मालिक लोग आते हैं, जाते है
मालिक लोग चले जाते हैं
तुम वहीं के वहीं रह जाते हो
आश्वासनों की अफ़ीम चाटते
किस्मत का रोना रोते; धरम–करम के भरम में जीते।
आगे बढ़ो! मालिकों के रंग–बिरंगे कुर्तों को नोचकर
उन्हें नंगा करो।
मालिक लोग चले जाते हैं
तुम वहीं के वहीं रह जाते हो
आश्वासनों की अफ़ीम चाटते
किस्मत का रोना रोते; धरम–करम के भरम में जीते।
आगे बढ़ो! मालिकों के रंग–बिरंगे कुर्तों को नोचकर
उन्हें नंगा करो।
मौजूदा समाज-व्यवस्था पूँजीवादी व्यवस्था है। इसका मतलब यह है कि दुनिया दो विरोधी दलों में बँटी हुई है। एक दल थोड़े से मुट्ठी भर पूँजीपतियों का है। दूसरा दल बहुमत का, यानी मजदूरों का है। मजदूर दिन रात काम करते हैं, परन्तु फिर भी गरीब रहते हैं। पूँजीपति काम कौड़ी का नहीं करते, परन्तु फिर भी मालामाल रहते हैं। ऐसा इसलिए नहीं है कि मजदूरों में बुद्धि नहीं है और पूँजीपति अकल के पुतले हैं। ऐसा इसलिए होता है कि पूँजीपति मजदूरों की मेहनत के फल को हड़प लेते है, मजदूरों का शोषण करते हैं। पर इसका क्या कारण है कि मजदूरों की मेहनत से जो कुछ पैदा होता है उस पर पूँजीपति कब्जा कर लेते हैं और वह मजदूरों को नहीं मिलता? इसकी क्या वजह है कि पूँजीपति मजदूरों का शोषण करते हैं और मजदूर पूँजीपतियों का शोषण नहीं करते?
आज चुनावों में हमें एक अलग ढंग से भागीदारी करनी चाहिए। चुनावों में उम्मीदवार खड़ा करना अपनी ताकत फ़ालतू खर्च करना है। इसके बजाय हमें चुनावों के गर्म राजनीतिक माहौल का लाभ उठाने के लिए इस दौरान जन सभाओं और व्यापक जनसम्पर्क अभियानों के द्वारा जनता तक अपनी बात पहुँचानी चाहिए, सभी संसदीय पार्टियों का और पूँजीवादी संसदीय व्यवस्था का भण्डाफ़ोड़ करना चाहिए तथा लोगों को यह बताना चाहिए कि किसी पार्टी को वोट देने से कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा, फ़र्क तभी पड़ेगा जब मेहनतकश जनता संगठित होकर सारी ताकत अपने हाथों में ले ले।