भारी महँगाई और पूँजीपतियों की ”कठिन” ज़िन्दगी

 लेनिन

गुज़र-बसर करने का ख़र्च दिन-ब-दिन बढ़ता ही जा रहा है। पूँजीपतियों के संघ लगातार क़ीमतें बढ़ा-बढ़ाकर करोड़ों-अरबों की कमाई कर रहे हैं, जबकि किसानों की भारी आबादी ज़्यादा से ज़्यादा बर्बादी के गर्त में डूबती जा रही है और मज़दूरों के परिवारों के लिए दो वक़्त की रोटी जुटाना मुश्किल होता जा रहा है और अक्सर उन्हें भूखे रहना पड़ता है और न्यूनतम बुनियादी ज़रूरतों को भी छोड़ना पड़ता है।

हमारे करोड़पति उद्योगपतियों का मुखपत्र प्रोमीशलेनोस्त इ तोरगोव्ल्या बढ़ती महँगाई के बारे में निम्नलिखित आँकड़े देता है। तथाकथित मूल्य सूचकांक, जो एक निर्धारित संख्या में प्रमुख खाद्य वस्तुओं के दामों को जोड़कर बनता है, पिछले कुछ वर्षों से लगातार बढ़ रहा है। अप्रैल के आँकड़े इस प्रकार हैं :

वर्ष                    मूल्य सूचकांक

1908                2,195

1909                2,197

1910                2,416

1911                2,554     

1912                2,693

1913                2,729

पिछले छह वर्षों में, दामों में 2195 से 2729 तक की यानी पूरे 24 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है! पूँजीपतियों के गँठजोड़ों द्वारा मेहनतकश अवाम को, और ख़ासकर मज़दूरों को लूटने-निचोड़ने में अद्भुत ”तरक़्क़ी” हुई है।

लेकिन पूँजीपति – उपरोक्त पत्रिका में भी और सरकार की कृपालु मान्यता से चलने वाली अपनी अनगिनत सोसायटियों और एसोसिएशनों में भी – लगातार यह रोना रोते रहते हैं कि उद्योग और व्यापार पर टैक्सों का किस क़दर अनुचित बोझ लदा है!

कैसी मज़ाकि़या बात है, लेकिन मज़दूरों को इस पर हँसी नहीं आती।

बेचारे ग़रीब करोड़पति उद्योगपतियों ने शहरी अचल सम्पत्ति पर लगने वाले टैक्सों के बारे में एक सरकारी दस्तावेज़ के निम्नलिखित आँकड़े प्रकाशित किये हैं।

1910 में ऐसी सम्पत्ति से होने वाली आमदनी 23.9 करोड़ रूबल आँकी गयी थी (बेशक, इसका आकलन अफ़सरों द्वारा नौकरशाहाना ढंग से किया गया था, और हम कल्पना कर सकते हैं कि कितने करोड़ की सम्पत्ति ओह-बेचारे व्यापारी वर्ग ने छुपा ली थी)। 1912 में, यानी सिर्फ़ दो वर्ष बाद, शहरी अचल सम्पत्ति से आय का आकलन 50 करोड़ रूबल था (केवल रूस में, पोलैण्ड राज्य को छोड़कर)।

यानी, दो वर्षों में, शहरी अचल सम्पत्ति से शुद्ध आय 25 करोड़ रूबल से ज़्यादा बढ़ गयी। इससे अन्दाज़ा लगता है कि किसानों और मज़दूरों की बेहिसाब तंगहाली, दरिद्रता और भुखमरी के दम पर करोड़ों छोटी-छोटी धाराओं से बनी दौलत की नदी किस तरह पूँजीपतियों की जेबों में समा रही है।

”आजकल गुज़र-बसर का भारी ख़र्च” मुट्ठीभर पूँजीपतियों की अभूतपूर्व कमाई तथा मेहनतकश जनता की ग़रीबी, बर्बादी और लूट के सिवा और कुछ नहीं है।

बेचारे पूँजीपतियों पर दया आती है जो बेहद ”अनुचित” टैक्सों की शिकायत करते हैं। ज़रा सोचिए : उन्हें अपनी शुद्ध आय का 6 प्रतिशत तक दे देना पड़ता है। 1910 में उन्हें (केवल रूस में, पोलैण्ड को छोड़कर) 1.4 करोड़ रूबल दे देने पड़े थे और 1912 में 2.98 करोड़ रूबल।

और इस तरह, दो वर्ष में, इन लुटे-पिटे करोड़पतियों पर टैक्स में कुल बढ़ोत्तरी हुई लगभग 1.6 करोड़ रूबल।

मज़दूर साथियो, आपका क्या ख़याल है : जब शुद्ध आय 24 करोड़ से बढ़कर 50 करोड़ हो जाये, यानी दो वर्ष में 26 करोड़ बढ़ जाये, तो क्या दस या बीस करोड़ रूबल टैक्स नहीं वसूला जाना चाहिए था? क्या मज़दूरों और ग़रीब किसानों को निचोड़कर बटोरे गये 26 करोड़ के अतिरिक्त मुनाफ़े में से, स्कूलों और अस्पतालों के लिए, भूखों की मदद के लिए और मज़दूरों के बीमा के लिए, कम से कम बीस करोड़ नहीं ले लिये जाने चाहिए थे?

(17 मई, 1913)

 

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2018


 

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