विनायक सेन का मुक़दमा और जनवादी अधिकारों की लड़ाई : कुछ सवाल
सत्यप्रकाश
देश-विदेश में चले पुरज़ोर अभियान के बावजूद पिछली 10 फरवरी को छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट ने विनायक सेन को जमानत देने से इन्कार कर दिया। उस अदालत से इसके अलावा और उम्मीद भी क्या की जा सकती थी जिसमें न्यायाधीश की कुर्सी पर वही व्यक्ति बैठा था जिसके दस्तख़त से छत्तीसगढ़ जन सुरक्षा क़ानून को जारी किया गया था।
विनायक सेन को उम्रक़ैद देने का फैसला न केवल देश स्तर पर बल्कि अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर जनवादी अधिकारों की लड़ाई का एक अहम मसला बन चुका है। कारपोरेट घरानों के इशारों पर अपनी ही ज़नता के ख़िलाफ युद्ध चला रही भारत सरकार आतंकवादी और राजद्रोही घोषित करके हर उस आवाज़ को ख़ामोश कर देने पर आमादा है जो ज़नता के अधिकारों की बात उठाती है।
विनायक सेन के मुकदमे की अहमियत यह है कि उसने भारतीय राज्यसत्ता की निरंकुशता के विरुद्ध जनवादी नागरिकों को एकजुट करने और मुखर बनाने में एक अहम भूमिका निभायी है। लेकिन ठीक यहीं पर रुककर हमें इस बात पर भी सोचना होगा कि जिस संघर्ष को छत्तीसगढ़ जन सुरक्षा क़ानून सहित तमाम काले क़ानूनों, सलवा जुडुम और राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं के दमन के विरुद्ध एक व्यापक लड़ाई में बदला जा सकता था उसे महज़ एक व्यक्ति की रिहाई की मुहिम तक सीमित कर देने से किसका भला हो रहा है। यह मसला हमें जनवादी अधिकारों और नागरिक आज़ादी के संघर्ष की दिशा और स्वरूप से जुड़े कुछ बुनियादी मुद्दों पर भी विचार करने के लिए बाध्य कर रहा है।
मुद्दा एक विनायक सेन पर चल रहे मुकदमे को उठाने या अन्यायपूर्ण फैसले के पुनरीक्षण मात्रा का नहीं है। सबसे बुनियादी सवाल फासिस्ट प्रकृति के छत्तीसगढ़ जन सुरक्षा अधिनियम, ग़ैरक़ानूनी गतिविधियाँ निरोधक क़ानून, अंग्रेजों के ज़माने के राजद्रोह के क़ानून और तमाम ऐसे निरंकुश काले क़ानूनों के विरुद्ध संघर्ष का है। बुनियादी सवाल यह है कि संविधान में दिये गये जनवादी अधिकारों का आम ज़नता के लिए भला क्या मतलब है? सवाल यह है कि क़ानूनों, न्यायप्रणाली और पुलिस तन्त्र के औपनिवेशिक चरित्र के बने रहते क्या आम लोगों को न्याय मिल सकता है?
विनायक सेन का मुद्दा सिर्फ एक जनपक्षीय बुद्धिजीवी, डॉक्टर और नागरिक अधिकारकर्मी के साथ हुए अन्याय का मुद्दा नहीं है। यह पुलिस प्रशासन और न्यायतन्त्र के विरुद्ध तथा निरंकुश काले क़ानूनों के विरुद्ध संघर्ष का एक हिस्सा है। यह अपनी ही ज़नता के विरुद्ध युद्ध छेड़ने वाली सरकार की वैधता पर सवाल उठाने का समय है। यह ऐसा मौक़ा है जब आन्दोलन को व्यक्तिकेन्द्रित नहीं बल्कि मुद्दाकेन्द्रित बनाया जाये। मगर हो इसके ठीक उलट रहा है। यह एक अच्छी बात है कि विनायक सेन के साथ हो रहे व्यवहार ने उन लोगों को भी आगे आने पर मजबूर कर दिया जो सरकारी दमन के मसले पर आम तौर चुप्पी साधे रहते थे। लेकिन इनमें से अधिकांश लोग उन अनगिनत लोगों के सवाल पर फिर चुप्पी लगा जाते हैं जो भारतीय राज्य की लुटेरी नीतियों के ख़िलाफ आवाज़ उठाने की सज़ा भुगत रहे हैं।
और तो और, डा. सेन के ही साथ राजद्रोह की सज़ा पाने वाले बुज़ुर्ग और बीमार नारायण सान्याल और पीयूष गुहा के मामले भी पृष्ठभूमि में चले गये हैं। जिस दिन विनायक सेन को 20 वर्ष की क़ैद की सज़ा सुनायी गयी, उसी दिन रायपुर की एक और अदालत ने ‘ए वर्ल्ड टु विन’ पत्रिका के सम्पादक असित सेनगुप्त को भी राजद्रोह का दोषी मानते हुए 11 वर्ष की सज़ा सुनायी। उनका ज़ुर्म यह था कि वे क्रान्तिकारी विचारों को प्रसारित करने वाली पत्रिकाएँ और पुस्तकें प्रकाशित करते थे, जबकि ये सभी प्रकाशन भारत सरकार के क़ानूनों के तहत मान्य और खुले ढंग से चल रहे थे। इसके कुछ ही दिन बाद, महाराष्ट्र के लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता सुधीर ढवले को नागपुर में गिरफ्तार कर लिया गया। उन पर भी माओवादी होने का आरोप मढ़ दिया गया है। इलाहाबाद में पीयूसीएल की सक्रिय कार्यकर्ता और ‘दस्तक’ पत्रिका की सम्पादक सीमा आज़ाद और उनके पति विश्वविजय एक वर्ष से ज्यादा समय से जेल में हैं। पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता प्रशान्त राही पिछले कई साल से उत्तराखण्ड की जेल में बन्द हैं। ये तो चन्द मामले हैं जो मीडिया के ज़रिये लोगों तक पहुँचे हैं। देश के अलग-अलग हिस्सों में हज़ारों कार्यकर्ता बिना मुक़दमा चलाये कई-कई साल साल से जेल में सड़ रहे हैं। विनायक सेन के मामले ने जिस तरह बड़े पैमाने पर लोगों को झकझोरा है उसे निमित्त बनाकर इन सारे सवालों को उठाते हुए राजकीय दमन के विरुद्ध व्यापक आन्दोलन खड़ा करने की कोशिश होनी चाहिए।
इस आन्दोलन की पहली माँग होनी चाहिए राजद्रोह के सदियों पुराने औपनिवेशिक क़ानून, छत्तीसगढ़ जन सुरक्षा अधिनियम और तमाम ऐसे काले क़ानूनों का ख़ात्मा। छत्तीसगढ़ में, और देश के अन्य हिस्सों में कई अन्य बुद्धिजीवियों, राजनीतिक कार्यकर्ताओं और आम लोगों पर ऐसे ही काले क़ानूनों के तहत फर्ज़ी मुकदमे चल रहे हैं, उन्हें सलाखों के पीछे प्रताड़ित किया जा रहा है। फर्ज़ी मुठभेड़ों का सिलसिला आज भी जारी है। हाल ही में एक अन्य मुकदमे की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट की एक पीठ ने भी कहा है कि महज़ प्रतिबन्धित संगठन से जुड़े होने के कारण किसी व्यक्ति पर राजद्रोह या आतंकवाद का मामला नहीं बनता, जब तक कि ऐसे किसी मामले में उसकी संलिप्तता साबित न हो। इन आधारों पर नारायण सान्याल और पीयूष गुहा की रिहाई के लिए भी आवाज़ उठायी जानी चाहिए।
इस मुकदमे की सुनवाई के दौरान पर्यवेक्षक के रूप में यूरोपीय संघ के साम्राज्यवादी देशों के कुछ सांसद भी उपस्थित होने पहुँचे थे। पूछा जाना चाहिए कि क्या यह प्रतिनिधिमण्डल कारपोरेट घरानों के इशारों पर अपनी जगह-ज़मीन से बलपूर्वक उजाड़े जा रहे आदिवासियों के इलाक़ों का भी दौरा करेगा? क्या यह सलवा जुडुम के शिकार लाखों आदिवासियों की भी सुध लेगा? सवाल तो यह भी है कि डा. सेन के मुकदमे की पैरवी के लिए राम जेठमलानी की सेवा क्यों ली गयी? बेशक़ उन्होंने ख़ुद ही अपनी सेवा प्रस्तुत की, लेकिन क्या एक फासिस्ट पार्टी से जुड़े और विभिन्न मुद्दों पर घोर प्रतिक्रियावादी विचार रखने वाले वकील को विनम्रता से मना नहीं किया जा सकता था? क्या डा. सेन की पैरवी करने वाले बड़े वकीलों की कोई कमी थी?
विनायक सेन की रिहाई का मुद्दा एक अन्तरराष्ट्रीय मुद्दा तो बनता जा रहा है लेकिन जन-मुद्दों से और व्यापक आन्दोलनात्मक परिप्रेक्ष्य से इसके कट जाने का जोखिम भी पैदा हो गया है। बार-बार यह साबित हो चुका है कि केवल याचिकाओं, ई-मेल मुहिमों, हस्ताक्षर अभियानों और अन्तरराष्ट्रीय समर्थन के बूते जनवादी अधिकारों और नागरिक आज़ादी की लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती। यह मुख्यत: आम ज़नता के बूते लड़ी जानी चाहिए और इसे व्यापक जनान्दोलनात्मक स्वरूप देने की कोशिश की जानी चाहिए। जनवादी अधिकार केवल बुद्धिजीवी समुदाय के ही नहीं छीने जा रहे हैं। उनसे अधिक आम मेहनतकश लोग उत्पीड़न के शिकार हैं। उनके लिए जनवादी अधिकार और नागरिक आज़ादी का कोई मतलब ही नहीं है। अल्पसंख्यकों, दलितों, स्त्रियों को रोज़ बर्बर उत्पीड़न, पुलिसिया ज़ोरो-ज़ुल्म और अदालतों में भेदभाव का सामना करना पड़ता है। हमें बिना किसी भेदभाव के सभी नागरिकों के जनवादी अधिकारों को लेकर आवाज़ उठानी होगी। हमें सभी राजनीतिक बन्दियों और राजनीतिक उत्पीड़न के शिकार हर व्यक्ति के मुद्दे को बराबर पुरज़ोर ढंग से उठाना चाहिए। सर्वोपरि तौर पर, हमें काले क़ानूनों, न्याय-प्रणाली और पुलिस प्रशासन के ढाँचे को मुद्दा बनाना चाहिए।
जनवादी अधिकारों के संघर्ष को हमें एक संकीर्ण बौद्धिक-क़ानूनी दायरे से बाहर लाकर एक व्यापक, जुझारू जनान्दोलन के रूप में संगठित करना होगा। यही सही समय है जब इन सवालों पर गम्भीरता से सोचा-विचारा जाये, और एक सही दिशा एवं कार्यक्रम तय करने की कोशिश की जाये।
मज़दूर बिगुल, फरवरी 2011
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