फ़ासीवाद क्या है और इससे कैसे लड़ें? (दूसरी किश्त)
अभिनव
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अब तक हमने उन आर्थिक प्रक्रियाओं के बारे में पढ़ा जिनके नतीजे के तौर पर वे स्थितियाँ पैदा होती हैं जो फ़ासीवाद को भी जन्म दे सकती हैं। कोई जरूरी नहीं है कि ये आर्थिक परिस्थितियाँ अनिवार्य रूप से फ़ासीवाद को जन्म दें। फ़ासीवाद के उभार को रोका जा सकता है या नहीं, यह काफी कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि संकटपूर्ण परिस्थिति का कोई क्रान्तिकारी विकल्प मौजूद है या नहीं। यदि क्रान्तिकारी विकल्प मौजूद नहीं होगा तो जनता को प्रतिक्रिया के रास्ते पर ले जाना फ़ासीवादी ताकतों के लिए आसान हो जायेगा। इस परिप्रेक्ष्य में भगतसिंह का वह कथन बरबस ही याद आता है जिसमें उन्होंने कहा था कि जब गतिरोध की स्थिति लोगों को अपने शिकंजे में जकड़ लेती है तो इंसानियत की रूह में क्रान्तिकारी स्पिरिट पैदा करने की जरूरत होती है, वरना प्रतिक्रियावादी शक्तियाँ जनता को ग़लत रास्ते पर ले जाने में सफल हो जाती हैं।
इस सामान्य रूपरेखा के बाद जर्मनी और इटली में फ़ासीवाद के उदय की स्थितियों और प्रक्रियाओं पर निगाह डालना उपयोगी होगा। जर्मनी फ़ासीवाद के उदय, विकास और सशक्तीकरण का सबसे प्रातिनिधिक उदाहरण है। हालाँकि इटली में फ़ासीवाद सत्ता में जर्मनी के मुकाबले पहले आया, लेकिन जर्मनी ही वह देश था जहाँ फ़ासीवादी उभार सबसे गहरे तक जड़ जमाये और जबरदस्त था। इसलिए हम अपना विश्लेषण जर्मनी से ही शुरू करते हैं।
जर्मनी में फ़ासीवाद
फ़ासीवादियों के बारे में अक्सर एक मिथक लोगों के दिमाग़ में होता है कि वे असांस्कृतिक, सनकी, झक्की होते हैं। जर्मनी का उदाहरण दिखलाता है कि फ़ासीवादियों की कतार में कोई पागलों या सनकियों की भरमार नहीं थी। बल्कि वहाँ बेहद पढ़े-लिखे लोगों की तादाद मौजूद थी जो समानता, जनवाद और आजादी के उसूलों के बेहद सचेतन विरोधी थे। जर्मनी में फ़ासीवादियों को तमाम सामाजिक तबकों से समर्थन प्राप्त था। इनमें नौकरशाह वर्ग, कुलीन वर्ग और पढ़े-लिखे अकादमिकों (विश्वविद्यालय, कॉलेज, स्कूल के टीचर, लेखक, पत्रकार, वकील आदि) की अच्छी-खासी संख्या शामिल थी। 1934 में करीब एक लाख लोगों को हिटलर की हत्यारी सेना ‘आइन्त्साजग्रुप्पेन‘ ने या तो गिरफ्तार कर लिया था, या यातना शिविरों में भेज दिया था या फिर मार डाला था। आपको जानकर ताज्जुब होगा कि आइन्त्साजग्रुप्पेन के अधिकारियों का एक-तिहाई हिस्सा विश्वविद्यालयों से डिग्री प्राप्त किये हुए लोगों का था।
जर्मनी में फ़ासीवाद को बड़े उद्योगपतियों से जबदरस्त समर्थन प्राप्त था। पूँजीपति वर्ग के जिस हिस्से ने हिटलर की राष्ट्रीय समाजवादी मजदूर पार्टी (नात्सी पार्टी) को सबसे पहले समर्थन दिया था, वह था घरेलू भारी उद्योगों का मालिक पूँजीपति वर्ग। बाद में पूँजीपति वर्ग के दूसरे सबसे बड़े हिस्से निर्यातक पूँजीपति वर्ग ने भी हिटलर को अपना समर्थन दे दिया। और इसके बाद उद्योग जगत के बचे-खुचे हिस्से ने भी नात्सी पार्टी को समर्थन दे दिया। इसके कारण साफ थे। हिटलर की नीतियों का सबसे ज्यादा फायदा बड़े पूँजीपति वर्ग को होना था। वैश्विक संकट के दौर में मजदूर आन्दोलन की शक्ति को खण्डित करके अपनी सबसे प्रतिक्रियावादी, सबसे नग्न और सबसे क्रूर तानाशाही को लागू करने के लिए जर्मनी के बड़े पूँजीपति वर्ग को जिस राजनीतिक समूह की जरूरत थी, वह था नात्सी पार्टी (जो पूँजीवाद से पैदा हुई आर्थिक-सामाजिक असुरक्षा के कारण निम्न पूँजीपति वर्गों, मध्यम वर्गों और मजदूर वर्ग के एक हिस्से में पनपने वाली प्रतिक्रिया का इस्तेमाल करके एक ग़ैरजनवादी, तानाशाह सत्ता स्थापित कर सके। जाहिर है, इस प्रतिक्रिया का निशाना किसी न किसी को बनाना था और जर्मनी में नात्सी पार्टी ने प्रतिक्रिया का निशाना जिन्हें बनाया वे थे नस्लीय अल्पसंख्यक, विशेष रूप से यहूदी, मजदूर व ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता (जिन्हें नात्सी पार्टी ने आर्थिक असुरक्षा और ठहराव का जिम्मेदार ठहराया) और कम्युनिस्ट। नात्सी पार्टी का फ़ासीवादी शासन अन्तिम विश्लेषण में निश्चित रूप से बड़े वित्तीय और औद्योगिक पूँजीपति वर्ग की तानाशाही का नग्नतम और क्रूरतम रूप था। इसे एक छोटे-से उदाहरण से समझा जा सकता है। जर्मन उद्योगपतियों ने नात्सी शासन के दौरान अपने कारखानों में ग़ुलामों से जमकर श्रम करवाया, जो कहने की आवश्यकता नहीं कि फ़ासीवादी राज्य उन्हें मुफ्त में मुहैया कराता था। ये दास श्रम करने वाले लोग थे हिटलर द्वारा यातना शिविरों में भेजे गये यहूदी, मजदूर, ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता और कम्युनिस्ट। आम ग़ुलाम मजदूर की औसत आयु मात्र तीन महीने थी। तीन महीने इस किस्म का श्रम करने के बाद उनकी मौत हो जाया करती थी। इस ग़ुलाम श्रम का इस्तेमाल करने वाली कम्पनियों में आज के जर्मनी की तमाम प्रतिष्ठित कम्पनियाँ शामिल थीं, जैसे वोल्क्सवैगन और क्रुप। ये सिर्फ दो उदाहरण हैं। इस घिनौने कृत्य में जर्मनी के तमाम बड़े पूँजीपति शामिल थे। इन अमानवीय कृत्यों के विरुध्द लड़ने वाले लोग अधिकांश मामलों में कम्युनिस्ट थे। कम्युनिस्टों को ही सबसे बर्बर दमन का भी सामना करना पड़ा।
इतिहास गवाह है कि संकट के दौरों में, जब संसाधनों की ”कमी” (क्योंकि यह वास्तविक कमी नहीं होती, बल्कि मुनाफा-आधारित व्यवस्था द्वारा पैदा की गयी कृत्रिम कमी होती है) होती है, तभी धार्मिक और जातीय अन्तरविरोध और टकरावों के पैदा होने और बढ़ने की सम्भावना सबसे ज्यादा होती है। अगर जनता के सामने वर्ग अन्तरविरोध साफ नहीं होते और उनमें वर्ग चेतना की कमी होती है तो उनके भीतर किसी विशेष धर्म या सम्प्रदाय के लोगों के प्रति अतार्किक प्रतिक्रियावादी ग़ुस्सा भरा जा सकता है और उन्हें इस भ्रम का शिकार बनाया जा सकता है कि उनकी दिक्कतों और तकलीफों का कारण उस विशेष सम्प्रदाय, जाति या धर्म के लोग हैं। आज जिस तरह वैश्विक संकट के दौर में दुनिया भर में बेरोजगारी तेजी से बढ़ी है उसी प्रकार 1930 के दशक की मन्दी के समय भी दुनिया भर में बेरोजगारी तेजी से बढ़ी थी। शहरी ग़रीबों की संख्या में भारी बढ़ोत्तरी हुई थी। जिन देशों में औद्योगिक विकास का एक लम्बा और गहरा इतिहास था वहाँ पूँजीवादी विकास के कारण आम मेहनतकश जनता के उजड़ने की प्रक्रिया एक क्रमिक प्रक्रिया थी जो धीरे-धीरे और कई किश्तों में पूरी हुई। लेकिन जर्मनी में औद्योगिक विकास 1860-70 के पहले बेहद कम था जो राष्ट्रीय एकीकरण के बाद द्रुत गति से हुआ और उसने गाँवों में ग़रीब किसानों को और शहरों में आम मेहनतकश आबादी को इतनी तेज गति से उजाड़ा कि पूरे समाज में एक भयंकर असुरक्षा और अनिश्चितता का माहौल पैदा हुआ। जर्मनी में भी शहरी बेरोजगारी, और शहरी और ग्रामीण ग़रीबी में तेजी से वृध्दि हुई थी। अतिवादी नस्लवाद, सम्प्रदायवाद, या जातीयतावाद अक्सर आर्थिक और सामाजिक तौर पर उजड़े हुए लोगों के जीवन को एक ”अर्थ” प्रदान करने का काम करते हैं। यही कारण है कि ऐसे समाजों में जहाँ पूँजीवादी विकास क्रान्तिकारी प्रक्रिया के जरिये नहीं हुआ, जहाँ पूँजीवादी विकास की प्रक्रिया इतिहास के एक लम्बे दौर में फैली हुई प्रक्रिया के रूप में नहीं मौजूद थी, बल्कि एक असमान, अधूरी, और अजीब तरीके से द्रुत अराजक प्रक्रिया के रूप में घटित हुई, वहाँ फ़ासीवाद के सामाजिक आधार समाज में पैदा हुए।
जर्मनी में औद्योगीकरण की प्रक्रिया बहुत देर से शुरू हुई। इंग्लैण्ड में औद्योगिक क्रान्ति की शुरुआत 1780 के दशक में हो गयी थी। फ्रांस में 1860 आते-आते औद्योगिक क्रान्ति का एक दौर पूरा हो चुका था। दूसरी तरफ, इस समय तक जर्मनी एक एकीकृत देश के रूप में सामने तक नहीं आ पाया था। जर्मन एकीकरण के बाद एक जर्मन राष्ट्र राज्य अस्तित्व में आया। बिस्मार्क के नेतृत्व में पूँजीवादी विकास की शुरुआत हुई। जर्मनी में राष्ट्रीय पैमाने पर पूँजीवाद का विकास ही तब शुरू हुआ जब विश्व पैमाने पर पूँजीवाद साम्राज्यवाद, यानी कि एकाधिकारी पूँजीवाद, के दौर में प्रवेश कर चुका था। एकाधिकारी पूँजीवाद प्रकृति और चरित्र से ही जनवाद-विरोधी होता है। जर्मनी में पूँजीवादी विकास बैंकों की पूँजी की मदद से शुरू हुआ और उसका चरित्र शुरू से ही एकाधिकारी पूँजीवाद का था। नतीजतन, जर्मनी में पूँजीवाद का विकास 1880 के दशक से ही इतनी तेज गति से हुआ कि 1914 आते-आते वह यूरोप का सबसे अधिक आर्थिक वृध्दि दर वाला देश बन गया जिसका औद्योगिक उत्पादन अमेरिका के बाद सबसे अधिक था। लेकिन किसी जनवादी क्रान्ति के रास्ते पूँजीवाद के न आने के कारण समाज में जनवाद की जमीन हमेशा से ही कमजोर थी। जर्मनी के एक आर्थिक महाशक्ति के तौर पर उदय के बाद विश्व पैमाने पर साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा का तीव्र होना लाजिमी था। उस समय ब्रिटेन दुनिया की सबसे बड़ी साम्राज्यवादी शक्ति था और उसका औपनिवेशिक साम्राज्य सबसे बड़ा था। जर्मनी विश्व पैमाने पर लूट का नये सिरे से बँटवारा करना चाहता था। जर्मनी की यह साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा विश्व को पहले विश्वयुध्द की तरफ ले गयी। पहला विश्वयुध्द 1914 से 1919 तक चला जिसमें मित्र राष्ट्रों ने जर्मनी समेत धुरी राष्ट्रों को हरा दिया। वर्साई में युध्द के समाप्त होने के बाद सन्धि हुई जिसे वर्साई सन्धि के नाम से जाना जाता है। इस सन्धि में जर्मनी पर भारी शर्तें थोपी गयीं। उससे भारी युध्द हर्जाना वसूला गया। उसके सभी अधिकार-क्षेत्र उससे छीन लिये गये। उसके कुछ हिस्से अलग-अलग देशों को दे दिये गये। युध्द की समाप्ति के बाद जर्मनी की पूरी अर्थव्यवस्था छिन्न-भिन्न हो चुकी थी। इसके कारण जर्मन पूँजीवाद के समक्ष अस्तित्व का संकट पैदा हो चुका था। पुरानी विकास दर को हासिल करने के लिए जर्मन पूँजीवाद को मजदूरों के शोषण की ऐसी दर हासिल करनी पड़ती जो मजदूर आबादी को बग़ावत पर आमादा कर देती। लेकिन इसी समय जर्मन पूँजीपति वर्ग के सामने रूस का उदाहरण भी था, जहाँ साम्राज्यवादी युध्द ने सर्वहारा क्रान्ति को जन्म दिया। जर्मन पूँजीपति वर्ग को वही ग़लती करने से जर्मनी के सामाजिक जनवादियों ने बचा लिया। जर्मन बड़े पूँजीपति वर्ग के प्रतिनिधि ह्यूगो स्टिनेस और जर्मनी के सामाजिक जनवादी पार्टी के नेता कार्ल लीजन, जो ट्रेड यूनियनों और मजदूरों के प्रतिनिधि के तौर पर गये थे, के बीच एक समझौता हुआ। इस समझौते के तहत जर्मन पूँजीपति वर्ग जर्मन मजदूर वर्ग को तमाम रियायतें और सुविधाएँ देने के लिए तैयार हो गया। ये वे रियायतें व सुविधाएँ थीं जिन्हें देने के लिए जर्मन पूँजीपति वर्ग युध्द के पहले के तेजी के हालात में देने के लिए कभी तैयार नहीं होता। लेकिन अब अगर वह मजदूर वर्ग से टकराव मोल लेता तो किसी क्रान्तिकारी प्रहार को झेलने की ताकत युध्द के बाद उसमें बची नहीं थी। लेनिन ने 1919 में जर्मनी में वीमर गणराज्य के अस्तित्व में आने के बाद और जर्मन पूँजी और श्रम के बीच सामाजिक जनवादियों के मार्गदर्शन में समझौता होने के बाद ही कहा था कि जर्मन बड़े पूँजीपति वर्ग ने रूसी क्रान्ति के उदाहरण से सबक लिया और मजदूर वर्ग से सीधे तौर पर उलझने की बजाय समझौता करना उपयुक्त समझा। 1919 के जून में जर्मन लीग ऑफ इण्डस्ट्रीज के अध्यक्ष मण्डल के सदस्य अब्राहम फ्राउइन का यह कथन इस बात को अच्छी तरह दिखलाता है – ”सज्जनो, रूस में घटनाओं ने ग़लत मोड़ ले लिया, और शुरुआत से ही उद्योग ने क्रान्ति को खारिज किया। अगर हम – और यह काफी आसान होता – भी असहयोग की अवस्थिति अपनाते, तो मुझे पूरा यकीन है कि आज हमारे यहाँ भी वही स्थितियाँ होतीं जोकि रूस में हैं।” एक जर्मन उद्योगपति का यह कथन जर्मन संशोधनवादियों की मजदूर वर्ग से ग़द्दारी को साफ तौर पर दिखलाता है।
श्रम और पूँजी के बीच हुए समझौते ने जर्मनी में एक अन्तरविरोध को तीखा होने से कुछ समय तक के लिए टाल दिया। लेकिन इससे वह अन्तरविरोध खत्म नहीं हुआ और न ही हो सकता था। युध्द के बाद जर्मन पूँजी को श्रम के और तेज रफ्तार से शोषण की जरूरत थी। लेकिन जर्मन पूँजीवाद को बचाने के लिए मजदूर वर्ग को कई रियायतें देना पूँजीपति वर्ग की मजबूरी थी। इसके कारण जनवाद के सबसे धुर शत्रु वर्गों को अपने कई विशेषाधिकारों का परित्याग करना पड़ा। इन वर्गों में जर्मनी का युंकर वर्ग (धनी किसान वर्ग, जो पहले सामन्ती जमींदार हुआ करता था और जिसे क्रमिक भूमि सुधारों के रास्ते पूँजीवादी भूस्वामी वर्ग में तब्दील कर दिया गया) और जर्मनी का बड़ा पूँजीपति वर्ग जिसमें प्रमुख थे घरेलू भारी उद्योग के मालिक पूँजीपति। इन वर्गों का मजदूर वर्ग के साथ अन्तरविरोध समय-समय पर सिर उठाता रहता था, लेकिन संगठित मजदूर आन्दोलन के कारण हिटलर के आने से पहले के समय तक ये वर्ग मजदूरों का नग्न दमन और शोषण शुरू नहीं कर पाये। 1924 तक इन वर्गों की तरफ से कुछ तख्तापलट की कोशिशें भी हुईं जिनका लक्ष्य मजदूर वर्ग पर बुर्जुआ वर्ग की हिंस्र तानाशाही लागू करना था। लेकिन इनके बावजूद जर्मन प्रतिक्रियावादी बड़ा पूँजीपति वर्ग सफल नहीं हो पाया। 1924 से 1929 तक का दौर जर्मन पूँजीवाद में तुलनात्मक स्थिरता का दौर था जिसमें श्रम और पूँजी के बीच का समझौता कम-से-कम ऊपरी तौर पर सुगम रूप से चला और मजदूर वर्ग ने अपनी सहूलियतों और रियायतों को कायम रखा। लेकिन 1929 में महामन्दी आयी और उसने जर्मन पूँजीपति वर्ग को भारी धक्का दिया। इस धक्के के कारण जर्मन पूँजीपति वर्ग के लिए मुनाफे की दर को सम्मानजनक स्तर पर बनाये रख पाना असम्भव हो गया और यहीं से उस राजनीतिक संकट की शुरुआत हुई, जिसने अन्तत: हिटलर के नेतृत्व में नात्सी पार्टी को 1933 में सत्ता में पहुँचा दिया। 1927 तक जर्मनी ने अपना औद्योगिक उत्पादन उसी स्तर पर पहुँचा दिया था जिस स्तर पर वह प्रथम विश्वयुध्द से पहले था और जर्मनी यूरोप की सबसे बड़ी और दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी औद्योगिक महाशक्ति बन चुका था। लेकिन अन्दर से जर्मन पूँजीवाद मजदूर आन्दोलन के साथ समझौते के दबाव के कारण अभी भी उतना ही अस्थिर था। जर्मन पूँजीपति वर्ग की साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाएँ फिर से जोर मारने लगी थीं और जर्मन पूँजीपति वर्ग के कई प्रतिनिधियों की ओर से फिर से युद्धोन्मादी और अन्धराष्ट्रवादी नारे सुनायी देने लगे थे। विश्व स्तर पर साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा में फिर से अपने वर्चस्व को स्थापित करने के लिए अब जर्मन पूँजीपति वर्ग को खुले हाथ की जरूरत थी, जिसके कारण मजदूर वर्ग से समझौते को खारिज कर देने का दबाव बढ़ता जा रहा था। यही कारण था कि जर्मन नेशनल पीपुल्स पार्टी और सेण्टर पार्टी के नेतृत्व में अन्धराष्ट्रवादी नेताओं की विजय हुई। 1928 में नात्सी पार्टी को चुनावों में काफी सफलता प्राप्त हुई। 1929 में महामन्दी की शुरुआत के बाद जर्मन पूँजीपति वर्ग के लिए मजदूरों को दी गयी सभी रियायतों को रद्द करना अस्तित्व का प्रश्न बन गया। अब वे इन रियायतों का खर्च नहीं उठा सकते थे। महामन्दी के कारण देश में बेरोजगारी और ग़रीबी तेजी से बढ़ी लेकिन मजदूर आबादी की मोलभाव करने की क्षमता इससे कम नहीं हुई क्योंकि उनका प्रतिरोध संगठित था। नतीजतन, महामन्दी का पूरा दबाव पूँजीपति वर्ग पर पड़ने लगा और उसके मुनाफे की दर में तेजी से कमी आयी। मजदूर वर्ग के खिलाफ कोई आक्रामक रवैया न अपना पाने के कारण आर्थिक संकट के दबाव को निम्न मध्यवर्ग और मध्यम वर्गों की ओर निर्देशित कर दिया गया। संकट के कारण जो वर्ग सबसे तेजी से तबाह होकर सड़कों पर आ रहा था वह था छोटे उद्योगपतियों और व्यापारियों का वर्ग। कारण यह था कि वह श्रम के शोषण की दर को बढ़ा पाने में पूरी तरह अक्षम था।
बड़े पूँजीपति वर्ग को इस समय किसी ऐसी राजनीतिक शक्ति की आवश्यकता थी जो तबाह हो रहे निम्न मध्यम वर्ग, आम शहरी मेहनतकश आबादी के एक हिस्से, मध्यम वर्गों की प्रतिक्रिया के निशाने पर संगठित मजदूर आन्दोलन को ला सके और उन्हें इस बात पर सहमत कर सके कि सारी दिक्कत की जड़ कम्युनिस्ट, ट्रेड यूनियन और संगठित मजदूर आबादी है। इस काम को नात्सी पार्टी से बेहतर कोई अंजाम नहीं दे सकता था।
इस संकट के दौर में यदि कोई क्रान्तिकारी नेतृत्व मजदूर आन्दोलन को मौजूदा व्यवस्था से बाहर ले जाने की ओर आगे बढ़ा पाता तो तस्वीर कुछ और होती, लेकिन सामाजिक जनवादियों की जकड़बन्दी में मजदूर आन्दोलन बस मिली हुई रियायतों और सहूलियतों से चिपके रहना चाहता था, उससे आगे नहीं जाना चाहता था। या यूँ कहें कि सामाजिक जनवादी नेतृत्व ने उसे पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर मिले सुधारों को ही बचाये रखने को प्रेरित किया, उससे आगे जाने को नहीं। लेकिन इन सुधारों को कायम रखने के लिए जर्मन पूँजीपति वर्ग अब तैयार नहीं था क्योंकि अब यह उसकी मजबूरी नहीं रह गया था और यह उसके लिए अब सम्भव भी नहीं रह गया था। वह हमले के लिए तैयार था। लेकिन मजदूर वर्ग वहीं का वहीं खड़ा रह गया। नतीजा यह हुआ कि आर्थिक संकट बढ़ने के साथ संगठित मजदूर वर्ग से बाहर की मजदूर आबादी, निम्न मध्यमवर्गीय आबादी और मध्यम वर्गीय आबादी के समक्ष बेरोजगारी, असुरक्षा और अनिश्चितता का संकट बढ़ता गया जिसने उस प्रतिक्रिया को जन्म दिया जिसका इस्तेमाल नात्सियों ने किया। इसी प्रतिक्रिया को उन्होंने एक नस्लवादी शक्ल भी दे दी क्योंकि इसके बिना उतने बड़े पैमाने पर प्रतिक्रियावादी गोलबन्दी सम्भव नहीं थी। नतीजतन, इस तमाम अनिश्चितता और असुरक्षा के लिए यहूदियों को जिम्मेदार ठहराया गया।
दूसरी ओर सामाजिक जनवादियों ने युंकरों और धनी किसानों के प्रभुत्व को कृषि क्षेत्र में तोड़ने वाले भूमि सुधारों के लिए भी सत्ता पर दबाव नहीं डाला। ग़ौरतलब है कि यह दबाव डालने के लिए सामाजिक जनवादियों के पास पर्याप्त ताकत थी। इसकी मिसाल तब देखने को मिली थी जब 1926 में राजकुमारों को राज्य से मिलने वाले खर्च को खत्म करने के लिए उन्होंने सफल आन्दोलन चलाया था। इसी जनवादीकरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए वे रैडिकल भूमि सुधारों के जरिये शासक वर्गों के सबसे प्रतिक्रियावादी हिस्से ईस्ट एल्बे के युंकरों के प्रभुत्व को तोड़कर शासक वर्ग की ताकत को कमजोर कर सकते थे। ऐसा इसलिए भी आसान था क्योंकि युंकरों और बड़े पूँजीपति वर्ग और बैंकों के बीच पहले से ही अन्तरविरोध मौजूद थे। लेकिन सामाजिक जनवादियों ने ऐसा नहीं किया और बस मजदूर आन्दोलन को मिली रियायतों से चिपके रहने के हिमायती बने रहे। मिली हुई सहूलियतों को कायम रखने के लिए सामाजिक जनवादी बड़े पूँजीपति वर्ग की शर्तों पर उस समझौते को कायम रखना चाहते थे। जबकि पूँजीपति वर्ग इन सहूलियतों को खत्म कर अपना हमला करने की तैयारी कर चुका था। 1926 में पॉल सिल्वरबर्ग ने एक वक्तव्य जर्मन लीग ऑफ इण्डस्ट्रीज में दिया, जो ग़ौरतलब है। उन्होंने कहा, ”सामाजिक जनवाद को वास्तविकता में लौट आना चाहिए और रैडिकल सिद्धान्तवाद छोड़कर हमेशा नुकसानदेह रही सड़क और बल की नीति को छोड़ देना चाहिए। उसे जिम्मेदार तरीके से मालिकों के साथ उनके निर्देशन में सहयोग करना चाहिए।” अब जरा इस कथन की तुलना बुद्धदेब भट्टाचार्य के उस कथन से कीजिये जो उन्होंने कुछ समय पहले ट्रेड यूनियन करने वालों की एक बैठक में दिया था। इसमें बुद्धदेब भट्टाचार्य ने कहा कि कम्युनिस्टों को बदले हालात को समझना चाहिए और मालिकों से सहयोग करना चाहिए। वर्ग संघर्ष का दौर अब बीत चुका है। आज श्रम को पूँजी के साथ विकास के लिए उसकी शर्तों पर सहयोग करना चाहिए!
1929 में जर्मन पूँजीपति वर्ग ने पहला बड़ा हमला करते हुए रेड फ्रण्ट यूनियन पर प्रतिबन्ध लगा दिया। दूसरी ओर नात्सियों के गुण्डों और हत्यारों के दस्ते छुट्टे घूम रहे थे। सामाजिक जनवादी चुप रहे। इसके बाद 1932 तक ऐसे हमले जारी रहे और सामाजिक जनवादी हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे। कारण यह था कि इसका जवाब क्रान्तिकारी रास्ते से ही दिया जा सकता था और उस रास्ते पर सर्वहारा वर्ग के ग़द्दार संशोधनवादी चल नहीं सकते थे। अपनी इस चुप्पी से सामाजिक जनवादी उस संगठित मजदूर आन्दोलन में भी अपना आधार खोते गये जो उनका गढ़ था। मजदूर आबादी का भी एक हिस्सा नात्सियों के शिविर की ओर जाने लगा। नतीजा यह हुआ कि 1932 में वॉन पेपन नामक दक्षिणपन्थी नेता के नेतृत्व में तख्तापलट हुआ और वह गठबन्धन सरकार गिर गयी जिसका प्रमुख हिस्सा सामाजिक जनवादी थे। कुछ ही समय में वीमर गणराज्य के बुर्जुआ जनवादी संविधान की ही खामियों का फायदा उठाकर एक इनेबलिंग एक्ट लाया गया और संसदीय जनतन्त्र को तानाशाही में तब्दील कर दिया गया। संसद में सामाजिक जनवादियों और बुर्जुआ उदारवादियों के खिलाफ मुख्य तौर पर दो पार्टियाँ साथ आ गयीं – नेशनल जर्मन पीपुल्स पार्टी और नात्सी पार्टी। चुनावों के पहले सामाजिक जनवादियों और उदारवादियों के खिलाफ जबरदस्त प्रचार अभियान चलाया गया। उन्हें देशद्रोही और संकट का जिम्मेदार बताया गया। 1932 के चुनावों में इन दोनों पार्टियों को मिलाकर 42 प्रतिशत वोट मिले जिसमें से 33 प्रतिशत नात्सी पार्टी के थे। 1933 में फिर से चुनाव हुए जिसमें नात्सी पार्टी को अकेले 44 प्रतिशत वोट मिले। इसके साथ ही हिटलर सत्ता में आया और जर्मनी में फ़ासीवाद को विजय हासिल हुई।
जर्मनी में फ़ासीवाद की विजय के इस संक्षिप्त इतिहास पर निगाह डालने के बाद हम कुछ नतीजों को बिन्दुवार समझ सकते हैं।
जर्मनी में फ़ासीवाद की जमीन किस रूप में मौजूद थी? जर्मनी में पूँजीवादी विकास देर से शुरू हुआ। लेकिन शुरू होने के बाद यह बेहद द्रुत गति से हुआ और बिना किसी बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति के हुआ। नतीजतन, दो परिघटनाएँ सामने आयीं। एक, पिछड़ापन तमाम क्षेत्रों और तमाम रूपों में छूट गया और आधुनिकीकरण और जनता की चेतना के जनवादीकरण के बिना ही अद्वितीय रफ्तार से पूँजीवादी विकास हुआ। इंग्लैण्ड और फ्रांस जैसे देशों में पूँजीवाद क्रान्तिकारी प्रक्रिया से आया और उसके बाद उसका एक लम्बा और गहराई से पैठा विकास हुआ जिसने सामन्ती और ग़ैर-जनवादी रुझानों को समाज के पोर-पोर से समाप्त कर दिया। दूसरी परिघटना यह थी कि इस तीव्र पूँजीवादी विकास ने जिस रफ्तार से गाँवों और शहरों में मेहनतकश जनता को उसकी जगह-जमीन से उजाड़ा, उसने भयंकर असुरक्षा और अनिश्चितता को जन्म दिया। कहने की आवश्यकता नहीं कि इस असुरक्षा और अनिश्चितता को पूँजीवादी व्यवस्था के खिलाफ एक क्रान्तिकारी ताकत में तब्दील किया जा सकता था। लेकिन सामाजिक जनवादी आन्दोलन की सर्वहारा वर्ग के साथ ग़द्दारी और जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी की असफलता के कारण ऐसा नहीं हो सका। नात्सीवाद द्रुत गति से हुए उस पूँजीवादी विकास का प्रतिक्रियावादी जवाब था जिसने करोड़ों लोगों को आर्थिक-सामाजिक और भौगोलिक रूप से विस्थापित कर दिया था।
जर्मनी में भूमि सुधार क्रान्तिकारी तरीके से नहीं हुए, जिसमें जोतने वाले को ही जमीन का मालिक बना दिया गया हो। वहाँ प्रशियाई रास्ते से भूमि सुधार हुए जिसमें सामन्ती भूस्वामियों को ही पूँजीवादी कुलकों और फार्मरों में तब्दील हो जाने दिया गया। यह वर्ग भयंकर प्रतिक्रियावादी वर्ग था। इसके अलावा अधूरे भूमि सुधारों से एक धनी काश्तकारों का वर्ग पैदा हुआ। ये वर्ग पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के साथ गहराई से जुड़े हुए थे और अन्दर से धुर जनवाद-विरोधी थे। पूँजीवादी व्यवस्था के संकट के कारण पैदा हुई प्रतिक्रिया का एक अहम हिस्सा ये वर्ग थे। ये वर्ग नात्सी पार्टी के सामाजिक आधार बने। युंकरों के विशेषाधिकारों के बचे रहने के कारण सामाजिक जनवादियों का आम किसान आबादी में कोई आधार नहीं बन पाया। यह किसान आबादी फ़ासीवादी उभार के दौर में या तो निष्क्रिय पड़ी रही या फ़ासीवादियों की समर्थक बनी। उसे भी अपनी अनिश्चितता का इलाज एक फ़ासीवादी सत्ता में नजर आ रहा था। जाहिर है, बाद में यह एक भ्रम साबित हुआ, लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी।
1919 के बाद वीमर गणराज्य की शुरुआत के साथ जो राज्य अस्तित्व में आया, वह एक कल्याणकारी राज्य था। कल्याणकारी नीतियाँ जर्मन पूँजीपति वर्ग की मजबूरी थीं, क्योंकि युध्द के बाद मजदूर आन्दोलन के साथ वह सीधा टकराव नहीं मोल ले सकता था और रूस का उदाहरण उसके सामने था। यह समझ बनाने में सामाजिक जनवादियों ने पूँजीपति वर्ग की काफी मदद की। मजदूर वर्ग को तमाम रियायतें दी गयीं। लेकिन पूँजीवादी विकास की अपनी एक गति होती है। मुनाफे की दर को बढ़ाते जाना साम्राज्यवादी दुनिया में जर्मन पूँजीपति वर्ग के लिए अस्तित्व की शर्त थी। मजदूर वर्ग को दी गयी छूटें उसके लिए जल्दी ही बोझ बन गयीं। कल्याणकारी नीतियाँ मुनाफे की दर पर एक ब्रेक के समान थीं। वित्तीय, औद्योगिक पूँजीपति वर्ग और कुलकों-युंकरों को जल्दी ही एक तानाशाह सत्ता की जरूरत महसूस होने लगी जो मजदूर वर्ग पर उनकी नग्न और क्रूर तानाशाही को लागू कर सके।
सामाजिक जनवाद ने मजदूर आन्दोलन को सुधारवाद की गलियों में ही घुमाते रहने का काम किया। उसने पूँजीवाद का कोई विकल्प नहीं दिया और साथ ही पूँजीवाद के भी पैरों में बेड़ी बन गया। उसका कुल लक्ष्य था पूँजीवादी जनवाद के भीतर रहते हुए वेतन-भत्ता बढ़वाते रहना और जो मिल गया है उससे चिपके रहना। लेकिन अगर पूँजीवादी व्यवस्था मुनाफा पैदा ही न कर पाये तो क्या होगा? इस सवाल का उनके पास कोई जवाब नहीं था। वे यथास्थिति को सदा बनाये रखने का दिवास्वप्न पाले हुए थे। जबकि पूँजीवाद की नैसर्गिक गति कभी ऐसा नहीं होने देती। पूँजीपति वर्ग को मुनाफे की दर बढ़ानी ही थी। उसका टिकाऊ स्रोत एक ही था – मजदूरों के शोषण को बढ़ाना। वह संगठित मजदूर आन्दोलन के बूते पर सामाजिक जनवादी करने नहीं दे रहे थे। अब मुनाफे की दर को बढ़ाने का काम पूँजीपति वर्ग जनवादी दायरे में रहकर नहीं कर सकता था। बड़े पूँजीपति वर्ग को एक सर्वसत्तावादी राज्य की आवश्यकता थी जो उसे वीमर गणराज्य नहीं दे सकता था, जो श्रम और पूँजी के समझौते पर टिका था। यह काम नात्सी पार्टी ही कर सकती थी।
पूँजीवादी राजसत्ता का काम होता है पूँजीवादी उत्पादन के सुचारू रूप से चलते रहने की गारण्टी करना और पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्धों की हिफाजत करना। राजसत्ता के जरिये पूँजीपति वर्ग अपने वर्ग हितों को संगठित करता है और व्यक्तिगत पूँजीवादी हितों से ऊपर उठता है। बीच-बीच में आपसी अन्तरविरोध अधिक बढ़ते हैं, अराजकता फैलती है और राजसत्ता अपने हस्तक्षेप से चीजों को फिर से सही स्थान पर पहुँचाती है। साथ ही पूँजीवादी राजसत्ता मेहनतकश जनता को एक वर्ग के रूप में संगठित नहीं होने देती और उन्हें किसी राष्ट्र, समुदाय या धर्म के सदस्य के रूप में, यानी एक नागरिक के तौर पर अस्तित्वमान रखने का प्रयास करती है। वीमर गणराज्य के दौरान जर्मनी में पूँजीवादी राजसत्ता बुर्जुआ वर्गों के हितों को संगठित कर पाने में असफल रहा। कल्याणकारी नीतियों ने पूँजीपति वर्ग की राजनीतिक और आर्थिक एकता को तोड़ दिया। संकट के दौरों में पूँजीवादी हितों और जनता के हितों के बीच तारतम्य बैठा पाना कठिन हो जाता है। वहीं जनता की राजसत्ता से उम्मीदें बढ़ जाती हैं। जबकि राजसत्ता उन्हें पूरा कर पाने में और अधिक असमर्थ हो चुकी होती है। ऐसे में बुर्जुआ वर्ग के कुछ हिस्से राजसत्ता से अपने पक्ष में तानाशाहीपूर्ण रवैया अपनाने की उम्मीद रखते हैं। ऐसा न होने पर बड़ा पूँजीपति वर्ग अधिक से अधिक प्रतिक्रियावादी और अनुदार होता जाता है। वीमर गणराज्य में यही हुआ। श्रम और पूँजी के बीच का सामाजिक जनवादी समझौता राजसत्ता को बड़े पूँजीपति वर्ग की जरूरतों के मुताबिक खुलकर काम नहीं करने दे रहा था जिससे पूँजीवादी संकट गहराता जा रहा था। इस संकट के कारण जनता का एक खासा बड़ा हिस्सा उजड़ता जा रहा था और उसमें भी असन्तोष पैदा हो रहा था। बड़े पूँजीपति वर्ग ने नात्सी पार्टी के जरिये इसी असन्तोष का लाभ उठाया और उसे प्रतिक्रिया की लहर में तब्दील कर दिया। नात्सी पार्टी ने इसके लिए यहूदी-विरोध, नस्लीय श्रेष्ठता, कम्युनिज्म-विरोध, जनवाद-विरोध जैसे सिद्धान्तों का सहारा लिया।
सामाजिक जनवादियों के जुझारू अर्थवाद और ट्रेडयूनियनवाद के कारण मजदूरी बढ़ती रही, लेकिन पूँजीवादी संकट के कारण मुनाफे की दर ठहरावग्रस्त रही। इसके कारण एक लाभ संकुचन की स्थिति पैदा हो गयी। इसके कारण जो वर्ग सबसे पहले तबाह हुआ, वह था छोटे उद्यमियों का वर्ग। यह वर्ग आगे चलकर फ़ासीवाद का सबसे तगड़ा समर्थक बना। यह बात दीगर है कि फ़ासीवाद ने उसे बाद में कुछ भी नहीं दिया और वह पूरी तरह इजारेदार पूँजीवाद की सेवा में लगा रहा। बड़ा पूँजीपति वर्ग तबाह होकर सड़क पर तो नहीं आया लेकिन अगर वह नात्सी उभार का समर्थन नहीं करता तो सड़क पर आ जाता क्योंकि उसे अपने मुनाफे में भारी कमी का सामना करना पड़ रहा था। संगठित मजदूर आन्दोलन के कारण पूँजीपति वर्ग पर जो दबाव पड़ रहा था उसका अन्दाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि 1928 में कुल राष्ट्रीय उत्पाद का 67 प्रतिशत हिस्सा मजदूरों को मजदूरी के रूप में दिया जा रहा था। संकट के दौर में बढ़ी बेरोजगारी के बावजूद पूँजीपति वर्ग की मोलभाव करने की ताकत में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई क्योंकि एक मजबूत और जुझारू मजदूर आन्दोलन मौजूद था। कुलकों और युंकरों ने अपने विशेषाधिकारों को कायम रखने और संकट के दौर से निपटने के लिए नात्सियों का समर्थन किया। लेकिन यह मजबूत मजदूर आन्दोलन सामाजिक जनवाद के नेतृत्व में पूँजीवादी सुधारवाद की अन्धी गली में ही भटकता रह गया। पूँजीपति वर्ग को आक्रामक होने की पहल तोहफे के रूप में दे दी गयी और फ़ासीवाद का प्रतिरोध्य उभार अप्रतिरोध्य बन गया।
बिगुल, जुलाई 2009
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