भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी (RWPI) द्वारा पाँच लोकसभा सीटों पर की जा रही रणकौशलात्मक भागीदारी की विस्तृत रिपोर्ट
बिगुल संवाददाता
2024 का आम चुनाव जारी है। यह आम चुनाव बीते आम चुनावों की तुलना में अलग है। इस बार का चुनाव महज़ शासक वर्ग की मैनेजिंग कमेटी के बतौर इस या उस पार्टी का चुनाव तो है ही, लेकिन साथ ही यह सत्तासीन फ़ासीवादी शक्ति द्वारा तमाम जनवादी अधिकारों का छिन्न-भिन्न कराने का उपक्रम भी है। बीते 10 सालों में फ़ासीवादी भारतीय जनता पार्टी ने सिलसिलेवार तरीक़े से पूँजीवादी लोकतन्त्र की संस्थाओं, प्रक्रियाओं आदि को ध्वस्त किया है। सत्तासीन दल ने राज्यसत्ता के अन्य निकायों के अन्दर अपनी घुसपैठ की है और उनके तथाकथित “स्वतन्त्र” चरित्र कोस्खलित कर उसे अपने अनुरूप ढाला है। कहने का अर्थ है कि ये निकाय हमेशा ही पूँजीपति वर्ग की ही सेवा करते थे, लेकिन कम-से-कम निष्पक्षता का खोल ओढ़कर रखते थे। मोदी-शाह की फ़ासीवादी सरकार ने इस दिखावे को भी समाप्त कर दिया है। सारे नियम-क़ायदों को ताक पर रखकर अपनी पसन्द के चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति, ईवीएम के ज़रिये चुनावों पर उठ रहे जायज़ सवालों का गला घोंटे जाने, ऐन चुनाव के समय विपक्षी नेताओं को जेल भेजे जाने, उनके अकाउण्ट सीज़ किये जाने, बड़ी मात्रा में तमाम स्वतन्त्र, निर्दलीय उम्मीदवारों का नामांकन रद्द किये जाने से लेकर सूरत, इन्दौर, पुरी, वाराणसी तक इसके उदाहरण सबके सामने हैं।
व्यापक विरोध के बावजूद ईवीएम द्वारा कराया जा रहा यह चुनाव चुनावी पारदर्शिता को ही कठघरे में खड़ा करता है। सत्तासीन भारतीय जनता पार्टी को छोड़कर चुनाव में भागीदारी कर रहे तमाम दलों, तमाम जानकारों, बुद्धिजीवियों, जनपक्षधर पत्रकारों और आम मेहनतकश जनता का बड़ा हिस्सा, यानी चुनाव प्रक्रिया में भागीदारी करने वालों का बड़ा हिस्सा, ईवीएम पर विश्वास नहीं करता है। पूँजीवादी मानकों से भी चलें तो जनवादी उसूलों का तकाज़ा यही है कि चुनाव प्रक्रिया व्यापक आबादी के भरोसे को सुनिश्चित करे। दुनिया के विभिन्न देशों में ईवीएम पर उठ रहे सवालों के बाद, वहाँ ईवीएम प्रणाली को वापस ले लिया गया। लेकिन हमारे यहाँ सम्बन्धित संस्थाओं के समक्ष इस बाबत लगातार उठाये गये प्रश्नों के बावजूद उनके कानों पर जूं तक नहीं रेंगी।
ग़ौरतलब है कि इस चुनाव से ठीक पहले भाजपा ने चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति सम्बन्धी अधिनियम में परिवर्तन किया है, और उसके तहत नये चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की। नये अधिनियम के मुताबिक़ अब मुख्य चुनाव आयुक्त एवं अन्य चुनाव आयुक्तों का चयन तीन सदस्यीय चयन समिति द्वारा किया जाएगा, जिसमें प्रधानमंत्री, केन्द्रीय गृह मंत्री तथा लोकसभा में सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता शामिल होंगे। अब यह बात किसी को समझाने की ज़रूरत नहीं कि इस “वैधानिक प्रक्रिया” के तहत कैसी नियुक्ति हो सकती है! यह अनायास नहीं है कि इलेक्टोरल बॉण्ड महाघोटाले से लेकर मोदी, योगी, हेमन्त बिसवा से लेकर भाजपा के छुटभैयों के घनघोर साम्प्रदायिक बयानों के बावजूद केचुआ (केन्द्रीय चुनाव आयोग) कान में तेल डालकर बैठा हुआ है।
यह सच है कि पूँजीवादी जनवाद के तहत होने वाले चुनाव आम जनता के लिए छद्म विकल्पों का ही चुनाव होता है। इसके ज़रिये जनता एक न्यायपूर्ण व समानतामूलक व्यवस्था की स्थापना का सपना नहीं देख सकती है। बहुदलीय पूँजीवादी लोकतन्त्र जनता को बेहद सीमित जनवादी अधिकार देता है। इसके बावजूद इन जनवादी अधिकारों का जनता के लिए महत्व है और इनकी धज्जियाँ उड़ाये जाने के विरुद्ध जनता को अनिवार्यत: संघर्ष करना चाहिए। आज तो चुनावों में मालिकों, ठेकेदारों, दलालों, व्यापारियों की सेवा करने वाली अन्य पूँजीवादी पार्टियों का ‘विकल्प’ भी भाजपा द्वारा केवल औपचारिक बनाया जा रहा है। यानी, तमाम पूँजीवादी चुनावी पार्टियों के चुनावी विकल्प भी अब व्यावहारिक तौर पर समाप्त करने की कोशिशें भाजपा व संघ परिवार द्वारा की जा रही हैं।
पूँजीवाद में तमाम जनवादी अधिकार, आबादी के बहुलांश यानी मज़दूर वर्ग, अर्द्ध-मज़दूर आबादी, ग़रीब व निम्न-मँझोले किसानों, निम्न मध्यवर्ग, मध्यवर्ग तक पहुँचते-पहुँचते दम तोड़ देते हैं। यहाँ जनवाद मूलत: और मुख्यत: सबसे अमीर वर्गों यानी पूँजीपतियों, धनी ठेकेदारों, धनी व्यापारियों, कुलकों व पूँजीवादी किसानों, उच्च मध्य वर्ग के लोगों तक ही सीमित होता है। ऐसे में चुनाव में आम मेहनतकश जनता शासक वर्ग के किसी भी धड़े का राजनीतिक प्रतिनिधित्व कर रही पार्टियों का पिछलग्गू बनकर अपने स्वतन्त्र वर्ग हितों के लिए संघर्ष नहीं कर सकती है। अगर जनता कांग्रेस, सपा, बसपा, आप, द्रमुक, अन्नाद्रमुक, जद (यू), जद (सेकू), तृणमूल कांग्रेस, राजद, शिवसेना, राकांपा, भाकपा, माकपा, भाकपा (माले) लिबरेशन आदि को भी चुनती है, तो ये पार्टियाँ भी जनता की सच्चे मायने में नुमाइन्दगी नहीं कर सकतीं क्योंकि ये भी पूँजीपति वर्ग के ही किसी न किसी हिस्से से मिलने वाले चन्दों व अनुदानों पर चलती हैं और इसलिए पूँजीपति वर्ग के हितों की ही नुमाइन्दगी करती हैं। लेकिन फिर भी एक फ़ासीवादी पार्टी, मसलन भाजपा, और अन्य पूँजीवादी दलों में अन्तर होता है। फ़ासीवादी दल मेहनतकश जनता पर पूँजी की नंगी, बर्बर तानाशाही को स्थापित करने और उसके सभी जनवादी हक़ों को वस्तुत: छीन लेने का काम करता है। संकट के दौर में ठीक इसी वजह से पूँजीपति वर्ग का बड़ा हिस्सा फ़ासीवादी भाजपा को समर्थन दे रहा है।
आम मेहनतकश जनता के फ़ौरी और दूरगामी हितों को साधने का काम उसकी स्वतन्त्र क्रान्तिकारी पार्टी ही कर सकती है। आम मेहनतकश जनता के स्वतन्त्र क्रान्तिकारी पक्ष को प्रस्तुत करते हुए भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी इस बार के लोकसभा चुनाव में भागीदारी कर रही है। इसके पहले वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव एवं इसके उपरान्त कुछ राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी द्वारा भागीदारी की गयी थी। इस बार के लोकसभा चुनाव में ‘भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी’ (RWPI) ने छह लोकसभा क्षेत्रों से अपने उम्मीदवारों को उतारा है : दिल्ली उत्तर-पूर्व, दिल्ली उत्तर-पश्चिम, मुम्बई उत्तर-पूर्व, पुणे, अम्बेडकरनगर और कुरुक्षेत्र, हालाँकि, साज़िशाना ढंग से उत्तर-पूर्व मुम्बई से आरडबल्यूपीआई के उम्मीदवार का पर्चा रद्द कर दिया गया है।
RWPI की चुनाव में यह भागीदारी रणकौशलात्मक हस्तक्षेप है, जिसके तहत चुनाव प्रचार के दौरान पार्टी द्वारा समाजवादी कार्यक्रम का प्रचार-प्रसार किया जा रहा है, मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था के असली चरित्र को बेनक़ाब किया जा रहा है और जनता के बीच पूँजीवादी चुनावी पार्टियों और पूँजीपतियों के रिश्तों को उजागर किया जा रहा है। साथ ही, जनता के सामने यह बात स्पष्ट की जा रही है कि महज़ चुनावों के ज़रिये ही मौजूदा व्यवस्था का ध्वंस और एक नयी समाजवादी व्यवस्था का निर्माण नहीं हो सकता है, लेकिन इसके बावजूद पूँजीवादी व्यवस्था में जनता द्वारा अकूत कुर्बानियों और संघर्ष के बाद जीते गये सीमित अधिकारों को भी काग़ज़ी से वास्तविक तभी बनाया जा सकता है और इसके ज़रिये जनता के वर्ग संघर्ष को उन्नत तभी किया जा सकता है, जब जनता पूँजीवादी चुनावों में भी मेहनतकशों और मज़दूरों की नुमाइन्दगी करने वाली मज़दूर पार्टी के उम्मीदवारों को चुने। इसके ज़रिये सर्वहारा वर्ग और मेहनतकश जनता अपने स्वतन्त्र राजनीतिक पक्ष को मज़बूत करती है।
इस बार के चुनाव इस रूप में महत्वपूर्ण है कि आज देश एक नाज़ुक दौर से गुज़र रहा है। मोदी सरकार की कारगुज़ारियों से पिछले दस वर्ष से देश की जनता त्रस्त है। इन दस सालों में जनता के हिस्से भूख, बेरोज़गारी, बेतहाशा बढ़ती महँगाई, और घोटालों की सौगात ही आयी है। एक फ़ासीवादी पार्टी होने के कारण भाजपा ने पूँजीपरस्त नीतियों को नंगई से लागू किया है। जो अधिकार देश की मेहनतकश जनता ने लड़कर हासिल किये थे, उन्हें भी इन दस सालों में खोखला कर दिया गया है। यह बात जानते हुए भी कि चुनावों के ज़रिये फ़ासीवादी उभार को रोका नहीं जा सकता है, इन चुनावों में भाजपा की वोटबन्दी करना अतिआवश्यक है। चुनावों के ज़रिये ही फ़ासीवाद को निर्णायक शिकस्त नहीं दी जा सकती है क्योंकि पूँजीवादी राज्यसत्ता का फ़ासीवादी संघ परिवार ने आन्तरिक टेकओवर किया है और सरकार से बाहर जाने पर भी वह समाप्त नहीं होगा बल्कि समाज और राजनीति में इसकी पकड़ बनी रहेगी और पूँजीवाद की दीर्घकालिक मन्दी की स्थितियों में यह फिर से सत्ता में और भी ज़्यादा आक्रामक तरीके से पहुँचेगा। लेकिन इसके बावजूद भाजपा की हार उसके लिए एक तात्कालिक झटका अवश्य होगी और वह तात्कालिक अर्थों में कार्यकारिणी को उसके प्रत्यक्ष नियन्त्रण से बाहर कर देगी। इससे देश की क्रान्तिकारी शक्तियों व मेहनतकश जनता को अपने आपको राजनीतिक रूप से गोलबन्द और संगठित करने का एक अवसर मिलेगा। इस बात का प्रचार आज देश के जिन राज्यों में ‘आरडब्ल्यूपीआई’ का विस्तार है, वहाँ किया जा रहा है।
सीमित ताक़त के बावजूद जिन लोकसभा क्षेत्रों में ‘आरडब्ल्यूपीआई’ के उम्मीदवार खड़े हैं, वहाँ मेहनतकश जनता तक असली मुद्दों को पहुँचाने के लिए हर सम्भव प्रयास किया जा रहा है। इस प्रचार के दौरान देश के विभिन्न हिस्सों में पार्टी को मज़दूरों, ग़रीब किसानों, रेहड़ी-खोमचा लगाने वाले, छोटे दुकान वाले और आम नौकरीपेशा लोगों के बीच अच्छा समर्थन मिल रहा है। कई इलाक़ों में ऐसे छात्र-युवा जो बेरोज़गारी से त्रस्त हैं, उन्होंने भी ‘आरडब्ल्यूपीआई’ को अपना समर्थन दिया है। आज इसी का नतीज़ा है कि जिन लोकसभा सीटों पर ‘आरडब्ल्यूपीआई’ के उम्मीदवार खड़े है, वहाँ पार्टी की वालण्टियर कमिटियाँ खड़ी हो गयी है। आगे हम ‘आरडब्ल्यूपीआई’ की चुनाव में भागीदारी की रपट पेश कर रहे हैं।
अम्बेडकरनगर (उत्तर प्रदेश) लोकसभा सीट पर भागीदारी
भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी की ओर से उत्तर प्रदेश के सन्त कबीर नगर लोकसभा क्षेत्र में चुनाव में भागीदारी की जा रही है। विगत एक दशक से भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी इस इलाक़े में मेहनतकश आबादी को संगठित करते हुए उनके हक़ों के लिए लड़ रही है। यहाँ से ‘आरडब्ल्यूपीआई’ की ओर से साथी मित्रसेन चुनाव लड़ रहे हैं। अम्बेडकर नगर में पिछले लम्बे समय से भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी के कार्यकर्ता विभिन्न सवालों पर जनता को संगठित करते रहे हैं और उनके नेतृत्व में बहुत सी लड़ाइयाँ जीती गयी हैं। इस लोकसभा क्षेत्र का इलाक़ा बड़ा है जिसमें क़रीब 20 लाख मतदाता हैं। इलाक़े की बड़ी आबादी अपनी जीविका के लिए मज़दूरी पर निर्भर है। इलाक़े में काम न मिलने से बहुत बड़ी आबादी दिल्ली, मुम्बई, पंजाब, गुजरात जैसी जगहों पर जाकर कारख़ानों-खेतों में खटती है। जो लोग यहीं रुककर खेतों, ईंट भट्ठों, भवन निर्माण आदि में काम करते हैं, उन्हें पूरे महीने काम नहीं मिलता। सीधे शब्दों में इस इलाक़े में भयंकर बेरोज़गारी है। मोदी सरकार की अमीरपरस्त नीतियों की सबसे भयंकर मार इसी आबादी पर पड़ी है। महँगाई से सबसे ज़्यादा यही आबादी परेशान है। इसके अतिरिक्त पूरे इलाक़े में शिक्षा और चिकित्सा की व्यवस्था भी जर्जर है।
मौजूदा सांसद पिछ्ला चुनाव जीतने के बाद कभी जनता के बीच झाँकने तक नहीं आये हैं। जबकि ‘आरडब्ल्यूपीआई’ के कार्यकर्ता न केवल लोगों के तमाम सवालों पर संघर्ष करते रहे हैं बल्कि इलाक़े में आगजनी, बाढ़ बीमारी से लेकर तमाम परेशानियों में लोगों के साथ खड़े रहने और उनका सहयोग करने में भी आगे रहे हैं। ‘आरडब्ल्यूपीआई’ इस इलाक़े की जनता की जायज़ माँगों को लेकर इस चुनाव में उतरी है। यही कारण है कि ‘आरडब्ल्यूपीआई’ द्वारा उठाये जा रहे मुद्दों से इस क्षेत्र की मज़दूर-मेहनतकश जनता सहमत होकर साथ आ रही है।
मज़दूर पार्टी द्वारा इन इलाक़ों में, गाँव में नुक्कड़ सभाएँ की गयी और पैदल मार्च निकाले गये। इसके अतिरिक्त कई इलाक़ों में लोगों के बीच में बैठकें की गयी और हज़ारों की संख्या में पर्चे वितरित किये गये। इस सीट पर पाँचवें चरण के तहत 25 मई को वोट डाले जाएँगे।
दिल्ली (उत्तर-पश्चिम) लोकसभा सीट पर भागीदारी
दिल्ली उत्तर पश्चिम लोकसभा सीट से ‘आरडब्ल्यूपीआई’ की ओर से साथी अदिति चुनाव लड़ रही हैं। इस क्षेत्र में ‘आरडब्ल्यूपीआई’ के कार्यकर्ता काफ़ी समय से आम मेहनतकाश जनता को संगठित करते आये हैं। इस लोकसभा क्षेत्र में क़रीब 24 लाख मतदाता है। इस क्षेत्र में बड़ी तादाद में मेहनतकश आबादी रहती है, जो महँगाई, ग़रीबी, बेरोज़गारी जैसी समस्याओं से सबसे ज़्यादा त्रस्त है। कोरोना काल में मोदी सरकार द्वारा लादे गये अनियोजित लॉकडाउन के कारण जब इस इलाक़े के मज़दूरों को तमाम तकलीफ़ें झेलनी पड़ रही थी, तब ‘आरडब्ल्यूपीआई’ के कार्यकर्ता ही जनता के साथ खड़े थे। इस सीट पर पिछले अप्रैल माह से ‘आरडब्ल्यूपीआई’ के कार्यकर्ता द्वारा प्रचार किया जा रहा है। इस दौरान सूरज पार्क, राजा विहार, गड्ढा झुग्गी, शाहबाद डेयरी, मेट्रो विहार और स्वर्ण जयन्ती विहार के रिहायशी इलाक़ों में डोर टू डोर अभियान चलाया गया है। इसके साथ ही उत्तर पश्चिम दिल्ली के औद्योगिक इलाक़ों जैसे पीरागढ़ी आदि इलाक़ों में भी व्यापक प्रचार अभियान चलाया गया। प्रचार अभियान के दौरान यह स्पष्ट प्रतीत हो रहा है कि जनता केन्द्र में बैठी मोदी सरकार की जनविरोधी नीतियों से त्रस्त है तथा इस क्षेत्र की आम मेहनतकश जनता हमारी माँगों के साथ है। विशेषकर आरडबल्यूपीआई द्वारा उठायी जा रही औद्योगिक इलाक़ों में मज़दूर मेस शुरू करने की माँग से मज़दूर प्रभावित हैं।
रिपोर्ट लिखे जाने तक क़रीब 200 नुक्कड़ सभाएँ इस संसदीय क्षेत्र में की जा चुकी है एवं क़रीब 25000 पर्चे बाँटे जा चुके हैं।
दिल्ली (उत्तर-पूर्व) लोकसभा सीट पर भागीदारी
दिल्ली उत्तर-पूर्व लोकसभा सीट से आरडबल्यूपीआई की ओर से साथी योगेश चुनाव लड़ रहे हैं। इस क्षेत्र में ‘आरडब्ल्यूपीआई’ के नेतृत्व में मज़दूरों ने शानदार संघर्ष लड़े और जीते हैं। अभी हाल ही में फ़रवरी और मार्च के महीने में हुई बादाम मजदूरों की हड़ताल का नेतृत्व आरडबल्यूपीआई के कार्यकर्ताओं ने किया था। इस हड़ताल में बादाम मज़दूरों की माँग के आगे मालिकों और प्रशासन को झुकना पड़ा था।
इस इलाक़े में भी अप्रैल माह से ही चुनाव प्रचार अभियान चलाया जा रहा है। खजूरी में डोर टू डोर अभियान, नुक्कड़ सभाएँ और जनसभा आयोजित कर सघन प्रचार किया गया है। मुस्तफ़ाबाद के इलाक़े में व्यापक पर्चा वितरण और नुक्कड़ सभाएँ की गयी हैं। इस इलाक़े में बाइक रैली और पदयात्रा निकाली गयी है। करावलनगर के बादाम मज़दूरों के रिहाशयी इलाक़ों में नुक्कड़ सभाओं के ज़रिये चुनाव प्रचार अभियान चलाया गया है एवं इस इलाक़े में एक रैली भी निकाली गयी, जिसमें भारी संख्या में बादाम मज़दूर शामिल हुए।
ग़ौरतलब है कि उपरोक्त ये तीन इलाक़े ऐसे रहे है, जहाँ चार साल पहले सीएए-एनआरसी विरोधी आन्दोलन के दौरान संघी साम्प्रदायिक ताक़तों द्वारा दंगे भड़काये गये थे। भाजपा और संघ द्वारा इन इलाक़ों में अपना वोट पुख़्ता करने के लिए जनता का साम्प्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण करने का प्रयास किया जा रहा है। हालाँकि, इस इलाक़े के धनी मध्य वर्ग के एक हिस्से और निम्न मध्य वर्गीय आबादी के एक छोटे हिस्से को छोड़ दें, तो संघ व भाजपा द्वारा की गयी साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिशें क़ामयाब होती नहीं दिख रही है। वहीं इस इलाक़े की मुस्लिम आबादी के बीच इंडिया गठबंधन द्वारा ख़ुद को साम्प्रदायिक भाजपा के विकल्प के तौर पर पेश किया जा रहा है। यह सच है कि मुसलमान आबादी का बड़ा हिस्सा कांग्रेस को किसी दूरगामी विकल्प के तौर पर नहीं देखता है, लेकिन इन चुनावों में फ़ासीवादी मोदी-शाह की जोड़ी को हराने के लिए तात्कालिक तौर पर उसे समर्थन दे सकता है। लेकिन उनके बीच भी ‘आरडब्ल्यूपीआई’ के प्रचार को बेहद सकारात्मक प्रतिक्रिया मिली है। निश्चित तौर पर, इस व्यापक उत्पीडि़त आबादी के बीच लम्बे राजनीतिक अभियानों के ज़रिये उन्हें क्रान्तिकारी रूप में संगठित करने की आवश्यकता बनी हुई है। इस इलाक़े के लोगों के बीच आरडबल्यूपीआई द्वारा लगातार इस बात का प्रचार किया जा रहा है कि भाजपा के साम्प्रदायिक फ़ासीवाद का मुक़ाबला धार्मिक पहचान के आधार पर नहीं बल्कि अपनी वर्गीय पहचान के आधार पर संगठित होकर ही किया जा सकता है। इस इलाक़े की मज़दूर आबादी और निम्न मध्यवर्गीय आबादी के बीच भाजपा का जनाधार घटा है। अपनी पूँजीपरस्त व जनविरोधी नीतियों के कारण वह नंगी हुई है। प्रचार अभियान के दौरान अधिकांश लोग ऐसे मिले जो भाजपा कि नीतियों से त्रस्त हैं। उनमें से कई तात्कालिक विकल्प के तौर पर कांग्रेस व आप के इण्डिया गठबन्धन को देख रहे हैं, लेकिन इसे लेकर वे ख़ुद भी सशंकित है। इस आबादी के बीच ‘आरडब्ल्यूपीआई’ यह बात लेकर जा रही है कि जहाँ ‘आरडब्ल्यूपीआई’ के रूप में जनता के अपने उम्मीदवार मौजूद हैं, वहाँ किसी मजबूरी के विकल्प को चुनने के बजाय मेहनतकश उम्मीदवार को चुना जाए।
कुरुक्षेत्र (हरियाणा) लोकसभा सीट पर भागीदारी
कुरुक्षेत्र लोकसभा सीट से ‘आरडब्ल्यूपीआई’ की तरफ़ से साथी रमेश खटकड़ प्रत्याशी है। इस लोकसभा सीट पर पिछले एक माह से ज़्यादा समय से चुनाव प्रचार अभियान चलाया जा रहा है। इस क्षेत्र में वर्षों से ‘आरडब्ल्यूपीआई’ सक्रिय रही है एवं जनता के विभिन्न मुद्दों को लेकर लम्बे समय से संघर्षरत हैं। ‘आरडब्ल्यूपीआई’ के कार्यकर्ताओं द्वारा महँगाई, बेरोज़गारी, शिक्षा, बिजली, पानी, सरकारी स्कूलों की बन्दी, रोडवेज़ के निजीकरण, जातिवाद और साम्प्रदायिकता आदि मसलों पर मुखरता से आवाज़ उठायी जाती रही है। यहाँ एक बड़ी आबादी खेतिहर मज़दूरों, छोटे और मँझोले किसानों की है, जिनके हालात मोदी और खट्टर सरकार के डबल इंजन की सरकार के कार्यकाल में बद से बदतर हो गयी है। वहीं इस क्षेत्र में छात्रों-युवाओं की आबादी के हिस्से में सिर्फ़ बेरोज़गारी और दर-दर की ठोकरें ही आयी हैं। कॉलेजों-विश्वविद्यालयों, आईटीआई-पॉलीटेक्निक आदि से तमाम डिग्रियाँ हासिल करने के बावजूद हरियाणा के नौजवान बेकार भटक रहे हैं। प्रचार के दौरान इस क्षेत्र की जनता में मोदी सरकार के ख़िलाफ़ असन्तोष दिखाई दिया। रोज़गार गारण्टी क़ानून लागू करने, धनी किसानों व कुलकों समेत तमाम अमीरों पर विशेष कर लगाकर ग़रीब किसानों के लिए रियायती दरों पर खाद-बीज का प्रबन्ध करने एवं खेतिहर मज़दूरों को श्रम क़ानून के अन्तर्गत लाने की माँगों के साथ इस क्षेत्र की जनता जुड़ रही है व अपना समर्थन दे रही है।
इस लोकसभा क्षेत्र के चौशाला, रोहेड़ा, थेहबाहरी, बीड़ बांगड़ा, मण्डावल, फ़रियाबाद, सन्तोख माजरा, सेरदा, पाई, भाणा, सोंगल, नन्दकरण माजरा, कोटड़ा, किछाना गाँवों में ‘आरडब्ल्यूपीआई’ के कार्यकर्ताओं द्वारा सघन प्रचार अभियान चलाया गया है।
पुणे (महाराष्ट्र) लोकसभा सीट पर भागीदारी
पुणे लोकसभा सीट से ‘आरडब्ल्यूपीआई’ की ओर से साथी अश्विनी खैरनार चुनाव लड़ रही हैं। महाराष्ट्र के इस हिस्से में ‘आरडब्ल्यूपीआई’ के कार्यकर्ता लम्बे समय से सक्रिय रहे हैं। यहाँ पर निर्माण मज़दूरों व आम मेहनतकश आबादी के विविध मुद्दों को लेकर ‘आरडब्ल्यूपीआई’ के नेतृत्व में संघर्ष भी लड़े गये हैं। इसके साथ ही निम्न मध्यवर्गीय इलाक़ों में भी ‘आरडब्ल्यूपीआई’ के कार्यकर्ता लगातार सक्रिय रहे हैं। इस क्षेत्र में चुनाव प्रचार अभियान निरन्तर डोर टू डोर अभियान व नुक्कड़ सभाओं के रूप में, रैलियों के रूप में, जुलूसों के रूप में और घर-घर सघन जनसम्पर्क अभियानों के रूप में चलाया गया है। चुनाव प्रचार अभियान के दौरान लोगों से बातचीत में यह सामान्य तौर पर सुनने को मिल रहा है कि वे केन्द्र व राज्य में मौजूद एनडीए सरकार से त्रस्त हैं तथा वे उसका विकल्प चाहते हैं। यह सच है कि विकल्पहीनता की स्थिति में आज मेहनतकश आबादी का विचारणीय हिस्सा तात्कालिक विकल्प के तौर पर इण्डिया गठबन्धन को देख रहा है, परन्तु इस गठबन्धन के दलों और उनकी सरकारों के इतिहास के कारण वह ख़ुद भी इस पर पूरा भरोसा नहीं कर पा रही है। इण्डिया गठबन्धन में शामिल जो दल आज भाजपा की मुखालफ़त की बात कर रहे है, वे कल तक ख़ुद ही उनकी गोद में बैठे हुए थे, और इसकी भी कोई गारण्टी नहीं कि ये फ़िर पलटी न मारे।
‘आरडब्ल्यूपीआई’ के वॉलण्टियर व सदस्य लगातार इस बाबत प्रचार कर रहे हैं कि चूँकि एक मेहनतकशों की पार्टी का उम्मीदवार इस क्षेत्र में मौजूद है, जिस पार्टी का संघर्षों का एक इतिहास इस क्षेत्र में रहा है, इसलिए आज इस या उस बुर्जुआ पार्टी को समर्थन देने से बेहतर है कि मेहनतकश जनता के स्वतन्त्र क्रान्तिकारी विकल्प के तौर पर ‘आरडब्ल्यूपीआई’ को अपना समर्थन दिया जाए और इसके उम्मीदवर को जिताया जाए। जनता के बीच प्रचार को व्यापक सकारात्मक प्रतिसाद मिला है। पार्टी के एजेण्डा से बहुसंख्यक मेहनतकश जनता सहमति जता रही है।
उत्तर-पूर्व मुम्बई लोकसभा सीट पर साथी बबन ठोके का पर्चा साज़िशाना ढंग से किया गया रद्द
मुम्बई उत्तर-पूर्व से भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी (RWPI) के कार्यकर्ता साथी बबन ठोके उम्मीदवार थे। पिछले एक माह से सघन चुनाव प्रचार अभियान भी चलाया जा रहा था व उन्हें जनता का अच्छा-ख़ासा समर्थन भी मिल रहा था। लेकिन साथी बबन द्वारा दायर किये गये तीन नामांकन के आवेदनों को ख़ारिज कर दिया गया। कॉमरेड बबन ने तीन नामांकन पत्र दाख़िल किये थे जिनमें अनुसूचित जाति और सामान्य कैटेगिरी, दोनों ही शामिल थे। मगर कॉमरेड बबन ठोके के तीनों आवेदनों को मामूली तकनीकी कारणों और नियमों का हवाला देते हुए और अधिकारियों की वजह से हुई देरी का ठीकरा प्रत्याशी पर ही फोड़ते हुए रद्द कर दिया गया।
पहले तो बबन ठोके के एस.सी. श्रेणी में भरे गये नामांकन पत्र पर अनुचित सन्देह करते हुए अधिकारी ने उन्हें दूसरा आवेदन भरने को कहा। इसके बाद सामान्य श्रेणी के आवेदन पर जारी की गयी। पहली रसीद में कहा कि सभी फ़ील्ड सही तरीक़े से भरे गये हैं। लेकिन नामांकन दाख़िल करने के अन्तिम दिन, देर रात 12 बजे साथी बबन को फ़ोन करके (जिसका प्रमाण सरकार के सीसीटीवी कैमरे में आसानी से देखा जा सकता है) यह बताया गया कि स्टैम्प से सम्बन्धित फ़ील्ड में से एक ग़लत तरीक़े से भरा गया है और उसे सुबह तक “दुरुस्त” करने के लिए कहा गया। 4 मई को स्टैम्प वेण्डरों के पास इस “ग़लती” को ठीक कराने की कोशिश की गयी तो पता चला कि स्टैम्प वेण्डरों पर भी पूँजीवादी पार्टियों ने स्टैम्प जारी न करने का दबाव डाला हुआ था। इन सबके बावजूद सभी कागज़ात दुरुस्त कराकर 11 बजे से पहले कार्यालय पहुँचा गया, पर अधिकारियों ने आवेदन लेने में देरी की और बाद में आवेदन देर से लाने का हवाला देकर इसे ख़ारिज कर दिया गया। इसी तरह अन्य कई उम्मीदवारों के आवेदन ऐसे ही मामूली आधार पर ख़ारिज कर दिये गये हैं। चुनाव आयोग के दफ़्तर में आर.ओ. की कुछ “मुख्य” उम्मीदवारों से अलग बातचीत का सिलसिला भी जारी था। ज़ाहिरा तौर पर आर.ओ. पर ऐसे क़दम उठाने का दबाव था।
निश्चित ही, अन्तिम समय पर तकनीकी खामियाँ निकालना, आवेदन जमा करने में देरी करना और अन्ततः नामांकन ख़ारिज कर देना चुनाव आयोग का ‘आरडब्ल्यूपीआई’ के प्रति भेदभावपूर्ण रवैया है और इसका कारण ‘आरडब्ल्यूपीआई’ द्वारा समाजवादी पार्टी, शिवसेना और भाजपा को पेश की जा रही चुनौती और मानखुर्द-शिवाजीनगर क्षेत्र में साथी बबन की बढ़ रही लोकप्रियता थी। इस इलाक़े में सीएए-एनआरसी के विरुद्ध जुझारू जनान्दोलन का नेतृत्व करने से लेकर इलाक़े की मेहनतकश जनता की तमाम आर्थिक व सामाजिक माँगों पर दर्जनों आन्दोलनों और अभियानों को नेतृत्व देने के कारण ‘आरडब्ल्यूपीआई’ का मज़बूत समर्थन आधार और इसकी गहरी पहचान है। इस बात से कई पूँजीवादी दल डरे हुए थे। यही कारण है कि अन्यायपूर्ण तरीके से साथी बबन का नामांकन रद्द किया गया। यही चुनाव आयोग फडणवीस के फ़र्ज़ी हलफ़नामे और प्रधानमन्त्री मोदी की फ़र्ज़ी डिग्री के मसले पर पर्दा डालने का काम करता है, वहीं जनता के असल प्रतिनिधियों के कई आवेदनों को मामूली तकनीकी आधार पर ख़ारिज कर देता है। इससे चुनाव आयोग की पूँजीवादी व्यवस्था और पार्टियों के प्रति निष्ठा साफ़ हो जाती है।
सूरत से इन्दौर तक के मसले से साफ़ है कि साम, दाम, दण्ड, भेद का इस्तेमाल कर सभी विपक्षी दलों और उम्मीदवारों का नामांकन ख़ारिज करने की साज़िश रची जा रही है और चुनाव आयोग मूक दर्शक बना बैठा है। ‘आरडब्ल्यूपीआई’ चुनाव आयोग के इस मनमाने रवैये के ख़िलाफ़ सभी ज़रूरी क़ानूनी कार्रवाई का रास्ता भी अपनायेगी। ‘आरडब्ल्यूपीआई’ के प्रवक्ता ने बताया कि पार्टी न केवल विधान सभा चुनाव में इससे ज़्यादा ताक़त के साथ उतरेगी बल्कि चुनाव आयोग के चरित्र का पुरज़ोर तरीक़े से पर्दाफ़ाश भी करेगी।
मज़दूर बिगुल, मई 2024
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन