अमेरिकी साम्राज्यवाद का कर्ज़ संकट
विश्व पूँजीवाद के गहराते संकट की अभिव्यक्ति

सुखविन्दर 

विश्व पूँजीवादी व्यवस्था के सिर पर एक नये आर्थिक संकट के बादल मँडरा रहे हैं। 1930 की महामन्दी के बाद के सबसे बड़े 2008 के संकट से अभी विश्व पूँजीवाद उबर भी नहीं पाया था कि एक और नया आर्थिक संकट इसके दरवाज़े पर दस्तक देने लगा है जिसकी अभिव्यक्ति ग्रीस, इटली, पुर्तगाल, स्पेन और अब अमेरिका के कर्ज़़ संकट के रूप में सामने आ रही है।

Debt-Crisisबीते दो और तीन अगस्त को अमेरिका में दो ऐसी महत्वपूर्ण घटनाएँ हुईं जिन्होंने फ़ौरी तौर पर तो कमोबेश पूरी दुनिया की पूँजीवादी अर्थव्यवस्था को प्रभावित किया ही, आने वाले दिनों में विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था और भी बुरी तरह से प्रभावित होगी। दो अगस्त को अमेरिका की सत्तारूढ़ डेमोक्रेटिक पार्टी तथा विपक्षी रिपब्लिकन पार्टी कई महीने लम्बी कशमकश के बाद अमेरिकी सरकार की कर्ज़़ लेने की सीमा बढ़ाने पर सहमत हो गयीं। दोनों पार्टियों की सहमति से अमेरिकी सरकार द्वारा कर्ज़़ ले सकने की वर्तमान सीमा 14.29 खरब डॉलर में 2.4 खरब डॉलर की बढ़ोत्तरी कर दी गयी। सरकारी कर्ज़़ की सीमा 1917 में तय की गयी थी, जब कांग्रेस (अमेरिकी संसद) ने सरकार को प्रथम विश्व युद्ध में भागीदारी के बदले 11.315 अरब डॉलर कर्ज़ लेने की अनुमति दी थी। 1962 के बाद से कांग्रेस अमेरिकी सरकार द्वारा कर्ज़ लेने की सीमा को 74 बार बढ़ा चुकी है।

ओबामा प्रशासन तथा विपक्षी रिपब्लिकन पार्टी के बीच अमेरिका की कर्ज़ सीमा बढ़ाने के बारे में इस बार जो समझौता हुआ अगर उस पर अमल होता है तो उसका खामियाजा भी अमेरिका के आम ग़रीब मेहनतकश नागरिक ही भुगतेंगे। समझौते के मुताबिक़ अमेरिकी सरकार को आने वाले दस वर्षों में अपने ख़र्चों में 2.5 खरब डॉलर की कटौती करनी होगी। इस कटौती का बड़ा हिस्सा (लगभग 65 प्रतिशत) वह ख़र्च है जो अमेरिकी सरकार आम लोगों पर करती है जैसे कि बुनियादी ढाँचा, स्वच्छ ऊर्जा, शिक्षा, बाल सुरक्षा, घर, सामुदायिक सेवाएँ आदि।

3 अगस्त को कर्ज़ चुकाने की साख तय करने वाली अमेरिका की ही कम्पनी स्टैण्डर्ड एण्ड पुअर (एस एण्ड पी) ने अमेरिका की कर्ज़ साख घटा दी। पिछले पन्चानवे साल में यह पहली बार हुआ है कि अमेरिका की कर्ज़ चुकाने की साख (क्रेडिट रेटिंग) ए.ए.ए. से घटाकर ए.ए. प्लस कर दी गयी है। कर्ज़ चुकाने की साख में कमी का मतलब हुआ कि अमेरिका को कर्ज़ देना जोखिम भरा है और अमेरिका के कर्ज़दाता तथा निवेशक वहाँ पूँजी लगाने से बचेंगे। स्टैण्डर्ड एण्ड पुअर ने अमेरिका के बारे में यह आकलन अचानक नहीं घोषित किया है। अमेरिका के सिक्योरिटीज़ एण्ड एक्सचेंज कमीशन के साथ मिलकर काम करने वाली यह कम्पनी पिछले लम्बे समय से अमेरिकी सरकार को यह चेतावनी दे रही थी। कर्ज़ चुकाने की साख निर्धारित करने वाली दुनिया की दूसरी बड़ी कम्पनियों मूडीज़ इन्वेस्टमेंट सर्विसेज़ और फिच ने भले ही अमेरिका की साख तो नहीं घटायी लेकिन अमेरिका को ख़तरे का संकेत वे भी दे चुकी हैं। उधर चीन की वैश्विक कर्ज़ रेटिंग एजेंसी डागोंग पहले ही अमेरिका की कर्ज़ साख घटा चुकी है। 2008 की मन्दी में धराशायी हुई लेहमन ब्रदर्स तथा मेरिल लिंच जैसी कम्पनियों की कर्ज़ साख इन क्रेडिट रेटिंग कम्पनियों की नजर में अच्छी (ए.ए.ए.) थी, पर इसके बावजूद उक्त कम्पनियों का दिवाला पिट गया था और इन क्रेडिट रेटिंग कम्पनियों की काफ़ी मिट्टी पलीद हुई थी। ऐसा दुबारा न हो इसलिए इस बार क्रेडिट रेटिंग कम्पनियाँ कोई जोखिम मोल नहीं लेना चाहतीं। स्टैण्डर्ड एण्ड पुअर द्वारा अमेरिका की कर्ज़ साख कम करने पर अमेरिकी सरकार ने इस एजेंसी पर काफ़ी ग़ुस्सा निकाला मगर यह एजेंसी अपने फैसले पर अड़ी रही।

अमेरिका आज भी दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद में अकेले अमेरिका का हिस्सा ही 23 प्रतिशत के क़रीब है। अमेरिका को विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का इंजन कहा जाता है। भारत, चीन तथा यूरोप आज दुनिया में अपने निर्यातों के लिए बड़े पैमाने पर अमेरिका पर निर्भर हैं। अमेरिकी अर्थव्यवस्था में होने वाली हर हलचल कमोबेश पूरी विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था को ही अपनी चपेट में ले लेती है।

एस एण्ड पी द्वारा अमेरिका की कर्ज़ साख कम किये जाने के बाद अमेरिका समेत कई देशों के शेयर बाज़ार लुढ़क गये। अमेरिका में मन्दी के डर से 5 अगस्त को भारत के शेयर बाज़ार (बीएसई सेंसेक्स) में भी 387 अंक की गिरावट दर्ज की गयी। यह गिरावट बाद में भी जारी रही। 10 अगस्त को यहाँ 132.27 अंक की गिरावट दर्ज की गयी। 15 अगस्त तक ही रुपये की कीमत में 20 पैसे की गिरावट दर्ज की जा चुकी थी।

शेयर बाज़ारों में आयी इस गिरावट के चलते 5 अगस्त तक ही, अमेरिका की कर्ज़ साख कम करने के बाद सिर्फ़ दो दिन के भीतर ही विश्व भर में 2.5 खरब डॉलर की पूँजी स्वाहा हो गयी। यह स्वाहा पूँजी लगभग फ़्रांस की अर्थव्यवस्था के बराबर है।

निवेशकों ने अब शेयर बाज़ार की बजाय सोने की तरफ रुख़ किया है। वे शेयर बाज़ार से पूँजी निकालकर सोना ख़रीद रहे हैं। इसलिए दुनिया भर में सोने की क़ीमत लगातार बढ़ती जा रही है।

अमेरिका के कर्ज़ संकट के कारण क्या हैं?

इस समय अमेरिकी सरकार का कर्ज़ 12 खरब डॉलर से भी अधिक है। 2001 में यह 5.8 खरब डॉलर और 2005 में 8.36 खरब डॉलर था। 2012 तक इसके बढ़कर 16.7 खरब डॉलर हो जाने की सम्भावना है। इस समय अमेरिका का कर्ज़ इसके राष्ट्रीय उत्पाद का 75 फ़ीसदी है जो कि 2013 में बढ़कर 84 प्रतिशत हो जायेगा। आखि़र अमेरिका का कर्ज़ इस तेज़ रफ़्तार से क्यों बढ़ता गया है? आइये, अब एक निगाह अमेरिकी कर्ज़ संकट के फ़ौरी तथा बुनियादी कारणों पर डालें।

पहला कारण तो यह है कि पिछले लगभग एक दशक से अमेरिकी सरकार द्वारा, चाहे सरकार रिपब्लिकन पार्टी की हो या डेमोक्रेटिक पार्टी की, अमेरिका के पूँजीपतियों को टैक्सों में बड़ी राहत दी जाती रही है। बुश प्रशासन द्वारा 2001, 2003 तथा फिर 2005 में अमेरिकी पूँजीपतियों पर लगने वाले टैक्सों में भारी कटौती की गयी। दिसम्बर 2010 में ओबामा प्रशासन ने भी पूँजीपतियों पर इन टैक्स कटौतियों को जारी रखने का फ़ैसला लिया। पूँजीपतियों के लिए यह टैक्स कटौती लगभग 1 खरब डॉलर तक है। ओबामा के ही शब्दों में पूँजीपतियों पर टैक्स का “यह पिछली आधी सदी में सर्वाधिक निम्न स्तर है।” पूँजीपतियों को टैक्सों में दी जाने वाली इस बड़ी छूट के चलते सरकार की आमदनी कम हुई है। नतीजतन इससे अमेरिकी सरकार का कर्ज़ संकट बढ़ा है।

अमेरिकी सरकार के कर्ज़ संकट का दूसरा बड़ा कारण है अफ़गानिस्तान तथा इराक़ के युद्ध। ‘आतंकवाद’ से लड़ने के बहाने अमेरिका ने पहले 2001 में अफ़गानिस्तान और फिर इराक़ पर हमला किया। अमेरिकी हमलों ने इन दोनों देशों को तबाह-बर्बाद कर दिया है। लाखों बेगुनाहों का क़त्ल किया गया। लेकिन तमाम अत्याचारों के बावजूद अमेरिका इराक़ तथा अफ़गानिस्तान की जनता को न तो हरा सका है न ही झुका सका है। अफ़गानिस्तान की जंग अमेरिकी इतिहास की सबसे लम्बी जंग होने जा रही है। इस जंग से बाहर निकलने का अमेरिकी साम्राज्यवाद को कोई रास्ता नजर नहीं आता। उधर इन युद्धों के ख़र्च के बोझ ने अमेरिकी अर्थव्यस्था की कमर तोड़ दी है। अब न तो अमेरिका इराक़, अफगानिस्तान युद्ध को बीच में ही छोड़ सकता है और न ही आगे बढ़ा सकता है। अभी इराक़ और अफ़गानिस्तान में अमेरिकी साम्राज्यवाद बुरी तरह से उलझा ही हुआ था कि लीबिया में उसने नया पंगा ले लिया।

अमेरिकी कांग्रेस ने सिर्फ़ अमेरिका के रक्षा विभाग को 2011 के वित्तीय वर्ष के लिए युद्ध के ख़र्च के वास्ते 1.3 खरब डॉलर जारी किये हैं। इसके अलावा पेंटागन ने अपने 5.2 खरब डॉलर के आधार बजट में से जो ख़र्च किया है उसका ब्योरा अभी उपलब्ध नहीं है।

अमेरिका के ब्राउन विश्वविद्यालय के मुताबिक़ इन जंगों की अमेरिका को सालाना 3.7 खरब डॉलर की क़ीमत चुकानी पड़ रही है यानी कि 12000 डॉलर प्रति अमेरिकी नागरिक। अफ़गान तथा इराक़ युद्ध का मासिक ख़र्च ही 9.7 अरब डॉलर है।

यह है अमेरिकी साम्राज्यवाद द्वारा विश्व के अलग-अलग कोनों में बेगुनाहों की हत्या पर किया जाने वाला ख़र्च जिसने अमेरिकी साम्राज्यवाद के कर्ज़ संकट में काफ़ी इज़ाफ़ा किया है।

अमेरिकी कर्ज़ संकट का तीसरा बड़ा कारण है 2008 के वित्तीय संकट के बाद अनेक पूँजीवादी देशों की तरह ही अमेरिकी सरकार द्वारा पूँजीपतियों को दिये गये बेलआउट पैकेज।

अमेरिकी कर्ज़ का सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारण है अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर छायी दीर्घकालीन मन्दी। वैसे तो पिछले लगभग चार दशकों से ही विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था ने तेज़ी का दौर नहीं देखा है। बस इसके कुछ एक खित्तों जैसे चीन, भारत, रूस तथा ब्राज़ील (ये दो देश थोड़ा बाद में इसमें शामिल हुए) में ही आर्थिक विकास दर तेज़ रही है। अमेरिका पिछले एक दशक से मन्दी से जूझ रहा है। इसी बीच इसको 2001 के डॉट कॉम संकट, 2007 के सबप्राइम संकट, 2008 के वित्तीय संकट तथा अब 2011 के कर्ज़ संकट का सामना करना पड़ा है। अमेरिका में इस समय बेरोज़गारी की दर 9.2 प्रतिशत है। हर महीने यहाँ लगभग 30 हज़ार नौकरियाँ ख़त्म हो रही हैं। अमेरिकी अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर बेहद कम है। 2008 के वित्तीय संकट के बाद से ही अमेरिका में ब्याज़ दरें बेहद कम (0 से 2.5 प्रतिशत) हैं। और अमेरिका के केन्द्रीय बैंक फ़ेडरल रिज़र्व ने इन्हें 2013 के मध्य तक जारी रखने का फ़ैसला किया है। पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में ब्याज़ दरें इसलिये कम रखी जाती हैं ताकि बचतों को हतोत्साहित किया जा सके, यानी लोग बचत करने की बजाय अपने पैसे को ख़र्च करें। दूसरे उन्हें कुछ भी ख़रीदने के लिये सस्ता कर्ज़ मिल सके। इसी तरह निवेशकों को भी सस्ती मुद्रा पूँजी मिल सके। लेकिन ब्याज दरों को बेहद कम रखने तथा बेलआउट पैकेजों के जरिये अर्थव्यवस्था में अरबों डॉलर झोंकने के बावजूद अमेरिकी अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर एक-डेढ़ प्रतिशत के आसपास डोल रही है। अर्थव्यवस्था की मज़बूती से पैदा होते रोज़गार वस्तुओं तथा सेवाओं की खपत में बढ़ोत्तरी के चलते सरकारी ख़जाने को भी सहारा मिलता है। मगर अमेरिकी ख़जाने को सहारा दे सकने वाला यह पहलू भी वहाँ गायब है।

ऊपर बताये गये सभी कारण पूँजीवाद के बुनियादी अन्तरविरोध से उपजे प्रभाव मात्र ही हैं। पूँजीवाद में दिन-प्रतिदिन श्रम का समाजीकरण बढ़ता जाता है लेकिन करोड़ों मज़दूरों के श्रम के फल मुट्ठीभर हाथों में सिमटकर रह जाते हैं। दूसरे शब्दों में, श्रम का समाजीकरण तथा उत्पादन का निजी विनियोजन पूँजीवाद का बुनियादी अन्तरविरोध है। पूँजीवाद के इस बुनियादी अन्तरविरोध के चलते मुट्ठीभर पूँजीपतियों के हाथों में तो बेपनाह धन-दौलत इकट्ठा हो जाती है और दूसरी ओर विशाल मेहनतकश आबादी की क्रय शक्ति बेहद सीमित हो जाती है। दूसरी तरफ उत्पादन के साधनों पर पूँजीपतियों के कब्ज़े के चलते उनके बीच बाज़ार का बड़ा हिस्सा हथियाने के लिये भीषण प्रतिस्पर्धा जन्म लेती है। पूँजीपतियों के पास यह जानने का कोई ज़रिया नहीं होता कि वह जिस चीज़ का उत्पादन करवा रहे हैं वह मण्डी में बिकेगी या नहीं। सिर्फ मण्डी में माल ले जाने पर ही इसका पता चलता है। इस सबका नतीजा अति उत्पादन के संकट के रूप में सामने आता है। पूँजीवाद में अति उत्पादन का संकट इसलिए नहीं पैदा होता कि जनता की ज़रूरतें पूरी हो गयी हैं, बल्कि इसलिए होता है कि बहुसंख्यक जनता के पास अपनी ज़रूरत की चीज़ें ख़रीदने के लिए पैसा नहीं होता।

आज अमेरिका सहित विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था इसी अति उत्पादन के संकट से जूझ रही है। पूँजीवादी सरकारें कर्ज़ ले-लेकर बड़ी मात्र में मुद्रा अर्थव्यवस्था में झोंक रही हैं ताकि अर्थव्यवस्था में माँग को बनाये रखा जा सके। 2010 में विश्व भर की पूँजीवादी सरकारों पर 41.1 खरब डॉलर कर्ज़ था जो कि विश्व के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 69 प्रतिशत के बराबर था। पिछले 10 वर्ष में इसमें 25 खरब डॉलर की और सिर्फ़ पिछले दो वर्ष में 9.4 खरब डॉलर की बढ़ोत्तरी हुई है। इससे पता चलता है कि विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का संकट किस कदर गहरा है।

संकट से निदान का रास्ता क्या है?

आइये, अब अमेरिकी सरकार द्वारा इस कर्ज़ संकट से निदान के रास्तों पर विचार किया जाये। पहला रास्ता है कि अमेरिकी सरकार पूँजीपतियों को टैक्सों में दी जाने वाली छूट बन्द कर दे और उन पर टैक्स बढ़ा दे। लेकिन ऐसा मुमकिन नहीं है। पहली बात तो विपक्षी रिपब्लिकन पार्टी इसका ज़बरदस्त विरोध करेगी और ऐसी हर सम्भावना का वह अभी से विरोध कर भी रही है। दूसरे, ख़ुद ओबामा भी अपने आकाओं (अमेरिकी पूँजीपतियों), जिनके द्वारा दिये करोड़ों के चन्दों से तथा जिनके आशीर्वाद से वह अमेरिकी राष्ट्रपति बने हैं, के खि़लाफ़ नहीं जाना चाहेंगे। यही वजह है कि पिछले साल दिसम्बर में उन्होंने बुश काल से चली आ रही पूँजीपतियों के लिए टैक्स छूट को बरकरार रखा है। तीसरे, इससे अमेरिकी पूँजीवाद के मुनाफ़े में कटौती होने के कारण विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में इसकी प्रतिस्पर्धी क्षमता कम होगी जो कि अमेरिकी पूँजीवाद को और भी गहरे संकट में धकेल देगी।

अमेरिकी सरकार के पास दूसरा रास्ता है युद्ध के ख़र्चे में कटौती, लेकिन आज के हालात में यह भी मुमकिन नहीं लग रहा है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा है हथियार निर्माण उद्योग (मिलिट्री इण्डस्ट्रियल कॉम्प्लेक्स)। युद्ध के ख़र्चों में अगर कटौती होती है तो यह उद्योग तबाही के कगार पर पहुँच सकता है तथा पूरी अमेरिकी अर्थव्यवस्था संकट में फँस जायेगी। हथियार निर्माता पूँजीपतियों के दबाव तथा आज के विश्व के हालात के चलते अमेरिकी सरकार के लिये कर्ज़ संकट से मुक्ति का यह दूसरा रास्ता भी लगभग बन्द है।

अमेरिकी सरकार के पास तीसरा रास्ता है नये नोट छापना। लेकिन इससे डॉलर का मूल्य कम हो जायेगा। आज के विश्व में डॉलर की स्थिति वैश्विक करेंसी की है। ज़्यादातर देशों के विदेशी मुद्रा भण्डार डॉलर में ही हैं। डॉलर का मूल्य घटने से विश्व अर्थव्यवस्था में हड़कम्प मच जायेगा। अपने निर्यातों के लिए अमेरिका पर निर्भर भारत, चीन तथा यूरोप की कई अर्थव्यवस्थाएँ भीषण संकट में फँस जायेंगी। विश्व करेंसी के रूप में डॉलर के वर्चस्व के लिए संकट खड़ा हो जायेगा।

कर्ज़ संकट से निजात पाने का अमेरिकी सरकार के पास चौथा रास्ता है, अमेरिका में आम लोगों के लिए किये जाने वाले ख़र्च में कटौती। अमेरिकी हुक्मरान अब यही करने की सोच रहे हैं। लेकिन इससे अमेरिकी हुक्मरानों को अमेरिकी मेहनतकशों के तीख़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ेगा जिस तरह कर्ज़ संकट में फँसे ग्रीस तथा स्पेन के हुक्मरान जनता के ज़बरदस्त प्रतिरोध का सामना कर रहे हैं। दूसरे, अगर अमेरिका में सामाजिक ख़र्च (आम जनता पर ख़र्च) में कटौती होती है तो इससे अमेरिकी जनता की क्रय शक्ति सिकुडे़गी और अमेरिका में आर्थिक संकट और ज़्यादा गहरायेगा।

कुल मिलाकर देखा जाये तो अमेरिकी साम्राज्यवाद तथा संकटग्रस्त विश्व पूँजीवाद के चौधरियों के पास वर्तमान संकट से उबरने का कोई रास्ता नहीं है। आने वाले दिनों में अमेरिका तथा विश्व पूँजीवाद का संकट और ज़्यादा गहरायेगा। इसके स्पष्ट संकेत अभी से मिल रहे हैं। क्या विश्व सर्वहारा पूँजीवाद के इस संकट को क्रान्तिकारी संकट में बदल पायेगा। एक के बाद एक संकट में फँस रहे और संकटों से उबरने में नाकाम विश्व पूँजीवाद को विश्व सर्वहारा वर्ग उसकी क़ब्र तक कब पहुँचायेगा? इन सवालों के जवाब भविष्य के गर्भ में छुपे हुए हैं। लेकिन इतना तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि यह मरणासन्न परजीवी पूँजीवाद मानवता के कन्धों पर एक असहनीय बोझ बन चुका है, और देर-सबेर मानवता अवश्य ही इस बोझ को उतार फेंकेगी।

 

मज़दूर बिगुलअगस्त-सितम्बर 2011

 


 

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