क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षणमाला – 13 : पूँजीवादी उत्पादन: श्रम प्रक्रिया के रूप में और मूल्य-संवर्धन प्रक्रिया के रूप में
अध्याय-12
अभिनव
पिछले अध्याय में हमने देखा कि पूँजीवादी माल उत्पादन का आम सूत्र किस प्रकार साधारण माल उत्पादन से अलग होता है। हमने देखा कि पूँजीवादी माल उत्पादन में पूँजीपति बेचने के लिए ख़रीदता है, जबकि साधारण माल उत्पादन में माल उत्पादक ख़रीदने के लिए बेचता है। पहले का लक्ष्य है सस्ता ख़रीदना और महँगा बेचना और इसके ज़रिये मुनाफ़ा कमाना। दूसरे का लक्ष्य है अपने उपयोग की वस्तु ख़रीदने के लिए अपना माल बेचना।
पूँजीवादी माल उत्पादन के सूत्र के दोनों छोरों पर मुद्रा होती है, जो गुणात्मक रूप से समान वस्तु है क्योंकि दोनों ही मुद्रा है, जिनमें गुण के आधार पर कोई अन्तर नहीं किया जा सकता है; लेकिन इस सूत्र में परिमाणात्मक तौर पर वह भिन्न होती है। ज़ाहिरा तौर पर, कोई पूँजीपति मुद्रा की समान मात्रा निवेश करके मुद्रा की उसी मात्रा को प्राप्त नहीं करना चाहता है, बल्कि उसके ऊपर लाभ या मुनाफ़ा चाहता है। पूँजीपति जितनी मुद्रा पूँजी का निवेश करता है, वह अपेक्षा रखता है कि वह मुद्रा पूँजी उसके पास मुनाफ़े के साथ वापस आये। साधारण माल उत्पादन के आम सूत्र में दोनों छोरों पर दो भिन्न माल होते हैं, जो गुणात्मक तौर पर भिन्न होते हैं लेकिन उनके मूल्य का परिमाण समान होता है, क्योंकि माल विनिमय का आम नियम है समतुल्यों का विनिमय।
इस आम नियम की रोशनी में जब हम पूँजीवादी माल उत्पादन के सूत्र यानी, माल-मुद्रा-माल’ (M-C-M’) को देखते हैं, तो उसमें निहित अन्तरविरोध स्पष्ट हो जाते हैं। यहाँ भी समतुल्यों का ही विनिमय होता है। मुद्रा-माल-मुद्रा’ (M-C-M’) में पहला विनिमय यानी मुद्रा-माल (M-C) भी समतुल्यों का विनिमय होता है, जबकि दूसरा विनिमय यानी माल-मुद्रा’ (C-M’) भी समतुल्यों का ही विनिमय होता है। लेकिन इसके बावजूद M’ में मूल पूँजी निवेश (M) के अलावा मुनाफ़ा (M’ = M + m) भी शामिल होता है और वह M से ज़्यादा होता है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि मूल्य विनिमय की प्रक्रिया में नहीं बढ़ रहा है, बल्कि वह उत्पादन की प्रक्रिया में बढ़ रहा है।
इसका मूल कारण यह है कि पूँजीपति के नियन्त्रण में एक ऐसा ख़ास माल है, जो कि उत्पादन की प्रक्रिया में ख़र्च होने के साथ मूल्य में बढ़ोत्तरी करता है। यानी, वह अपने उत्पादक उपभोग की प्रक्रिया में ही अपने मूल्य से ज़्यादा मूल्य सृजित करता है। वह माल है श्रमशक्ति। पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्ध की चारित्रिक अभिलाक्षणिकता ही यही है कि इसमें प्रत्यक्ष उत्पादकों को उनके उत्पादन के साधनों से वंचित कर दिया जाता है और इसलिए उनकी श्रमशक्ति एक माल बन जाती है, जिसे पूँजीपति को बेचने के लिए वह मजबूर होता है। इसके बिना उसका जीविकोपार्जन सम्भव नहीं होता है। यानी, प्रत्यक्ष उत्पादक अब एक उजरती या भाड़े के मज़दूर में तब्दील हो जाता है, जिसके पास अपनी श्रमशक्ति के अलावा कुछ भी नहीं होता है। उसकी श्रमशक्ति ही वह विशेष माल होती है जो उत्पादन की प्रक्रिया में अपने मूल्य से अधिक मूल्य पैदा करती है और वही बेशी मूल्य का स्रोत होती है।
इस अध्याय में हम पूँजीवादी उत्पादन की प्रक्रिया को ही विस्तार से समझेंगे। हम उसे एक श्रम प्रक्रिया (labour process) के रूप में भी देखेंगे जिसमें कि श्रमशक्ति एक विशेष भूमिका निभाती है और हम उसे मूल्य–संवर्धन प्रक्रिया (valorization process) के रूप में भी समझेंगे, जिसमें कि वह एक दूसरी विशेष भूमिका निभाती है। इन दोनों पहलुओं को समझकर ही हम पूँजीवादी उत्पादन, बेशी मूल्य के उत्पादन को समुचित रूप में समझ सकते हैं और पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़े के स्रोत को उजागर कर सकते हैं, जो कि पूँजीवादी समाज में रहस्य के पर्दे के पीछे छिपा होता है।
श्रम प्रक्रिया के रूप में पूँजीवादी उत्पादन
श्रम प्रक्रिया क्या है? श्रम प्रक्रिया और कुछ नहीं बल्कि उपयोगी वस्तुओं या उपयोग मूल्यों के उत्पादन के लिए श्रम और प्रकृति का मेल या उनकी अन्तर्क्रिया है। मनुष्य एकमात्र प्रजाति है जो सचेतन तौर पर प्रकृति को अपने श्रम से रूपान्तरित करके उत्पादन करती है। श्रम प्रक्रिया श्रम और प्रकृति के मेल से उपयोग मूल्यों का उत्पादन है और यह बात महज़ पूँजीवादी उत्पादन पद्धति के दौर में ही नहीं बल्कि मानव सभ्यता के समूचे इतिहास के लिए सही ठहरती है, यानी तब से जब से इंसान ने उत्पादन शुरू किया।
श्रम प्रक्रिया के तीन अंग होते हैं: पहला, स्वयं श्रमिक या उत्पादक यानी मनोगत शक्ति; दूसरा, कच्ची सामग्री (raw material) हम जानबूझकर यहाँ ‘कच्चा माल’ शब्द का इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं क्योंकि इससे भ्रम पैदा हो सकता है), यानी श्रम की विषय-वस्तु; और तीसरा, श्रम के उपकरण या औज़ार, यानी श्रम के साधन। कच्ची सामग्री दो प्रकार की हो सकती हैं: प्राकृतिक या उत्पादित। यानी, वे ज्यों की त्यों प्रकृति से भी प्राप्त हो सकती हैं, या फिर वे स्वयं श्रम की उत्पाद हो सकती हैं। श्रम के साधन यानी औज़ार या उपकरण वास्तव में मनुष्य के अंगों का ही विस्तार होते हैं। चाहे आप किसी भी औज़ार, उपकरण या यन्त्र के बारे में सोचें, चाहे वे जटिल हों या सरल हों, वे और कुछ नहीं बल्कि मनुष्य के अंगों का ही विस्तार हैं। श्रम के उपकरण वास्तव में मनुष्य के पास तब से हैं, जब उसने उत्पादन भी नहीं शुरू किया था। मसलन, पुरापाषाण युग के मनुष्य के पत्थर के औज़ार जिनसे वह शिकार करता था, या लकड़ी का टुकड़ा जिससे वह फल तोड़ता था, स्वयं और कुछ नहीं बल्कि श्रम के उपकरण ही थे और इस रूप में उसके अंगों का ही विस्तार थे। लेकिन अभी मनुष्य ने उत्पादन का आरम्भ नहीं किया था और वे इन औज़ारों का इस्तेमाल शिकार या कन्द-मूल एकत्र करने के लिए किया करता था।
श्रम प्रक्रिया स्वयं श्रम का ख़र्च होना या उसका उपभोग है, जबकि अपने उत्पादक उपभोग की इसी प्रक्रिया में श्रम स्वयं कच्ची सामग्री और श्रम के उपकरणों का उपभोग करता है या उन्हें ख़र्च करता है। इस प्रक्रिया में मनुष्य का श्रम ठोस भौतिक रूप यानी वस्तु रूप ग्रहण करता है या वस्तुकृत (objectify) होता है, कच्ची सामग्री का रूपान्तरण हो जाता है और वे उस उत्पाद में ही सम्मिलित हो जाती हैं। नतीजे के तौर पर हमारे सामने होता है श्रम का उत्पाद: एक उपयोग-मूल्य, जो मनुष्य की किसी आवश्यकता की पूर्ति करता है। श्रम के उपकरण भौतिक रूप में श्रम के उत्पाद में नहीं जाते, जबकि कच्ची सामग्री रूपान्तरित होकर भौतिक रूप में उत्पादित वस्तु में चली जाती है। श्रम का उत्पाद व्यक्तिगत उपभोग के लिए भी हो सकता है और वह स्वयं किसी अन्य उत्पाद के उत्पादन में लगने वाली सामग्री भी हो सकता है, यानी वह उत्पादक उपभोग के लिए भी हो सकता है। पहली स्थिति में, यानी व्यक्तिगत उपभोग की स्थिति में, उपभोग का परिणाम स्वयं व्यक्ति होता है, जबकि दूसरी सूरत में, यानी उत्पादक उपभोग की स्थिति में, उपभोग का परिणाम एक अन्य उपयोग मूल्य यानी उपयोगी उत्पाद होता है। ज़ाहिर है, मनुष्य भौतिक तौर पर अपने व्यक्तिगत उपभोग का ही परिणाम या उत्पाद होता है।
उपरोक्त विवरण आम तौर पर श्रम प्रक्रिया पर लागू होता है, चाहे हम किसी भी उत्पादन पद्धति की बात कर रहे हों। पूँजीवादी उत्पादन पद्धति के आने के साथ श्रम प्रक्रिया में कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तन होते हैं। अब श्रमशक्ति एक माल में तब्दील हो चुकी होती है, पूँजीपति मज़दूर से उसकी श्रमशक्ति को ख़रीदता है और समूचे कार्यदिवस के दौरान वह उसे मनचाहे तरीके से इस्तेमाल करने का अधिकारी हो जाता है। इसके साथ ही श्रम प्रक्रिया पूँजी के मातहत हो जाती है। इसके पहले, प्रत्यक्ष उत्पादक श्रम प्रक्रिया पर नियंत्रण रखता था। काम की गति क्या हो, क्या पैदा करना है और कैसे पैदा करना है, कितना पैदा करना है, किस प्रकार के श्रम के उपकरणों का इस्तेमाल करना है, यह स्वयं प्रत्यक्ष उत्पादक तय करता था। लेकिन अब श्रम प्रक्रिया पर पूँजीपति का नियंत्रण होता है और ये सारे फैसले वह लेता है। वह उत्पादन प्रक्रिया को पूँजीवादी तर्क के अनुसार, यानी मुनाफ़े को अधिकतम बनाने के तर्क के अनुसार, श्रम प्रक्रिया को परिवर्तित करता है। श्रम प्रक्रिया को अधिकतम सम्भव सघन बनाया जाता है, उत्पादकता को बढ़ाया जाता है, ताकि कम से कम लागत में अधिक से अधिक मुनाफ़ा हस्तगत किया जा सके। अब “समय की कोई बरबादी” या सामग्री की कोई बरबादी बर्दाश्त नहीं की जाती। साथ ही, अब श्रम प्रक्रिया के फल, यानी कि उत्पाद का स्वामी भी पूँजीपति होता है, न कि प्रत्यक्ष उत्पादक। इस प्रकार पूँजीवादी उत्पादन पद्धति के हावी होने के साथ श्रम प्रक्रिया पूँजी के मातहत हो जाती है और उसमें उपरोक्त परिवर्तन आ जाते हैं।
मूल्य-संवर्धन प्रक्रिया के रूप में पूँजीवादी उत्पादन
श्रम प्रक्रिया मूलत: श्रम और प्रकृति की अन्तर्क्रिया के ज़रिये उपयोग-मूल्यों के उत्पादन की प्रक्रिया होती है। लेकिन पूँजीपति का लक्ष्य केवल उपयोग-मूल्यों का, यानी उपयोगी वस्तुओं का उत्पादन नहीं होता है। पूँजीवादी व्यवस्था में उत्पादन का लक्ष्य समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु उपयोगी वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन नहीं होता है, बल्कि मुनाफ़े के लिए उत्पादन होता है। पूँजीपति का लक्ष्य होता है उपयोग-मूल्यों का इस तरीके से उत्पादन की वह अपने द्वारा निवेशित आरम्भिक पूँजी के मूल्य से ज़्यादा मूल्य पैदा कर सके। यानी वह जितना मूल्य पूँजी के रूप में निवेशित करता है, उससे ज़्यादा मूल्य के मालों को पैदा कर सके और बेच सके। दूसरे शब्दों में, उसका लक्ष्य होता है मूल्य के साथ बेशी मूल्य का उत्पादन करना यानी मुनाफ़ा हासिल करना। लेकिन पूँजीपति यह लक्ष्य कैसे पूरा कर सकता है?
इसके लिए पूँजीपति अपनी आरम्भिक पूँजी का निवेश मज़दूरों की श्रमशक्ति और उत्पादन के साधनों को ख़रीदने में करता है। श्रमशक्ति और उत्पादन की स्थितियों के मेल से ही उत्पादन सम्भव होता है। पूँजीपति उत्पादन की स्थितियों (यानी उत्पादन के समस्त साधनों, भूमि, आदि) का मालिक होता है, जबकि मज़दूर अपने विशिष्ट माल का, यानी श्रमशक्ति का स्वामी होता है। उत्पादन की प्रक्रिया में उत्पादन के साधनों का मूल्य मज़दूरों द्वारा संरक्षित किया जाता है और ज्यों का त्यों उत्पादित माल में स्थानान्तरित कर दिया जाता है। उत्पादन के साधनों में निहित कुल मूल्य (जिसमें बेशी मूल्य भी शामिल होता है) को अतीत के श्रम द्वारा पैदा किया जा चुका होता है और पूँजीपति इन उत्पादन के साधनों को बाज़ार में ख़रीदता है। उत्पादन की प्रक्रिया में उत्पादन के साधन गतिमान श्रम या जीवित श्रम की नुमाइन्दगी नहीं करते हैं, बल्कि मृत श्रम या अतीत के श्रम की नुमाइन्दगी करते हैं। यानी, अतीत में उनमें श्रम वस्तुकृत हो चुका होता है और मूल्य पैदा कर चुका होता है। अब वर्तमान उत्पादन प्रक्रिया में उत्पादन के साधन कोई नया मूल्य नहीं पैदा कर सकते हैं। इसलिए ही हम कहते हैं कि उत्पादन की प्रक्रिया में उत्पादन के साधन मृत श्रम या अतीत में वस्तुकृत हो चुके श्रम और वास्तवीकृत हो चुके मूल्य की नुमाइन्दगी करते हैं और वे कोई नया मूल्य नहीं पैदा कर सकते हैं। नया मूल्य केवल और केवल जीवित श्रम द्वारा ही पैदा हो सकता है।
उत्पादन के साधनों के मूल्य को संरक्षित करना और ज्यों का त्यों माल में स्थानान्तरित करना श्रम की पहली नैसर्गिक ख़ूबी होती है। लेकिन यह प्रक्रिया भी एक सामाजिक प्रक्रिया होती है। इसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ समझने के लिए एक मिसाल पर ग़ौर करते हैं। मान लीजिये कि प्रिण्टिंग के उद्योग में सभी पूँजीपति एक विशिष्ट उत्पादकता व गुणवत्ता वाली लोहे की ऑफसेट मशीनों का इस्तेमाल करते हैं। मान लें कि एक औसत लोहे की बनी ऑफ़सेट मशीन की कीमत रु. 10 लाख है। लेकिन एक ऐसा प्रिण्टर पूँजीपति है जिसकी सनक है कि वह सोने की ऑफसेट मशीन का इस्तेमाल करेगा! ज़ाहिर है, उसकी कीमत लोहे की ऑफ़सेट मशीन से कहीं ज़्यादा होगी, सम्भवत: 3-4 करोड़ के आस-पास। तो ऐसे में क्या उसके मालों में मशीन की उम्र पूरी होने के दौरान 3 या 4 करोड़ रुपये के बराबर मूल्य स्थानान्तरित होगा? नहीं! उसके मालों में भी लोहे की ऑफ़सेट मशीन के मूल्य जितना मूल्य ही स्थानान्तरित होगा। क्यों? क्योंकि किसी उद्योग में उत्पादन की औसत सामाजिक स्थितियों से यह तय होता है कि उत्पादन के साधनों का मूल्य किस रूप में मालों में स्थापनान्तरित होगा। यानी, श्रम द्वारा मालों में उत्पादन के साधनों का वही मूल्य स्थानान्तरित हो सकता है, जो उस उत्पादन की शाखा में उत्पादन की औसत सामाजिक स्थितियों से निर्धारित होता है।
श्रमशक्ति की दूसरी नैसर्गिक विशिष्टता होती है कि वह अपने ख़र्च होने की प्रक्रिया में उससे ज़्यादा अमूर्त श्रम देती है, जितना स्वयं उस श्रमशक्ति के पुनरुत्पादन के लिए आवश्यक होता है। यानी, वह अपने ख़र्च होने या अपने उत्पादक उपभोग की प्रक्रिया में अपने मूल्य से ज़्यादा मूल्य सृजित करता है। श्रमशक्ति का उत्पादक उपभोग या उसका ख़र्च होने का परिणाम वास्तव में गतिमान श्रम या जीवित श्रम ही है। यह जीवित श्रम उत्पादन की प्रक्रिया में उत्पादन के साधनों का उपभोग करता है, कच्चे मालों का स्वरूप बदल डालता है और इस प्रक्रिया में उनमें ही वस्तु-रूप ग्रहण करता है (objectify), जिसका नतीजा होता है माल का उत्पादन। उत्पादन की प्रक्रिया में ही वह उत्पादन के साधनों के मूल्य को संरक्षित कर उन्हें माल में स्थानान्तरित करता है। इस माल के मूल्य में उत्पादन के साधनों के मूल्य और श्रमशक्ति के मूल्य के योग से ज़्यादा मूल्य होता है, क्योंकि श्रमशक्ति अपने ख़र्च होने की प्रक्रिया में अपने मूल्य से ज़्यादा मूल्य पैदा करती है। यानी, मज़दूर अपनी मज़दूरी के मूल्य से ज़्यादा मूल्य एक कार्यदिवस के भीतर पैदा करता है। अगर ऐसा न हो तो कोई पूँजीपति किसी मज़दूर की श्रमशक्ति को नहीं ख़रीदेगा।
माल के मूल्य और पूँजीपति द्वारा निवेश की गयी कुल पूँजी, यानी श्रमशक्ति के मूल्य और उत्पादन के साधनों के मूल्य के योग, के बीच का अन्तर ही बेशी मूल्य या अतिरिक्त मूल्य (surplus value) होता है। मिसाल के तौर पर, मान लें कि एक मज़दूर को अपनी श्रमशक्ति के पुनरुत्पादन, यानी अपने व अपने परिवार के जीविकोपार्जन के लिए रु. 40 प्रति घण्टा की आवश्यकता होती है। यदि कार्यदिवस की लम्बाई 8 घण्टे है तो उसे एक दिन में रु. 320 की दिहाड़ी के रूप में आवश्यकता होती है, ताकि वह अगले दिन फिर आकर कारखाने में खट सके। लेकिन वह 8 घण्टे के कार्यदिवस के आधे हिस्से यानी 4 घण्टे में ही रु. 320 के बराबर मूल्य, यानी अपनी मज़दूरी के बराबर मूल्य के बराबर माल पैदा कर देता है। इसके बाद के 4 घण्टे में उसी उत्पादकता व श्रम सघनता के साथ काम करते हुए वह रु. 320 के बराबर मूल्य बेशी पैदा करता है। यह रु. 320 अतिरिक्त मूल्य या बेशी मूल्य या surplus value है। यह पूँजीपति की जेब में मुफ़्त में जाता है, जिसके बदले में वह मज़दूर को कुछ भी नहीं देता। ऐसा क्यों सम्भव होता है?
इसलिए क्योंकि पूँजीपति ने मज़दूर से उसका श्रम नहीं ख़रीदा है, बल्कि श्रमशक्ति ख़रीदी है। अगर उसने मज़दूर से श्रम ख़रीदा होता, यानी, जितना श्रम मज़दूर से लिया होता, मूल्य के रूप में उतना ही श्रम मज़दूर को मेहनताने के तौर पर दिया होता, तो पूँजीपति के पास कोई मुनाफ़ा नहीं बचता। लेकिन चूँकि वह मज़दूर की श्रमशक्ति, यानी एक कार्यदिवस भर काम करने की क्षमता को ख़रीदता है और चूँकि यह क्षमता एक कार्यदिवस से कम समय में पुनरुत्पादित हो जाती है, इसलिए पूँजीपति कार्यदिवस के बाकी बचे समय यानी बेशी श्रमकाल में पैदा होने वाले मूल्य को बेशी मूल्य के रूप में हड़प लेता है। लेकिन औपचारिक तौर पर पूँजीपति और मज़दूर के बीच कोई असमान विनिमय नहीं हुआ होता। यहाँ मूल बात यह समझना है कि पूँजीपति मज़दूर से क्या ख़रीदता है: श्रम या श्रमशक्ति। श्रम को नहीं ख़रीदा जा सकता क्योंकि श्रम का कोई मूल्य नहीं होता; वजह यह कि श्रम स्वयं मूल्य का सारतत्व है, वही मूल्य है।
इस प्रकार मज़दूर पहले अपनी मज़दूरी के बराबर मूल्य को पैदा करता है और फिर उसके ऊपर बेशी मूल्य भी पैदा करता है। यह प्रक्रिया एक ही कार्यदिवस में सम्पन्न होती है और ऊपर से देखने पर इन दोनों के बीच का अन्तर फ़ौरन समझ नहीं आता है। मूल्य संवर्धन की प्रक्रिया एक एकल सजातीय कार्यदिवस में लगातार जारी रहती है और पहले उसमें श्रमशक्ति के बराबर मूल्य का उत्पादन होता है और फिर बेशी मूल्य का। कहने का अर्थ है कि मज़दूर जिस श्रमकाल में अपनी मज़दूरी के बराबर मूल्य पैदा करता है, यानी आवश्यक श्रमकाल (क्योंकि वह श्रमशक्ति के पुनरुत्पादन के लिए अनिवार्य है) और बेशी या अतिरिक्त श्रमकाल (जिसमें वह पूँजीपति के लिए बिना किसी मेहनताने मुफ्त में बेशी मूल्य पैदा करता है) के बीच कोई भौतिक तौर पर दिखायी देने वाला अन्तर नहीं होता। वह दिक् और काल में निरन्तरतापूर्ण है, अलग-अलग नहीं। यह पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था की विशिष्टता होती है।
पहले सामन्ती या दास व्यवस्था में बेशी या अतिरिक्त श्रमकाल स्थान और समय में आवश्यक श्रमकाल से भिन्न होता था और इसलिए स्पष्ट और ठोस तौर पर दिखायी देता था। मसलन, एक निर्भर किसान हफ्ते में 4 दिन अपनी जोत पर खेती करता था और 3 दिन श्रम लगान (labour rent) के रूप में सामन्त की ज़मीन पर खेती करता था, जिसके लिए उसे कुछ भी नहीं मिलता था। या फिर वह जिंस लगान (rent in kind) यानी फसल के एक हिस्से के रूप में लगान देता था। दोनों ही सूरत में यह स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता था कि प्रत्यक्ष उत्पादक का आवश्यक श्रमकाल क्या है और अतिरिक्त श्रमकाल क्या है। लेकिन पूँजीवादी उत्पादन पद्धति में प्रत्यक्ष उत्पादक की श्रमशक्ति एक माल बन चुकी होती है, जिसे पूँजीपति ख़रीदता है और एक कार्यदिवस के दौरान उसका उत्पादक उपभोग करता है। अब श्रमकाल दो हिस्सों में बँटा हुआ दिखता नहीं है, बल्कि एक निरन्तर कार्यदिवस होता है, लेकिन इसी कार्यदिवस के भीतर आवश्यक श्रमकाल और अतिरिक्त श्रमकाल होते हैं और वैज्ञानिक विश्लेषण करके ही हम यह समझ सकते हैं कि मज़दूर जितने समय में अपनी मज़दूरी के बराबर मूल्य उत्पादित कर रहा है, वह आवश्यक श्रमकाल है और उसके अतिरिक्त वह जो काम कर रहा है वह अतिरिक्त श्रमकाल में किया जा रहा है।
जिस प्रकार उत्पादन के साधनों के मूल्य का मालों के मूल्य में स्थानान्तरित होना एक सामाजिक प्रक्रिया है, उसी प्रकार श्रमशक्ति द्वारा बेशी मूल्य समेत कुल नये मूल्य का सृजन भी एक सामाजिक प्रक्रिया ही है, क्योंकि यह मूर्त वैयक्तिक श्रम नहीं है जो मूल्य पैदा करता है, बल्कि अमूर्त सामाजिक श्रम है जो मूल्य पैदा करता है। इस साधारण अमूर्त श्रम को सामाजिक रूप से आवश्यक श्रमकाल में मापा जाता है, जो हर उत्पादन की शाखा में उत्पादन की औसत सामाजिक स्थितियों से तय होता है। यानी दी गयी उत्पादन की स्थितियों में किसी भी माल के उत्पादन में सामाजिक तौर पर औसतन कितना श्रमकाल लगता है, यही सामाजिक रूप से आवश्यक श्रम को तय करता है। जैसा कि हमने पहले चर्चा की थी, अमूर्त श्रम का अर्थ ही यह होता है कि हम उसकी मूर्त वैयक्तिक विशिष्टताओं को नज़रन्दाज़ करते हैं, यानी उनसे अमूर्तन करते हैं, और उसके आम सामाजिक चरित्र पर ध्यान देते हैं। श्रम के मूर्त रूपों से अमूर्तन विनिमय की प्रक्रिया में नैसर्गिक तौर पर होता ही है क्योंकि इसके बिना अलग-अलग उत्पादकों के श्रम तुलनीय नहीं होंगे और विनिमय ही सम्भव नहीं होगा। विनिमय के लिए श्रम के मूर्त रूपों को नज़रन्दाज़ करना और उसे साधारण अमूर्त सामाजिक श्रम के रूप में देखना अनिवार्य है। यह साधारण अमूर्त सामाजिक श्रम ही है, जो मूल्य का सारतत्व है, जो मूल्य का सृजन करता है। बेशी मूल्य भी अमूर्त श्रम से ही सृजित होता है और पूँजीपति के मुनाफ़े का स्रोत और कुछ नहीं बल्कि मज़दूर वर्ग का श्रम ही है।
मार्क्स ने पूँजीपति वर्ग के ऐसे तमाम विचारकों के सिद्धान्तों की धज्जियाँ उड़ा दीं जो पूँजीपति द्वारा मुनाफ़े को हड़पे जाने को सही ठहराने के लिए मुनाफ़े को “प्रबन्धन का मेहनताना या मज़दूरी” बता रहे थे, या पूँजीपतियों के “संयम और बुद्धि का परिणाम” बता रहे थे। मार्क्स ने बताया यदि मुनाफ़ा प्रबन्धन आदि करने के बदले में पूँजीपति को मिलने वाली मज़दूरी या मेहनताना है, तो वह घटता-बढ़ता क्यों रहता है? उसे भी मज़दूरों की मज़दूरी की तरह तय यानी फिक्स्ड होना चाहिए। मज़दूरी मज़दूर की श्रमशक्ति की कीमत के अनुसार तय स्तर पर रहती है और उसमें आम तौर पर हर माह, या तिमाही या कभी-कभी साल भर तक में भी कोई परिवर्तन नहीं आता (हालाँकि महँगाई बढ़ने के साथ वास्तविक मज़दूरी घटती-बढ़ती रह सकती है)। लेकिन मुनाफ़ा तय या फिक्स्ड नहीं होता है। वह बाज़ार की स्थितियों के मातहत होता है और बढ़ता या घटता रहता है। दूसरी बात, आज प्रबन्धन का काम भी कौन सा पूँजीपति करता है? उसके लिए भी पूँजीपति आज बौद्धिक श्रमिकों को रखता है और वह काम भी आज मज़दूर वर्ग का ही एक हिस्सा करता है। आज पूँजीपति केवल कूपन काटने, शेयर मार्केट में सट्टेबाज़ी करने और इनके ज़रिये मुनाफ़ा हड़पने का काम करता है। सामाजिक रूप से पूँजीपतियों का वर्ग आज ज़रूरी या उपयोगी नहीं रह गया है। उसे शासक वर्ग के राजनीतिज्ञ और सरकारें हमेशा “समृद्धि का सर्जक” बताती हैं, लेकिन वास्तव में समृद्धि के दो ही स्रोत होते हैं: प्रकृति और श्रम, और इन दोनों में ही पूँजीपति वर्ग का कोई योगदान नहीं है। न तो वह प्रकृति के पुनरुज्जीवन में कोई भूमिका अदा करता है और न ही वह किसी उत्पादक कार्रवाई में कोई श्रम करता है। उल्टे वह ज़िन्दा ही कुदरत और मेहनत को लूटकर रहता है। उसके सारे ऐशो-आराम और ऐय्याशी इसी लूट पर क़ायम होती है।
पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़े का स्रोत बेशी मूल्य होता है और समूचे मूल्य के समान ही बेशी मूल्य भी मज़दूर वर्ग के श्रम से ही सृजित होता है, जिसे उत्पादन के साधनों पर अपने मालिकाने के बूते पूँजीपति वर्ग हस्तगत करता है। यह बेशी मूल्य मज़दूर द्वारा दिये गये बेशी श्रम या अतिरिक्त श्रम से पैदा होता है, जो वह उस आवश्यक श्रम को देने के बाद देता है, जिससे उसकी श्रमशक्ति के मूल्य के बराबर मूल्य पैदा होता है। इस सच्चाई को समझने के लिए जो कुंजीभूत कड़ी है वह है श्रमशक्ति के माल में तब्दील होने को समझना। इसके बिना आप पूँजीवादी उत्पादन पद्धति में आवश्यक श्रम और अतिरिक्त श्रम के बीच फ़र्क ही नहीं कर सकते हैं।
अगले अंक में अध्याय-13 में हम बेशी मूल्य के उत्पादन की समूची प्रक्रिया पर और गहराई से निगाह डालेंगे, पूँजीपति द्वारा निवेशित पूँजी के अलग-अलग हिस्सों की पड़ताल करेंगे, बेशी मूल्य की मात्रा व दर, निरपेक्ष बेशी मूल्य और सापेक्षिक बेशी मूल्य को समझेंगे।
मज़दूर बिगुल, अगस्त 2023
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