विश्व स्तर पर सुरक्षा ख़र्च और हथियारों के व्यापार में हैरतअंगेज़ बढ़ोत्तरी
कुलदीप
विश्व में 102 करोड़ लोग भुखमरी के शिकार हैं, 50 लाख बच्चे हर वर्ष कुपोषण से मरते हैं, 135 करोड़ लोग 1.25 डॉलर प्रति दिन में गुज़ारा करते हैं और 300 करोड़ से अधिक (लगभग आधी आबादी 2.50 डॉलर में प्रतिदिन गुज़ारा करती है), प्रतिदिन विश्व में 22,000 बच्चे ग़रीबी, भुखमरी के कारण मौत के मुँह में चले जाते हैं, जहाँ प्रत्येक मिनट 15 बच्चे मौत के मुँह में चले जाते हैं, 86.3 करोड़ लोग गन्दी बस्तियों में रहते हैं, 79.5 करोड़ लोगों को तो दो वक़्त का पूरा भोजन भी नहीं मिल पाता, 160 करोड़ लोग विश्व भर में बेघर हैं। लेकिन ऐसे माहौल में भी आज के नीरो हथियारों के व्यापार में मुनाफ़ा कमाने में व्यस्त हैं। हर देश किसी न किसी नये हथियार का मॉडल तैयार करके अपनी ताक़त का अन्ध-राष्ट्रवादी गुणगान कर रहा है। “इस हथियार की खोज से देश और ताक़तवर हुआ”, “इस मिसाइल ने देश की सुरक्षा को मज़बूत किया”, “हमारा मुल्क़ बना बड़ी परमाणु शक्ति” आदि जुमलों के रूप में विश्व-भर के पूँजीपति अपने मीडिया द्वारा हथियारों के इस मानवद्रोही व्यापार के लिए लोगों में जहाँ आम सहमति बनाते हैं, वहाँ अन्ध-राष्ट्रवाद का गुणगान करके इन हथियारों की खपत के लिए भी रास्ता साफ़ कर रहे हैं। अगर अमेरिका “सारे बमों की माँ” बनाता है तो रूस “सारे बमों का बाप” तैयार कर देता है। हथियारों का व्यापार जो विश्व के प्राकृतिक साधनों और मानवीय श्रम को जहाँ ग़ैर-पैदाकार पैदावार में फ़ालतू में खपा रहा है, वहाँ जब यह हथियार प्रयोग किये जाते हैं तो लाखों भोले-भाले मासूम लोगों का ख़ून बहाते हैं। दो विश्व युद्धों में विश्व साम्राज्यवादियों की ओर से करोड़ों लोगों का क़त्ल और उसके बाद लगातार मध्य-पूरब सीरिया, इराक़, अफ़गानिस्तान, सोमालिया, यमन आदि देशों में जो ख़ून की होली विश्व साम्राज्यवादियों द्वारा खेली जा रही है, इसकी कुछ चुने हुए उदाहरण हैं।
पिछले पाँच वर्षों (2012-2016) के दौरान विश्व स्तर पर लगभग सारे देशों की सरकारों द्वारा सुरक्षा और सैन्य ख़र्च में भारी वृद्धि हुई है और इसके साथ ही विश्वव्यापी स्तर पर हथियारों का व्यापार भी इन्हीं पाँच वर्षों में ठण्डे युद्ध के समय के व्यापार से भी बढ़ चुका है।
अगर हम विश्व के देशों की सरकारों द्वारा सुरक्षा पर बढ़ते ख़र्च को देखें तो यह पिछले पाँच वर्षों में बहुत बढ़ गया है। अमेरिका ने 2015 के दौरान अपनी सुरक्षा पर 59,600 करोड़ अमेरिकी डॉलर ख़र्च किये हैं जो कि कुल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 3.3 फ़ीसदी है। लेकिन ‘सेण्टर फ़ॉर इण्टरनेशनल पॉलिसी’ के अनुसार अमेरिका के इस ख़र्च में पैण्टागन का “काला बजट” , “काण्टीजेंसी”, इराक़, अफ़गानिस्तान, सीरिया युद्ध आदि के ख़र्च जोड़े जायें तो यह एक ट्रिलीयन (यानी 10,000 करोड़ डॉलर) बनता है। चीन 21,500 करोड़ डॉलर ख़र्च के दूसरे नम्बर पर है, जो उसकी जीडीपी का 1.9% है। साऊदी अरब 8,720 करोड़ डॉलर, रूस 6,640 करोड़ डॉलर और यूके 5,550 करोड़ डॉलर ख़र्च के तीसरे, चौथे और पाँचवें नम्बर पर हैं। भारत 5,360 करोड़ डॉलर ख़र्च करके मिल्ट्री ख़र्च करने में विश्व-भर में से छठे स्थान पर है जबकि मानव विकास में भारत का स्थान 186 देशों में से 136 वाँ है। भारत अपनी सकल घरेलू उत्पादन का 2.3 फ़ीसदी सुरक्षा पर ख़र्च करता है, जबकि 2015 में ही भारत ने जीडीपी का 1.3 प्रतिशत स्वास्थ्य पर ख़र्च करना था, लेकिन घाटे का विलाप करते हुए उससे भी 20 फ़ीसदी कम ख़र्च किया। शिक्षा पर 2% था, लेकिन सरकारी शिक्षा संस्थानों की हालत देखकर इस ख़र्च का भी अन्दाज़ा हम लगा सकते हैं। 2015-2016 के बजट के दौरान सरकार ने स्वास्थ्य और शिक्षा पर होने वाले ख़र्च में क्रमवार 15% से 16% कटौती की है। इसी तरह भारत का सुरक्षा ख़र्च फ़्रांस, जापान, जर्मनी, साउथ कोरिया, ब्राज़ील, आस्ट्रेलिया, कैनेडा आदि जैसे देशों में भी अधिक है। इन सभी देशों सहित विश्व के कुल देशों ने सुरक्षा और फ़ौजी साजो-सामान पर 1,67,500 करोड़ डॉलर यानी कि विश्व जीडीपी का 2.3% ख़र्च किया जो कि 2014 के मुक़ाबले 1% अधिक है।
जबकि विश्व स्तर पर शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं पर विश्व जीडीपी का महज़ 0.47 प्रतिशत ही ख़र्च होता है। पिछले 10 वर्षों के दौरान अगर सुरक्षा और युद्ध के सामान पर विश्व के सारे देशों का ख़र्च बढ़ा है तो स्वास्थ्य और शिक्षा पर ख़र्च लगातार घटाया जा रहा है। यहाँ हम इस प्रबन्ध के लगातार मानवद्वेषी होने का अन्दाज़ा लगा सकते हैं।
यूएनओ के अनुसार अगर 26,500 करोड़ (अकेले अमेरिका के 2015 में सुरक्षा ख़र्च के आधे से भी कम) प्रति वर्ष ख़र्च किया जाये तो ग़रीबी और भुखमरी विश्व में से दूर की जा सकती है जो कि कुल सैन्य बजट का सिर्फ़ 13% बनता है। इसी तरह कुल विश्व सुरक्षा ख़र्च का अगर 12% शिक्षा पर ख़र्च हो तो मौजूदा शिक्षा प्रणाली में सुधार किया जा सकता है। 4% खुराक़ पर ख़र्च किया जाये तो सबको भोजन मिल सकता है। विश्व के सारे देशों द्वारा किये जा रहे सैन्य ख़र्च में से सिर्फ़ मुख्य 20 देशों के सैन्य ख़र्च के साथ ही विश्व में अच्छी शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएँ और सभी के लिए घर आदि बुनियादी समस्याओं को हल किया जा सकता है। लेकिन इस मानवद्रोही व्यवस्था में विश्व-भर के पूँजीपति अपने मुनाफ़ों के बारे में ही सोचते हैं और उनकी मैनेजिंग कमेटियाँ यानी कि सरकारें भी उनके मुनाफ़ों को ही ध्यान में रखकर नीतियाँ बनाती हैं।
दूसरा, विश्व स्तर पर हथियारों के व्यापार में हैरानीजनक वृद्धि हुई है। ‘दी गार्डीयन’ के अनुसार विश्व स्तर पर हथियारों का व्यापार पिछले पाँच वर्षों के दौरान (2012-2016) दोगुना बढ़ा है जो 1990 के शीत युद्ध के वर्षों के ख़र्च को भी पार कर चुका है। 2015 में विश्व में हथियारों और फ़ौजी साजो-सामान का व्यापार 37,070 करोड़ डॉलर था। जिसमें कि 20,970 करोड़ डॉलर यानी कि 31% हिस्सा अमेरिकी कम्पनियों का था, जिनमें से मुख्य लोदीख मार्टीन मोहरी है। इसके इलावा बोइंग, युनाइटड टेकनोलोज़िज़, जनरल डायनामिक्स, नोर्थरोप गरूमन आदि प्रमुख हैं। दूसरे नम्बर पर हथियारों की निर्यातक रूसी कम्पनियाँ हैं जिनका हिस्सा 27 फ़ीसदी है। इसके इलावा 2015 में चीन, जापान, फ़्रांस का हथियार निर्यातों में हिस्सा 5.5 फ़ीसदी और यूके का 4 फ़ीसदी था।
2015 में विश्व का सबसे बड़ा हथियार आयातक भारत था और अभी भी है। 2012-2016 के दौरान विश्व हथियार आयात में भारत का हिस्सा 13% था। दूसरे नम्बर पर सऊदी अरब आता है जिसका आयात इन्हीं पाँच वर्षों में 212% बढ़ गया है। वियतनाम का आयात 202% बढ़ा है। एशिया विश्व में हथियारों का सबसे बड़ा आयातक है। मध्य-पूरब में हथियार की ख़रीद में 245% वृद्धि हुई है। चीन 2007 तक बड़ा आयातक था लेकिन अब वह अपने घरेलू उद्योग का विकास करके विश्व के बड़े हथियार निर्यातकों में शामिल हो गया है।
अब प्रश्न यह पैदा होता है कि सारे साम्राज्यवादी देश क्यों हथियारों पर पानी की तरह पैसा बहाते हैं जबकि बहुत बड़ी मेहनतकश ग़रीब आबादी को स्वास्थ्य, शिक्षा, भोजन, कपड़ा, मकान जैसी बुनियादी सुविधाएँ भी नहीं मिल रही हैं और वह भुखमरी, कुपोषण और कंगाली की ज़िन्दगी जीने पर मज़बूर है? इसका प्रमुख कारण है हथियारों के उद्योग का अथाह मुनाफ़े का स्त्रोत बन जाना है। क्योंकि हर तरह की पूँजीवादी उत्पादन का मुख्य और सिर्फ़ एक ही उद्देश्य मुनाफ़ा कमाना होता है। जिस चीज़ में से पूँजीपतियों को मुनाफ़ा होता है, वह उस चीज़ का उत्पादन करता है, जहाँ से मुनाफ़ा आना बन्द हो जाये तो उसका उत्पादन रोक दिया जाता है। हथियारों के व्यापार में विश्व के साम्राज्यवादी देशों के पूँजीपतियों को बहुत मुनाफ़े होते हैं। ऐसे ही नहीं कि आज हथियारों का उद्योग सबसे बड़ा उद्योग बन चुका है। पूँजीवादी उत्पादन का एक नियम यह भी है कि उत्पादन की खपत भी होनी चाहिए, नहीं तो उद्योग रुक जायेगा। दूसरे विश्व युद्ध के बाद हथियारों के इस उद्योग ने अथाह मुनाफ़े कमाये, जिसमें अमेरिकी कम्पनियाँ प्रमुख थीं। इसी कारण विश्व की 10 बड़ी हथियार बनाने वाली कम्पनियों में से 7 अमेरिकी हैं। और अमेरिका का व्यापार भी विश्व के हथियारों के व्यापार का 33 फ़ीसदी है। हथियार बेचने के लिए ये पूँजीपति घराने सरकारों पर दबाव डालते हैं ताकि किसी न किसी तरी़क़े से हथियार बेचे जायें। इस कारण पूरे विश्व में ‘अपनी सुरक्षा मज़बूत करने’ या ‘विरोधी देश द्वारा युद्ध का हौवा खड़ा करके’, ‘आतंकवाद का मुक़ाबला’ आदि ढंगों द्वारा हथियार बेचने और ख़रीदने का व्यापार चलता है। बड़े साम्राज्यवादी देशों द्वारा दूसरे देशों को पहले हथियार बेचे जाते हैं। फिर कुछ देशों से विश्व को परमाणु ख़तरे से बचाने का बहाना बनाकर युद्ध छेड़कर हथियारों की खपत की जाती है। यह बहाना अमेरिका फिर भी बना सकता है जब कोई देश रूस, चीन, या फ़्रांस आदि से हथियार ख़रीदता है। इस तरह हथियार उद्योग के पूँजीपति बड़े मुनाफ़े कमा सकते हैं। हमने ऊपर चर्चा की है कि विश्व-भर के हथियारों के उद्योग में से सबसे बड़े अमेरिका में हैं। इसीलिए अमेरिका “शान्ति” का दूत बनकर कभी इराक़ के परमाणु हथियारों से विश्व के ख़तरे की बात करता है और कभी सीरिया से, कभी इज़राइल द्वारा फि़लिस्तीन पर हमले करवाता है, कभी अलक़ायदा, फि़दाइन आदि की हिमायत करता है कभी विरोध, विश्व स्तर पर आतंकवाद का हौवा खड़ा करके छोटे-छोटे युद्धों को अंजाम देता है, ड्रोन हमलों के साथ पाकिस्तान, अफ़गानिस्तान, यमन, लीबिया, इराक़, सुमालिया आदि मुल्क़ों में मासूमों का क़त्ल करता है और किसी को भी मार कर आतंकवादी कहकर बात ख़त्म कर देता है। दो मुल्क़ों में आपसी टकरावों या किसी देश के अन्दरूनी टकरावों का फ़ायदा अपने हथियार बेचने के लिए उठाता है जैसे — र्इरान और इराक़, इज़राइल और फि़लिस्तीन, भारत और पाकिस्तान, उत्तरी और दक्षिणी कोरिया के झगड़े आदि। इसके बिना देशों के अन्दरूनी निजी झगड़ों जैसे – मिस्त्र, यूक्रेन, सीरीया आदि से भी फ़ायदा उठाता है। ये सारी करतूतें अमेरिका अपने हथियार बेचने के लिए अंजाम देता है। भले ही इराक़, सीरिया, लीबिया आदि के साधनों पर भी उसकी गिद्ध आँख टिकी है। इसी कारण अब तक अमेरिका ने करोड़ों मासूम लोगों का क़त्ल किया है लेकिन मीडिया द्वारा यह दिखाया जाता है कि अगर अमेरिका न हो तो विश्व को आतंकवादी खा ही जायेंगे।
दूसरा कारण यह है कि विश्व के प्राकृतिक साधनों की लूट और विस्तारवादी नीतियों के कारण विश्व पूँजीवाद के एकाधिकारी गिरोहों की आपसी कलह। साम्राज्यवादी विश्व बाज़ार के बँटवारे के लिए लड़ते रहते हैं क्योंकि इन राक्षसों का एकाधिकार इस हद तक पहुँच चुका है कि घरेलू बाज़ार इनके लिए काफ़ी नहीं रही। इस कारण इनके बीच विश्व के मज़दूर वर्ग द्वारा पैदा किये गये मुनाफ़े में से हिस्सा बाँटने के लिए संघर्ष चलता रहता है। बड़े साम्राज्यवादी देश छोटे साम्राज्यवादी देशों को दबाते हैं, छोटे-बड़े साम्राज्यवादी देश एशिया, अफ़्रीका के देशों को दबाते हैं, बात यह है कि हर देश अपने से कमज़ोर को दबाने से पीछे नहीं हटता। अपने विरोधी को दबाने के लिए भी सुरक्षा पर भारी ख़र्च करना पड़ता है ताकि विश्व के मानवीय और प्राकृतिक साधनों की लूट और विश्व मण्डी में अधिक रसूख बनाया जा सके। ऐसे ही नहीं अमेरिका ने 63 देशों में सैन्य अड्डे स्थापित किये हुए हैं, क्योंकि हथियारों के व्यापार पर अमेरिका ही सबसे अधिक निवेश करता है। अमेरिका को चुनौती देने वाले आज चीन और रूस दो बड़े देश हैं और इनके आपसी मतभेद भी समय-समय पर सामने आते रहते हैं। अमेरिका रूस के मतभेद तो सीरिया और यूक्रेन के मामले में जगजाहिर हो चुके हैं।
तीसरा और गौण कारण है जनान्दोलनों का डर। मरणासन स्थिति में पहुँचा पूँजीवाद यहाँ ख़ून चूसने वाला, परजीवी और नरभक्षी हो चुका है कि नशों का व्यापार, अश्लील और पोर्न फि़ल्में, देह व्यापार, मनुष्य को ख़रीदना-बेचना, घटिया दवाइयाँ आदि नीच-से-नीच काम से लेकर पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे हर क्षेत्र में मुनाफ़ा कमा रहा है और लोगों के गले काट रहा है। मुठ्ठी-भर लोगों के अधिक मुनाफ़े के लिए बढ़ती हवस के कारण आम लोगों की ज़िन्दगी दिनों-दिन भयंकर और कठिन होती जा रही है। इसका अन्दाज़ा पिछले दशक से विश्व-भर में लगातार जारी स्वयंस्फूर्त जनान्दोलनों से लगाया जा सकता है। पूँजी के भूखे राक्षसों द्वारा सताये लोग गुस्से से सड़कों पर उतर रहे हैं। इसी कारण जनान्दोलनों का डर हुक्मरानों की नींद भी उड़ा रहा है। पूँजीपति अधिक से अधिक हथियार इकट्ठा करके अपने मन के भय को दबाने की कोशिश करने में लगे हुए हैं।
उपरोक्त कारण हैं जो हुक्मरानों को मानवीय श्रम के ख़ून की कमाई को हथियारों जैसे ग़ैर-उत्पादन कार्यों पर बहाने के लिए मज़बूर करते हैं जिनके तहत एक ओर हुक्मरान लोगों का ख़ून निचोड़कर हथियारों जैसे मानवद्वेषी औज़ारों में से भी भारी मुनाफ़ा कमा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर लोग ग़रीबी, भुखमरी, कंगाली की ज़िन्दगी बिता रहे हैं। लेकिन यह सब कुछ सीधा-सपाट नहीं है बल्कि हुक्मरान भी जनान्दोलनों से घबराये हुए हैं और भीतरी डर के कारण अपने बँगलों की दीवारें ऊँची करने में लगे हुए हैं और ख़ुद को हथियारबन्द कर रहे हैं। लेकिन इतिहास गवाह है कि जब भी मेहनतकश जनता जागी है तो हुक्मरानों के सभी इरादे धरे-धराये ही रह गये हैं। जन बग़ावतों की तूफ़ानी बाढ़ के आगे हुक्मरानों द्वारा की जा रही किलेबन्दियाँ रेत की दीवार की तरह ढह जाती हैं।
मज़दूर बिगुल, जून 2017
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