हरियाणा रोडवेज़ की 18 दिन चली हड़ताल की समाप्ति पर कुछ विचार बिन्दु
यह ऐतिहासिक हड़ताल निजीकरण के रूप में जनता पर सरकारी हमले का जवाब देने में कहाँ तक कामयाब रही?

इंद्रजीत

रोडवेज़ कर्मचारियों को हड़ताल पर क्यों जाना पड़ा?
आपको ज्ञात होगा कि हरियाणा में रोडवेज़ कर्मचारियों ने निजीकरण के खि़लाफ़ एक शानदार हड़ताल की। हरियाणा सरकार द्वारा रोडवेज़ के निजीकरण के प्रयासों के खि़लाफ़ ‘हरियाणा रोडवेज़ तालमेल कमेटी’ के आह्वान पर हड़ताल शुरू हुई थी। हरियाणा रोडवेज़ विभाग का निर्माण 1966 को राज्य के गठन के समय ही किया गया था तथा 1970 में प्रदेश की प्राइवेट बसों का राष्ट्रीयकरण करके विभाग के बेड़े का विस्तार किया गया था। रोडवेज़ विभाग 1991 तक अपने लक्ष्यों-उद्देश्यों में काफ़ी हद तक कामयाब रहा। 1991 यानी उदारीकरण-निजीकरण-वैश्विकरण की नीतियों की शुरुआत के बाद हरियाणा में बनी तक़रीबन सभी सरकारें रोडवेज़ विभाग को बर्बाद करके इसका निजीकरण करने हेतु प्रयासरत रही हैं किन्तु मौजूदा भाजपा की मनोहर लाल खट्टर सरकार ने सबको पीछे छोड़ दिया है। भाजपा राज में पिछले क़रीब साढ़े चार साल के दौरान रोडवेज़ के बेड़े में मात्र 62 नयी बसें शामिल की गयीं जबकि हर साल सैकड़ों बसें नकारा हो जाती हैं। अब सरकार 720 निजी बसों को किलोमीटर स्कीम के तहत रोडवेज़ विभाग में शामिल करना चाहती है। प्रति किलोमीटर के हिसाब से एक बस पर सरकारी ख़र्च क़रीब 52 से 55 रुपये पड़ेगा जबकि रोडवेज़ की बस पर औसतन 46 रुपये ख़र्च आता है और यह तो तब है जब रोडवेज़ यात्री-सेवा में विभिन्न तबक़ों को छूट देती है, जबकि प्राइवेट बसों में किसी को ठेंगा भी नहीं मिलेगा। और तो और परिचालकों तक का वेतन भी सरकारी खाते से वहन किया जायेगा। कर्मचारियों की राज्यव्यापी हड़ताल का निजीकरण ही प्रमुख मुद्दा बना। सरकार लगातार रोडवेज़ के घाटे का रोना रोती रही है। सरकार का कहना है कि रोडवेज़ विभाग 680 करोड़ के घाटे में चल रहा है किन्तु यह बात सरकार छुपा जाती है कि तमाम अधिकारी सामान की ख़रीद-फ़रोख्त में कितने की घपलेबाज़ी करते हैं? सरकार यह भी नहीं बताती कि विभिन्न चुनावी सभाओं में मुफ़्त यात्रा की जो घोषणाएँ सरकार के मन्त्री-सन्तरी कर देते हैं, उनकी पूर्ति कहाँ से होगी? रोडवेज़ 45 श्रेणियों को यात्रा करने में किराया छूट की सुविधा प्रदान करती है जिसमें बुजुर्गों, बीमारों, छात्रों को यात्रा-सेवा में छूट शामिल है, प्रदेश की क़रीब 80 हज़ार छात्राओं को हरियाणा रोडवेज़ निःशुल्क बस पास की सुविधा देती है, कहना नहीं होगा कि हरियाणा में बड़ी संख्या में लड़कियों की पढ़ाई करने के पीछे रोडवेज़ का अहम योगदान है। यदि सारी सब्सिडी जोड़ दी जाये तो यह सैकड़ों करोड़ में बैठती है। सरकार यह भी नहीं बताती कि रोडवेज़ विभाग में यदि पद ख़ाली पड़े रहेंगे और कर्मचारियों की कमी से बसें खड़ी रहेंगी तो कमाई भला कैसे होगी? परिचालकों की संख्या तो पर्याप्त है ही नहीं। इसके अलावा 1993 के बाद से सरकारों द्वारा वर्कशॉप में कोई भी नया कर्मचारी भर्ती नहीं किया गया, केवल प्रशिक्षुओं से ही काम चलाया जा रहा है। कर्मचारियों को बदनाम करने के मक़सद से रोडवेज़ विज्ञापनों पर भी करोड़ों रुपये पानी की तरह बहाती रही है। क्या रोडवेज़ कर्मचारियों को जनता के बीच बदनाम करके और करोड़ों रुपये का नुक़सान करके रोडवेज़ के घाटे की पूर्ति हो सकती है?

रोडवेज़ के निजीकरण का मतलब है हज़ारों रोज़गारों में कमी करना। केन्द्र सरकार के ही नियम के अनुसार 1 लाख की आबादी के ऊपर 60 सार्वजनिक बसों की सुविधा होनी चाहिए। इस लिहाज़ से हरियाणा की क़रीब 3 करोड़ की आबादी के लिए हरियाणा राज्य परिवहन विभाग के बेड़े में कम से कम 18 हज़ार बसें होनी चाहिए किन्तु फ़िलहाल बसों की संख्या मात्र 4200 है। हम आपके सामने कुछ आँकड़े रख रहे हैं जिससे ‘हरियाणा की शेरनी’ और ‘शान की सवारी’ कही जाने वाली रोडवेज़ की बर्बादी की कहानी आपके सामने ख़ुद-ब-ख़ुद स्पष्ट हो जायेगी। 1992-93 के समय हरियाणा की जनसंख्या 1 करोड़ के आस-पास थी तब हरियाणा परिवहन विभाग की बसों की संख्या 3500 थीं तथा इन पर काम करने वाले कर्मचारियों की संख्या 24 हज़ार थी जबकि अब हरियाणा की आबादी 3 करोड़ के क़रीब है किन्तु बसों की संख्या 4200 है तथा इन पर काम करने वाले कर्मचारियों की संख्या 19 हज़ार ही रह गयी है। पिछले 25 सालों के अन्दर चाहे किसी भी पार्टी की सरकार रही हो लेकिन हरियाणा रोडवेज़ की सार्वजनिक बस सेवा की हालत लगातार खस्ता होती गयी है। रोडवेज़ की एक बस पर 6 युवाओं को रोज़गार मिलता है। यदि रोडवेज़ के बेड़े में 14 हज़ार नयी बसों को शामिल किया जाता है तो क़रीब 85 हज़ार युवा रोज़गार पायेंगे तथा आम जनता को सुविधा होगी वह अलग। सरकारों में बैठे लोग अपने लग्गू-भग्गुओं को लाभ पहुँचाने के मक़सद से रोडवेज़ में निजीकरण को बढ़ावा दे रहे हैं। मौजूदा 720 बसों के परमिटों की बन्दर-बाँट भी कुछ ही गिने-चुने धन्नासेठों और लग्गू-भग्गुओं के बीच की गयी है।

रोडवेज़ कर्मचारियों के संघर्ष का इतिहास लम्बा है। यदि मौजूदा कुछ संघर्षों की बात की जाये तो 5 सितम्बर को हड़ताल पर गये कर्मचारियों पर सरकार ने एस्मा एक्ट (Essential Services Maintenance Act) लगा दिया था। हड़ताल पर गये कर्मचारियों को पुलिस के द्वारा प्रताड़ित किया गया तथा कइयों को नौकरी से निलम्बित (सस्पेण्ड) कर दिया गया। जनता के हक़ में खड़े कर्मचारियों पर सरकार दमन का पाटा चलाती रही है। 10 सितम्बर को भी विधानसभा का घेराव करने जा रहे 20 हज़ार कर्मचारियों का, जिनमें रोडवेज़ कर्मचारी भी शामिल थे, पुलिस द्वारा भयंकर दमन किया गया। पंचकुला में उनका स्वागत लाठी, आँसू गैस, पानी की बौछारों के साथ किया गया। मतलोडा कैम्प कार्यालय पर प्रदर्शन कर रहे कर्मचारियों का भी हरियाणा सरकार व पुलिस ने दमन किया जिसमें कइयों को गम्भीर चोटें आयीं तथा 250 के क़रीब को एस्मा के तहत निलम्बित कर दिया तथा बहुतों पर झूठे मुकदमे भी दर्ज कर लिए गये। तब अन्त में जाकर रोडवेज़ कर्मचारियों ने अपनी तालमेल कमेटी के आह्वान पर निजीकरण के खि़लाफ़ 16-17 अक्टूबर को प्रदेशव्यापी हड़ताल का फ़ैसला लिया था।

18 दिन चली ऐतिहासिक हड़ताल का घटनाक्रम और व्यापक जन समर्थन

मौजूदा हड़ताल को नेतृत्व देने वाली तालमेल कमेटी को हरियाणा रोडवेज़ में कार्यरत सभी प्रमुख सात यूनियनों व तक़रीबन सभी कर्मचारियों का समर्थन प्राप्त था। कर्मचारियों ने सरकारी दुष्प्रचार के जवाब में अपनी बात जनता तक पहुँचायी और काफ़ी हद तक कर्मचारी इसमें कामयाब भी रहे। प्रदेश के कर्मचारियों की अन्य यूनियनों ने डण्के की चोट पर रोडवेज़ कर्मियों का समर्थन किया और उनका साथ दिया। बिजली विभाग के कर्मचारी, अध्यापक, नगर निगमों और परिषदों के कर्मचारी, किसान यूनियनें, मज़दूरों के संगठन, छात्र संगठन आदि-आदि रोडवेज़ की हड़ताल का हर प्रकार से समर्थन-सहयोग कर रहे थे। गाँवों की पंचायतें तक कर्मचारियों के समर्थन में आ रही थीं। तथा यह समर्थन-सहयोग दिन-प्रतिदिन बढ़ ही रहा था। समझौता बैठकों में कर्मचारी नेताओं ने कहा कि वे निजी बस की जगह रोडवेज़ के बेड़े में सरकारी बस शामिल करने की स्थिति में अपना एक माह का वेतन और दो साल का भत्ता तक छोड़ने के लिए तैयार हैं। कर्मचारियों ने अपने वेतन का 20 प्रतिशत 10 माह तक देने की भी बात की। इन्हीं सब कारणों से निजीकरण के खि़लाफ़ अपनी लड़ाई में रोडवेज़ कर्मचारी जनता तथा अन्य कर्मचारियों के बड़े हिस्से का समर्थन जीतने में कामयाब रहे। यह हड़ताल 16 अक्टूबर को शुरू हुई थी तथा इसे 3 नवम्बर को वापस ले लिया गया। 18 दिन से चल रही हरियाणा रोडवेज़ की ऐतिहासिक हड़ताल पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट की दख़ल के बाद वापस ली गयी। 3 नवम्बर को सभी कर्मचारी काम पर चले गये। यह हड़ताल शुरू में 2 दिन के लिए ही आहूत थी, किन्तु सरकार द्वारा हठधर्मिता दिखाये जाने और वार्ता के लिए सामने न आने के कारण इसे क्रमशः दो दिन फिर तीन-तीन और फिर चार-चार दिनों के लिए बढ़ाया जाता रहा। इस प्रकार कुल मिलाकर हड़ताल 18 दिन तक चली। इस दौरान दो बार वार्ताएँ हुईं, एक बार अधिकारी स्तर पर तो एक बार मन्त्री स्तर पर। किन्तु सरकार पूरी तरह से 720 निजी बसों को परमिट देने पर अड़ी रही। यही नहीं सरकार के मन्त्रीगण कर्मचारियों को यह नसीहत भी देते रहे कि नीतियाँ बनाने का काम सरकार का है व कर्मचारियों को इसमें अड़ंगा नहीं डालना चाहिए। कहने का मतलब कोल्हू के बैल की तरह बिना सींग-पूँछ हिलाये गुलामों की तरह अपने काम से काम रखना चाहिए। सरकार का कहना था कि 720 प्राइवेट बसें तो आयेंगी ही और यदि ज़रूरत पड़ी तो और भी निजी बसें लायी जायेंगी। निश्चित तौर पर रोडवेज़ के निजीकरण के खि़लाफ़ किया जा रहा रोडवेज़ कर्मचारियों का संघर्ष जनता के हक़ में लड़ा जा रहा संघर्ष था। हरियाणा रोडवेज़ का निजीकरण सीधे तौर पर जनता के ऊपर कुठराघात साबित होगा। तमाम राज्यों में परिवहन विभागों को निगम बनाये जाने और बर्बाद किये जाने की कहानी हमारे सामने है ही। यही कारण है कि प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से जनता का समर्थन और सहानुभूति रोडवेज़ कर्मचारियों के साथ थी। शान्तिपूर्ण तरीक़े से हड़ताल पर जाने का अधिकार भी पूरी तरह से संविधानसम्मत है। इतना सब होने के बावजूद 720 निजी बसों को परमिट दिये जाने की माँग धरी की धरी रह गयी और हड़ताल वापस ले ली गयी।

हड़ताल की वापसी

कहना नहीं होगा कि रोडवेज़ की मौजूदा हड़ताल में एक जनान्दोलन बनने की कुव्वत थी। सरकार तमाम प्रयासों के बावजूद भी इसका दमन करने में कामयाब नहीं हो सकी। जनता के विभिन्न तबक़े तो हड़ताल का खुला समर्थन कर ही रहे थे किन्तु मज़ेदार बात यह है कि पिछली सरकारों और प्रमुख चुनावी दलों के कर्त्ता-धर्त्ता भी धरना स्थलों पर आकर हड़ताल को मौखिक समर्थन देने के लिए मज़बूर हुए। ये सब चीज़ें दिखाती हैं यह हड़ताल समाज में अन्दर तक पैठने की ताक़त रखती थी। निश्चित तौर पर कर्मचारियों की एकता और निरन्तर मौजूद रहे जुझारू तेवर ज़रूर क़ाबिले-तारीफ़ हैं किन्तु आनन-फ़ानन में हड़ताल को वापस लिया जाना कई बिन्दुओं पर सोचने के लिए हमें विवश अवश्य करता है।

हड़ताल वापस लिए जाने के चन्द रोज़ पहले ही डाली गयी एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए हाईकोर्ट ने कहा कि हड़ताल किसी समस्या का कोई समाधान नहीं होता व यदि इससे दिक़्क़तों का हल होना होता तो हम भी हड़ताल पर बैठ जाते! दूसरा उन्होंने कहा कि गाँधी जी ने तो विदेशी ताक़त के खि़लाफ़ हड़ताल की थी पर कर्मचारी तो अपनों के खि़लाफ़ ही हड़ताल कर रहे हैं। ताज्जुब की बात यह है कि कुछ दिन पहले ही कोर्ट ने रोडवेज़ कर्मियों की हड़ताल के सन्दर्भ में ही कहा था कि हड़ताल ग़ैर-क़ानूनी नहीं है तथा हरेक को अपनी बात रखने और शान्तिपूर्ण ढंग से विरोध जताने का हक़ है। कोर्ट की तरफ़ से सरकार को भी नसीहत दी गयी है कि मिल-बैठकर बातचीत से मामले को सुलझायें। कोर्ट की अगली तारीख़ तक सरकार और रोडवेज़ तालमेल कमेटी बातचीत से हल निकालें तथा कोर्ट भी इस स्थिति में मध्यस्थता करने के लिए तैयार रहेगा। सरकार अन्त तक अपनी बात से टस से मस नहीं हुई। यही नहीं 1 नवम्बर यानी बृहस्पतिवार के दिन खट्टर सरकार ने अपनी तथाकथित फ़ाइनल नोटिस जारी कर दी थी कि 2 नवम्बर तक सभी कर्मचारी वापस काम पर लौट जायें नहीं तो उनके खि़लाफ़ क़ानूनी और विभागीय कार्रवाइयाँ और भी तेज़ कर दी जायेंगी तथा काम से बर्ख़ास्त कर दिया जायेगा। 18 दिनों की हड़ताल के दौरान 1200 एफ़आईआर दर्ज की गयीं, 400 से अधिक कर्मचारियों को सस्पेण्ड तथा 350 से अधिक को बर्ख़ास्त किया गया, 1000 से ज़्यादा को चार्जशीट दिया गया। कर्मचारियों पर लगाये गये विभिन्न केस, मुकदमे भी 14 नवम्बर यानी अगली तारीख़ तक मुल्तवी कर दिये गये थे, ध्यान रहे इन्हें अभी ख़ारिज नहीं किया गया है। अब 12 तारीख़ को रोडवेज़ विभाग के साथ तालमेल कमेटी के नेताओं की बात हो चुकी है किन्तु अब भी वही ढाक के तीन पात हैं। कोर्ट की 14 नवम्बर की पेशी में भी मुद्दे का कोई समाधान नहीं निकला। अगली तारीख़ 29 नवम्बर की दे दी गयी। फ़िलहाल तक कर्मचारियों के ऊपर लगे केस-मुकदमे ख़ारिज नहीं किये गये हैं। खट्टर महोदय तो कर्मचारियों के साथ सीधे मुँह बात तक करने के लिए तैयार नहीं हैं। रोडवेज़ तालमेल कमेटी के द्वारा सरकारी फ़रमान के जवाब में 4 नवम्बर को जींद में रैली की घोषणा की गयी थी किन्तु इसे भी कोर्ट की कार्रवाई के बाद वापस ले लिया गया। परिवहन मन्त्री कृष्ण लाल पँवार हड़ताल ख़त्म होने पर ख़ुद की पीठ थपथपा रहे थे तथा उनकी बोली-भाषा में कोई फ़र्क़ नहीं आया था। दीवाली के मौक़े पर चारों तरफ़ शुभकामनाएँ देने और लेने का आलम छाया रहा। सभी एक-दूसरे को दिवाली और 18 दिन की हड़ताल की बधाई दे रहे थे। सरकार भी ख़ुश थी, कर्मचारी नेता भी इसे अपनी जीत बता रहे थे तथा कोर्ट की तो बात पर ही अमल हुआ था! किन्तु जनता और आम कर्मचारियों के मन-मस्तिष्क में चन्द सवालात ज़रूर उमड़-घुमड़ रहे थे।

जैसे, अभी तो लोहा गर्म हुआ था फिर चोट क्यों नहीं की गयी? जनता की सहानुभूति जब सक्रिय समर्थन और सहयोग में बदल रहा था तो हड़ताल वापस क्यों ले ली गयी? क्या नेतृत्व को 18 दिन के बाद यह समझ में आया कि कोर्ट की मध्यस्थता और बात-चीत से भी हल निकाला जा सकता है? क्या इससे पहले मामला कोर्ट में गया ही नहीं था या फिर सरकार के साथ निजीकरण के मुद्दे पर वार्ताएँ हुई ही नहीं थी? सबसे बड़ा सवाल कि क्या 18 दिन के संघर्ष के परिणाम को देखते हुए पुनः कर्मचारियों को एक बैनर के नीचे लाना सम्भव होगा? क्या पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट रोडवेज़ के निजीकरण के विभिन्न पक्षों-पहलुओं से अभी तक अनजान था? रोडवेज़ का निजीकरण करके सरकार जनहित का कौन सा काम साधना चाहती है? इनमें से कुछ सवालों का जवाब तो वक़्त के साथ हमें मिल ही जायेगा तथा कुछ सवाल आगे के संघर्षों में हमें सावधान रहना सिखायेंगे।

यह सम्भव है कि हमारा संघर्ष आज फ़िलहाली तौर पर आंशिक जीत दर्ज़ करे। किन्तु लड़ाई के असल मुद्दे पर कोई ठोस आश्वासन, वायदा, स्टे लिये बिना ही संघर्ष को ख़त्म कर देना या फिर मुल्तवी कर देना कहाँ तक उचित है? कभी-कभी आन्दोलनों में पीछे भी हटना पड़ सकता है किन्तु सम्भावनासम्पन्न होने के बावजूद भी पीछे हटना जनता के बीच शंका ज़रूर पैदा करता है। तमाम कर्मचारियों को इस शानदार हड़ताल के लिए तथा आम जनता को सक्रिय समर्थन के लिए सलाम बनता है। किन्तु यूनियन जनवाद और वास्तविक सामूहिक नेतृत्व की कमी पर ध्यान दिया जाना चाहिए था तथा साथ ही जनता की सहानुभूति और सहयोग को आन्दोलन की शक्ल नहीं दे पा सकने की कमी को भी दुरुस्त किये जाने की आवश्यकता है। निजीकरण के रूप में जनता पर किया गया यह सरकारी हमला न तो पहला हमला है और न ही आख़िरी। रोडवेज़ की व्यापक हड़ताल ने यह सिद्ध कर दिया है कि जनता से जुड़े आन्दोलन आसानी से नहीं कुचले जा सकते। रोडवेज़ की हड़ताल ने व्यापक हड़तालों और आन्दोलनों की सम्भावना-सम्पन्नता की तरफ़ भी इशारा किया है। आगे और भी ज़ोर-शोर से हमें संगठित आन्दोलन खड़े करने होंगे। सही विचारधारा और सही संगठन शक्ति के बिना आन्दोलन हार का खारा स्वाद चख सकते हैं और सही विचारधारा पर अमल और सही रूप में संगठित ताक़त हमारी जीत की गारण्टी बन सकते हैं।

मज़दूर बिगुल, दिसम्‍बर 2018


 

‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्‍यता लें!

 

वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये

पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये

आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये

   
ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीऑर्डर के लिए पताः मज़दूर बिगुल, द्वारा जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020 बैंक खाते का विवरणः Mazdoor Bigul खाता संख्याः 0762002109003787, IFSC: PUNB0185400 पंजाब नेशनल बैंक, निशातगंज शाखा, लखनऊ

आर्थिक सहयोग भी करें!

 
प्रिय पाठको, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘मज़दूर बिगुल’ लगातार आर्थिक समस्या के बीच ही निकालना होता है और इसे जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की ज़रूरत है। अगर आपको इस अख़बार का प्रकाशन ज़रूरी लगता है तो हम आपसे अपील करेंगे कि आप नीचे दिये गए बटन पर क्लिक करके सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग भी करें।
   
 

Lenin 1बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन

Related Images:

Comments

comments