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एक पतझड़
मक्सिम गोर्की
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एक बार पतझड़ के मौसम में मैंने अपने को बड़ी ही बेढब और कष्टकारी परिस्थिति में फँसा हुआ पाया: उस शहर में मैं अभी पहुँचा ही था और वहाँ किसी को नहीं जानता था। मेरी जेब में एक कोपेक भी नहीं था और न ही सिर छुपाने को कोई जगह थी।
शुरू के कुछ दिनों मैंने अपने वे कपड़े बेच डाले जिनके बिना काम चलाया जा सकता था। फिर मैं वह शहर छोड़कर उस्तिए नामक जगह चला गया जहाँ जहाज़ी घाट थे और, सीज़न में, जब पानी नावों-स्टीमरों के आने-जाने लायक़ होता था तो वहाँ की रोज़मर्रे की ज़िन्दगी हलचलपूर्ण व्यस्तता से भरपूर होती थी, लेकिन अब वहाँ सन्नाटा और वीरानी का आलम था। अक्टूबर का महीना बीत रहा था।
नम बालू को पैरों की ठोकर से छितराते हुए और कुछ खाने लायक़ सामान पा लेने की उम्मीद में खोजी निगाहों से लगातार उसे निरखते-परखते हुए मैं अकेले निर्जन मकानों और ट्रेडिंग-बूथों के बीच भटक रहा था और इस बारे में सोच रहा था कि पेट का भरा होना कितनी शानदार चीज़ होती है…
सांस्कृतिक विकास की इस मंज़िल पर शारीरिक भूख बुझाने के मुक़ाबले आध्यात्मिक भूख बुझाना अधिक आसान है। आप घरों से घिरी हुई सड़कों पर भटकते रहते हैं। घर, जो बाहर से सन्तोषजनक सीमा तक सुन्दर होते हैं और भीतर से – हालाँकि यह लगभग एक अनुमान ही है – सन्तोषजनक सीमा तक आरामदेह होते हैं; ये आपके भीतर वास्तुकला, स्वास्थ्य विज्ञान और बहुतेरे दूसरे उदात्त और बुद्धिमत्तापूर्ण विषयों पर सुखद विचार पैदा कर सकते हैं; सड़कों पर आप गर्म और आरामदेह कपड़े पहने लोगों से मिलते हैं – वे विनम्र होते हैं, अक्सर किनारे हटकर आपके लिए रास्ता छोड़ देते हैं और आपके वजूद के अफ़सोसनाक़ तथ्य पर ध्यान देने से कुशलतापूर्वक इन्कार कर देते हैं। निश्चय ही, एक भूखे आदमी की आत्मा एक भरे पेट वाले की आत्मा की अपेक्षा बेहतर ढंग से और अधिक स्वास्थ्यप्रद ढंग से पोषित होती है – यह एक ऐसा विरोधाभास है जिससे, निस्सन्देह, भरे पेट वालों के पक्ष में कुछ निहायत चालाकी भरे नतीजे निकाल लेना मुमकिन है!…
…शाम ढल रही थी। बारिश हो रही थी और उत्तर से आती हवा मनमौजी अन्दाज़ में बह रही थी। वह ख़ाली बूथों और स्टालों के बीच से सीटी बजाती हुई गुज़रती थी, होटलों की बन्द खिड़कियों से टकराती थी और नदी की लहरों पर कोड़ों-सी चोट करती हुई झाग के ऊँचे सफ़ेद तरंग-श्रृंगों का निर्माण करती थी। लहरें एक के बाद एक तेज़ी से भागती हुई अँधेरे विस्तार में समा जाती थीं…ऐसा लगता था मानो नदी जाड़े के आगमन को महसूस कर रही थी और बर्फ़ के बन्धनों से आतंकित भागती जा रही थी, जो उत्तरी हवा की मदद से उसी रात भी पड़ सकती थी। आसमान भारी और अँधेरा था और उससे लगातार बारिश की इतनी बारीक बूँदे गिर रहीं थी कि आँखों से मुश्किल से ही देखा जा सकता था। दो टूटे हुए और विकराल भिंसा के पेड़ और उनकी जड़ों के पास एक उल्टी पड़ी नाव – इनसे मेरे आसपास की उदासी और कारुणिकता और अधिक बढ़ जा रही थी।
टूटे पेंदे वाली उल्टी पड़ी नाव और ठण्डी हवा द्वारा नंगे कर दिये पेड़, बूढ़े और विषादमय…मेरे इर्द-गिर्द की हर चीज़ टूटी हुई थी, बंजर थी और मृत थी और आकाश लगातार रोता जा रहा था, आँसू बहाता जा रहा था। मेरे आसपास एकदम निर्जन अँधेरा फैला था – लग रहा था जैसे सबकुछ मर रहा हो, लग रहा था जैसे जल्दी ही सिर्फ़ मैं अकेला जीवित बचा रह जाऊँगा। और ठण्डी मृत्यु मेरी भी प्रतीक्षा कर रही थी।
और उस समय मैं सत्रह साल का था – एक शानदार उम्र!
ठण्डी, नम रेत पर मैं चलता रहा, चलता रहा। मेरे दाँत कट-कट करते हुए भूख और ठण्ड के सम्मान में गिटकिरी बजा रहे थे और, अचानक, खाने लायक़ किसी चीज़ की बेसूद तलाश करते हुए जब मैं एक बूथ के पीछे घूम रहा था – मैंने औरत की पोशाक पहने एक आकृति को ज़मीन पर एकदम दोहरी लेटी हुई कुछ करते देखा। वह बारिश से एकदम सराबोर थी और कन्धे मोड़े झुकी हुई थी। उसके पीछे ठहरकर, मैंने यह देखने के लिए नीचे देखा कि वह कर क्या रही है। ऐसा जान पड़ा कि बूथ के नीचे से सुरंग बनाने के लिए वह अपने हाथों से ही बालू में एक गड्ढा खोद रही है।
“यह तुम किसलिए कर रही हो?” मैंने उसकी बग़ल में एड़ियों के बल नीचे उकड़ूँ बैठते हुए पूछा।
उसने एक घुटी हुई चीख़ निकाली और तेज़ी से उछलकर अपने पैरों पर खड़ी हो गयी। अब, जब वह खड़ी हो गयी थी और भयभीत, फटी आँखों से मुझे घूर रही थी तो मैंने देखा कि वह मेरी ही उम्र की, बहुत प्यारी-सी दीखने वाली, छोटे-से चेहरे वाली एक लड़की है। उसके चेहरे पर, दुर्भाग्य से, चोट के तीन बड़े निशान थे। यह उसके चेहरे की सुन्दरता के प्रभाव को कम कर रहा था, हालाँकि चोट के ये निशान सन्तुलन के गहरे बोध के साथ सुनिश्चित दूरियों पर अंकित थे – एक-एक दोनों आँखों के नीचे, दोनों समान आकार के, और तीसरा, कुछ बड़ा, ललाट पर, नकबाँसा के ठीक ऊपर। इस सन्तुलन में, किसी आदमी की सुन्दरता चौपट करने के काम में, एक कलाकार के कला कर्म की वास्तविक परिष्कृति देखी जा सकती थी।
लड़की मेरी ओर देखती रही और उसकी आँखों से भय का भाव धीरे-धीरे ग़ायब हो गया…फटाफट उसने हाथ से रेत झाड़ी, सिर पर बँधे सूती स्कार्फ को ठीक किया और हवा से बचने के लिए सिकुड़ते हुए बोली:
“तुम भी भूखे हो, है न? तो अब तुम खोदो थोड़ी देर। मेरे हाथ थक गये हैं। इसके भीतर रोटी है,” उसने बूथ की ओर इशारा किया, “यह स्टॉल अभी तक खुलता रहा है…”
मैंने खोदना शुरू किया। वह थोड़ी देर इन्तज़ार करती रही और कुछ समय तक मुझे देखने के बाद, बग़ल में उकड़ूँ बैठकर मेरी मदद करने लगी।
हम चुपचाप काम करते रहे। मैं बता नहीं सकता कि मैं उस समय अपराध-संहिता, नैतिकता, सम्पत्ति और ऐसी उन तमाम चीज़ों के बारे में सोच रहा था या नहीं जिन्हें, जो जानते हैं उनका कहना है कि, हमें अपनी ज़िन्दगी में हर क्षण अपने दिमाग़ में रखना चाहिए। भरसक मैं सच्चाई को यथावत बयान करना चाहता हूँ, और इसलिए, मुझे स्वीकार करना पड़ेगा कि, जहाँ तक मुझे याद है, मैं बूथ की दीवार के नीचे से सुरंग बनाने के काम में इतना तल्लीन हो गया था कि उस चीज़ के अलावा सबकुछ पूरी तरह भूल चुका था, जिसकी हमें बूथ के भीतर मिलने की उम्मीद थी…
शाम गहराती जा रही थी। हमारे इर्द-गिर्द नम, ठण्डा, निर्मम अँधेरा गाढ़ा होता जा रहा था। लहरों का शोर अब पहले से कम प्रचण्ड था लेकिन बूथ की टिन की छत पर बारिश की बूँदे ज़्यादा से ज़्यादा कोलाहल करती हुई बजने लगी थीं। दूर कहीं से चौकीदार की सीटी की आवाज़ आ रही थी।
“वहाँ कोई फ़र्श है या नहीं?” मेरी सहायक ने धीरे से पूछा। मैं समझ नहीं पाया कि वह किस चीज़ के बारे में पूछ रही है और कुछ नहीं बोला।
“मेरा मतलब है, बूथ के भीतर फ़र्श तो नहीं बना है? अगर है तो हमारी सारी मेहनत बेकार जायेगी। पूरी सुरंग खोदने के बाद हमें मोटे पटरे मिलेंगे…उन्हें कैसे तोड़ोगे? बेहतर होगा कि ताला तोड़ दिया जाये…ताला कोई मज़बूत नहीं है…” शानदार विचार औरतों के दिमाग़ में कम ही आते हैं। फिर भी, जैसा कि आप देख रहे हैं, ऐसा हुआ। अच्छे विचारों की मैं हमेशा से ही क़द्र करता रहा हूँ और यथासामर्थ्य उन पर अमल करने की अधिकतम सम्भव कोशिशें करता रहा हूँ।
ताले को खोजने के बाद मैंने उसे ज़ोर का झटका दिया और वह कड़ियों सहित हाथ में आ गया। मेरी सहयोगी झुकी और शटर के नीचे की आयताकार जगह से साँप की तरह रेंगकर बूथ के अन्दर घुस गयी।
“बहुत अच्छे!” वह शाबासी देते हुए चिल्लायी।
किसी औरत के मुँह से प्रशंसा का एक शब्द सुनना मुझे किसी पुरुष द्वारा प्रस्तुत दूरी सम्बोध-गीति से भी अधिक प्रीतिकर लगता है। चाहे भले ही वह पुरुष अपनी वक्तृता-कला में, प्राचीन काल के सभी वक्ताओं को मिला दिया जाये, और उन सबसे भी अधिक पटु क्यों न हो! लेकिन उस क्षण, इस उपहार पर मैंने बहुत ज़्यादा ध्यान नहीं दिया, और उससे संक्षेप में और डरते हुए पूछा:
“कुछ है?”
एकरस आवाज़ में भीतर से उसने अपनी खोजों को गिनाना शुरू कर दिया:
“एक टोकरी पुराने बोतल…थैले, ख़ाली…एक छाता…एक लोहे की बाल्टी।”
कुछ भी खाने लायक नहीं। मेरी उम्मीदें डूबने लगीं, लेकिन तभी, अचानक वह जोशीली आवाज़ में चिल्लायी:
“आह! मिल गया…”
“क्या?”
“रोटी…पावरोटी का पूरा पैकेट, सफ़ेद पावरोटी का…भीगा है, हालाँकि…पकड़ो!”
पावरोटियों का पैकेट मेरे पैरों के पास लुढ़का आया और ठीक पीछे से अपराध में मेरी सहयोगी बाहर निकली, विजयी मुद्रा में। तब तक पावरोटी का एक टुकड़ा मैं तोड़कर मुँह में डाल भी चुका था और चबाने लगा था…
“ये बात हुई! मुझे भी दो थोड़ा…अब हमें यहाँ से हट जाना चाहिए। कहाँ चला जाये?” अँधेरे को भेदने के लिए अपनी आँखों पर ज़ोर देते हुए उसने अपने चारों ओर देखा…भीगा हुआ, आवाज़ों से भरा हुआ अन्धकार चतुर्दिक व्याप्त था…“वहाँ, वो उल्टी नाव पड़ी है…उसके बारे में क्या ख़याल है?”
“चलो, चलें!” और हम चल पड़े। बीच-बीच में अपनी लूट के माल में से तोड़-तोड़कर हम मुँह में ठूँसते रहे और चलते रहे…बारिश तेज़ थी, नदी दहाड़ रही थी और दूर कहीं से एक लम्बी उपहासपूर्ण सीटी की आवाज़ आ रही थी जैसे कोई दीर्घकाय प्राणी, जो भय का अर्थ न जानता हो, हर चीज़ का, हर व्यक्ति का, यहाँ तक कि शरद की उस वीभत्स रात्रि का और हमारा – इस रात के दो नायकों का मज़ाक़ उड़ा रहा हो…उस सीटी की हर आवाज़ पर कोई चीज़ मेरे दिल को जैसे जकड़-सी लेती थी, लेकिन मैं लोलुपता के साथ खाता जा रहा था और वह लड़की थी, जो मेरे बायें, साथ-साथ चल रही थी।
“तुम्हारा नाम क्या है?” किसी चीज़ ने मुझे पूछने के लिए प्रेरित किया।
“नताशा!” ख़ूब तेज़-तेज़ चपर-चपर करते हुए उसने उत्तर दिया।
मैंने उसे देखा और मेरा दिल मानो दर्द से सिकुड़ने लगा। मैंने सामने अँधेरे में देखा और मुझे लगा कि मेरी नियति की कुरूप, विडम्बनापूर्ण रीति मेरे ऊपर मुस्कुरा रही है – एक रहस्यमय ठण्डी मुस्कुराहट…
…लकड़ी की नाव पर बारिश लगातार बज रही थी, उसकी दबी-घुटी-सी आवाज़ उदास विचारों को उकसा रही थी, हवा नाव की टूटी तली की चौड़ी दरार से, जिसमें पटरे का एक ढीला टुकड़ा फड़फड़ा रहा था, होकर सीटी बजाती हुई गुज़रती थी और पटरे का टुकड़ा मानो आशंकित होकर शिकायताना अन्दाज़ में चरचरा रहा था। नदी की लहरें तट पर थपेड़े मार रही थीं और एकरस, निराशा भरी आवाज़ पैदा कर रही थीं। ऐसा लग रहा था जैसे वे अवर्णनीय हद तक उबाऊ और अप्रिय किसी चीज़ के बारे में कुछ कह रही हों, किसी ऐसी चीज़ के बारे में जिससे वे विरक्ति की हद तक ऊब चुकी हों, किसी ऐसी चीज़ के बारे में जिससे वे दूर भाग जाना चाहती हों, लेकिन फिर भी उसके बारे में कुछ कहना अपरिहार्य हो। बारिश की आवाज़ लहरों के उन थपेड़ों की आवाज़ के साथ मिल गयी थी और उलटी हुई नाव के ऊपर धरती के सीने में लम्बे समय तक दबा रहने के बाद निकले दीर्घ निःश्वास की आवाज़ तैर रही थी। ऐसा लगा था मानो चमकदार, उष्ण ग्रीष्म से ठण्डे, सीलनभरे, कुहासाच्छन्न पतझड़ में परिवर्तन की चिरन्तन रीति से वह ऊबी और खीझी हुई हो। निर्जन तट पर हवा अन्धाधुन्ध झकोरे मार रही थी और उफनाती नदी, लगातार, लगातार उदास गीत गाये जा रही थी।
नाव के नीचे हमारा आवास आरामदेह नहीं था: यह तंग और सीलनभरा था और तले की छेद से बारिश की बूँदे टपक रही थीं और हवा के तेज़ झोंके हमारे ऊपर लगातार आक्रमण कर रहे थे…हम चुपचाप बैठे थे और ठण्ड से काँप रहे थे। मुझे याद है, मैं सोना चाहता था। नताशा नाव के बाज़ू से पीठ टिकाये एक छोटी-सी गेंद की तरह गुड़ी-मुड़ी होकर बैठी थी। अपने घुटनों को ठुड्डी से सटाये, वह टकटकी बाँधे नदी की ओर देख रही थी, उसकी आँखें पूरी-पूरी खुली हुईं थीं – सफ़ेद धब्बे जैसे उसके चेहरे पर वे अपने ठीक नीचे की चोटों के कारण काफ़ी बड़ी लग रही थीं। वह एकदम नहीं हिल रही थी। जड़ता और ख़ामोशी – मैंने महसूस किया – मेरे भीतर अपने साथी के बारे में एकतरह की आशंका पैदा कर रही थी…मैं उससे बातचीत करना चाह रहा था लेकिन समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे शुरू करूँ।
पहले वही बोली।
“कितनी बेहूदी ज़िन्दगी है!” उसने स्पष्ट, दो टूक शब्दों में, गहरे विश्वास के साथ, घोषणा की।
लेकिन यह शिकायत नहीं थी। इन शब्दों में जो असम्पृक्ता थी, वह शिकायत में नहीं होती। ऐसा महसूस होता था कि उसने चीज़ों के बारे में अपने ही ढंग से सोचा था। चीज़ों के बारे में उसने सोचा था और एक सुनिश्चित नतीज़े पर पहुँची थी, जिसको उसने मुखर अभिव्यक्ति दी और यदि मैं इसे ग़लत ठहराता तो यह ख़ुद से झूठ बोलना होता। इसलिए मैंने कुछ नहीं कहा। और वह, जैसे कि मेरी उपस्थिति से अनजान हो, एकदम निश्चल बैठी रही।
“लेट जाओ और मर जाओ, मैं सोचती हूँ, यह एक रास्ता हो सकता है…” नताशा फिर बोली, इस बार नरमी से और सोचने के अन्दाज़ में। और इस बार फिर उसके शब्दों में शिकायत की गन्ध नहीं थी…स्पष्ट था कि आमतौर पर ज़िन्दगी के बारे में समुचित विचार प्रकट करने के बाद, उसने अपनी ख़ुद की ज़िन्दगी का सर्वेक्षण किया था और ठण्डे ढंग से इस नतीज़े पर पहुँची थी कि ज़िन्दगी के अत्याचारों से अपने को बचाने के लिए सिवाय इसके वह और कोई भी क़दम उठाने की स्थिति में नहीं थी कि, जैसा कि उसने अभी ख़ुद कहा था, “लेट जाओ और मर जाओ।”
मैंने इस विचार की इस क़दर सुस्पष्टता पर अपने भीतर से जुगुप्सा की असह्य लहर-सी उठते हुए महसूस की और मुझे लगा कि यदि मैं जल्दी से कुछ बोलूँगा नहीं तो निश्चित ही रुलाई फूट पड़ेगी…और एक औरत के सामने मैं ऐसा चाहता नहीं था, ख़ासतौर पर तब जबकि वह ख़ुद नहीं रो रही थी। मैंने उससे बातचीत करने की कोशिश करने का प़फ़ैसला किया।
“तुम्हें पीटा किसने?”
“जाहिर है, पाश्का ने, हमेशा की तरह…” उसने शान्ति के साथ ऊँची आवाज़ में कहा।
“वह कौन है?”
“मेरा बॉय-फ्रेण्ड…एक नानबाई…”
“क्या वह तुम्हें अक्सर पीटता है?…”
“जब भी ज़्यादा पी लेता है…”
फिर, अचानक, वह सरककर मेरे पास बैठ गयी और मुझे अपने बारे में, पाश्का के बारे में तथा अपने और उसके बीच के रिश्तों के बारे में बताने लगी। वह “एक वैसी लड़की” थी, “आप समझ रहे हैं, कैसी…” और वह हल्के लाल रंग की मूँछों वाला एक नानबाई था जो एकॉडियन बहुत अच्छा बजाता था। वह “मैडम के वहाँ” उसके पास आया करता था और वह उसे बहुत पसन्द करती थी क्योंकि उसका साथ अच्छा लगता था और उसके कपड़े साफ़ होते थे। उसका कोट कम से कम पन्द्रह-रूबल का था और वह हल्की सलवटों वाले चमड़े के बूट पहनता था। इन सब कारणों से वह उसके प्रेम में पड़ गयी और वह उसका फ्ख़ास दोस्त” बन गया। जैसे ही वह उसका “ख़ास दोस्त” बन गया, उसने उससे वे पैसे लेने शुरू कर दिये जो दूसरे ग्राहक उसे मिठाई खाने के लिए देते थे और उन पैसों से वह पीने लगा और उसे पीटने लगा – और यह भी उतना बुरा नहीं होता, यदि वह उसकी ही आँखों के सामने दूसरी लड़कियों के साथ नहीं जाने लगता तो… “और यह बात भला मेरे दिल को क्यों नहीं लगती? ऐसा वह इसलिए नहीं करता था कि मैं दूसरी लड़कियों से बुरी थी…ऐसा वह सिर्फ़ मुझे जलाने के लिए करता था, सूअर! परसों मैंने मैडम से टहलने के लिए छुट्टी ली और उसके घर पहुँची और वहाँ दून्का को बैठे हुए पाया। वह नशे में थी और वह भी काफ़ी धुत्त था। मैंने उससे कहा: ‘तुम सूअर हो, असली सूअर! तुम धोखेबाज हो!’ और उसने मुझे पीट-पीटकर बेहाल कर दिया। उसने लातों से पीटा, मेरे बाल खींचे – बहुत कुछ किया…लेकिन यह भी उतना बुरा नहीं होता, यदि वह सबकुछ फाड़ नहीं डालता तो…और अब मैं क्या करूँगी? मैं मैडम को मुँह कैसे दिखाऊँगी? सबकुछ फाड़ दिया: मेरे कपड़े और जैकेट – एकदम नई थी वह…और मेरे सिर से स्कार्फ नोच लिया…हे भगवान! अब मैं क्या करूँगी?” अचानक उसकी आवाज़ टूट गयी और एक विषण्ण विलाप फूट पड़ा।
और हवा भी विलाप करती रही, ज़्यादा से ज़्यादा तेज़ और ठण्डी होती हुई…मेरे कटकटाते दाँत फिर नृत्य करने लगे। वह भी ठण्ड से एकदम सिकुड़ गयी थी और मेरे इतने नज़दीक सरक आयी थी कि मैं अँधेरे में चमकती उसकी आँखें देख सकता था।
“तुम सभी बहुत बुरे होते हो, तुम मर्द लोग। मैं तुम सबको पैरों तले रौंद-कुचल देना चाहती हूँ, एकदम! तुम लोगों की बोटी-बोटी काट देना चाहती हूँ। तुममें से कोई यदि पड़ा मरता रहे…तो मैं उसके घिनौने चेहरे पर थूक दूँगी, थूक दूँगी और उसके लिए मुझे कभी अफ़सोस नहीं होगा! निकम्मे जानवर! तुम लोग रिरियाते हो और रिरियाते हो और गन्दे कुत्तों की तरह अपनी पूँछें हिलाते हो, लेकिन जब तुम्हें तुम्हारे ऊपर रहम करने वाली कोई मूर्ख औरत मिल जाती है, तो बस, सबकुछ ख़त्म। इसके पहले कि वह कुछ समझे, तुम उसे पैरों से रौंद डालते हो, कुचल डालते हो…गन्दे भड़वे!”
उसकी गालियाँ अत्यधिक विविधतापूर्ण थीं, पर शब्दों में ताक़त नहीं थी: “गन्दे भड़वों” के प्रति जो ग़ुस्सा या असली नफ़रत होनी चाहिए, वह मैं उनमें नहीं देख पा रहा था। वास्तव में कह रही थी, उसके अनुपात में सामान्यतः उसके बोलने का लहजा बहुत शान्त था और उसकी आवाज़ में उदासीभरी एकरसता थी।
फिर भी उसकी इन बातों ने मुझे उन सर्वाधिक अर्थगर्भित और सर्वाधिक विश्वसनीय दुखपूर्ण पुस्तकों से और भाषणों से भी अधिक प्रभावित किया, जो मैंने उसके पहले, और उसके बाद भी, पढ़े और सुने थे और आज के दिन तक जो पढ़ और सुन रहा हूँ, और, आप जानते हैं, कि ऐसा इसलिए है कि मरने की यन्त्रणा हमेशा ही, मृत्यु के सर्वाधिक सटीक और कलात्मक वर्णन से भी अधिक स्वाभाविक और प्रभावशाली होती है।
मैं बहुत बुरा महसूस कर रहा था, शायद अपने सह-निवासी की बातों से उतना नहीं, जितना कि ठण्ड की वजह से। मैं धीरे से कराहा और मेरे दाँत बज उठे।
तब, लगभग ऐन उसी समय, मैंने दो ठण्डे नन्हें हाथों का स्पर्श महसूस किया – एक मेरी गरदन को छूता हुआ और दूसरा मेरे चेहरे पर आकर रुका हुआ और इसके साथ ही एक चिन्तापूर्ण, मद्धम और नरमी भरी आवाज़ में यह सवाल:
“क्या बात है? तुम्हें हुआ क्या है?”
मैं यह सोचना चाहता था कि मुझे कोई और ही सम्बोधित कर रहा है, नताशा नहीं, जो अभी-अभी ऐलान कर रही थी कि सभी मर्द सूअर होते हैं और उन सबके सत्यानाश की कामना कर रही थी। लेकिन वह पहले ही जल्दी-जल्दी और हड़बड़ाई-सी बोलने लगी थी…
“क्या बात है? ऐं? ठण्ड लग रही है? कुड़कुड़ा गये हो तुम तो! तुम भी एक ही चीज़ हो, नहीं? वहाँ बैठे हो और कुछ नहीं बोल रहे हो…उल्लू की तरह! तुम ठण्डा गये हो, यह तुम्हें पहले ही बताना चाहिए था न!…वहाँ…ज़मीन पर लेट जाओ, हाथ-पैर फैलाकर…और मैं लेटती हूँ ऊपर…हाँ, अब ठीक है! अब मुझे पकड़ लो …और कसकर…अब ठीक है, अब तुम जल्दी ही गर्मी महसूस करने लगोगे…
और उसके बाद हम दोनों चित्त लेट जायेंगे…किसी तरह से रात काटनी है…क्या गड़बड़ हो गया है तुम्हारे साथ, क्या पीने को नहीं मिला? क्या तुम्हारी नौकरी छूट गयी है?…कोई बात नहीं!”
वह मुझे दिलासा देने की कोशिश कर रही थी…मेरे भीतर एक नया दिल डालने की कोशिश कर रही थी…
क्या मुझ पर लानत भेजी जानी चाहिए? यह सबकुछ कितना विडम्बनापूर्ण था! ज़रा सोचिए, कहाँ तो ऐसी तरह-तरह की भयंकर विद्वतापूर्ण पुस्तकें, जिनकी प्रकाण्डता शायद उनके लेखकों की समझ से भी परे थी, मैं मानवता की नियति के बारे में, पूरी सामाजिक व्यवस्था को पुनर्गठित करने के सपने देखने के बारे में, राजनीति और क्रान्ति के बारे में गम्भीरतापूर्वक सोच-विचार रहा था और अपने-आप को एक “भारी-भरकम सक्रिय शक्ति” बनाने के लक्ष्य को समर्पित करने की तैयारी कर रहा था, और यहाँ, एक वेश्या के शरीर द्वारा मुझे गर्म किया जा रहा था, जो एक दयनीय, पिटी हुई, हताश इन्सान थी, जिसका ज़िन्दगी में कोई स्थान नहीं था, जिसे किसी काम का नहीं समझा जाता था और जिसके द्वारा सहारा मिलने से पहले मुझे यह सूझा तक नहीं था कि मुझे उसको सहारा देना चाहिए और यदि यह बात मेरे दिमाग़ में आती भी तो शायद मैं यह नहीं समझ पाता कि यह मैं करूँ कैसे।
ओह, मैं यह सोचना चाहता था कि मेरे साथ यह सबकुछ सपने में हो रहा है, एक बेतुका, असुखकर सपना…
लेकिन अफ़सोस! मुझे यह सोचने का अधिकार नहीं था, क्योंकि बारिश की ठण्डी बूँदे मेरे ऊपर चू रही थीं, औरत की छाती मेरे सीने को सख़्ती से दबाये हुए थी, मैं उसकी गर्म साँसों को अपने चेहरे पर महसूस कर सकता था, हालाँकि उनमें से वोदका की बू आ रही थी…फिर भी – वे इतनी जीवनदायी थीं…हवा हुहुआ रही थी और कराह रही थी, बारिश नाव पर चोटें बरसा रही थी, लहरें थपेड़े मार रही थीं और आपस में प्रगाढ़ आलिगनबद्ध होकर भी हम ठण्ड से कँपकँपा रहे थे। यह सबकुछ एकदम वास्तविक था और मुझे विश्वास है कि इस वास्तविकता जितना बुरा और दुख़पूर्ण सपना किसी ने नहीं देखा होगा।
और नताशा थी कि बात किये जा रही थी, बात किये जा रही थी, कभी किसी चीज़ के बारे में, तो कभी किसी चीज़ के बारे में, ऐसी कोमलता और सहानुभूति के साथ, जिनके साथ सिर्फ़ औरतें ही बातें कर सकती हैं। जैसे बचकानी और कोमल बातें वह कर रही थी, उनसे एक तरह की मद्धम, नन्हीं लौ मेरे भीतर जल उठी थी, जिसकी गर्मी से मेरा हृदय पिघल रहा था।
फिर मेरी आँखों से धारासार आँसू बहने लगे, मेरे हृदय की उन सभी कड़वाहटों, लालसाओं, मूर्खताओं और गन्दगी को धोते हुए, जो उस रात तक मैल की तरह उस पर जमे हुए थे…नताशा ने मुझे ख़ुश करने की कोशिशें जारी रखीं:
“सब ठीक हो जायेगा, मेरे प्यारे, रोओ मत! सब ठीक हो जायेगा। ईश्वर की कृपा से इस सबसे उबर जाओगे। तुम्हें फिर से तुम्हारी नौकरी मिल जायेगी…” और इसी तरह की ढेर सारी बातें।
और उसने मुझे चूमना जारी रखा, मुझपर उष्ण, उदार चुम्बनों की बरसात करती रही।
वे औरत के पहले चुम्बन थे, जिन्हें ज़िन्दगी ने मुझे अता फ़र्माया था और वे सर्वोष्कृष्ट थे, क्योंकि बाक़ी सभी तो मेरे लिए भयंकर रूप से महँगे साबित हुए और वस्तुतः उनसे मुझे कुछ भी हासिल नहीं हुआ।
“मत रोओ, चुप हो जाओ, बेवक़ूफ़! कल यदि तुम्हारा कोई जुगाड़ नहीं हो पायेगा, तो मैं तुम्हें कहीं न कहीं लगवा दूँगी…” मैं उसकी मद्धम, सान्त्वना भरी फुसफुसाहट मानो नींद में सुन रहा था।
…पौ फटने तक हम एक-दूसरे की बाँहों में पड़े रहे।
जब रोशनी हुई तो हम नाव के नीचे से रेंगकर निकले और शहर की ओर चल दिये…वहाँ हमने एक-दूसरे से दोस्ताना ढंग से विदा ली और फिर कभी नहीं मिलने के लिए अलग हो गये, हालाँकि छह माह तक उस प्यारी नताशा को ढूँढ़ने के लिए मैं तमाम झुग्गी-झोंपड़ियों की खाक छानता रहा, जिसके साथ मैंने, एक पतझड़ के दौरान, वह रात गुज़ारी थी जिसका मैंने अभी बयान किया है।
यदि वह मर चुकी है – तो इससे शानदार चीज़ उसके लिए भला क्या होगी – उसकी आत्मा को शान्ति मिले! और यदि वह ज़िन्दा है – तो भी उसे शान्ति नसीब हो! और उसकी अन्तरात्मा में पाप का अहसास कभी न जगे, क्योंकि उसके लिए वह अतिरिक्त रूप से दुखदायी होगा और उसकी ज़िन्दगी के तौर-तरीक़ों में कोई फ़र्क़ नहीं ला पायेगा…
(1894)
ONE AUTUMN NIGHT
Maxim Gorky
ONCE in the autumn I happened to be in a very unpleasant and inconvenient position. In the town where I had just arrived and where I knew not a soul, I found myself without a farthing in my pocket and without a night’s lodging.
Having sold during the first few days every part of my costume without which it was still possible to go about, I passed from the town into the quarter called “Yste,” where were the steamship wharves—a quarter which during the navigation season fermented with boisterous, laborious life, but now was silent and deserted, for we were in the last days of October.
Dragging my feet along the moist sand, and obstinately scrutinising it with the desire to discover in it any sort of fragment of food, I wandered alone among the deserted buildings and warehouses, and thought how good it would be to get a full meal.
In our present state of culture hunger of the mind is more quickly satisfied than hunger of the body. You wander about the streets, you are surrounded by buildings not bad-looking from the outside and—you may safely say it—not so badly furnished inside, and the sight of them may excite within you stimulating ideas about architecture, hygiene, and many other wise and high-flying subjects. You may meet warmly and neatly dressed folks—all very polite, and turning away from you tactfully, not wishing offensively to notice the lamentable fact of your existence. Well, well, the mind of a hungry man is always better nourished and healthier than the mind of the well-fed man; and there you have a situation from which you may draw a very ingenious conclusion in favour of the ill fed.
The evening was approaching, the rain was falling, and the wind blew violently from the north. It whistled in the empty booths and shops, blew into the plastered window-panes of the taverns, and whipped into foam the wavelets of the river which splashed noisily on the sandy shore, casting high their white crests, racing one after another into the dim distance, and leaping impetuously over one another’s shoulders. It seemed as if the river felt the proximity of winter, and was running at random away from the fetters of ice which the north wind might well have flung upon her that very night. The sky was heavy and dark; down from it swept incessantly scarcely visible drops of rain, and the melancholy elegy in nature all around me was emphasised by a couple of battered and misshapen willow-trees and a boat, bottom upwards, that was fastened to their roots.
The overturned canoe with its battered keel and the miserable old trees rifled by the cold wind—everything around me was bankrupt, barren, and dead, and the sky flowed with undryable tears. . . . Everything around was waste and gloomy . . . it seemed as if everything were dead, leaving me alone among the living, and for me also a cold death waited.
I was then eighteen years old—a good time!
I walked and walked along the cold wet sand, making my chattering teeth warble in honour of cold and hunger, when suddenly, as I was carefully searching for something to eat behind one of the empty crates, I perceived behind it, crouching on the ground, a figure in woman’s clothes dank with the rain and clinging fast to her stooping shoulders. Standing over her, I watched to see what she was doing. It appeared that she was digging a trench in the sand with her hands—digging away under one of the crates.
“Why are you doing that?” I asked, crouching down on my heels quite close to her.
She gave a little scream and was quickly on her legs again. Now that she stood there staring at me, with her wide-open grey eyes full of terror, I perceived that it was a girl of my own age, with a very pleasant face embellished unfortunately by three large blue marks. This spoilt her, although these blue marks had been distributed with a remarkable sense of proportion, one at a time, and all were of equal size—two under the eyes, and one a little bigger on the forehead just over the bridge of the nose. This symmetry was evidently the work of an artist well inured to the business of spoiling the human physiognomy.
The girl looked at me, and the terror in her eyes gradually died out. . . . She shook the sand from her hands, adjusted her cotton head-gear, cowered down, and said:
“I suppose you too want something to eat? Dig away then! My hands are tired. Over there”—she nodded her head in the direction of a booth—”there is bread for certain . . . and sausages too. . . . That booth is still carrying on business.”
I began to dig. She, after waiting a little and looking at me, sat down beside me and began to help me.
We worked in silence. I cannot say now whether I thought at that moment of the criminal code, of morality, of proprietorship, and all the other things about which, in the opinion of many experienced persons, one ought to think every moment of one’s life. Wishing to keep as close to the truth as possible, I must confess that apparently I was so deeply engaged in digging under the crate that I completely forgot about everything else except this one thing: What could be inside that crate?
The evening drew on. The grey, mouldy, cold fog grew thicker and thicker around us. The waves roared with a hollower sound than before, and the rain pattered down on the boards of that crate more loudly and more frequently. Somewhere or other the night-watchman began springing his rattle.
“Has it got a bottom or not?” softly inquired my assistant. I did not understand what she was talking about, and I kept silence.
“I say, has the crate got a bottom? If it has we shall try in vain to break into it. Here we are digging a trench, and we may, after all, come upon nothing but solid boards. How shall we take them off? Better smash the lock; it is a wretched lock.”
Good ideas rarely visit the heads of women, but, as you see, they do visit them sometimes. I have always valued good ideas, and have always tried to utilise them as far as possible.
Having found the lock, I tugged at it and wrenched off the whole thing. My accomplice immediately stooped down and wriggled like a serpent into the gaping-open, four cornered cover of the crate whence she called to me approvingly, in a low tone:
“You’re a brick!”
Nowadays a little crumb of praise from a woman is dearer to me than a whole dithyramb from a man, even though he be more eloquent than all the ancient and modern orators put together. Then, however, I was less amiably disposed than I am now, and, paying no attention to the compliment of my comrade, I asked her curtly and anxiously:
“Is there anything?”
In a monotonous tone she set about calculating our discoveries.
“A basketful of bottles—thick furs—a sunshade—an iron pail.”
All this was uneatable. I felt that my hopes had vanished. . . . But suddenly she exclaimed vivaciously:
“Aha! here it is!”
“What?”
“Bread . . . a loaf . . . it’s only wet . . . take it!”
A loaf flew to my feet and after it herself, my valiant comrade. I had already bitten off a morsel, stuffed it in my mouth, and was chewing it. . . .
“Come, give me some too! . . . And we mustn’t stay here. . . . Where shall we go?” she looked inquiringly about on all sides. . . . It was dark, wet, and boisterous.
“Look! there’s an upset canoe yonder . . . let us go there.”
“Let us go then!” And off we set, demolishing out booty as we went, and filling our mouths with large portions of it. . . . The rain grew more violent, the river roared; from somewhere or other resounded a prolonged mocking whistle—just as if Someone great who feared nobody was whistling down all earthly institutions and along with them this horrid autumnal wind and us its heroes. This whistling made my heart throb painfully, in spite of which I greedily went on eating, and in this respect the girl, walking on my left hand, kept even pace with me.
“What do they call you?” I asked her—why I know not.
“Natasha,” she answered shortly, munching loudly.
I stared at her. My heart ached within me; and then I stared into the mist before me, and it seemed to me as if the inimical countenance of my Destiny was smiling at me enigmatically and coldly.
- ••••••
The rain scourged the timbers of the skiff incessantly, and its soft patter induced melancholy thoughts, and the wind whistled as it flew down into the boat’s battered bottom through a rift, where some loose splinters of wood were rattling together—a disquieting and depressing sound. The waves of the river were splashing on the shore, and sounded so monotonous and hopeless, just as if they were telling something unbearably dull and heavy, which was boring them into utter disgust, something from which they wanted to run away and yet were obliged to talk about all the same. The sound of the rain blended with their splashing, and a long-drawn sigh seemed to be floating above the overturned skiff—the endless, labouring sigh of the earth, injured and exhausted by the eternal changes from the bright and warm summer to the cold misty and damp autumn. The wind blew continually over the desolate shore and the foaming river—blew and sang its melancholy songs. . . .
Our position beneath the shelter of the skiff was utterly devoid of comfort; it was narrow and damp, tiny cold drops of rain dribbled through the damaged bottom; gusts of wind penetrated it. We sat in silence and shivered with cold. I remembered that I wanted to go to sleep. Natasha leaned her back against the hull of the boat and curled herself up into a tiny ball. Embracing her knees with her hands, and resting her chin upon them, she stared doggedly at the river with wide-open eyes; on the pale patch of her face they seemed immense, because of the blue marks below them. She never moved, and this immobility and silence—I felt it—gradually produced within me a terror of my neighbour. I wanted to talk to her, but I knew not how to begin.
It was she herself, who spoke.
“What a cursed thing life is!” she exclaimed plainly abstractedly, and in a tone of deep conviction.
But this was no complaint. In these words there was too much of indifference for a complaint. This simple soul thought according to her understanding—thought and proceeded to form a certain conclusion which she expressed aloud, and which I could not confute for fear of contradicting myself. Therefore I was silent, and she, as if she had not noticed me, continued to sit there immovable.
“Even if we croaked . . . what then . . .?” Natasha began again, this time quietly and reflectively, and still, there was not one note of complaint in her words. It was plain that this person, in the course of her reflections on life, was regarding her own case, and had arrived at the conviction that in order to preserve herself from the mockeries of life, she was not in a position to do anything else but simply “croak”—to use her own expression.
The clearness of this line of thought was inexpressibly sad and painful to me, and I felt that if I kept silence any longer I was really bound to weep. . . . And it would have been shameful to have done this before a woman, especially as she was not weeping herself. I resolved to speak to her.
“Who was it that knocked you about?” I asked. For the moment I could not think of anything more sensible or more delicate.
“Pashka did it all,” she answered in a dull and level tone.
“And who is he?”
“My lover. . . . He was a baker.”
“Did he beat you often?”
“Whenever he was drunk he beat me. . . . Often!”
And suddenly, turning towards me, she began to talk about herself, Pashka, and their mutual relations. He was a baker with red moustaches and played very well on the banjo. He came to see her and greatly pleased her, for he was a merry chap and wore nice clean clothes. He had a vest which cost fifteen rubles and boots with dress tops. For these reasons she had fallen in love with him, and he became her “creditor.” And when he became her creditor he made it his business to take away from her the money which her other friends gave to her for bonbons, and, getting drunk on this money, he would fall to beating her; but that would have been nothing if he hadn’t also begun to “run after” other girls before her very eyes.
“Now, wasn’t that an insult? I am not worse than the others. Of course that meant that he was laughing at me, the blackguard. The day before yesterday I asked leave of my mistress to go out for a bit, went to him, and there I found Dimka sitting beside him drunk. And he, too, was half seas over. I said, ‘You scoundrel, you!’ And he gave me a thorough hiding. He kicked me and dragged me by the hair. But that was nothing to what came after. He spoiled everything I had on—left me just as I am now! How could I appear before my mistress? He spoiled everything . . . my dress and my jacket too—it was quite a new one; I gave a fiver for it . . . and tore my kerchief from my head. . . . Oh, Lord! What will become of me now?” she suddenly whined in a lamentable overstrained voice.
The wind howled, and became ever colder and more boisterous. . . . Again my teeth began to dance up and down, and she, huddled up to avoid the cold, pressed as closely to me as she could, so that I could see the gleam of her eyes through the darkness.
“What wretches all you men are! I’d burn you all in an oven; I’d cut you in pieces. If any one of you was dying I’d spit in his mouth, and not pity him a bit. Mean skunks! You wheedle and wheedle, you wag your tails like cringing dogs, and we fools give ourselves up to you, and it’s all up with us! Immediately you trample us underfoot. . . . Miserable loafers!”
She cursed us up and down, but there was no vigour, no malice, no hatred of these “miserable loafers” in her cursing that I could hear. The tone of her language by no means corresponded with its subject-matter, for it was calm enough, and the gamut of her voice was terribly poor.
Yet all this made a stronger impression on me than the most eloquent and convincing pessimistic books and speeches, of which I had read a good many and which I still read to this day. And this, you see, was because the agony of a dying person is much more natural and violent than the most minute and picturesque descriptions of death.
I felt really wretched—more from cold than from the words of my neighbour. I groaned softly and ground my teeth.
Almost at the same moment I felt two little arms about me—one of them touched my neck and the other lay upon my face—and at the same time an anxious, gentle, friendly voice uttered the question:
“What ails you?”
I was ready to believe that some one else was asking me this and not Natasha, who had just declared that all men were scoundrels, and expressed a wish for their destruction. But she it was, and now she began speaking quickly, hurriedly.
“What ails you, eh? Are you cold? Are you frozen? Ah, what a one you are, sitting there so silent like a little owl! Why, you should have told me long ago that you were cold. Come . . . lie on the ground . . . stretch yourself out and I will lie . . . there! How’s that? Now put your arms round me? . . . tighter! How’s that? You shall be warm very soon now. . . . And then we’ll lie back to back. . . . The night will pass so quickly, see if it won’t. I say . . . have you too been drinking? . . . Turned out of your place, eh? . . . It doesn’t matter.”
And she comforted me. . . . She encouraged me.
May I be thrice accursed! What a world of irony was in this single fact for me! Just imagine! Here was I, seriously occupied at this very time with the destiny of humanity, thinking of the re-organisation of the social system, of political revolutions, reading all sorts of devilishly-wise books whose abysmal profundity was certainly unfathomable by their very authors—at this very time. I say, I was trying with all my might to make of myself “a potent active social force.” It even seemed to me that I had partially accomplished my object; anyhow, at this time, in my ideas about myself, I had got so far as to recognise that I had an exclusive right to exist, that I had the necessary greatness to deserve to live my life, and that I was fully competent to play a great historical part therein. And a woman was now warming me with her body, a wretched, battered, hunted creature, who had no place and no value in life, and whom I had never thought of helping till she helped me herself, and whom I really would not have known how to help in any way even if the thought of it had occurred to me.
Ah! I was ready to think that all this was happening to me in a dream—in a disagreeable, an oppressive dream.
But, ugh! it was impossible for me to think that, for cold drops of rain were dripping down upon me, the woman was pressing close to me, her warm breath was fanning my face, and—despite a slight odor of vodka—it did me good. The wind howled and raged, the rain smote upon the skiff, the waves splashed, and both of us, embracing each other convulsively, nevertheless shivered with cold. All this was only too real, and I am certain that nobody ever dreamed such an oppressive and horrid dream as that reality.
But Natasha was talking all the time of something or other, talking kindly and sympathetically, as only women can talk. Beneath the influence of her voice and kindly words a little fire began to burn up within me, and something inside my heart thawed in consequence.
Then tears poured from my eyes like a hailstorm, washing away from my heart much that was evil, much that was stupid, much sorrow and dirt which had fastened upon it before that night. Natasha comforted me.
“Come, come, that will do, little one! Don’t take on! That’ll do! God will give you another chance . . . you will right yourself and stand in your proper place again . . . and it will be all right. . . .”
And she kept kissing me . . . many kisses did she give me . . . burning kisses . . . and all for nothing. . . .
Those were the first kisses from a woman that had ever been bestowed upon me, and they were the best kisses too, for all the subsequent kisses cost me frightfully dear, and really gave me nothing at all in exchange.
“Come, don’t take on so, funny one! I’ll manage for you to-morrow if you cannot find a place.” Her quiet persuasive whispering sounded in my ears as if it came through a dream. . . .
There we lay till dawn. . . .
And when the dawn came, we crept from behind the skiff and went into the town. . . . Then we took friendly leave of each other and never met again, although for half a year I searched in every hole and corner for that kind Natasha, with whom I spent the autumn night just described.
If she be already dead—and well for her if it were so—may she rest in peace! And if she be alive . . . still I say “Peace to her soul!” And may the consciousness of her fall never enter her soul . . . for that would be a superfluous and fruitless suffering if life is to be lived. . . .
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