घरेलू कामगार को मज़दूरों का दर्जा देना होगा!
अदिति
देशभर में लाखों घरेलू कामगार हैं, लेकिन उन्हें आज तक मज़दूर का दर्जा हासिल नहीं हुआ है और न घरेलू कामगारों के लिए कोई क़ानून बना है जो उनके कार्य की स्थितियों को विनियमित करे, उनके लिए मज़दूरी की दर तय करे, उनके लिए समुचित रूप में सामाजिक सुरक्षा के इन्तज़ामात करे। कुछ राज्यों में अपने जुझारू संघर्ष की बदौलत घरेलू कामगारों ने अपने कुछेक हक़-अधिकार हासिल किये हैं, लेकिन ज़्यादातर राज्यों में आज भी घरेलू कामगारों की स्थिति दयनीय है।
हाल ही में 29 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि “घरेलू कामगारों को सुरक्षात्मक क़ानून के अभाव में दुर्व्यवहार और यातना का सामना करना पड़ता है।” इसे दुरुस्त करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार को घरेलू कामगारों के अधिकारों की रक्षा हेतु क़ानून बनाने के विचार के लिए समिति गठन करने के निर्देश दिया है। साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने इस पैनल को छह महीने के भीतर रिपोर्ट देने के आदेश दिये हैं। लेकिन यह धरातल पर कितना लागू होगा यह भी अहम सवाल है क्योंकि इससे पहले भी अगस्त 2017 में सर्वोच्च न्यायालय ने घरेलू कामगारों को असंगठित मज़दूर सामाजिक सुरक्षा एक्ट के तहत सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने के लिए गठित किये गये बोर्ड को अवस्थिति रिपोर्ट सौंपने के लिए निर्देश दिये थे। लेकिन इस दिशा में आज तक किसी भी राज्य सरकार ने कोई भी क़दम नहीं उठाया है।
आज घरेलू कामगारों के हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। देशभर में घरेलू कामगारों के साथ शोषण उत्पीड़न की घटनाओं में लगातार इज़ाफ़ा होता जा रहा है। लेकिन आज तक हमारे लिए कोई क़ानून नहीं बना है।
दिल्ली में भी लाखों ऐसे पूर्णकालिक-अंशकालिक, कुशल-अर्द्धकुशल-अकुशल, स्त्री-पुरुष घरेलू कामगार हैं, जिनके न्यूनतम वेतन, काम करने की स्थितियों, सेवा शर्तों, सामाजिक सुरक्षा आदि को लेकर कोई क़ानून या कोई शासनादेश तक मौजूद नहीं है। हाडतोड़ मेहनत करने वाली यह भारी मज़दूर आबादी भयंकर ग़रीबी, ग़ुलामी, अपमान, असुरक्षा, उपेक्षा, उत्पीड़न और अनिश्चितता की ज़िन्दगी बिताने के लिए मजबूर है। तमाम सुझावों और दबावों के बावजूद केन्द्र सरकार ने केन्द्रीय स्तर पर घरेलू मज़दूरों के लिए क़ानून बनाने की दिशा में अब तक कोई क़दम नहीं उठाया है। सरकार के सामने ऐसे क़ानून के लिए प्रस्तुत किए जाने वाले विधेयक के दो मसौदे क्रमशः 2008 और 2010 में प्रस्तुत किये गये, पर सरकार ने उन पर कोई निर्णय नहीं लिया।
केन्द्र सरकार ने राज्य सरकारों द्वारा घरेलू कामगारों के हित में क़ानून बनाने के दिशा-निर्देश हेतु जो मसौदा राष्ट्रीय नीति तैयार की, उसे भी अन्तिम रूप नहीं दिया जा सका। यही नहीं, अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन के सौवें सम्मेलन में, 2013 में घरेलू कामगारों से सम्बन्धित जो कन्वेंशन पारित हुआ, उसकी भी भारत सरकार ने अभी तक अभिपुष्टि (Ratification) नहीं की है। महाराष्ट्र, केरल, मध्य प्रदेश, आन्ध्र प्रदेश और राजस्थान जैसे कुछ राज्यों की सरकारों ने शासनादेश/नोटिफ़िकेशन जारी करके घरेलू कामगारों को कुछ अतिसीमित और अपर्याप्त अधिकार दिये हैं, लेकिन दिल्ली समेत अन्य तमाम राज्यों के घरेलू कामगारों को क़ानूनी तौर पर उतना भी नहीं हासिल है। ये जो नगण्य अधिकार मिले भी हैं, वे घरेलू कामगारों और प्रगतिशील मज़दूर आन्दोलन के संघर्ष का नतीजा हैं।
जिन राज्यों में घरेलू कामगारों के लिये क़ानून बने हैं वो घरेलू कामगारों ने निरन्तर संघर्ष के दम पर लड़ कर हासिल किये हैं। महाराष्ट्र में घरेलू कामगारों के लिये जो हक़ अधिकार हासिल हुए हैं उसके पीछे हमारी बहनों का अथक संघर्ष है। 1980 में पुणे शहर में घरेलू कामगारों ने हड़ताल की, जिसमें उन्होंने वेतन बढ़ाने और बीमार पड़ने पर छुट्टी के पैसे ना काटने की माँग रखी। आगे चलकर उन्होंने ‘पुणे शहर मोलकर्णी (घरेलू कामगार)’ संगठन का निर्माण किया। 1980 से लेकर 1996 तक शहर के कई क्षेत्रों की सोसायटी में अपनी माँगों के लेकर हड़ताल की, फलस्वरूप आज महाराष्ट्र में काम करने वाली महिलाओं की स्थिति अन्य राज्यों से बेहतर है।
घरों में काम करने वाली महिलाओं की श्रमशक्ति की एक बड़ी आबादी बिना मज़दूर का दर्जा पाये काम करने के लिए मजबूर है। काम से जुड़े उनके अधिकारों की सुरक्षा के लिए आज तक कोई भी क़ानून नहीं है और जो भी थोड़ा-बहुत है भी तो वह लागू नहीं होता। अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के अनुसार जीविका के लिए भारत में दूसरे घरों में काम करने वाली महिलाओं की संख्या करोड़ों में है। इनकी संख्या हमारे देश में तेज़ी से बढ़ रही है। संयुक्त परिवार ख़त्म हो रहे हैं। एक व्यक्ति की आय से घर चलाना मुश्किल होता जा रहा है, पति-पत्नी दोनों के ही बाहर काम करने की वजह से बच्चों और बुजुर्गों की देखभाल के लिए परिवार के सदस्य मौजूद नहीं होते। ऐसे में इनकी देखभाल के लिए भी घरेलू कामगारों को काम पर रखने की ज़रूरत पड़ती है।
संघर्ष का रास्ता अख़्तियार करना होगा
देश भर में मौजूद लाखों घरेलू कामगारों के सामने आज भी यही सवाल है कि कब तक हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेंगे? इसी के साथ केन्द्र सरकार के भरोसे बैठे रहना भी अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने के समान होगा क्योंकि केन्द्र में बैठी भाजपा सरकार का मज़दूर-विरोधी चेहरा आज किसी से छिपा नहीं है। हमें अपने संघर्ष के दम पर ही अपने हक़-अधिकार हासिल करने होंगे।
हमें भी अपने लिए संघर्ष का रास्ता चुनना होगा। कब तक हम कोठियों और महँगे फ्लैटों के धन्नासेठों व सेठानियों के शोषण-उत्पीड़न को सहते रहेंगे? आये दिन कभी किसी सोसायटी में कभी किसी सोसायटी में मार-पीट से लेकर, छेड़खानी, चोरी के आरोप से लेकर हत्या तक की घटना हमारे सामने आती है। काम पर देरी से पहुँचने पर ज़्यादा काम करवाना, जिन घरों को हम चमकाते हैं उन्हीं के शौचालयों तक का हम प्रयोग नहीं कर सकते हैं। काम करने के लिए जिन घरों में हम जाते हैं उनमें जूते, चप्पल और खाना तक हमें घर के बाहर रखने को बोल दिया जाता है। घर के अन्दर भी हम फर्श पर बैठने के लिए मजबूर होते है। जिन बिल्डिंगों में हम जाते हैं वहाँ की लिफ़्टों तक का हम इस्तेमाल नहीं कर सकते हैं। मज़दूरी मार लिया जाना या काट लिया जाना आम बात है। सीधे तौर पर कहा जाये तो हमारे साथ जानवरों जैसा व्यवहार किया जाता है। इसका जवाब देने का और अपने श्रम अधिकारों व मानवीय अधिकारों को हासिल करने का केवल एक ही रास्ता है : हमें अपनी एकता के क़ायम करनी होगी और साथ ही अपनी यूनियन मज़बूत करनी होगी।
मज़दूर बिगुल, मार्च 2025
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