बेरोज़गारी ख़त्म करने के दावों के बीच बढ़ती बेरोज़गारी!
तपिश
तमाम देशी-विदेशी और सरकारी एजेंसियों के आर्थिक सर्वेक्षणों की रिपोर्टें बताती हैं कि भारत में बेरोज़गारी की समस्या विकराल रूप धारण करने वाली है। हालाँकि प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी सहित पूरी भाजपा-आरएसएस ब्रिगेड अच्छे दिनों, विकास-विकास और डिजिटल इण्डिया का भजन गाकर जनता को भरमाने-फुसलाने की कोशिशों में तन-मन-धन से लगी हुई है। सन् 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की ओर से नरेन्द्र मोदी ने विकास और अच्छे दिनों का सपना दिखाया था और बेरोज़गारों के लिए 1 करोड़ से भी अधिक नौकरियाँ पैदा करने का वायदा किया था। हमें भूलना नहीं चाहिए कि कांग्रेस के ज़माने में कांग्रेसी नेता भी इसी तरह हवाई वायदों के हवाई गोले दागा करते थे। मज़ेदार बात यह है कि उस समय भी आम जन इन हवाई दावों की हक़ीक़त को नहीं समझते थे और आज भी नहीं समझते हैं। सच्चाई को क़रीब से जानने के लिए आइए सबसे पहले हम कुछ आर्थिक सर्वेक्षणों की रिपोर्टों के आँकड़ों पर एक सरसरी नज़र डालें।
देश के उद्योगपतियों की शीर्ष संस्था एसोचैम की रिपोर्ट बताती है कि 1991 में भारत में कुल श्रमिकों की संख्या 33.7 करोड़ थी, जो 2013 तक बढ़कर क़रीब 48 करोड़ हुई और 2020 तक उसके 65 करोड़ हो जाने की सम्भावना है। भारत के श्रम मन्त्रालय के अनुसार हर माह क़रीब 10 लाख नये लोग श्रम बाज़ार में काम करने के लिए उतरते हैं। ये सिर्फ़ आँकडे नहीं हैं, बल्कि एक ठोस सच्चाई है जो बताती है कि हमारे देश में रोज़गार की माँग ठोस रूप में कितनी है।
अब देखते हैं कि इस माँग के समक्ष कुल रोज़गार की आपूर्ति कितनी है। हाल ही में भारत सरकार द्वारा जारी आर्थिक सर्वेक्षण 2016 को मानें तो 1989-2010 के बीच 1 करोड़ 50 हज़ार रोज़गार पैदा हुआ। इनमें से भी औपचारिक सेक्टर में मात्र 30 लाख 70 हज़ार नौकरियाँ पैदा हुईं। हम जानते हैं कि 1991-2013 के दौर में भारत में जीडीपी की विकास दर लगातार उठान पर रही है। इसका मतलब है कि देश में लगातार पूँजी का विकास होता चला गया है जबकि रोज़गार का विकास ढलान पर है। यह रिपोर्ट बताती है कि 1999 से 2004-05 के बीच जहाँ जीडीपी में हर 100 रुपये की वृद्धि के बरक्स 50 नये रोज़गार पैदा हुए, वहीं 2004-05 से 2009-10 के बीच यह गिरकर मात्र 4 रोज़गार तक सिमट गया था।
सवाल यह है कि रोज़गार मुहैया कराने के नेताओं और पार्टियों के हवाई वायदों के विपरीत वास्तविक दुनिया में इतना कम रोज़गार क्यों पैदा हो रहा है। इसे जानने के लिए अर्थव्यवस्था के एक मुख्य क्षेत्र विनिर्माण पर एक नज़र दौड़ाइए। फि़क्की की एक हालिया रिपोर्ट में बताया गया है कि वर्ष 2016-17 के दौरान विनिर्माण उद्योग अपनी क्षमता का मात्र 72 प्रतिशत ही काम करेगा। इसका मतलब है कि कारख़ानों में क़रीब 30 प्रतिशत मशीनें बन्द रहने वाली हैं। यही वजह है कि नये कारख़ाने लगने, वर्तमान कारख़ानों के विस्तार या फिर नये मज़दूरों की भर्ती की दूर-दूर तक कोई सम्भावना नहीं है। बहरहाल अगर इतना ही होता, तब भी गनीमत थी। अधिकांश प्रतिष्ठानों ने अपना मुनाफ़ा बढ़ाने के लिए मज़दूरियों पर होने वाले ख़र्चों में बड़ी कटौतियाँ करने की योजनाएँ बनायी हैं और उत्पादन की आधुनिक तकनीकों का विकास उनके मनसूबों को पूरा करने में मदद पहुँचा रहा है। पूँजीवाद के आरम्भ से ही पूँजीपति वर्ग ने विज्ञान और तकनीकी पर अपनी इज़ारेदारी क़ायम कर ली थी। तब से लेकर आज तक उत्पादन की तकनीकों में होने वाले हर विकास ने पूँजीपतियों को पहले से अधिक ताक़तवर बनाया है और मज़दूरों का शोषण करने की उनकी ताक़त को कई गुना बढ़ा दिया है। पिछले कुछ वर्षों में आईबीएम द्वारा विकसित ‘वॉटसन’ प्रणाली और विप्रो द्वारा एक ऐसी ही अन्य प्रणाली ‘होम्स’ का विकास इसका प्रमाण हैं। इतना ही नहीं पिछले कुछ वर्षों में रोबोटिक्स के विकास ने कारख़ानों के भीतर श्रम संगठन को व्यापक ढंग से बदल दिया है। ज़ाहिर है कि इन तकनीकों का असर आईटी सेक्टर, सॉफ्टवेयर सेवा, टेलीकॉम, बैंकिंग एवं फ़ाइनेंस पर भी पड़ने वाला है। आपको बता दें कि जुलाई-सितम्बर 2016 के दौरान इस क्षेत्र से 16,000 लोगों को निकाला जा चुका है और अगले डेढ़ वर्षों में इस क्षेत्र में 15 लाख नौकरियाँ ख़त्म होने वाली हैं। इसकी मार ज़्यादातर सफ़ेदपोश मज़दूरों पर पडे़गी जो आमतौर पर ख़ुद को मज़दूर मानते ही नहीं हैं। इसी तरह टेलीकॉम सेक्टर में कार्यरत 22 लाख लोगों में से 33 प्रतिशत को निकाले जाने की तैयारी हो चुकी है और यही हाल बैंकिंग सेक्टर का भी है।
हमने पहले भी बताया कि ऑटोमेशन की यह प्रक्रिया विनिर्माण उद्योग तक जाती है, जो कारख़ानों के भीतर श्रम के संगठन को तेज़ी से बदल रही है। आधुनिक उद्योग ने बड़े पैमाने पर रोबोट्स का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है। टेक्सटाइल इण्डस्ट्री में एक रोबोटिक मशीन पर काम करने वाले मज़दूर से उतना उत्पादन करवाया जा सकता है जितना पहले 100 मज़दूर मिलकर किया करते थे। यही कारण है कि टेक्सटाइल उद्योग की एक बड़ी कम्पनी रेमण्ड्स ने भारत में चलने वाले 16 कारख़ानों में कार्यरत 30 हज़ार मज़दूरों में से 10 हज़ार को निकालने की तैयारियाँ कर ली है। एचएफ़एस नाम की एक अमेरिकी शोध संस्था के अनुसार 2021 तक भारत के छोटे-मँझोले उद्योगों में ऑटोमेशन के कारण 6 लाख 40 हज़ार कामगार बेरोज़गार होंगे जबकि मशहूर उद्योगपति मोहनदास पाई ने बताया है कि अगले 9 वर्षों में ऑटोमेशन की वजह से 20 करोड़ भारतीय युवा बेरोज़गार होने वाले हैं। विश्व बैंक ने भी एक आकलन किया है कि अगले 15 से 20 सालों में ऑटोमेशन की लहर भारत में 69 प्रतिशत कामगारों को बेरोज़गार करेगी।
दोस्तो, एक बात साफ़ है कि चुनावी मदारियों के और सन्त्रियों-मन्त्रियों के दावों के विपरीत भारत में बेरोज़गारी भयानक रूप धारण करने वाली है। ज़ाहिर है ये बेरोज़गार चुप नहीं बैठेंगे और देश-दुनिया का पूँजीपति वर्ग भविष्य के वर्ग-संघर्षों के तूफ़ानों की इन सम्भावनाओं से बेहद चिन्तित है। कहीं ऐसा तो नहीं कि सरकार, भाजपा, आरएसएस के लीडरान जिस जाति और धार्मिक नफ़रत को फैलाने का काम कर रहे हैं, वह सीधे तौर पर वर्ग संघर्षों से जनता का ध्यान भटकाने का राजनीतिक उपकरण बन चुका है और इस तरह प्रकारान्तर से पूँजीपति वर्ग की ज़रूरी सेवा कर रहा है?
मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2017
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