जब एक हारी हुई लड़ाई ने जगाई मजदूरों में उम्मीद और हौसले की लौ…

बिगुल संवाददाता

दिल्ली के उत्तर-पश्चिम जिले के इलाके शाहाबाद डेयरी में एक छोटी-सी फैक्ट्री ‘पायल एम्ब्रायडरी’ के 14 मजदूरों ने पिछले दिनों अपने हक के लिए एक सप्ताह तक बेहद जुझारू आन्दोलन चलाया। इन मजदूरों को 2 अक्टूबर को अचानक फैक्टरी से निकाल दिया गया था और फैक्टरी मालिक इनका कोई भी कानूनी हक देने के लिए तैयार नहीं था। मजदूर 5 अक्टूबर से 10 अक्टूबर तक सुबह साढ़े सात से रात साढ़े आठ बजे तक रोज फैक्टरी गेट पर धरने पर बैठते रहे। उन्होंने पुलिस से लेकर श्रम विभाग के अधिकारियों तक अपनी बात पहुँचायी, लेकिन आखिरकार उन्हें हारकर अपने जायज हक से बहुत कम पर समझौता करना पड़ा।

इस छोटे से संघर्ष ने ही यह दिखा दिया कि हमारे देश में लोकतन्त्र की असलियत क्या है! मजदूरों को उनके हक से वंचित करने के लिए मिल मालिक ने साम-दाम-दण्ड-भेद की हर चाल चली। पहले ही दिन जब 4 अक्टूबर की शाम को मजदूर आन्दोलन की नोटिस देने के लिए शाहाबाद डेयरी थाने में गये तो मालिक के इशारे पर वहाँ पहले से तैयार पुलिस वालों ने उन पर हमला किया और सभी मजदूरों तथा साथ गये ‘बिगुल मजदूर दस्ता’ के दो साथियों को बुरी तरह पीटा। लेकिन जब मजदूर अपनी बात पर अड़े रहे तो आखिरकार पुलिस को नोटिस स्वीकार करना पड़ा। इसके बाद भी लगभग हर दिन धरना स्थल पर पुलिस के लोग आकर मजदूरों को डराने-धमकाने की कोशिश करते थे, लेकिन मजदूरों की एकजुटता के आगे उनकी एक न चली। मजदूरों ने 5 अक्टूबर को धरने पर बैठने से पहले ही डी.एल.सी. कार्यालय में ज्ञापन देकर सारी स्थिति से उन्हें अवगत करा दिया था लेकिन श्रम विभाग के अधिकारी केवल काग़जी कार्रवाई ही करते रहे। 8 अक्टूबर को उपश्रमायुक्त (डीएलसी) के कार्यालय में मालिक के साथ वार्ता रखी गयी थी, लेकिन मालिक ने चिट्ठी भिजवा दी कि ये मजदूर उसके कर्मचारी ही नहीं हैं, जबकि ये मजदूर 3 से 6 साल तक से उस मालिक के लिए काम रहे हैं। इन मजदूरों की कमरतोड़ मेहनत के दम पर मालिक ने करोड़ों का मुनाफा बटोरा है, लेकिन मजदूरों को उनका थोड़ा-सा जायज हक देने से बचने के लिए उसने एक मिनट में उन्हें दूध से मक्खी की तरह निकालकर फेंक दिया।

शाहाबाद और बादली सहित दिल्ली के तमाम औद्योगिक क्षेत्रों के मजदूरों के लिए यह कोई नयी बात नहीं है। ज्यादातर कारखानों में न तो मजदूरों को जॉबकार्ड मिलता है, न ही वेतन या ईएसआई की पर्ची मिलती है। उनके पास कारखाने में काम करने का कोई सबूत ही नहीं होता। ऐसे में अन्धा कानून उन्हें मजदूर मानने से ही इन्कार कर देता है। फिर भी मजदूरों ने अपने जुझारू तेवरों से मालिक को बौखला दिया था। डीएलसी कार्यालय को भी कार्रवाई के लिए मजबूर होना पड़ा।

निकाले गये मजदूरों सहित फैक्टरी के कुल 30 मजदूरों ने फैक्टरी में श्रम कानूनों के उल्लंघन के लिए जनरल चेकिंग का आवेदन दिया था जिस पर डीएलसी की ओर से चेकिंग होने वाली थी। इस चेकिंग में डीएलसी की ओर से इंस्पेक्टरों की टीम छापा मारकर जाँच करती है कि कारखाने में श्रम कानूनों का पालन किया जा रहा है या नहीं। लेकिन इस बीच घबराये हुए मालिक ने मजदूरों को बहकाने-फुसलाने और लालच देकर तोड़ने के लिए अपने मैनेजर, चमचों और कुछ दलाल नेताओं के जरिये पूरा जोर लगा दिया। 10 अक्टूबर को जब मजदूर भूख हड़ताल शुरू करने की तैयारी कर रहे थे, उसी दिन मालिक आखिरकार दो मजदूरों को फोड़ लेने में कामयाब हो गया। इसका असर अन्य मजदूरों पर भी पड़ा और उन्हें डेढ़-डेढ़ महीने की तनख्वाह और एक महीने से कुछ कम के बोनस पर समझौता करना पड़ा। जबकि उसे एक महीने के काम के पूरे भुगतान के अलावा कम से कम तीन महीने की तनख्वाह और एक महीने की तनख्वाह के बराबर सालभर का बोनस देना था।

मजदूरों को पैसेवालों की ताकत के आगे फिलहाल हार का सामना करना पड़ा है, लेकिन 6 दिन की इस छोटी-सी लड़ाई ने उन्हें कई जरूरी सबक दिये हैं। पहला सबक यह है कि मजदूर अगर एकजुट रहें, दलालों और भ्रष्ट नेताओं के बहकावे में न आयें, और गुण्डों या पुलिस की धमकियों से डरें नहीं, तो उन्हें कोई झुका नहीं सकता। दूसरा सबक यह कि तमाम लुटेरे मालिक फौरन मजदूरों के खिलाफ एकजुट हो जाते हैं जबकि अपने लड़ रहे मजदूर साथियों के साथ खड़ा होने के लिए दूसरे मजदूर सामने नहीं आते। इस स्थिति को बदलना होगा। आज मजदूरों के बीच आतंक और असुरक्षा फैली हुई है, उन्हें कोई जुझारू और भरोसेमन्द नेतृत्व दिखायी नहीं पड़ता, इसलिए भी वे आगे आने से डरते हैं। लेकिन इन 6 दिनों में ही मुट्ठीभर मजदूरों ने बिगुल मजदूर दस्ता के साथियों के साथ मिलकर ंजिस बहादुरी से संघर्ष किया उसने आसपास के मजदूरों का हौसला बढ़ाने का काम किया है। आन्दोलन के दौरान फैक्टरी के भीतर काम कर रहे मजदूर न सिर्फ मजदूरों के समर्थन में जमकर नारे लगाते थे, बल्कि सुबह-शाम धरना-स्थल पर आकर सभाओं में भी शामिल होते थे। उनके दिल से मालिक का खौफ अब निकल चुका है और यह तय है कि अब किसी मजदूर का हक मारने से पहले मालिक भजनलाल गाबरा सौ बार सोचेगा। इस हार के बावजूद पायल एम्ब्रोयडरी के मजदूर साथी जोश से भरे हुए हैं और सबने यह संकल्प लिया है कि आगे जहाँ भी काम करेंगे मजदूरों के हक के लिए संघर्ष करते रहेंगे। यह मजदूरों की बहुत बड़ी जीत है।

बिगुल, अक्‍टूबर 2009


 

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