विश्वव्यापी खाद्य संकट की “खामोश सुनामी” जारी है…
मगर वित्तीय महामन्दी के शोर में इस पर किसी का ध्यान नहीं
सत्यप्रकाश
पिछले दो वर्षों के दौरान दुनिया भर में खाद्य संकट से प्रभावित करोड़ों ग़रीब लोगों का पेट भरने के लिए सरकारों के पास पैसे नहीं थे पर आज वित्तीय क्षेत्र के मुनाफ़ाख़ोर दैत्यों को बचाने के लिए अरबों डॉलर बहाये जा रहे हैं…
आर्थिक महामन्दी के हो-हल्ले, बैंकों को ढहने और दैत्याकार वित्तीय कम्पनियों को धराशायी होने से बचाने के लिए दिये जा रहे ‘बेलआउट पैकेजों’ और रियायतों के ब्यौरों, गिरते शेयर बाज़ार की खबरों ने दुनियाभर में अब भी जारी भीषण खाद्य संकट को मानो आँख से ओझल कर दिया है। लेकिन यह “ख़ामोश सुनामी” लगातार जारी है और करोड़ों ग़रीबों को धीमी मौत की ओर धकेल रही है।
अभी पिछले साल के मध्य तक सरकारों से लेकर मीडिया तक, अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओं से लेकर गली के एनजीओ तक सभी शोर मचा रहे थे कि अब तक का सबसे अभूतपूर्व, भीषण खाद्य संकट दुनिया भर में फैल रहा है। उनके मुताबिक यह समस्या माँग और आपूर्ति के असन्तुलन से पैदा हुई है और अगर जल्दी इसका कोई समाधान नहीं निकला तो करोड़ों लोग भुखमरी के शिकार हो जायेंगे और तीसरी दुनिया के देशों में खाने के लिए दंगे भड़क उठेंगे। लेकिन अब अचानक इस भीषण समस्या की चर्चा ही बन्द हो गयी है। न मीडिया में इसकी खबरें आती हैं और न सरकारी योजनाओं में इससे निपटने के लिए कोई उपाय किये जा रहे हैं। क्या वाकई यह कोई समस्या ही नहीं थी या इस समस्या का समाधान हो गया? जी नहीं, सच तो यह है कि विश्वव्यापी खाद्य संकट अब भी बना हुआ है और आने वाले समय में बद से बदतर ही होता जायेगा।
दुनिया के पैमाने पर खाने-पीने की चीज़ों और पेट्रोल की क़ीमतें पिछले दो साल से बढ़ रही थीं और 2008 के शुरुआती कुछ महीनों में तो वे आसमान छूने लगीं। लेकिन पिछले साल के मध्य से ही अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में तेल और खाद्य दोनों की क़ीमतें गिरने लगीं और अब तो वे एक साल पहले के स्तर से भी नीचे पहुँच गयी हैं। इसलिए बहुतेरे विश्लेषकों ने मान लिया कि खाद्यान्न संकट अब बीत गया है।
जब खाद्य वस्तुओं की कीमतें बढ़ रही थीं तो कहा जा रहा था कि माँग बढ़ने के कारण ऐसा हुआ है। अमेरिकी राष्ट्रपति बुश ने तो कह दिया कि चीन और भारत में लोगों की आमदनी बढ़ने के कारण माँग बढ़ गयी है। वित्तमन्त्री चिदम्बरम ने भी इसमें सुर मिलाते हुए फ़र्माया कि देश में खुशहाली बढ़ने से लोग अब ज्यादा खा-पी रहे हैं इसलिए दाम बढ़ रहे हैं। यह कितना बेहूदा तर्क था इसे इस बात से समझा जा सकता है कि चीन और भारत दोनों में ही प्रति व्यक्ति खाद्य की खपत में कमी आयी है। दोनों देशों में आबादी का एक छोटा-सा ऊपरी तबका बेहिसाब खा और बर्बाद कर रहा है लेकिन भारी ग़रीब आबादी मुश्किल से पेट भर पा रही है। भारत में 84 करोड़ लोग सिर्फ 20 रुपये रोज़ पर गुज़ारा करते हुए मुश्किल से जीने लायक खा पाते हैं। बहरहाल, माँग और आपूर्ति में कोई विशेष कमी-बेशी न होने पर भी खाद्य क़ीमतों में आयी गिरावट यह साफ़ कर देती है कि दामों में हुई भारी बढ़ोत्तरी मुनाफ़ाखोरी और सट्टेबाजी का ही नतीजा थी।
सबसे बड़ी बात यह है, जिस पर अब किसी का ध्यान नहीं है, कि अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार की क़ीमतों में गिरावट के बावजूद खाद्य संकट बना हुआ है। अब इस समस्या की वजह अनाज की कमी नहीं है – बाज़ार में खाने-पीने का हर सामान मौजूद है लेकिन उसे खरीदने के लिए ग़रीबों के पास पैसे नहीं हैं। एशिया, अफ्रीका और लातिन अमेरिका के ज़्यादातर देशों के ग़रीब लोगों के लिए यह समस्या और भी गम्भीर होने वाली है।
दुनिया के पैमाने पर आज खेती संकट में है। पूँजीवाद में उद्योग के मुकाबले खेती का पिछड़ना तो लाज़िमी ही होता है लेकिन भूमण्डलीकरण के दौर की नीतियों ने इस समस्या को और गम्भीर बना दिया है। अमीर देशों की सरकारें अपने फार्मरों को भारी सब्सिडी देकर खेती को मुनाफ़े का सौदा बनाये हुए हैं। लेकिन तीसरी दुनिया के देशों में सरकारी उपेक्षा और पूँजी की मार ने छोटे और मझोले किसानों की कमर तोड़ दी है। साम्राज्यवादी देशों की एग्रीबिजनेस कम्पनियों और देशी उद्योगपतियों की मुनाफ़ोखोरी से खेती की लागतें लगातार बढ़ रही हैं और बहुत बड़ी किसान आबादी के लिए खेती करके जी पाना मुश्किल होता जा रहा है। इसका सीधा असर उन देशों में खाद्यान्न उत्पादन पर पड़ रहा है।
दूसरे, वैश्विक पैमाने पर खेती का कारोबार चन्द दैत्याकार कम्पनियों के कब्जे में आ चुका है जो खाद-बीज-कीटनाशक और मशीनों जैसे खेती के साधनों से लेकर फसलों के व्यापार तक को नियन्त्रित करती हैं। यही कम्पनियाँ इथेनॉल के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए सरकारी सब्सिडी का भी फ़ायदा उठा रही हैं। इसका नतीजा यह हो रहा है कि खाद्यान्न की खेती के लिए तय जमीनों का इस्तेमाल अमीरों की कारें दौड़ाने के लिए इथेनॉल के उत्पादन में किया जा रहा है। इन कम्पनियों के एकाधिकार का ही नतीजा है कि पिछले चार-पाँच महीनों में विश्व बाज़ार में खाद्य कीमतों में गिरावट के बावजूद तीसरी दुनिया के ज्यादातर देशों में खुदरा कीमतों में कुछ खास कमी नहीं आयी है। हिन्दुस्तान में भी सरकारी आँकड़ों के मुताबिक तो महँगाई लगातार कम हो रही है लेकिन रोज़-रोज़ कमाकर खाने का जुगाड़ करने वाला हर ग़रीब, मेहनतकश इन्सान जानता है कि इन आँकड़ों की सच्चाई क्या है।
सबसे बड़ा कारण यह है कि मेहनतकश जनता की मज़दूरी में लगातार आ रही गिरावट के कारण उसकी खरीदने की शक्ति कम होती जा रही है। देश की अर्थव्यवस्था जब चमक रही थी और कुलाँचे मारते हुए आगे बढ़ रही थी तब भी आम मेहनतकश आबादी की वास्तविक आमदनी में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई थी। दिहाड़ी पर काम करने वाली 40 करोड़ आबादी आज से 10 साल पहले जितना कमाती थी आज भी बमुश्किल उतना ही कमा पाती है जबकि कीमतें दोगुनी-तीन गुनी हो चुकी हैं। भारी अर्द्धसर्वहारा आबादी और निम्नमध्यवर्गीय आबादी को भी पेट भरने के लिए अपनी ज़रूरतों में कटौती करनी पड़ रही है। अब मन्दी के दौर में उनकी हालत और भी खराब होने वाली है।
आने वाले समय में ये तमाम स्थितियाँ बद से बदतर होती जायेंगी। पूँजीवाद जिस गम्भीर ढाँचागत संकट का शिकार है, उसके चलते खेती को संकट से उबारने के लिए निवेश कर पाने की सरकारों की क्षमता कम होती जायेगी। ग़रीबों को सस्ता अनाज उपलब्ध कराने की योजनाओं में तो पहले से ही कटौती की जा रही थी, अब मन्दी के दौर में इन पर कौन ध्यान देगा? जो सरकारें ग़रीबों को सस्ती शिक्षा, इलाज, भोजन मुहैया कराने के लिए सब्सिडी में लगातार कटौती कर रही थीं, वे ही अब बेशर्मी के साथ जनता की गाढ़ी कमाई के हज़ारों करोड़ रुपये पूँजीपतियों को घाटे से बचाने के लिए बहा रही हैं। मन्दी का रोना रोकर अरबों रुपये की सरकारी सहायता बटोर रहे धनपतियों की अय्याशियों, जगमगाती पार्टियों और फिजूलखर्चियों में कोई कमी नहीं आने वाली, लेकिन ग़रीब की थाली से रोटियाँ भी कम होती जायेंगी, सब्ज़ी और दाल तो अब कभी-कभी ही दिखती हैं।
जर्मन कवि बेर्टोल्ट ब्रेष्ट के शब्द याद आते हैं –
गर थाली आपकी खाली है
तो सोचना होगा
कि खाना कैसे खाओगे
ये आप पर है कि
पलट दो सरकार को उल्टा
जब तक कि खाली पेट नहीं भरता…
बिगुल, जनवरी 2009
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