केन्द्रीय बजट में महिला एवं बाल विकास के मद में 20 प्रतिशत बढ़ोत्तरी का सच
आँगनवाड़ी और आशाकर्मी बहनो! देख लो सरकारी ढोल की पोल!
वृषाली
केन्द्र सरकार के वित्त मन्त्री पीयूष गोयल ने यूनियन सालाना बजट 1 फ़रवरी 2019 को पेश कर दिया है। यह बजट कम और चुनावी घोषणा-पत्र अधिक प्रतीत हो रहा है। समाज के तमाम तबक़ों के सामने जुमलों की बारिश की गयी है। मोदी जी जानते हैं कि जनता पिछले जुमलों का तो हिसाब माँगने से रही इसलिए नये-नये जुमले परोसने में जाता ही क्या है! झूठ के इन गोलों को फ़रेब की चाशनी में डुबोकर और धोखे के थाल में सजाकर सच की तरह पेश करने के लिए ट्रोलरों की आईटी सेल और तथाकथित मुख्य धारा का मीडिया है ही जो ख़ुद भी आईटी सेल से कम नहीं है। जो “सत्यरक्षक” मीडिया 2,000 रुपये के करेंसी नोट में जीपीएस चिप साबित कर सकता है, उस पर मोदी जी का भरोसा भी जायज़ ही है! भाजपा नीत राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन की मोदी सरकार ने दावा किया है कि महिला और बाल विकास विभाग का बजट पिछले साल से 20 प्रतिशत बढ़ा दिया गया है। ज़ाहिर है कि भाजपा सरकार ने 2019 के आने वाले लोकसभा चुनावों के मद्देनज़र अपने शासन के आख़िरी समय में आँगनवाड़ी की लाखों कर्मचारियों के सामने जुमलों की बौछार की है! भाजपा यह बात भली प्रकार से जानती है कि आँगनवाड़ी और आशा कर्मचारियों की संख्या में यदि उनके परिवारों को भी जोड़ दिया जाये तो करोड़ों की आबादी बनती है। इस आबादी को येन-केन-प्रकारेन बरगलाये रखने में ही भाजपा अपनी भलाई समझती है। किन्तु बजट का थोड़ा-सा ही विश्लेषण करने पर मोदी सरकार की सारी उलटबासियाँ धराशाही होकर उसकी असल मंशा बेपर्द हो जाती है।
इस बात में कोई दो राय नहीं है कि इस बार के यूनियन बजट में महिला एवं बाल विकास विभाग की मद में पिछले साल की तुलना में 20 प्रतिशत राशि ज़्यादा आबण्टित की गयी है। राशि ज़्यादा आबण्टित करना तो ठीक है किन्तु झोल कहीं और है! पिछले साल का बजट और बजट के बाद के नतीजे देखें तो इस 20 प्रतिशत बढ़ोत्तरी की असलियत पता चल जायेगी। पिछले साल के बजट में इस विभाग को 24,700 करोड़ रुपये दिये गये थे और राष्ट्रीय पोषण मिशन के फ़ण्ड में तीन-चौथाई का इज़ाफ़ा किया गया था। उसका नतीजा हम सबके सामने है – ‘द वायर’ की 18 अक्टूबर की रिपोर्ट के अनुसार झारखण्ड, जहाँ ‘पोषण महीना’ मनाया जा रहा था, 4 महीनों से आँगनवाड़ी केन्द्रों पर पोषाहार ही नहीं पहुँचा था। वहीं दिल्ली की घटना भी उन 24,700 करोड़ रुपयों पर सवाल खड़ा करने के लिए पर्याप्त है। जब देश की राजधानी दिल्ली में भूख के कारण 3 बच्चियाँ दम तोड़ देती हैं और केन्द्र की ‘भाजपा’ और राज्य की ‘आप’ सरकारें ‘तू नंगा-तू नंगा’ का घटिया खेल खेलने में मशगूल रहती हैं। 2019-20 के वित्तीय वर्ष के लिए महिला एवं बाल विकास विभाग को 29,165 करोड़ रुपये की राशि आबण्टित की गयी है। लेकिन पिछले कई सालों की प्रवृत्ति देखें तो जितनी राशि आबण्टित की जाती है, असल में उतनी राशि कभी ख़र्च नहीं की जाती। तथ्य झूठ के बड़े-बड़े तिलिस्मों को भेद डालते हैं! मसलन, व्यय वित्त समिति (एक्स्पेंडिचर फाइनैन्स कमिटी) ने 12वीं पंचवर्षीय योजना 2012-17 में आँगनवाड़ी परियोजनाओं के लिए 1,23,580 करोड़ रुपये की राशि को स्वीकृति दी थी, लेकिन 2012-17 के बीच ख़र्च की गयी राशि 78,768 करोड़ रुपये ही थी, जो स्वीकृत राशि का 64 प्रतिशत थी। 2016-17 के वित्तीय वर्ष की ही बात करें तो स्वीकृत राशि 30,025 करोड़ रुपये थी और ख़र्च की गयी राशि 14,561 करोड़, यानी स्वीकृत राशि का मात्र 48 प्रतिशत ही ख़र्च हुआ! बजट बनाते समय सरकारों के द्वारा अपने ख़ूब गाल बजाय जाते हैं किन्तु आबण्टित राशि बहुत बार तो ख़र्च ही नहीं होती और यदि कुछ ख़र्च होती भी है तो बिना किसी पारदर्शिता के कहना नहीं होगा कि बहुत सा पैसा एनजीओ-नेताशाही-नौकरशाही की ही भेंट चढ़ जाता है!
सरकार समेकित बाल विकास परियोजना को लेकर कितनी गम्भीर है उसका एक जवाब देश में कुपोषण की भयंकर समस्या ही दे देती है। अक्टूबर 2018 में आयी वैश्विक भूख सूचकांक की रिपोर्ट कहती है कि भारत 119 देशों की सूची में 103वें स्थान पर पहुँच गया है। और यहाँ के हालात अफ्रीका के बेहद ग़रीब और पिछड़े हुए देशों से भी ज़्यादा ख़राब हैं। सितम्बर 2018 में जारी मानवीय विकास सूचकांक की 189 देशों की सूची में भारत 130वें स्थान पर आ चुका है। भाजपा एक ओर तो देश को विश्वगुरु बनाने के ख़्वाब दिखा रही है दूसरी ओर एक धन-धान्य से सम्पन्न देश को दुर्गति की गर्त में धकेल रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट बताती है कि भारत में साल 2017 में 8 लाख बच्चों की कुपोषण और साफ़-सफ़ाई व स्वास्थ्य सुविधाओं में कमी के कारण मौत हुई जोकि दुनिया में सबसे ज़्यादा है! ये सिर्फ़ आँकड़े नहीं हैं बल्कि हमारी हो रही दुर्गति के जीते-जागते प्रमाण हैं। जिस धरती पर हर 2 मिनट में 3 नौनिहालों की मौत कुपोषण के कारण हो जाती हो, वहाँ पर व्यवस्था के ठेकेदारों और जुमलेबाजों को शर्म भी ना आये तो हालात की भयंकरता को समझा जा सकता है।
समेकित बाल विकास परियोजना, राष्ट्रीय पोषण अभियान और प्रधानमन्त्री मातृ वन्दना योजना के बढ़ाये हुए क्रमशः 4,500 करोड़, 400 करोड़ और 1,300 करोड़ रुपये देश की ज़रूरतमन्द आबादी को कितनी राहत पहुँचा पाते हैं यह बात अपने आप में ही सवालों के घेरे में है! वैसे ही पिछले साल,अर्थात 2018 के अक्टूबर महीने में ही केन्द्र की मोदी सरकार ने एक और घोषणा की थी – आँगनवाड़ी और आशाकर्मियों के मानदेय में बढ़ोत्तरी की घोषणा। बढ़ा हुआ मानदेय आज तक उस आँगनवाड़ी महिलाकर्मी के खाते में भी नहीं आया है जिसके सामने प्रधानमन्त्री मोदी ख़ुद मानदेय बढ़ोत्तरी की लन्तरानी हाँक रहे थे। आपने सफ़ेद झूठ के बारे में सुना तो होगा, किन्तु दर्शन दुर्लभ थे! अब मोदी जी ने ‘मन की बात’ को झूठ के स्याह कमल खिलाने का अच्छा मंच बना दिया है।
भारत जैसा देश जो ‘कुपोषण’ की ज़बरदस्त मार झेल रहा है, वहाँ ज़मीनी स्तर पर ‘समेकित बाल विकास परियोजना’ जैसी महत्वपूर्ण स्कीम में काम कर रही आँगनवाड़ी व आशाकर्मियों को कर्मचारी का दर्जा देने की सरकारों की कोई मंशा ही नहीं है जबकि इनका काम स्थायी प्रकृति का होता है। सरकार को चाहिए तो यह कि स्थायी प्रकृति का काम करने वाली आँगनवाड़ी और आशा स्कीम के तहत कार्यरत सभी सहायिकाओं और कार्यकर्ताओं को पक्का कर दिया जाये किन्तु सरकार पक्का करने की बजाय मानदेय बढ़ोत्तरी के झुनझुने थमा रही है और वे भी झूठे! ज़ाहिर है, हर साल की तरह इस बार के बजट का भी एक बड़ा हिस्सा नेताशाही-नौकरशाही और एनजीओ के चढ़ावे में ही इस्तेमाल होगा और आम जनता देखती रह जायेगी। असल में बजट के इतिहास पर नज़र डाली जाये तो यह इस देश के ज़रूरतमन्द बच्चों, आँगनवाड़ी महिलाकर्मियों व माताओं के साथ एक भद्दे मज़ाक़ के अलावा कुछ नहीं होता है! यदि हम चाहते हैं कि पूरा का पूरा बजट बिना भ्रष्टाचार की भेंट चढ़े पारदर्शिता के साथ ख़र्च हो तो इसके लिए जन-लामबन्दी बेहद ज़रूरी है।
मज़दूर बिगुल, फरवरी 2019
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