महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में भाजपा गठबन्धन की भारी जीत!
मज़दूर वर्ग की चुनौतियाँ बढ़ेंगी, ज़मीनी संघर्षों की तेज़ करनी होगी तैयारी!
मज़दूरों-मेहनतकशों की पार्टी आरडब्ल्यूपीआई को जड़ें करनी होंगी मज़बूत!
अविनाश
2024 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में बीजेपी-महायुति को 80 फ़ीसदी सीटों के साथ प्रचण्ड बहुमत मिला है, और कांग्रेस, एनसीपी (शरद पवार), शिवसेना (उद्धव ठाकरे) तथा संशोधनवादी वाम व अन्य पार्टियों से बनी महाविकास अघाड़ी को करारी हार का सामना करना पड़ा है। फ़ासीवादी भाजपा जैसी ताक़त के नेतृत्व में बने गठबन्धन का सत्ता में आना इस बात की गारण्टी देता है कि निकट भविष्य में बेरोज़गारी, महँगाई, भ्रष्टाचार नयी ऊँचाइयों पर पहुँचेंगे। ऐसे में हम मज़दूर-मेहनतकश वर्ग को किसी भ्रम में नहीं रहना चाहिए और यह जान लेना चाहिए कि हमारे पास अपने वास्तविक अधिकारों के लिए संघर्ष करने के अलावा और कोई रास्ता नहीं हैं।
उदारपन्थी विचारधारा के लोग महाविकास अघाड़ी का नाम जपते रहे हैं और फ़ासीवाद को महज़ चुनावी तिकड़मों से हराने की जुगाड़ में लगे हुए हैं। ऐसे लोगों के लिए चुनावी नतीजे सदमे जैसे हैं। यह इसलिए कि इनके पास फ़ासीवाद की अत्यन्त ग़ैर-वैज्ञानिक समझदारी मौजूद है।
पहले महायुति की जीत के कारण को समझते हैं। महायुति की जीत का सबसे बड़ा पहलू फ़ासीवादी भाजपा के पास पहले से एक संगठित प्रतिक्रियावादी संगठन व जनाधार का मौजूद होना है। फ़ासीवाद जो कि एक प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन है, जिसका मुख्य आधार निम्न-मध्यम वर्ग, व्यापारी वर्ग जैसे बड़े सामाजिक समूहों के बीच मौजूद है। मुसलमानों और सामाजिक आन्दोलनों को झूठे दुश्मन के रूप में चित्रित करके, मन्दिर-मस्जिद, गोमाता, लव-लैण्ड-वोट जिहाद, वक्फ़ बोर्ड आदि जैसे कई फ़र्ज़ी मुद्दे उठाकर समाज में भय का माहौल पैदा करके इनका जनाधार बनाया गया है। ऐसे में जब रोज़गार-महँगाई-मन्दी के चलते जनता के बीच भारी असन्तोष मौजूद है, तब भाजपा ने साम-दाम-दण्ड-भेद का इस्तेमाल कर मीडिया और आरएसएस कार्यकर्ताओं की मदद से व पूँजीपतियों द्वारा ख़र्च किये गये हज़ारों करोड़ रुपये का इस्तेमाल करके व इसके अलावा चुनाव में कटेंगे तो बँटेंगे, ओबीसी-मराठा मुद्दे पर भी ध्रुवीकरण करके, चुनाव आयोग की मदद से मतदाता सूची में बदलाव, सम्भावित तौर पर ईवीएम से चुनावों में हेरफेर करके और इसके साथ ही “लाडली बहन” जैसे लालच दिखाने वाली योजनाओं द्वारा एक बार फिर सत्ता तक पहुँचने में भाजपा-महायुति क़ामयाब रही है। इन सब कारणों में संघ परिवार के समर्पित हिन्दुत्व वोट बैंक और भाजपा के वास्तविक जनाधार की भूमिका को निश्चित रूप से नहीं भुलाया जाना चाहिए।
फ़ासीवाद की मज़दूर-विरोधी राजनीति अब एक स्थायी परिघटना बन चुकी है। फ़ासीवाद का कारण मुनाफ़े की दर में गिरावट व देश-दुनिया में आर्थिक संकट की मौजूदगी है। इसी आर्थिक संकट के कारण बढ़ती महँगाई-भ्रष्टाचार-बेरोज़गारी के ख़िलाफ़ जनता के असन्तोष को नियंत्रित करने, जनता को बुरी तरह दबाने के लिए भाजपा आज भी तमाम मालिकों, पूँजीपतियों और बिल्डरों की पसन्दीदा पार्टी बनी हुई है। आज महाविकास अघाड़ी जैसे गठबन्धन धार्मिक-साम्प्रदायिक विचारों के ख़िलाफ़ लड़ने में असमर्थ हैं! साथ ही यह भी नहीं भूलना चाहिए कि 2014 में भाजपा की सरकार एनसीपी के समर्थन से बनी थी, शिवसेना अब भी हिन्दुत्व वाली बातें करती है और एनसीपी-कांग्रेस इसपर कुछ नहीं कहती है। साथ ही हाल ही में सामने आये इस तथ्य को भी नहीं भूलना चाहिए कि एनसीपी, भाजपा और अदानी की साथ में मीटिंग हुई थी। इन सभी दलों की असली राजनीति पूँजी की सेवा है और असली संघर्ष केवल पूँजीपतियों का प्रतिनिधित्व करना और सत्ता की लूट का बड़ा हिस्सा हासिल करना है।
आरडब्ल्यूपीआई के प्रदर्शन का मूल्यांकन
भारत की क्रान्तिकारी पार्टी (RWPI) महाराष्ट्र में दो निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ी। पर्वती निर्वाचन क्षेत्र से पार्टी की उम्मीदवार कॉमरेड टी. ललिता थीं, जिन्हें 280 वोट मिले। वहीं मानखुर्द-शिवाजीनगर से उम्मीदवार कॉमरेड डॉ. पूजा थीं, जिन्हें 380 वोट मिले। आरडब्ल्यूपीआई को मिले इस समर्थन का विश्लेषण भी ज़रूरी है।
सबसे पहले, आरडब्ल्यूपीआई का राजनीतिक संगठन अभी कमज़ोर है और वैचारिक प्रभाव भी उतना व्यापक नहीं है। चुनावी मतों को प्राथमिक आधार बनाकर किसी भी क्रान्तिकारी राजनीति का मूल्यांकन ग़लत तरीक़ा होगा। किसी भी क्रान्तिकारी पार्टी के प्रचार तंत्र का विस्तार, जनता के अलग-अलग हिस्सों में उसके कार्यकर्ताओं की क़तारों का विस्तार, जनान्दोलनों को नेतृत्व दे पाने की उसकी क्षमता, विभिन्न तरीक़ों के संस्थागत कार्यों का विस्तार; इन पैमानों के अभाव में सिर्फ़ चुनावी समर्थन को आधार बनाकर आँकना ग़लत तरीक़ा होगा। फिलहाल आरडब्ल्यूपीआई का उक्त पैमानों पर राजनीतिक संगठन काफी कमज़ोर है और उसे मज़बूत बनाना ही आरडब्ल्यूपीआई के लिए मुख्य कार्यभार बनता है।
आगे हम यह भी देख सकते हैं कि उदारवादी विचारों के प्रभाव के कारण फ़ासीवाद के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए जनता के एक बड़े हिस्से द्वारा पूँजीवादी पार्टियों पर अभी भी राजनीतिक निर्भरता बनी हुई है और फ़ासीवादी विचारों के ख़िलाफ़ लड़ाई अभी तक ज़ोर नहीं पकड़ पायी है। समाज में धार्मिक, जाति-आधारित विचारधाराओं और यहाँ तक कि मज़दूर वर्ग पर पूँजीवादी विचारों का वर्चस्व है। इसके ख़िलाफ़ लड़ना और क्रान्तिकारी मज़दूर वर्ग की सोच को स्थापित करने का काम बहुत बड़ा है।
मानख़ुर्द शिवाजीनगर में यह देखा गया कि जनता के सभी वर्गों से हमारे अभियान को अच्छी प्रतिक्रिया और स्वीकृति मिली। इस मुस्लिम-बहुल निर्वाचन क्षेत्र में हिन्दुत्व-फ़ासीवाद के ख़िलाफ़ और कट्टरपन्थी विचारों के प्रभाव में एक मुस्लिम उम्मीदवार को संरक्षक के रूप में देखने का विचार प्रभावी रहा। यही वजह है कि सबसे ज़्यादा वोट पाने वाले 4 में से 3 उम्मीदवार मुस्लिम थे। इस धार्मिक ध्रुवीकरण और कट्टरपन्थी विचारों के प्रभाव का फ़ायदा उठाकर मुसलमानों के बीच से आये समाजवादी पार्टी के अबू आज़मी जैसे पूँजीपति लगातार इस क्षेत्र से चुने जाते रहे हैं। हालाँकि, इस समय जनता के एक बड़े वर्ग में गन्दगी, प्रदूषण, सीवर, पानी के मुद्दे, स्कूल और क्लीनिक जैसे विकास कार्यों की कमी के मुद्दों पर सपा विधायक अबू आज़मी के ख़िलाफ़ भी लहर मौजूद थी। ऐसे में अबू आज़मी धन के इस्तेमाल, डराने-धमकाने, डर फैलाने और वोट बँटने के कारण दोबारा चुनकर आये। इसके विरोध में दूसरे नम्बर पर रही एम.आई.एम की ताक़त आने वाले समय में कट्टरवाद के प्रभाव को बढ़ाने का ही काम करेगी और मज़दूर वर्ग की राजनीति के लिए एक बड़ी चुनौती होगी। आरडब्ल्यूपीआई के प्रचार से सहमति के बावजूद, बड़ी संख्या में मतदाताओं ने वोट विभाजन से बचने के लिए “जीतने योग्य” विकल्प को चुना। यह मज़दूर वर्ग की विचारधारा के प्रभाव को और गहरा करने की चुनौती को रेखांकित करता है।
पुणे के पर्वती निर्वाचन क्षेत्र में भाजपा की प्रचार मशीनरी, धन और बाहुबल के सामने महाविकास अघाडी की उम्मीदवार भी कहीं टिक नहीं सकी। महाविकास अघाडी के प्रचार में किसी भी तरह की धार देखने को नहीं मिली। आज महाराष्ट्र में राजनीति की हालत देखकर मज़दूर वर्ग में व्यापक मोहभंग हुआ है। इस इलाक़े में आरडब्ल्यूपीआई की अपेक्षाकृत कमज़ोर संगठनात्मक शक्ति इस मोहभंग को दूर करने के लिए अपर्याप्त साबित हुई है। देश में चुनाव एक बाज़ार का तमाशा है और अब यह बाज़ार बहुत बड़ा हो गया है, इसीलिए मज़दूर वर्ग प्रचार से लेकर वोट तक हर काम में अपनी श्रम शक्ति बेचने में हिस्सेदारी करता है। RWPI द्वारा लड़े गये लोकप्रिय आन्दोलनों से परिचित मतदाताओं ने हमें वोट दिया और वहीं दूसरी तरफ़ इनका एक हिस्सा चुनावी बाज़ार के प्रभाव सें अपने आप को दूर नही रख सका। प्राप्त नतीजे इस आधार का विस्तार करने की आवश्यकता को रेखांकित करते हैं।
किन्तु चुनाव अभियान के दौरान लगभग 8,000 लोगों द्वारा दिये गये वित्तीय सहयोग ने निश्चित रूप से RWPI की भूमिका और कार्यक्रम के लिए समर्थन दिखाया। RWPI की भागीदारी यह रेखांकित करने के लिए थी कि लाल झण्डा और मज़दूर वर्ग की स्वतंत्र क्रान्तिकारी शक्ति चुनावी क्षेत्र में भी मौजूद थी। अब जनता के बीच राजनीतिक वर्ग चेतना पैदा करने, निरन्तर जन संघर्ष और क्रान्तिकारी राजनीतिक प्रचार के माध्यम से हमारे सामाजिक आधार को व्यापक और गहरा करने की चुनौती हमारे सामने है।
पूँजीवादी चुनावों के खेल में आमतौर पर वही जीतता है जिसके पास बड़ी कम्पनियों, ठेकेदारों, अमीर दुकानदारों, पूँजीवादी कुलकों और विभिन्न प्रकार के दलालों का पैसा और ताक़त होती है। वही ताक़तें चुनाव में भारी मात्रा में पैसा, शराब, ईवीएम घोटाला, वोट ख़रीदने जैसे बेशर्म खेल खेल सकती हैं। जबकि सीमित शक्ति और बहुत कम लागत पर किये गये समाजवादी कार्यक्रम के अभियान को लोकप्रिय समर्थन मिलने के बावजूद, RWPI को लम्बा रास्ता तय करना है। आने वाले समय में अपने विचारों और कार्यक्रम को अधिक से अधिक जन तक पहुँचाने की ज़रूरत है, जनता के रोज़मर्रा के मुद्दों और समस्याओं पर उन्हें जागृत और संगठित करने तथा जनवादी अधिकारों के लिए लड़ने की ज़रूरत है। अगले कुछ वर्षों में रोज़गार, वेतन, शिक्षा, स्वास्थ्य, पानी, स्वच्छता, आवास सहित जीवन के बुनियादी मुद्दों पर संघर्ष और कड़ी मेहनत के माध्यम से निरन्तर वैचारिक प्रचार-प्रसार करते हुए ही पार्टी और मज़दूर वर्ग की राजनीति को मज़बूत किया जा सकता है।
चुनाव आयेंगे और जायेंगे, लेकिन क्रान्तिकारी परिवर्तन का रास्ता मुख्यत: जन-संघर्षों का रास्ता है। मज़दूर वर्ग की पार्टी के सामने मुख्य कार्य इसी वास्तविक लड़ाई के लिए तैयार होना है।
मज़दूर बिगुल, नवम्बर 2024
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन