गटर साफ़ करने के दौरान सफ़ाईकर्मियों की मौतों का जि़म्मेदार कौन?
श्वेता
जोगिन्दर, अन्नू, राजेश, जहाँगीर, एजाज़, रामबाबू, वेंकेटेश्वर राव, मानस, विभूति। ये उन चन्द लोगों के नाम हैं जिन्हें अपनी जि़न्दगी एक बेहद अमानवीय, नारकीय, अपमानजनक, घिनौने पेशे के कारण गँवानी पड़ी। इन सभी की मौत पिछले कुछ दिनों में गटर साफ़ करने के दौरान हुई। बीती 11 अगस्त को जहाँगीर और एजाज़ पूर्वी दिल्ली के एक मॉल में गटर की सफ़ाई करने के लिए उतरे और गटर में मौजूद ज़हरीली गैसों के कारण उनकी मौत हो गयी। इस घटना से क़रीब छ: दिन पहले दिल्ली जल बोर्ड की सीवर लाइन की सफ़ाई के दौरान 3 सफ़ाईकर्मियों ने अपनी जानें गँवायीं। बेशर्मी की हद तो यह थी कि दिल्ली जल बोर्ड ने उन्हें अपना कर्मचारी मानने से ही इंकार कर दिया। यहाँ यह बात बताते चलें कि सरकारी, ग़ैर-सरकारी और निजी क्षेत्रों में सफ़ाई का अधिकतर काम ठेके पर करवाया जाता है, जिससे प्रमुख नियोक्ता साफ़-साफ़ अपनी जि़म्मेदारी से बच निकल जाता है। थोड़ा और पीछे जायें तो 14 जुलाई को दिल्ली के घिटौरनी इलाक़े में सीवेज की सफ़ाई के दौरान 4 सफ़ाईकर्मियों की मौत हुई। इसके अलावा गटर साफ़ करने के दौरान मई के महीने में उड़ीसा में दो लोगों, मार्च में विजयवाड़ा में 2 लोगों, बेंगलुरू में 3 लोगों और फ़रवरी में मुम्बई में 3 लोगों के मौत की ख़बरें आयी थीं। अगर 1 जनवरी 2017 से 17 जुलाई 2017 तक की बात की जाये तो इस दौरान गटर में काम करने के दौरान 60 सफ़ाईकर्मियों की मौत हुई। बेंगलुरू की एक ग़ैर-सरकारी संस्था के मुताबिक़ अकेले दिल्ली में ही हर साल 100 से भी अधिक सफ़ाईकर्मियों की मौत गटर साफ़ करने के दौरान होती है। सफ़ाई कर्मचारी आन्दोलन नामक संस्था के अनुसार वर्ष 2016 में गटर साफ़ करते वक़्त 1300 लोगों की मौत हुई थी। आँकड़ों की यह फे़हरिस्त बहुत लम्बी हो सकती है। ग़ौरतलब है कि इनमें से बहुत से मामले तो ऐसे होते हैं जिन्हें रिपोर्ट तक नहीं किया जाता, इसलिए स्थिति की मुक़म्मल तस्वीर का अन्दाज़ा लगाना मुश्किल है। फिर भी इन आँकड़ों के ज़रिये स्थिति की भयावहता की एक तस्वीर तो सामने आ ही जाती है।
यह एक त्रासदी ही है कि आज के इतने विकसित तकनीकी युग में भी इंसानों से इस तरह के काम कराये जा रहे हैं। सीवरेज गटरों और पाइपों की सफ़ाई का काम भारत में मुख्य तौर पर आज भी बिना मशीनों के ही होता है। पूँजीवाद को जहाँ लगता है कि अत्याधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल करने से उसका मुनाफ़ा बढ़ सकता है, वहाँ वह इन तकनीकों का जमकर इस्तेमाल करता है। लेकिन जहाँ उसे बेहद सस्ती दरों पर बिना मशीनों के काम करने वाले लोग आसानी से मिल जाते हैं, वहाँ पर मशीनरी पर होने वाले ख़र्च को बचाने के लिए इंसानों को मौत के मुँह में धकेलना बेहतर समझ जाता है।
कहने को तो गटर में सफ़ाईकर्मियों को उतरवाकर सफ़ाई करवाने और मैला ढोने का काम ग़ैर-क़ानूनी है। इसकी रोकथाम के लिए भारत में 1993 में ‘इम्प्लायमेण्ट ऑफ़ मैनुअल स्कैवैंजर्ज़ एण्ड कंस्ट्रक्शन ऑफ़ ड्राई लैट्रीन्स (प्रोहिबिशन) एक्ट’ नाम का क़ानून भी बना था। यही नहीं वर्ष 2013 में भारत सरकार ने ‘मैनुअल स्कैवैंजर्ज़ एण्ड दियर रिहेबीलिटेशन एक्ट’ बनाया जिसके तहत गटर की सफ़ाई से लेकर मैला ढोना जैसे सभी कामों पर प्रतिबन्ध लगाया गया। इसके अन्तर्गत गटर की सफ़ाई या मैला ढोने का काम करवाने वाले के लिए सज़ा के प्रावधान के अलावा सफ़ाईकर्मियों के लिए पुनर्वास जैसे प्रावधान शामिल किये गये। अमूमन तो ऐसे मसलों पर कोई क़ानूनी कार्रवाई नहीं होती। अगर होती भी है तो ज़्यादातर मसलों में सेक्शन 304 ए (लापरवाही के कारण मौत) के तहत मुक़दमा दर्ज किया जाता है जो कि एक ज़मानती धारा है। स्पष्टत: मामले को हल्का करने के लिए ही इस धारा का उपयोग किया जाता है। यूँ तो सरकार ने ‘सेल्फ़ एम्प्लोयमेण्ट स्कीम फ़ॉर रिहेबीलिटेशन ऑफ़ मैनुअल स्कैवैंजर्ज़’ की योजना के अन्तर्गत गटर की सफ़ाई या मैला ढोने का काम करने वालों के लिए पुनर्वास का प्रावधान शामिल किया है। हालाँकि सरकार इन सफ़ाईकर्मियों के पुनर्वास के काम के प्रति कितनी गम्भीर है इसकी झलक तो इस बात से मिल जाती है कि सफ़ाईकर्मियों के पुनर्वास के लिए वर्ष 2015-16 में 470.19 करोड़ का जो बजट आबंटित किया गया था, उसमें से एक रुपया भी ख़र्च नहीं किया गया। यही नहीं ‘मैनुअल स्कैवैंजर्ज़ एण्ड दियर रिहेबीलिटेशन एक्ट’ के तहत सफ़ाईकर्मियों के पुनर्वास के लिए वर्ष 2013 में 4,656 करोड़ के बजट को घटाकर वर्ष 2016 में मात्र 10 करोड़ कर दिया गया। सुप्रीम कोर्ट के 2014 के एक फ़ैसले के अनुसार गटर में काम के दौरान यदि किसी सफ़ाईकर्मी की मौत हो जाती है तो उसे 10 लाख का मुआवज़ा दिया जायेगा। क़ानूनों, कमीशनों और कमेटियों की यह फे़हरिस्त भी काफ़ी लम्बी है। हालाँकि मेहनतकशों के लिए बने तमाम क़ानून सिर्फ़ काग़ज़ों की शोभा बढ़ाने के लिए ही बनते हैं।
वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में कुल 1,80,657 परिवार ऐसे हैं जो गटर की सफ़ाई या मैला ढोने के काम में लगे हुए हैं और इसी गणना में यह भी पाया गया कि क़रीब 7,94,000 लोग इस काम में लगे हुए हैं। अब इन आँकड़ों को वास्तविकता से कितना कम करके आँका गया है, उसका अनुमान इस बात से लग जाता है कि भारतीय रेलवे जो सफ़ाईकर्मियों का सबसे बड़ा नियोक्ता है, ख़ुद़ इस सेक्टर में लगे सफ़ाईकर्मियों की संख्या को क़ानूनी जामे में छिपा देता है। ग़ौरतलब बात यह है कि रेलवे इन सफ़ाईकर्मियों की नियुक्ति “मैला ढोने वाली श्रेणी में नहीं” बल्कि “क्लीनर” की श्रेणी के तहत करता है या फिर इस काम को ठेके पर दे देता है। लेकिन हम जानते हैं कि रेलवे ट्रैक और रेलवे टॉयलेटों की सफ़ाई में लगे हुए कर्मचारी वस्तुत: मैला साफ़ करने का ही काम करते हैं। ग़ौरतलब है कि गटर की सफ़ाई या मैला ढोने के काम में दलित जातियों की बहुतायत शामिल है।
यहाँ एक और ज़रूरी तथ्य का जि़क्र भी करते चलें। सामाजिक न्याय और अधिकारिता मन्त्री थावर चन्द गहलोत के संसदीय बयान के अनुसार देश में अभी भी 26 लाख शुष्क शौचालय हैं (ड्राई लैट्रीन जहाँ मुफले जैसे औज़ारों से मैला उठाया जाता है और बाल्टियों या तसलों में भरकर सिर पर ढोया जाता है)। 1993 में ‘इम्प्लाेयमेण्ट ऑफ़ मैनुअल स्कैवैंजर्ज़ एण्ड कंस्ट्रक्शन ऑफ़ ड्राई लैट्रीन्स (प्रोहिबिशन) एक्ट’ बनने के 14 वर्षों बाद भी 26 लाख शुष्क शौचालयों की मौजूदगी सरकार की इस समस्या से निपटने के प्रति उसकी मंशा को ज़ाहिर कर देती है। यही नहीं सरकारें पुरज़ोर तरीक़े से गटर साफ़ करने और मैला ढोने के काम में लगे सफ़ाईकर्मियों के पुनर्वास के हवाई दावे करने में लगी हुई है। देखिये, अपनी नाकामयाबी छिपाने के लिए तमाम सरकारें किस तरह आँकड़ों की बाज़ीगरी कर रही हैं। वर्ष 2015 में तेलंगाना सरकार ने बताया कि उनके यहाँ 1,57,321 शुष्क शौचालय हैं, पर एक भी मैला ढोने वाला नहीं है। इसी प्रकार हिमाचल प्रदेश में 854 शुष्क शौचालय हैं, एक भी मैला ढोने वाला नहीं। छत्तीसगढ़ में 4391 शुष्क शौचालय हैं और सिर्फ़ तीन मैला ढोने वाले हैं। इसी तरह के हवाई दावों के गोले अन्य राज्यों ने भी जमकर दागे हैं।
मात्र 200-300 रुपये दिन-भर की मज़दूरी के लिए लाखों सफ़ाईकर्मी अपनी जान को जाखिम में डालने के लिए मजबूर हैं। सफ़ाईकर्मियों को न तो हादसों से सुरक्षा के इन्तज़ाम ही हासिल हैं और न ही बीमारियों से बचाव के इन्तज़ाम। कार्बन मोनोआक्साइड, हाइड्रोजन सल्फ़ाइड और मीथेन जैसी ज़हरीली गैसों के सीधे सम्पर्क में रहने के कारण मौतें तो होती ही हैं पर जो लोग जीवित भी रहते है, उन्हें कई तरह की साँस की और दिमाग़ी बीमारियाँ होती हैं। इसके अलावा दस्त, टाइफ़ाइड और हेपेटाइटिस-ए जैसी बीमारियाँ आमतौर पर होती हैं। ई कौली नामक बैक्टीरिया पेट सम्बन्धी बहुत गम्भीर रोगों का जन्मदाता है और क्लोस्ट्रीडम टैटली नामक बैक्टीरिया खुले ज़ख़्मों के सीधे सम्पर्क में आने के साथ ही टेटनस का कारण बनता है। ये सारे बैक्टीरिया गन्दे पानी में आमतौर पर पाये जाते हैं और चमड़ी के रोग तो इतने कि़स्म के होते हैं कि उनकी गिनती करना मुश्किल है।
यही नहीं, सफ़ाई का ज़्यादातर काम ठेके पर करवाया जाता है, जिसके कारण श्रम क़ानूनों के तहत न्यूनतम मज़दूरी, पहचान पत्र, ईपीएफ़, ईएसआई आदि अधिकार भी सफ़ाईकर्मियों को हासिल नहीं हैं। मैला ढोने के कामों में ज़्यादातर महिलाएँ लगी हुई हैं जिन्हें क़दम-ब-क़दम सुपरवाइज़र, ठेकेदार, सेनेट्री इंस्पेक्टर से यौन उत्पीड़न का भी सामना करना पड़ता है। कहने के लिए तो सफ़ाईकर्मियों के बीच अलग-अलग संगठन मौजूद हैं, पर वे महज़ चुनावी पार्टियों और ग़द्दार नेताओं की दलाली में लगे हुए हैं, जिससे आम सफ़ाईकर्मियों का कोई भला नहीं हो सकता। जब तक पूँजीवादी व्यवस्था क़ायम है, तब तक सफ़ाईकर्मियों को काम के बदतर हालातों, सामाजिक अपमान, ग़रीबी, बदहाली और अन्याय से छुटकारा नहीं मिल सकता, क्योंकि उनकी इन परिस्थितियों और मौतों का जि़म्मेदार और कोई नहीं ख़ुद पूँजीवाद है।
मज़दूर बिगुल,अगस्त 2017