़ाइलों को जलाकर इतिहास में अपने काले कारनामों के सबूतों को मिटा देने की कोशिश इन फ़ासिस्टों के इतिहास से भय को दर्शाती है।
भारत के फ़ासीवादी विगत एक शताब्दी में एक लम्बी प्रक्रिया में देश की हिन्दू आबादी के बड़े हिस्से में मिथकों को कॉमन सेंस (‘सामान्य बोध’) के रूप में स्थापित करने के लिए लगातार प्रयासरत रहे हैं और काफ़ी हद तक इसमें सफलता भी प्राप्‍त की है। कल्पित अतीत के गौरव की वापसी का एक धार्मिक-भावनात्मक प्रतिक्रियावादी स्वप्न “रामराज्य” की स्थापना और भारत को विश्वगुरु बनाने जैसे नारों के रूप में संघी फ़ासिस्टों ने देश की हिन्दू आबादी के बड़े हिस्से में भरा है। भारतीय समाज के ताने-बाने में तर्कणा, वैज्ञानिक चिन्तन और जनवाद का अभाव आरएसएस के फ़ासीवादी एजेण्डे के लिए उर्वर ज़मीन का काम करता है।
हमारे देश में पूँजीवादी लोकतंत्र पुनर्जागरण-प्रबोधन-क्रान्ति की एक लम्बी ऐतिहासिक प्रक्रिया के नतीजे के तौर पर नहीं स्थापित हुआ। आज़ादी के बाद भारत में नेहरू के नेतृत्व में क्रमिक पूँजीवादी विकास (प्रशियाई पाथ) का रास्ता चुना गया। पूँजीवादी विकास अपनी स्वाभाविक गति से ग्रामीण और शहरी निम्न पूँजीपति वर्ग और मध्यवर्ग की एक आबादी को उजाड़कर असुरक्षा और अनिश्चितता की तरफ़ धकेलता रहता है। असुरक्षा और अनिश्चितता की यह स्थिति इस टुटपूँजिया वर्ग में प्रतिक्रियावाद की ज़मीन तैयार करती है। यह प्रतिक्रियावादी ज़मीन और जनमानस में जनवाद, तर्कणा और वैज्ञानिक चिन्तन की कमी टुटपुँजिया वर्ग को फ़ासीवादी प्रचार का आसान शिकार बना देती है। फ़ासीवाद उजड़ते और उभरते हुए टुटपुँजिया वर्ग का प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन है। यह इस टुटपुँजिया वर्ग को एक तरफ़ तो नस्लीय, जातीय, धार्मिक आधार पर एक नक़ली दुश्मन प्रदान करता है। दूसरी तरफ़ वह इसके सामने एक गौरवशाली अतीत का मिथक रचता है। भारतीय फ़ासीवादी इसी तरह लम्बे समय से देश की हिन्दू आबादी को अतीत का वह स्वप्न दिखाते रहे हैं जब इस महान जम्बूद्वीप भारतखण्ड पर स्वर्ण युग था, जिसे मुगलों तथा यवनों ने छीन लिया। आरएसएस के इस कल्पित स्वर्ण युग में वे सभी वैज्ञानिक-तकनीकी उपलब्धियाँ जो मानवता ने आज हासिल की है, वास्तव में पहले ही हासिल की जा चुकी थीं! औपनिवेशिक सामाजिक संरचना की कोख से जन्मे और समझौता-दबाव-समझौता की रणनीति के तहत सत्ता हासिल करने वाले भारतीय मध्यवर्ग के पास यूरोपीय मध्यवर्ग की तरह पुनर्जागरण-प्रबोधन-क्रान्ति की तार्किकता और वैज्ञानिकता तथा मानवतावाद और जनवाद की कोई विरासत नहीं है। यह न तो आजीवक और लोकायत से परिचित है, न ही सांख्य, न्याय, वैशेषिक दर्शनों अथवा चरक और सुश्रुत की विरासत से। यहाँ तक कि निकट अतीत के कबीर, नानक, रैदास तथा राहुल सांकृत्यायन, राधामोहन गोकुल, गणेश शंकर विद्यार्थी की रचनाओं से भी इसका परिचय नहीं है और न ही इसने क्रान्तिकारी आन्दोलन की वैचारिक विरासत का ठीक से अध्ययन किया है।
पिछले सौ सालों में समाज के ताने-बाने में अपनी पैठ के ज़रिए और अनगिनत प्रयोगों, मिथ्याप्रचारों और आन्दोलनों के ज़रिए फ़ासिस्टों ने अपने फ़ासीवादी प्रचार की ज़द में एक बहुत बड़ी आबादी को ले लिया है। आरएसएस द्वारा पिछले सात दशकों से ज़्यादा समय से प्रकाशित की जाने वाली पत्रिकाओं ‘पांचजन्य’ और ‘ऑर्गनाइज़र’, अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना और विवेकानन्द फ़ाउण्डेशन जैसी संस्थाओं ने फ़ासीवादी विकृत इतिहास को आम जनमानस के बीच में पैठाने का काम किया है। आरएसएस द्वारा संचालित सरस्वती शिशु मन्दिर, विश्व हिन्दू परिषद् द्वारा संचालित एकल अभियान जैसी संस्थाएँ बचपन से ही बच्चों के दिमाग़ में ज़हर घोलने का काम कर रही हैं। संघ परिवार द्वारा पूरे भारत में लगभग 18,000 सरस्वती शिशु मन्दिरों का संचालन किया जाता है।
लेकिन इतिहास हमें यह भी बताता है कि यह फ़ासीवादी उभार अप्रतिरोध्य नहीं है। किसी झूठ को हज़ार बार दुहरा दिये जाने पर भी वह झूठ ही रहता है। धूल और राख की हज़ारों परतों के नीचे दबा दिये जाने के बाद भी सच को मिटाया नहीं जा सकता। इन्क़लाब की विरासत एक पीढ़ी अपनी आने वाली पीढ़ी के दिल में रोप जाती है। मौजूदा पूँजीवादी जनवाद में जो भी थोड़ा-बहुत जनवादी स्पेस था, उसकी सम्भावना आर्थिक संकट के इस दौर में समाप्त हो चुकी है। ऐसे समय में सामाजिक ताने-बाने में तर्कणा और जनवाद के अभाव का लाभ उठाकर पूँजीवाद के इस संकट को हल करने के लिए फ़ासिस्ट सत्ता में पहुँचे हैं। इससे पूरे समाज को तार्किक, वैज्ञानिक और जनवादी चेतना से लैस करने का एक ज़रूरी कार्यभार हमारे सामने खड़ा होता है। आज के समय में फ़ासीवाद का प्रतिरोध करने के लिए खड़ी क्रान्तिकारी ताक़तों को इतिहास के परम्परा एवं परिवर्तन के द्वन्द्व के तत्वों की न सिर्फ़ ठीक-ठीक पहचान करनी होगी बल्कि सही इतिहासबोध पर हमला करने वाले फ़ासीवादी कुपाठ के साथ-साथ प्राच्यवादी, उत्तर-आधुनिकतावादी, सब-ऑल्टर्न इतिहास बोध के ख़िलाफ़ भी संघर्ष का मोर्चा खोलना होगा। फ़ासिस्ट सर्वहारा वर्ग के सबसे बड़े दुश्मन हैं और यही वजह है कि वे सर्वहारा क्रान्तियों के ख़िलाफ़ कुत्सा-प्रचार करने और उसकी उपलब्धियों पर कीचड़ उछालने का काम करते हैं। एक सर्वहारा वर्गीय दृष्टिकोण से नये सिरे से पुनर्जागरण और प्रबोधन की मुहिम को ज़मीन पर उतारना आज के समय में फ़ासीवाद के ख़िलाफ़ संघर्ष का एक अहम मोर्चा है।

मज़दूर बिगुल, अक्टूबर 2021


 

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