क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षण माला-6 : मूल्य के श्रम सिद्धान्त का विकास : एडम स्मिथ, डेविड रिकार्डो और मार्क्स – 1

अभिनव

हर भौतिक चीज़ के विकास को ही नहीं बल्कि हर वैज्ञानिक सिद्धान्त के विकास को भी हमें ऐतिहासिक तौर पर समझना चाहिए। हमें कभी भूलना नहीं चाहिए कि कोई क्रान्तिकारी और वैज्ञानिक विचार कहीं आसमान से नहीं टपकता। एक ओर वह सामाजिक व्यवहार के बुनियादी रूपों और उनके अनुभवों के समाहार के ज़रिए विकसित होता है, वहीं वह अपने समय तक की बौद्धिक प्रवृत्तियों के साथ एक आलोचनात्मक रिश्ता क़ायम करके ही विकसित हो सकता है। मार्क्स ने भी अपना वैज्ञानिक और क्रान्तिकारी राजनीतिक अर्थशास्त्र किसी वैचारिक निर्वात में या शून्य में नहीं विकसित किया। एक ओर उन्होंने अपने समय की पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की ठोस गति की गहरी पड़ताल की, वहीं दूसरी ओर उन्होंने अपने समय तक पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की गतिकी पर पूँजीवादी राजनीतिक अर्थशास्त्रियों द्वारा किये गये अध्ययन का भी आलोचनात्मक विवेचन किया। इस प्रक्रिया में उन्होंने विलियम पेटी, जेरेमी बेंथम, डेविड ह्यूम, फ़िज़ियोक्रैट धारा के अर्थशास्त्रियों जैसे क्वेज़्ने, टर्गाट, आदि और विशेष तौर पर अंग्रेज़ी राजनीतिक अर्थशास्त्र के शिखरों, यानी एडम स्मिथ और डेविड रिकार्डो के राजनीतिक अर्थशास्त्र का गहराई से अध्ययन किया, उनकी सकारात्मक खोजों को पहचाना और उनका सही दिशा में विकास किया और साथ ही उनकी कमियों और ग़लतियों की आलोचना पेश की। मार्क्स के राजनीतिक अर्थशास्त्र को सही तरीक़े से समझने के लिए इस ऐतिहासिक विकास पर एक संक्षिप्त दृष्टि डालने से हमारी मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र यानी सर्वहारा वर्ग के राजनीतिक अर्थशास्त्र की समझदारी भी कहीं ज़्यादा स्पष्ट और उन्नत होगी।

हमने पिछले अध्याय में देखा था कि किस प्रकार हर माल का मूल्य उसमें लगे प्रत्यक्ष/जीवित और अप्रत्यक्ष/मृत अमूर्त श्रम की मात्रा से निर्धारित होता है, जो स्वयं सामाजिक रूप से आवश्यक श्रमकाल द्वारा मापा जाता है। हमने समझा कि हर माल का एक उपयोग मूल्य होता है और एक विनिमय मूल्य होता है। हमने यह भी देखा कि विनिमय मूल्य और कुछ नहीं बल्कि दो मालों के मूल्य का अनुपात होता है और माल का मूल्य स्वयं और कुछ नहीं बल्कि सामाजिक रूप से आवश्यक अमूर्त श्रम होता है।

लेकिन आज पूँजीवादी अर्थशास्त्र के सारे पाठ्यक्रमों में छात्रों को बताया जाता है कि माल का मूल्य और उसकी कीमत माँग और आपूर्ति से निर्धारित होती है और पूँजीपति का मुनाफ़ा भी माल को सस्ता ख़रीदने और महँगा बेचने के ज़रिए, यानी बाज़ार क़ीमतों के ज़रिए ही आता है। लेकिन यदि क़ीमत माँग और आपूर्ति से निर्धारित होती है, तो माँग और आपूर्ति के सम्पूर्ण सन्तुलन में होने पर उनकी क़ीमत शून्य होनी चाहिए! ज़ाहिर है, माँग और आपूर्ति के कारण मालों की बाज़ार क़ीमत के तात्कालिक उतार-चढ़ाव की व्याख्या ही की जा सकती है, न कि उनके मूल्य की।

वैसे भी मालों की माँग और आपूर्ति स्वयं किसी चीज़ की व्याख्या नहीं करते, बल्कि स्वयं उनकी व्याख्या करनी होती है। मिसाल के तौर पर, किसी माल की प्रभावी माँग किसी ख़ास क़ीमत पर प्रभावी माँग होती है; यदि क़ीमत घटती है, तो प्रभावी माँग बढ़ती है, जबकि यदि क़ीमत बढ़ती है तो प्रभावी माँग घटती है। नतीजतन, माँग में बढ़ोत्तरी या कमी क़ीमत के उतार-चढ़ाव की कोई व्याख्या पेश नहीं कर सकती है क्योंकि हर प्रभावी माँग किसी न किसी क़ीमत पर एक प्रभावी माँग होती है। इसी प्रकार आपूर्ति का स्तर अपने आप में किसी भी माल के उत्पादन के स्तर से निर्धारित होता है, जो कि स्वयं मुनाफ़े की दर से निर्धारित होता है। वह भी अपने आप में क़ीमतों को निर्धारित नहीं कर सकती है। जब तक माल के मूल्य के निर्धारण के लिए उसके उत्पादन में लगे श्रम पर विचार न किया जाये, तब तक ये सारी समस्याएँ असमाधानित ही रहती हैं।

लेकिन आप यदि यह बात आज किसी पूँजीपति या पूँजीवादी विचारधारा की गिरफ़्त में पड़े किसी मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी से कहें कि हर माल का मूल्य उसमें लगे मानवीय श्रम से तय होता है, तो वह आपको ‘कम्युनिस्ट’, ‘मार्क्सवादी’ आदि कहेगा और आपकी इस बात को बिना किसी तर्क के ख़ारिज करने की कोशिश करेगा कि माल का मूल्य वास्तव में उसमें लगे श्रम से ही तय होता है। वह माल की क़ीमत और पूँजीपति के मुनाफ़े को पूँजीपति की चालाकी, व्यापार-बुद्धि या कुशलता का नतीजा बतायेगा जिसके ज़रिए कोई पूँजीपति अन्य पूँजीपतियों को अपनी कुटिलता और घाघपन से ठगकर या चकमा देकर मुनाफ़ा कमाता है! लेकिन अगर ऐसा है तो समूचे सामाजिक स्तर पर कुल मुनाफ़े (aggregate profit) जैसी कोई चीज़ नहीं रह जायेगी क्योंकि किसी भी पूँजीपति का लाभ किसी दूसरे पूँजीपति की हानि से पैदा हो रहा है। यह न समझने वाले समाज की कुल समृद्धि में नियमित तौर पर होने वाली बढ़ोत्तरी की व्याख्या भी नहीं कर सकते हैं क्योंकि अगर एक पूँजीपति का लाभ दूसरे पूँजीपति की हानि है तो फिर कुल सामाजिक स्तर पर कुल अधिशेष में कोई बढ़ोत्तरी नहीं होनी चाहिए।

इसी प्रकार, पूँजीवादी विचारधारा की गिरफ़्त में पड़ा कोई व्यक्ति मज़दूर की मज़दूरी के बारे में कहेगा कि वह उसकी कुशलता या अकुशलता पर निर्भर करती है और उसने जितनी मेहनत दी, उसका भुगतान उसे मिल गया, उसका कोई शोषण नहीं हुआ! उसके पास शिकायत करने की कोई वजह नहीं होनी चाहिए! पूँजीपति वर्ग, उसकी व्यवस्था और उसकी शिक्षा व्यवस्था व मीडिया आम तौर पर जनता को पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़े और मज़दूर वर्ग की मज़दूरी के बारे में इसी प्रकार की मूर्खतापूर्ण अवैज्ञानिक बातें बताता है और अगर आप समूचे उत्पादन के मूल्य के तौर पर सामाजिक श्रम की बात करते हैं या समाज की समृद्धि के स्रोत के तौर पर मानव श्रम की बात करते हैं तो आपकी बात कोमार्क्सवादीयाकम्युनिस्टबात कहकर बिना किसी तर्क के ख़ारिज करने का प्रयास किया जाता है।

लेकिन मज़ेदार बात यह है कि सभी मालों का मूल्य उसमें लगे कुल मानव श्रम से निर्धारित होता है, यह कहने वाले मार्क्स पहले व्यक्ति नहीं थे। यह बात मार्क्स से पहले (कृषि उत्पादन के मामले में) फ़िज़ियोक्रैट धारा के अर्थशास्त्रियों जैसे क्वेज़्ने और टर्गोट ने और फिर आम तौर पर समस्त उत्पादन के मामले में एडम स्मिथ और डेविड रिकार्डो ने कही थी। स्मिथ और रिकार्डो ने इस बात को तर्कश: और तथ्यत: सिद्ध भी किया था, हालाँकि वे यह नहीं बता पाये थे कि पूँजीपति वर्ग का मुनाफ़ा कैसे और कहाँ से पैदा होता है। वे यह जानते थे कि हर माल के मूल्य के दो हिस्से हैं : पहला, अतीत के श्रम से पैदा हिस्सा, यानी अप्रत्यक्ष श्रम से पैदा हिस्सा जो कि कच्चे माल और मशीन आदि में लगे श्रम के रूप में माल के श्रम-मूल्य में जुड़ता है; और दूसरा, प्रत्यक्ष श्रम का हिस्सा जो मज़दूर के श्रम से पैदा होता है। वे यह भी जानते थे कि पूँजीवादी माल उत्पादन की शुरुआत के बाद प्रत्यक्ष श्रम से पैदा होने वाला नया मूल्य मज़दूरी और मुनाफ़े (और साथ ही लगान, कर, और ब्याज़) में बँटता है। अत: उन्हें यह स्पष्ट था कि मज़दूर के श्रम द्वारा पैदा होने वाला सारा नया मूल्य उसे नहीं मिलता है। लेकिन वे इसके विश्लेषण में नहीं जा पाते और मुनाफ़े के मूल स्रोत की तलाश नहीं कर पाते। वे बस इस तथ्य पर रुक जाते हैं कि प्रत्यक्ष या जीवित श्रम द्वारा सृजित नये मूल्य का मुनाफ़े और मज़दूरी में बँटवारा होता है। ऐसे में, निजी सम्पत्ति यानी उत्पादन के साधनों का मालिक होने के कारण एक प्रकार से पूँजीपति वर्ग नये मूल्य के एक हिस्से को मुनाफ़े के तौर पर हड़प लेने का उचित अधिकारी प्रतीत होने लगता है। इसीलिए मार्क्स ने एक बार क्लासिकीय राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना करते हुए कहा था कि उसका मक़सद निजी सम्पत्ति की व्याख्या करना, यानी उसके मूल को स्पष्ट करना होना चाहिए था, लेकिन वह अपने विश्लेषण की शुरुआत ही निजी सम्पत्ति के तथ्य को स्वीकार करके करता है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि स्मिथ और रिकार्डो के राजनीतिक अर्थशास्त्र का कोई वैज्ञानिक चरित्र और सकारात्मक भूमिका नहीं थी।

विशेष तौर पर, एडम स्मिथ और डेविड रिकार्डो के क्लासिकीय राजनीतिक अर्थशास्त्र की मार्क्स ने प्रशंसा की थी और कहा था कि पूँजीवाद और पूँजीवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र के इस प्रगतिशील दौर में पेश आर्थिक सिद्धान्तों के दो पहलू हैं : वैज्ञानिक या गुह्य (esoteric) और विचारधारात्मक या आमफ़हम (exoteric) हमें इसके वैज्ञानिक पहलुओं को अपनाना चाहिए और उन्हें विकसित करना चाहिए और साथ ही उसके अवैज्ञानिक पहलुओं को त्यागना चाहिए। इसी को दर्शन की भाषा में हम ‘निषेध का निषेध’ के ज़रिए विकास कहते हैं जिसमें किसी भी चीज़ के सही और वैज्ञानिक पहलू को अपनाकर उसे विकसित किया जाता है जबकि उसके ग़लत या अवैज्ञानिक पहलू को त्याग दिया जाता है। जैसा कि कबीर ने कहा था, ‘सार-सार का गहि रहे, थोथा देई उड़ाय’। मार्क्स ने एडम स्मिथ और डेविड रिकार्डो के मूल्य के श्रम सिद्धान्त की वैज्ञानिक आलोचना पेश की, उसके सकारात्मक पहलुओं को विकसित किया और इसी प्रक्रिया में बेशी मूल्य और उद्यमी के मुनाफ़े, भूस्वामी के लगान, सूदख़ोर के ब्याज़ और व्यापारी के वाणिज्यिक मुनाफ़े के विभिन्न रूपों में बेशी मूल्य के वितरण को स्पष्ट किया।

लेकिन एडम स्मिथ और डेविड रिकार्डो ने मूल्य के श्रम सिद्धान्त का किस प्रकार विकास किया, उनके सिद्धान्त के मूल तत्व क्या थे, और उनकी कमियाँ क्या थीं, इन्हें समझने से हमारे लिए यह समझना ज़्यादा आसान होगा कि मार्क्स ने उनकी क्या आलोचना की और किस प्रकार उन्होंने मूल्य के मार्क्सवादी श्रम सिद्धान्त को विकसित करते हुए बेशी मूल्य का सिद्धान्त दिया और पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़े के घृणित-क्षुद्र रहस्य को उजागर किया।

पहले हम एडम स्मिथ के मूल्य के श्रम सिद्धान्त से शुरुआत करते हैं।

एडम स्मिथ : क्लासिकीय राजनीतिक अर्थशास्त्र की बुनियाद

एडम स्मिथ के आर्थिक सिद्धान्त के दो पहलू सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं : पहला यह कि किसी भी देश/राष्ट्र की समृद्धि का स्रोत उस देश/राष्ट्र का श्रम होता है। दूसरा, किसी भी माल की सापेक्षिक क़ीमत या विनिमय मूल्य उसमें लगे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष श्रम से निर्धारित होती है।

एडम स्मिथ अपने विश्लेषण की शुरुआत माल उत्पादन के एक ऐसे दौर से करते हैं जिसे वह आरम्भिक आदिम अवस्था’ (rude and early state) कहते हैं। इस चरण में स्मिथ यह मानकर चलते हैं कि सभी उत्पादक स्वयं अपने उत्पादन के साधनों के स्वामी हैं। यानी सभी माल उत्पादक स्वयं अपने श्रम और अपने उत्पादन के साधनों से उत्पादन करते हैं और मुक्त प्रतिस्पर्द्धा वाले बाज़ार में माल बेचते हैं, यानी अपने मालों का आपस में विनिमय करते हैं। ज़ाहिर है कि वास्तव में ऐतिहासिक तौर पर माल उत्पादन में ऐसी कोई मंज़िल नहीं रही होगी, जब हरेक उत्पादक एक स्वतंत्र माल उत्पादक होगा जो कि अपने श्रम और उत्पादन के साधनों के साथ काम करता होगा और आदर्श रूप में मुक्त व्यापार और मुक्त प्रतिस्पर्द्धा की स्थितियों में बाज़ार में अपना माल बेचता होगा और भूमि में कोई निजी मालिकाना या उत्पादन के साधनों का कोई निजी इजारेदार मालिकाना नहीं होगा। निश्चित तौर पर, साधारण माल उत्पादन के इस दौर में भी व्यापारी, सूदख़ोर आदि रहे होंगे जो कि साधारण माल उत्पादकों से उनके मालों को उनके मूल्य से कम मूल्य पर ख़रीदते होंगे और उसके मूल्य पर बेचकर मुनाफ़ा पाते होंगे। इस मुनाफ़े को मार्क्स ने अलगाव द्वारा मुनाफ़ा या profit on alienation कहा था। क्यों? इसलिए क्योंकि यह माल उत्पादक से उसके माल को उसके मूल्य से कम मूल्य पर अलग करके, यानी लेकर, और उसके मूल्य पर बाज़ार में बेचकर हासिल किया जाता है। अभी तक हम बेशी मूल्य की श्रेणी की बात नहीं कर सकते क्योंकि उत्पादक स्वयं ही श्रमिक भी हैं और स्वयं ही उत्पादन के साधनों के मालिक भी हैं। बहरहाल, एडम स्मिथ इस ‘आरम्भिक आदिम अवस्था’ की बात विश्लेषणात्मक तौर पर कर रहे हैं और अपने मूल्य के सिद्धान्त को स्पष्ट करने के लिए यह मानकर चल रहे हैं कि सभी उत्पादक इसी प्रकार के साधारण माल उत्पादक हैं और किसी अन्य प्रकार के विचलन (disturbance) जैसे कि व्यापारी, सूदख़ोर, भूस्वामी आदि को अभी वह तस्वीर में नहीं ला रहे हैं।

यही विज्ञान की पद्धति भी होती है। किसी भी नियम को उसके शुद्ध रूप में (law as such) समझने के लिए तमाम बाह्य प्रभावों या विचलनों को विश्लेषण या निर्धारण के पहले स्तर पर नज़रन्दाज़ करना आवश्यक होता है और उस नियम को स्थापित करने के बाद ही अन्य कारकों या विचलनों के उस पर प्रभाव का आकलन किया जा सकता है। अगर ऐसा न किया जाये तो न तो उस नियम को ही समझा जा सकता है और न ही उन कारकों या विचलनों को समझा जा सकता है जो कि नियम के कार्यान्वयन को प्रभावित करते हैं। मिसाल के तौर पर, गुरुत्वाकर्षण के नियम को स्थापित करने के लिए पहले ही घर्षण के प्रभाव की चर्चा नहीं की जाती है। गुरुत्वाकर्षण के नियम को शुद्ध रूप से स्थापित करने के बाद ही घर्षण के उस पर प्रभाव की चर्चा अर्थपूर्ण रूप में हो सकती है।

बहरहाल, स्मिथ कहते हैं कि मान लीजिए कि सभी माल उत्पादक स्वयं अपने श्रम और अपने उत्पादन के साधनों से उत्पादन करते हैं। ऐसे में, मालों की सापेक्षिक क़ीमत या विनिमय मूल्य उनके उत्पादन में लगे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष श्रम से निर्धारित होगा। स्मिथ कहते हैं कि हर सेक्टर में एक घण्टे के श्रम के लिए मिलने वाली आय का समतुलन होता रहता है। क्यों? स्मिथ कहते हैं कि मान लीजिए कि एक माल के उत्पादन के क्षेत्र में उत्पादकों को एक घण्टे के श्रम के बदले औसतन रु. 15 की आमदनी होती है और एक दूसरे माल के उत्पादन के क्षेत्र में उत्पादकों को एक घण्टे के श्रम के बदले में औसतन रु. 13 की आमदनी होती है। ग़ौर करें कि यहाँ हम श्रम के हर घण्टे पर होने वाली आमदनी की बात कर रहे हैं, मज़दूरी की नहीं क्योंकि अभी उत्पादन के साधनों से वंचित कोई मज़दूर वर्ग नहीं पैदा हुआ है और न ही उत्पादन के साधनों पर इजारेदार मालिकाना रखने वाला कोई पूँजीपति वर्ग पैदा हुआ है। इसलिए स्मिथ की इस ‘आरम्भिक अवस्था’ में अभी पूँजी, मज़दूरी और मुनाफ़े की बात नहीं की जा सकती है। हाँ, यहाँ उत्पादन, विनिमय और प्रतिस्पर्द्धा मौजूद हैं। बहरहाल, यदि दो अलग-अलग मालों के उत्पादन के सेक्टरों में इस प्रकार से प्रति घण्टा श्रम की आमदनी में अन्तर होगा, तो हमारे उपरोक्त उदाहरण में, दूसरे माल के उत्पादन के क्षेत्र में से कुछ उत्पादक पहले माल के उत्पादन के क्षेत्र में जायेंगे क्योंकि वहाँ प्रति घण्टा श्रम पर होने वाली आय ज़्यादा है और नतीजतन पहले माल के उत्पादन के क्षेत्र में आपूर्ति की मात्रा बढ़ेगी और सापेक्षिक क़ीमत नीचे आयेगी और इसके विपरीत दूसरे माल के उत्पादन के क्षेत्र में से कुछ मात्रा में श्रम के पहले माल के उत्पादन के क्षेत्र में जाने के कारण आपूर्ति घटेगी और सापेक्षिक क़ीमत ऊपर जायेगी। इसके ज़रिए दोनों सेक्टरों में प्रति घण्टा श्रम के बदले होने वाली आमदनी में परिवर्तन आयेगा क्योंकि यह आय क़ीमतों के ज़रिए ही होती है। उत्पादकों के एक सेक्टर से दूसरे सेक्टर में जाने की यह प्रक्रिया तब तक चलेगी जब तक कि प्रति घण्टा श्रम की आय दोनों सेक्टरों में समान नहीं हो जाती है। बाज़ार की प्रतिस्पर्द्धा, जिसे स्मिथ बाज़ार का ‘अदृश्य हाथ’ कहते हैं, इस बात को सुनिश्चित करती है।

इसलिए श्रम के हर घण्टे पर होने वाली आमदनी सभी सेक्टरों में एक जारी प्रवृत्ति के तौर पर समतुलित होती रहेगी। ज़ाहिरा तौर पर, यह प्रक्रिया उथल-पुथल-भरी होगी और श्रम के हरेक घण्टे पर होने वाली औसत आमदनी का समतुलन एक प्रक्रिया के रूप में लगातार चलता रहेगा। लेकिन यह समतुलन होगा ज़रूर क्योंकि यह बाज़ार में होने वाली प्रतिस्पर्द्धा का नैसर्गिक परिणाम होता है। और स्मिथ के अनुसार हर माल के उत्पादन में लगने वाले श्रम पर होने वाली आमदनी के अनुसार ही माल का विनिमय मूल्य या सापेक्षिक क़ीमत निर्धारित होती है। एडम स्मिथ के अनुसार, ऐसे में, हर माल की सापेक्षिक क़ीमत या विनिमय मूल्य उस माल के उत्पादन में लगे अप्रत्यक्ष श्रम और प्रत्यक्ष श्रम से निर्धारित होगी। स्मिथ के लिए अप्रत्यक्ष श्रम वह श्रम है जो कि उत्पादन में लगे उत्पादन के साधनों के उत्पादन में पहले ही ख़र्च हो चुका है, जबकि प्रत्यक्ष श्रम वर्तमान उत्पादन में लग रहा मानव श्रम है। यानी मार्क्स जिसे मृत श्रम कहते हैं वह स्मिथ के लिए अप्रत्यक्ष श्रम है जबकि मार्क्स जिसे जीवित श्रम कहते हैं वह स्मिथ की शब्दावली में प्रत्यक्ष श्रम है। बहरहाल, इस प्रकार से, स्मिथ के अनुसार, हर माल का मूल्य उसमें लगे कुल श्रम (प्रत्यक्ष श्रम + अप्रत्यक्ष श्रम) की कुल मात्रा से निर्धारित होगा।

इसके लिए, स्मिथ एक उदाहरण देते हैं। वह कहते हैं कि कल्पना करें कि हम एक शिकार करने वाले समाज की बात कर रहे हैं। हम शिकार करने वाले दो समूहों की बात करते हैं। एक समूह ऊदबिलाव का शिकार करता है तो दूसरा बारहसिंघे का शिकार करता है। ऊदबिलाव का शिकार करने के लिए जाल की आवश्यकता होती है। माल उत्पादकों का एक अन्य समूह जाल बनाता है। उसी प्रकार बारहसिंघे का शिकार करने के लिए धनुष-बाण की आवश्यकता होती है। माल उत्पादकों का एक चौथा समूह धनुष-बाण बनाता है। यदि एक जाल को बनाने में 4 घण्टे लगते हैं और एक ऊदबिलाव के शिकार में औसतन 4 घण्टे लगते हैं, तो एक ऊदबिलाव की सापेक्षिक क़ीमत उसमें लगे 8 घण्टे के श्रम से निर्धारित हुई। उसी प्रकार, यदि धनुष-बाण बनाने में 2 घण्टे लगते हैं और एक बारहसिंघे के शिकार में औसतन 2 घण्टे लगते हैं, तो एक बारहसिंघे की सापेक्षिक क़ीमत 4 घण्टे के श्रम से निर्धारित हुई। नतीजतन, एक ऊदबिलाव के बदले दो बारहसिंघों का विनिमय होगा। स्मिथ स्पष्ट करते हैं कि विनिमय का इस नियम के मातहत होना इसलिए अनिवार्य नहीं है क्योंकि यही नैतिक, उचित, न्यायपूर्ण या सही है, बल्कि वह स्पष्ट करते हैं कि ऐसा इसलिए होगा क्योंकि प्रतिस्पर्द्धा या बाज़ार का अदृश्य हाथइसे सुनिश्चित करेगा।

यहाँ एक पहलू का ज़िक्र करके आगे बढ़ना होगा। स्मिथ निश्चित तौर पर श्रम को समृद्धि का स्रोत बताते हैं, लेकिन हर श्रम को नहीं। वह ग़ैरउत्पादन श्रम (जो कि ‘अनुत्पादक श्रम’ की तुलना में एक बेहतर शब्द है) और उत्पादन में लगे श्रम या उत्पादनश्रम में अन्तर करते हैं। स्मिथ के लिए उत्पादन-श्रम या ‘उत्पादक श्रम’ वह श्रम है जो समाज में समृद्धि का सृजन करता है, जबकि ग़ैर-उत्पादन श्रम या ‘अनुत्पादक श्रम’ वह श्रम है जो कि अन्य सामाजिक प्रकार्यों को पूरा करने के लिए उस समृद्धि का उपभोग करता है, जो निश्चित तौर पर ज़रूरी हो सकते हैं। अनुत्पादक श्रमिक में वह राज्य की संस्थाओं को संचालित करने वाले व्यक्तियों या समूहों को भी जोड़ते हैं। मिसाल के तौर पर, राजा और सेना स्मिथ के लिए अनुत्पादक श्रमिक की श्रेणी में आते हैं, हालाँकि स्मिथ तत्काल ही यह स्पष्ट कर देते हैं कि राजा को ‘अनुत्पादक श्रमिक’ बोलकर वह राजा का अपमान नहीं कर रहे हैं, बल्कि केवल एक वैज्ञानिक फ़र्क़ को स्पष्ट कर रहे हैं जो कि अनुत्पादक श्रम और उत्पादक श्रम के बीच मौजूद है! इसका यह अर्थ नहीं है कि स्मिथ के लिए राजा या सेना बेकार हैं या सामाजिक रूप से उपयोगी नहीं हैं। स्मिथ द्वारा उत्पादक व अनुत्पादक श्रम में किया गया अन्तर अलग-अलग रूपों में रिकार्डो और मार्क्स के लेखन में भी मौजूद है, लेकिन रिकार्डो में वह आगे विकसित होता है और सबसे व्यवस्थित रूप में वह मार्क्स के लेखन में विकसित होता है। मिसाल के तौर पर, स्मिथ में हर प्रकार की सेवा को अनुत्पादक श्रम का परिणाम मानने की प्रवृत्ति है, जबकि मार्क्स के लिए माल का छूने योग्य भौतिक वस्तु होना या एक उपयोगी व उत्पादक सेवा होना कोई विशेष महत्व नहीं रखता है। मार्क्स परिवहन की सेवा को भी एक माल ही मानते हैं, हालाँकि यह कोई ऐसा माल नहीं है जिसे छुआ जा सके। यह एक उपयोगी प्रभाव के रूप में पैदा होता है और पैदा होने की प्रक्रिया में ही उसका उपभोग भी हो जाता है, जो कि अन्य भौतिक मालों से उसे अलग करता है। इसलिए उत्पादक व अनुत्पादक श्रम के बीच महत्वपूर्ण अन्तर स्थापित करने के बावजूद स्मिथ उसे वैज्ञानिक तौर पर पूर्णत: विकसित नहीं कर पाये थे।

आगे बढ़ते हैं।

साधारण माल उत्पादन की अवस्था में श्रम द्वारा विनिमय मूल्य या सापेक्षिक क़ीमत के निर्धारण के सिद्धान्त को स्थापित करने के बाद, एडम स्मिथ सीधे निजी सम्पत्ति और पूँजी की श्रेणी को अपने विश्लेषण में जोड़ते हैं और माल उत्पादन के अपने इस ‘आरम्भिक आदिम चरण’ से पूँजीवादी माल उत्पादन के विश्लेषण पर आ जाते हैं। ग़ौरतलब है कि स्मिथ इस चर्चा में नहीं जाते हैं कि पूँजी और उजरती श्रम किस प्रकार उत्पादकों को उनके उत्पादन के साधनों से अलग करने से पैदा हुए, किस प्रकार इस प्रक्रिया के मूल में हिंसा और ज़ोर-ज़बर्दस्ती थी या इस पर नहीं विचार करते कि पूँजी और पूँजीवादी निजी सम्पत्ति का मूल कहाँ है। वे सीधे इस नये चरण में यानी पूँजीवादी माल उत्पादन के चरण में पूँजी और निजी सम्पत्ति की श्रेणी से शुरुआत करते हैं, जो कि पूँजीपति का नैसर्गिक अधिकार बन जाते हैं।

यहाँ एडम स्मिथ अपने पूरे विश्लेषण को समान रखते हुए बस एक चीज़ जोड़ देते हैं। स्मिथ के अनुसार, साधारण माल उत्पादन से पूँजीवादी माल उत्पादन में संक्रमण में अपने आप में कुछ ऐसा नहीं है जो माल के मूल्य के कुल श्रम की मात्रा के द्वारा निर्धारण के सिद्धान्त को ख़ारिज करे, बशर्ते कि कुछ पूर्वशर्तें पूरी होती हों। इन शर्तों पर आगे आते हैं। स्मिथ कहते हैं कि प्रत्यक्ष श्रम से जो नया मूल्य पैदा हो रहा है, वह बस अब मज़दूरी, मुनाफ़े और लगान में विभाजित हो रहा है। ग़ौरतलब है कि इस तरह स्मिथ एक प्रकार से यह मान लेते हैं कि अब प्रत्यक्ष उत्पादक यानी मज़दूर के श्रम से जो मूल्य पैदा हो रहा है, उसका पूरा मूल्य उसे नहीं मिल रहा है और उसके श्रम से पैदा नये मूल्य का एक हिस्सा पूँजीपति और भूस्वामी द्वारा ले लिया जाता है। इसीलिए मार्क्स ‘बेशी मूल्य के सिद्धान्त’ नामक अपनी पुस्तक के पहले खण्ड में कहते हैं कि एडम स्मिथ ने यहाँ एक प्रकार से अप्रत्यक्ष तौर पर बेशी मूल्य के अस्तित्व को स्वीकार कर लिया और इस प्रकार मज़दूर यानी प्रत्यक्ष उत्पादक के शोषण को भी स्वीकार कर लिया। ज़ाहिर है, स्मिथ सीधे ऐसा कहीं कहते नहीं हैं। वह बस इतना कहते हैं कि मज़दूर की जीवित/प्रत्यक्ष मेहनत के द्वारा जो मूल्य पैदा होता है वह मज़दूरी, मुनाफ़े और लगान में विभाजित होता है क्योंकि पूँजीपति यह दावा करता है कि कारख़ाना और उत्पादन के साधन उसके हैं इसलिए उसे एक हिस्सा मिलना चाहिए, जबकि भूस्वामी यह दावा करता है कि जिस ज़मीन पर कारख़ाना लगा है, वह उसकी है इसलिए उसे उसका हिस्सा मिलना चाहिए।

भूस्वामी वर्ग के प्रतिक्रियावादी चरित्र को समझना तो पूँजीवाद के उस प्रगतिशील दौर में किसी पूँजीवादी राजनीतिक अर्थशास्त्री के लिए भी सरल था, लेकिन पूँजीपति का नये मूल्य के एक हिस्से पर दावा किस प्रकार मज़दूर के शोषण पर आधारित है, यह बता पाना एडम स्मिथ जैसे प्रतिभावान और कुछ मामलों में प्रगतिशील पूँजीवादी राजनीतिक अर्थशास्त्री के लिए भी सम्भव नहीं था। महान से महान बुद्धिजीवी या वैज्ञानिक भी अपने वर्ग और इतिहास द्वारा उपस्थित सीमाओं का निरपेक्ष तौर पर अतिक्रमण नहीं कर सकते हैं। बहरहाल, स्मिथ नये मूल्य के मज़दूरी, मुनाफ़े और लगान में विभाजन के बारे में बात करते हैं लेकिन वह यह नहीं बता पाते हैं कि इस नये मूल्य का मज़दूरी, मुनाफ़े और लगान के बीच में बँटवारा किस अनुपात में और किस नियम के तहत होता है। पूँजीपति किस अनुपात में बेशी मूल्य हड़पता है, उसके किस हिस्से को लगान के तौर पर भूस्वामी को देता है और कितना हिस्सा मज़दूर को मज़दूरी के तौर पर मिलता है, और इन हिस्सों का अनुपात निर्धारित कैसे होता है, इस प्रश्न पर एडम स्मिथ आगे नहीं बढ़ पाये। इसीलिए वे पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़े के स्रोत और उसके पैदा होने की प्रक्रिया के बारे में खुलासा नहीं कर सके। वजह यह थी कि वह श्रम और श्रमशक्ति के बीच अन्तर नहीं करते थे। लेकिन फिर भी मूल्य के श्रम सिद्धान्त को स्मिथ ने पेश किया और उसके आगे विकास की बुनियाद भी रखी।

एडम स्मिथ ने श्रम को समस्त समृद्धि का स्रोत बताया और कहा कि किसी समाज का कुल श्रम उस समाज की समस्त समृद्धि का स्रोत है। वह दो रूपों में समस्त समृद्धि का स्रोत है : पहला, उसके द्वारा बनाये गये मालों के समाज द्वारा प्रत्यक्ष उपभोग के ज़रिए और दूसरा, एक देश द्वारा अपने मालों के दूसरे देश के मालों से विनिमय के ज़रिए। एडम स्मिथ के इस सिद्धान्त को बाद में डेविड रिकार्डो ने समस्त राजनीतिक अर्थशास्त्र का सबसे महत्वपूर्ण बुनियादी सिद्धान्त कहा और सही ही कहा। यह बात 1776 में, जब एडम स्मिथ की पुस्तक ‘राष्ट्र की सम्पदा की प्रकृति और स्रोतों के बारे में एक अध्ययन’ प्रकाशित हुई, एक महान वैज्ञानिक और क्रान्तिकारी बात थी। दूसरी बात, जो एडम स्मिथ कहते हैं वह यह कि मालों का विनिमय उनमें लगे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष श्रम की कुल मात्रा के अनुसार तय होने वाली सापेक्षिक क़ीमत के आधार पर होता है। यही सिद्धान्त एडम स्मिथ का मूल्य का श्रम सिद्धान्त कहलाता है।

ज़ाहिरा तौर पर, एडम स्मिथ जानते थे कि श्रम अकेले हवा में समाज की सम्पदा को पैदा नहीं करता है और उसके लिए प्रकृति से कच्चे माल की आवश्यकता होती है। लेकिन स्मिथ श्रम को ही समस्त समृद्धि का स्रोत इसलिए बताते हैं क्योंकि उत्पादन की प्रक्रिया को वह एक श्रमप्रक्रिया के रूप में देखते थे और उनके लिए श्रम ही उत्पादन की प्रक्रिया का सक्रिय तत्व था। प्रकृति से आने वाली सामग्री ख़ुद ही आपस में मिलकर कोई उपयोगी वस्तु नहीं बन जाती। यह काम श्रम द्वारा ही हो सकता है। यानी उत्पादन की प्रक्रिया में यह श्रम है जो कि सक्रिय तत्व या कारक की भूमिका निभाता है और इसलिए समस्त समृद्धि का स्रोत स्मिथ के लिए मानव श्रम था। यहाँ तक कि अधिकांश प्राकृतिक कच्चे मालों को भी प्रकृति से श्रम ख़र्च करके ही निकालना पड़ता है, वह ख़ुद-ब-ख़ुद उत्पादन हेतु इस्तेमाल के लिए उपयुक्त रूप में मौजूद नहीं होती है।

ये एडम स्मिथ के सिद्धान्तों में से वे बुनियादी सिद्धान्त हैं जिन्हें मार्क्स ने स्मिथ की शिक्षाओं का वैज्ञानिक पहलू क़रार दिया था और जिसे आगे रिकार्डो ने और फिर समुचित रूप में मार्क्स ने विकसित किया। अगर आज के भोंड़े पूँजीवादी अर्थशास्त्र यानी नवक्लासिकीय अर्थशास्त्र से इसकी तुलना करें, तो हमें एडम स्मिथ के इस सिद्धान्त की प्रगतिशीलता तुरन्त ही दिख जाती है। आज का बुर्जुआ अर्थशास्त्र मालों के मूल्य के उत्पादन को किस प्रकार समझता है? वह एक ‘उत्पादन प्रकार्य’ (production function) का सूत्र देता है जिसके अनुसार उत्पादन श्रम और पूँजी के बराबर सहयोग से पैदा होता है। यानी, Y (yield) = K (capital) + L (labour), या ‘उत्पादन = पूँजी + श्रम’। इसमें श्रम की सक्रिय भूमिका छिप जाती है और उत्पादन को एक श्रम-प्रक्रिया के रूप में नहीं देखा जाता है, बल्कि एक ऐसी प्रक्रिया के रूप में देखा जाता है जिसमें श्रम और पूँजी का बराबर योगदान है और श्रम कोई अकेला सक्रिय तत्व या कारक नहीं है। यह वास्तव में समूचे उत्पादन के स्रोत के तौर पर श्रम की भूमिका को छिपाने और पूँजी के मूल को छिपाने के लिए उठाया गया एक विचारधारात्मक क़दम है। लेकिन नवक्लासिकीय अर्थशास्त्र के विपरीत, एडम स्मिथ ऐसा कुछ नहीं मानते थे। वह स्पष्ट तौर पर मानते थे कि समस्त सम्पदा का स्रोत श्रम ही है। मार्क्स ने बाद में इसे सटीक करते हुए बताया था कि समस्त सम्पदा के दो स्रोत हैं : श्रम और प्रकृति और समस्त मूल्य का केवल एक स्रोत है : श्रम। लेकिन फिर भी यहाँ एडम स्मिथ के सिद्धान्त के वैज्ञानिक चरित्र को स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है।

जैसा कि हम देख सकते हैं, एडम स्मिथ के सिद्धान्त की एक समस्या थी पूँजीवादी समाज में पूँजी, मुनाफ़े और मज़दूरी की श्रेणियों की मौजूदगी में मालों के मूल्य का श्रम की मात्रा के द्वारा निर्धारण। इस सिद्धान्त को साधारण माल उत्पादन के समाज पर (जिसे स्मिथ ‘आरम्भिक आदिम अवस्था’ कहते थे) तो सटीकता से लागू किया जा सकता था, लेकिन एक पूँजीवादी माल उत्पादन वाले समाज पर लागू होने की उसकी अपनी जटिलताएँ थीं। दूसरे शब्दों में, एडम स्मिथ का मूल्य का श्रम-सिद्धान्त एक ऐसे माल उत्पादक समाज में मालों के मूल्य या सापेक्षिक क़ीमत का प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष श्रम की मात्रा के ज़रिए निर्धारण कर सकता था जिसमें कि माल उत्पादक स्वयं अपने उत्पादन के साधनों के स्वामी हों, लेकिन जैसे ही प्रत्यक्ष उत्पादकों को उत्पादन के साधनों से अलग कर मज़दूर बना दिया जाता है और उत्पादन के साधन का मालिकाना पूँजीपति वर्ग के हाथ में आ जाता है; जैसे ही निजी सम्पत्ति, पूँजी व मज़दूरी की श्रेणियाँ पैदा हो जाती हैं, वैसे ही स्मिथ का मूल्य का श्रम सिद्धान्त कई चीज़ों की व्याख्या नहीं कर पाता : जैसे कि पूँजीपति और मज़दूर के बीच का असमान विनिमय, क़ीमत और मूल्य में अन्तर/विचलन पैदा होना, मुनाफ़े का स्रोत, आदि।

वजह यह थी कि स्मिथ श्रम और श्रमशक्ति में भेद नहीं करते थे और इसीलिए वह बेशी मूल्य के सिद्धान्त तक भी नहीं पहुँच पाये। एडम स्मिथ वास्तविक उदाहरणों से जानते थे कि श्रम से निर्धारित सापेक्षिक क़ीमत या विनिमय मूल्य के सापेक्ष बाज़ार क़ीमतें कुछ अलग हो जाती हैं, या वे श्रम-मूल्य से विचलन करती हैं। एडम स्मिथ इस विचलन को व्याख्यायित नहीं कर पाते और इसे दूर करने के लिए दो चीज़ों को नियतांक मान लेते हैं। पहला, वह मान लेते हैं कि हर उद्यम में प्रत्यक्ष श्रम से पैदा होने वाला नया मूल्य समान अनुपात में मज़दूरी और मुनाफ़े में मज़दूर और पूँजीपति के बीच बँटता है; दूसरा, वह मान लेते हैं कि हर उद्योग में पूँजी और श्रम का अनुपात, यानी उत्पादन के साधनों पर होने वाले ख़र्च और श्रम(शक्ति) पर होने वाले ख़र्च का अनुपात समान होगा। मार्क्स ने इसी अनुपात को पूँजी का आवयविक संघटन कहा था। यह उत्पादन के साधनों पर लगने वाली पूँजी और श्रमशक्ति को ख़रीदने पर लगने वाली पूँजी का यानी स्थिर पूँजी और परिवर्तनशील पूँजी का अनुपात है। इन अवधारणाओं पर हम आगे के अध्यायों में विस्तार से चर्चा करेंगे।

ग़ौरतलब है कि एडम स्मिथ श्रमशक्ति की अवधारणा तक नहीं पहुँच सके थे और यही समझते थे कि पूँजीपति और मज़दूर के बीच श्रम और मज़दूरी का विनिमय हो रहा है; कई वजहों के अलावा यह एक प्रमुख वजह थी कि वह बेशी मूल्य के सिद्धान्त तक भी नहीं पहुँच सके थे। श्रमशक्ति की अवधारणा को न समझ पाने के कारण स्मिथ पूँजीपति और मज़दूर के बीच होने वाले विनिमय की व्याख्या नहीं कर पाते थे क्योंकि उनकी नज़र में यह विनिमय समतुल्यों के विनिमय के नियम का खण्डन करता नज़र आता था, जिसके अनुसार, श्रम की समान मात्राओं का विनिमय होता है। साथ ही, श्रम-मूल्य और सापेक्षिक क़ीमत के बीच आने वाले अन्तर को भी एडम स्मिथ सही तरीक़े से व्याख्यायित नहीं कर पाये और इस विचलन को नज़रन्दाज करने के लिए उन्हें हर जगह नये मूल्य के मुनाफ़े और मज़दूरी में समान अनुपात में बँटवारे और हर उद्योग में पूँजी-श्रम के समान अनुपात की कल्पना करनी पड़ी। लेकिन चूँकि वास्तव में ऐसा नहीं होता है, और एडम स्मिथ भी यह तथ्य जानते थे, इसलिए अन्तत: वे मूल्य के श्रम सिद्धान्त से ही विचलन कर गये और मूल्य के उत्पादनलागत सिद्धान्त’ (production-cost theory of value) पर पहुँच गये। यहाँ एडम स्मिथ के सिद्धान्त का वैज्ञानिक पहलू धूमिल हो जाता है और उसका विचारधारात्मक पहलू प्रधान होता जाता है।

एडम स्मिथ कहते हैं कि यदि सभी पूँजीपति नये मूल्य से समान अनुपात में मुनाफ़ा पायें और सभी उद्योगों में यदि श्रम और पूँजी का अनुपात समान हो, तब उनका मूल्य का श्रम सिद्धान्त लागू होता है, मगर यदि पूँजीवादी व्यवस्था में ऐसा नहीं हो रहा हो, तो फिर सापेक्षिक क़ीमत के उत्पादन-लागत सिद्धान्त पर जाना पड़ता है। हालाँकि स्मिथ इसीलिए यह भी कहते हैं कि पूँजीवाद में अपने आप में कुछ ऐसा नहीं है जो कि मूल्य के श्रम-सिद्धान्त को ख़ारिज करे, लेकिन उनके अनुसार यदि उपरोक्त दो शर्तें पूरी नहीं होतीं तो यह सापेक्षिक क़ीमतों के श्रम-मूल्य से विचलन को व्याख्यायित नहीं कर पाता है और वहाँ हमें मूल्य के उत्पादन-लागत सिद्धान्त पर जाना पड़ता है।

यह मूल्य का उत्पादनलागत सिद्धान्त क्या था? इसके तहत, स्मिथ मुनाफ़े की एक नैसर्गिक दर और मज़दूरी की एक नैसर्गिक दर की कल्पना करते हैं। उसके अनुसार, वे उत्पादन के साधन पर हुए ख़र्च और मज़दूरी पर हुए ख़र्च का आकलन करते हैं और उस कुल ख़र्च के आधार पर मुनाफ़े की नैसर्गिक दर के अनुसार एक मुनाफ़ा निकालते हैं और उसे लागत में जोड़ देते हैं। लागत और मुनाफ़े की नैसर्गिक दर से प्राप्त मुनाफ़े का योग ही माल की सापेक्षिक क़ीमत होती है। लेकिन इसमें समस्या यह होती है कि स्मिथ नहीं बता पाते हैं कि मुनाफ़े की यह नैसर्गिक दर और मज़दूरी की यह नैसर्गिक दर बनती कैसे है और इसमें श्रम की उत्पादकता और उसकी मात्रा की क्या भूमिका है। यह अवैज्ञानिक व अतार्किक सिद्धान्त ही आगे चलकर भोंड़े पूँजीवादी अर्थशास्त्र यानी नवक्लासिकीय अर्थशास्त्र ने अपनाया, जबकि स्मिथ की शिक्षाओं के वैज्ञानिक पहलू को उसने नकार दिया। नतीजतन, स्मिथ का मूल्य का श्रम सिद्धान्त कुछ बुनियादी बातों को न समझ पाने के कारण वास्तविक पूँजीवादी माल उत्पादन की व्याख्या करने में धराशायी हो जाता है।

संक्षेप में, स्मिथ के सिद्धान्त की इस कमज़ोरी के पीछे कई अन्तरविरोध थे। जैसा कि हमने ऊपर इशारा किया, पहला प्रमुख अन्तरविरोध तो यह था कि स्मिथ जानते थे कि बाज़ार में हमेशा समतुल्यों का विनिमय होता है लेकिन पूँजीवादी उत्पादन में पूँजीपति और मज़दूर के बीच के विनिमय में वह समतुल्यता नहीं देख पाते थे। कोई 10 घण्टे के श्रम की जगह 5 घण्टे के श्रम का विनिमय नहीं करेगा। स्मिथ यह भी समझते थे कि पूँजीवादी माल उत्पादन की स्थिति में समूचा नया मूल्य पैदा तो मज़दूर के प्रत्यक्ष श्रम से ही हो रहा है, लेकिन उसका एक हिस्सा मुनाफ़े और दूसरा हिस्सा लगान के तौर पर क्रमश: पूँजीपति और भूस्वामी के पास जाता है। ऐसे में, विनिमय की समतुल्यता का बुनियादी सिद्धान्त ही ख़तरे में पड़ जाता है। स्मिथ यह नहीं समझ पाते कि मज़दूर वास्तव में अपनी श्रमशक्ति पूँजीपति को बेच रहा है जो कि स्वयं एक माल बन चुकी है और उसका मूल्य भी उसके उत्पादन व पुनरुत्पादन के लिए आवश्यक श्रम, यानी मज़दूर और उसके परिवार के जीवित रहने हेतु आवश्यक वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन में लगने वाले सामाजिक श्रम से निर्धारित होता है और मज़दूर को मज़दूरी के रूप में सामाजिक तौर पर और औसतन अपनी श्रमशक्ति की क़ीमत ही प्राप्त होती है। यहाँ समतुल्यों का ही विनिमय होता है : श्रमशक्ति और मज़दूरी। लेकिन श्रमशक्ति उत्पादन के दौरान अपने ख़र्च होने की प्रक्रिया में अपने मूल्य से ज़्यादा मूल्य सृजित करती है, दूसरे शब्दों में, वह अपने मूल्य के बराबर मूल्य पैदा करने के बाद पूँजीपति के लिए अतिरिक्त मूल्य पैदा करती है और यही बेशी मूल्य पूँजीपति, भूस्वामी और सूदख़ोर सभी की आय का स्रोत होता है। एडम स्मिथ श्रमशक्ति की अवधारणा तक न पहुँचने के बावजूद यह जानते थे कि मनुष्य की उत्पादकता इस मंज़िल पर पहुँच चुकी है कि एक श्रमिक अपने जीविकोपार्जन के लिए आवश्यक वस्तुओं के मूल्य से ज़्यादा मूल्य एक कार्यदिवस में पैदा कर लेता है क्योंकि इसके बिना समाज में न तो सामाजिक अधिशेष पैदा हो सकता है और न ही वर्ग पैदा हो सकते हैं। और स्मिथ समाज में वर्गों के अस्तित्व से भली-भाँति परिचित थे और समाज के तीन सबसे प्रमुख वर्गों में बँटवारे (पूँजीपति, भूस्वामी और मज़दूर) और उसके अनुसार आय के तीन प्रमुख रूपों  (मुनाफ़ा, लगान, मज़दूरी) के अस्तित्व की बात स्वयं उन्होंने स्पष्ट की थी। ऐसे में, स्मिथ के मूल्य के सिद्धान्त के पूँजीवादी माल उत्पादन की व्याख्या के मामले में अन्तरविरोधों में फँसने की ही अपेक्षा की जा सकती थी, क्योंकि वह श्रमशक्ति और पूँजीवादी समाज में उसके भी एक माल में तब्दील हो जाने की अवधारणा को नहीं समझ पाये।

दूसरा, स्मिथ यह भी नहीं समझ पाते कि साधारण माल उत्पादन से पूँजीवादी माल उत्पादन में विकास की प्रक्रिया में पूँजी और निजी सम्पत्ति आती कहाँ से है। वह इसके लिए एक संयम/कंजूसी सिद्धान्त (parsimony theory) देते हैं, जिसके अनुसार यह पूँजीपतियों का संयम होता है जिसके कारण वे ख़र्च करने की प्रवृत्ति का दमन करते हैं, संचय करते हैं और यही उनकी निजी सम्पत्ति और पूँजी का स्रोत होती है। स्मिथ नहीं समझ पाते कि उजरती श्रम और पूँजी के दो ध्रुवों के पैदा होने के पीछे आदिम संचय की हिंस्र प्रक्रिया थी जिसमें कि साधारण माल उत्पादकों को उनके उत्पादन के साधनों से ज़बरन वंचित किया गया और इसी के साथ एक ओर मज़दूरों का एक ऐसा वर्ग पैदा हुआ जिसके पास अपनी श्रमशक्ति के अतिरिक्त कुछ भी नहीं था, जबकि दूसरी ओर पूँजीपतियों का एक ऐसा वर्ग पैदा हुआ जिसके पास उत्पादन के साधनों की इजारेदारी थी। यह पूँजीवादी समाज का ‘मूल पाप’ था जिससे पूँजीवादी समाज का ध्रुवीय अन्तरविरोध, यानी श्रम और पूँजी के बीच का अन्तरविरोध अस्तित्व में आया। इसी के साथ पूँजीसम्बन्ध या मज़दूरीसम्बन्ध अस्तित्व में आया। उसके पहले सूदख़ोर पूँजी या व्यापारिक पूँजी के रूप में पूँजी का अस्तित्व था जो कि माल उत्पादकों से असमान विनिमय करके ‘अलगाव के ज़रिए मुनाफ़ा’ प्राप्त करती थी, जिसके बारे में हमने ऊपर चर्चा की है, लेकिन वह स्वयं उत्पादन की प्रक्रिया में श्रम को अपने मातहत कर बेशी मूल्य का उत्पादन नहीं करती थी। यह दौर अभी पूँजीवादी व्यवस्था का नहीं था और माल उत्पादकों से असमान विनिमय या ‘अलगाव के ज़रिए मुनाफ़ा’ प्राप्त करने वाली सूदख़ोर व व्यापारिक पूँजी का अस्तित्व दास समाज और सामन्ती व्यवस्था के दौर से ही था। इसलिए यह समझना आवश्यक है कि पूँजी, यानी धन की एक ऐसी मात्रा जो निवेश करने पर बढ़ती हो, का इतिहास पूँजीवाद के इतिहास से पुराना है। सूदख़ोर पूँजी और व्यापारिक पूँजी उत्पादन की श्रम-प्रक्रिया को अपने मातहत लिये बिना यह कार्य करते थे। लेकिन पूँजीवाद का इतिहास आदिम संचय, उजरती श्रम और उद्यमी पूँजी के पैदा होने, उत्पादन की समूची प्रक्रिया और श्रम के पूँजी द्वारा मातहत किये जाने और पूँजी द्वारा बेशी मूल्य के उत्पादन और फिर बेशी मूल्य के पूँजी में रूपान्तरण के साथ शुरू होता है। उत्पादन के साधनों पर पूँजीपति वर्ग की इजारेदारी स्थापित होने और अपनी श्रमशक्ति को बेचने को बाध्य मज़दूर वर्ग के पैदा होने के साथ और पूँजी-सम्बन्ध और मज़दूरी-सम्बन्ध स्थापित होने के साथ पूँजी ने श्रम-प्रक्रिया को अपने मातहत किया और बेशी मूल्य का उत्पादन और अधिग्रहण अपने अधिकार में लिया।

तीसरा, स्मिथ यह नहीं समझ पाते हैं कि पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में मालों के श्रममूल्य और उनकी क़ीमत में अन्तर क्यों आता है। इस अन्तर की व्याख्या नहीं कर पाने के कारण उनका मूल्य का श्रम-सिद्धान्त ही ख़तरे में पड़ जाता है और उसे बचाने के लिए ही वह दो ऐसी कल्पनाएँ करते हैं, जो कि पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में आम तौर पर सम्भव ही नहीं होती हैं। वजह यह कि स्मिथ समझते हैं कि आम तौर पर अलग-अलग उद्योगों में पूँजी और श्रम का अनुपात अलग होगा और उसके कारण उनमें मुनाफ़े की दर अलग-अलग होंगी। लेकिन अगर इस स्थिति पर विचार करें तो स्मिथ का मूल्य का श्रम सिद्धान्त ही ख़तरे में पड़ जाता है। रिकार्डो और बाद में उपयुक्त रूप से वैज्ञानिक रूप में मार्क्स ने बताया कि क़ीमतों के मूल्यों से विचलन के बावजूद मूल्य का श्रम सिद्धान्त क़ायम रहता है। असल में होता यह है यदि मुनाफ़े की दरें अलग-अलग उद्योगों में अलग-अलग होंगी, तो फिर पूँजी का प्रवाह कम मुनाफ़े की दर वाले उद्योगों या आर्थिक क्षेत्रों से अधिक मुनाफ़े की दर वाले आर्थिक क्षेत्रों में होगा। इसके कारण, माँग और आपूर्ति के समीकरण अलग-अलग उद्योगों में बदलेंगे। अधिक मुनाफ़े की दर वाले आर्थिक क्षेत्रों में आपूर्ति बढ़ेगी, क़ीमतें गिरेंगी और मुनाफ़े की दर भी गिरेगी, हालाँकि माल के मूल्य में अपने आप में इस कारक से कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। उसी प्रकार जिन क्षेत्रों में मुनाफ़े की दर कम होगी, उनमें आपूर्ति सापेक्षिक तौर पर घटेगी, क़ीमतें बढ़ेंगी और मुनाफ़े की दर बढ़ेगी। तमाम आर्थिक क्षेत्रों में मुनाफ़े की दर के अन्तर के कारण होने वाले पूँजी के निरन्तर अन्तर्प्रवाह के कारण मुनाफ़े की दर का सतत् औसतीकरण होता रहेगा। बाज़ार में होने वाली प्रतिस्पर्द्धा इसे सुनिश्चित करती है। हर पूँजी अपने लिए औसत मुनाफ़े की अपेक्षा करेगी और मुनाफ़े की दर के औसतीकरण की प्रवृत्ति के कारण मालों के मूल्य मालों की उत्पादन की क़ीमतों (prices of production) में रूपान्तरित होंगे और उनमें एक अन्तर आयेगा। लेकिन इसके बावजूद पूरी अर्थव्यवस्था के स्तर पर कुल मूल्य कुल क़ीमत के बराबर ही होगा और यह विचलन भी मूल्य के श्रम सिद्धान्त के अन्तर्गत ही होता है। यह विचलन या अपवाद नियम को ख़ारिज नहीं बल्कि सिद्ध करता है। इस बात को आंशिक तौर पर अपने तरीक़े से रिकार्डो ने समझा और यह बताया कि पूँजी, उजरती श्रम, मुनाफ़े की मौजूदगी के बावजूद मालों की क़ीमत उनमें लगे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष श्रम की मात्रा से ही निर्धारित होती है और रिकार्डो ने इसे प्रदर्शित भी किया, लेकिन बाद में इसको सम्पूर्ण रूप में वैज्ञानिक तौर पर मार्क्स ने समझा। इस पर हम आगे के अध्यायों में विस्तृत रूप में चर्चा करेंगे।

एडम स्मिथ ने मूल्य का श्रम सिद्धान्त दिया लेकिन अपने विचारधारात्मक पूर्वाग्रहों के कारण वह उसे वैज्ञानिक रूप में आगे तक विकसित नहीं कर सके। उनकी विचारधारा पूँजीवादी विचारधारा थी। लेकिन स्मिथ पूँजीवाद के उभार के दौर के राजनीतिक अर्थशास्त्री थे। यह वह दौर था जब पूँजीवाद सामन्तवाद और चर्च की बेड़ियों के विरुद्ध लड़ रहा था, व्यक्ति की स्वतंत्रता और जनवाद के लिए लड़ रहा था। उस दौर में वह ऐतिहासिक तौर पर प्रगतिशील था। चूँकि मेहनतकश जनता भी सामन्ती निरंकुशता और चर्च के विरुद्ध जनवाद और स्वतंत्रता चाहती थी, इसलिए उभरते हुए पूँजीपति वर्ग के साथ उसका एक मोर्चा था। पूँजीपति वर्ग इस मोर्चे में राजनीतिक और आर्थिक तौर पर सबसे शक्तिशाली और परिपक्व था। यह मैन्युफ़ैक्चरिंग का दौर था, जब अभी पूँजीवादी उद्योगों का मशीनीकरण व्यवस्थित तौर पर शुरू नहीं हुआ था। औद्योगिक क्रान्ति अभी होनी थी। एडम स्मिथ मैन्युफ़ैक्चरिंग के दौर के पूँजीपति वर्ग की विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते थे। वह मानते थे कि मनुष्य की नैसर्गिक प्रवृत्ति अपने व्यक्तिगत निजी हितों के लिए काम करना है, विनिमय करने की प्रवृत्ति (यानी बेचने-ख़रीदने की प्रवृत्ति) उसकी प्रकृति में ही है और इसी के ज़रिए वह लाभ प्राप्त करने का प्रयास करता है। एक माल उत्पादक की प्रकृति को उन्होंने मनुष्य की प्रकृति क़रार दे दिया, बजाय एक माल उत्पादक के रूप में मनुष्य की प्रकृति को समझने के। इसी पूँजीवादी व्यक्तिवादी विचारधारा ने उनकी वैज्ञानिक दृष्टि को भी बाधित किया। यही कारण था कि वह समझ नहीं सके कि पूँजी और निजी सम्पत्ति का मूल क्या है, पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़े का स्रोत क्या है, मज़दूर और पूँजीपति के बीच किसी चीज़ का विनिमय होता है।

स्मिथ मानते थे कि उत्पादन के सभी कारकों को अगर हम ऊर्ध्वाधर रूप में तोड़ते जायें (vertical break-up) तो अन्त में हम श्रम और प्रकृति पर ही पहुँचेंगे और इसीलिए सम्पूर्ण पूँजी निवेश को अन्तत: मज़दूरी के रूप में अभिव्यक्त किया जा सकता है। ज़ाहिर है कि यह बात ग़लत है क्योंकि उत्पादन को उसके मूल तक ले जायें तो ज़ाहिरा तौर पर हमें श्रम और प्रकृति से मिलने वाली वस्तुओं के अलावा कुछ नहीं मिलेगा, लेकिन उत्पादन के हर स्तर पर उत्पादन के साधनों का मालिकाना और नये मूल्य से मुनाफ़े का पूँजीपति वर्ग द्वारा हड़पे जाने को इससे नज़रन्दाज़ नहीं किया जा सकता है। स्मिथ कहते हैं कि चूँकि पूँजीवाद में पूँजी के संचय की प्रवृत्ति होती है, इसलिए पूँजी का निवेश बढ़ता है, श्रमशक्ति की माँग बढ़ती है, मज़दूरी बढ़ती है। स्मिथ इस आधार पर यह नतीजा निकालते हैं कि पूँजीवाद के विकास का फ़ायदा मज़दूर वर्ग को मिलेगा क्योंकि यह मज़दूरी को बढ़ायेगा। लेकिन अभी मशीनीकरण का दौर शुरू नहीं हुआ था इसलिए स्मिथ यह नहीं समझ पाते कि पूँजी संचय बढ़ने के साथ जब पूँजीपति निवेश बढ़ाते हैं, तो उसमें मशीनों व तकनोलॉजी पर निवेश सापेक्षिक तौर पर बढ़ता जाता है जबकि श्रमशक्ति पर निवेश सापेक्षिक तौर पर घटता जाता है। नतीजतन, पूँजी संचय अनिवार्यत: श्रमशक्ति की माँग को हमेशा नहीं बढ़ाता है। वह बेरोज़गारों की एक रिज़र्व आर्मी को हमेशा उत्पादित और पुनरुत्पादित करता रहता है और निरपेक्ष तौर पर कहें तो यह रिज़र्व आर्मी छोटी नहीं होती बल्कि बढ़ती जाती है, हालाँकि श्रम की सक्रिय सेना यानी रोज़गारशुदा मज़दूर आबादी से इसका अनुपात पूँजी संचय में तेज़ी या मन्दी के अनुसार बदलता रहता है। पूँजी संचय का नतीजा अन्त में समाज के एक छोर पर समृद्धि और दूसरे छोर पर दरिद्रता का संचय होते जाना होता है, न कि मज़दूरी का अनिवार्यत: बढ़ना। पूँजीपति उत्पादकता को बढ़ाकर श्रमशक्ति के मूल्य को कम करता है, नये उत्पादित मूल्य में मज़दूरी का हिस्सा सापेक्षिक तौर पर (और मन्दी के दौरों में निरपेक्ष तौर पर भी) घटता है, जबकि मुनाफ़े का हिस्सा सापेक्षिक तौर पर बढ़ता है। यह पूँजी संचय होने की सूरत में आम प्रवृत्ति होती है। लेकिन स्मिथ मैन्युफ़ैक्चरिंग के दौर के पूँजीवादी राजनीतिक अर्थशास्त्री थे, इसलिए वह विशेष तौर पर मशीनीकरण के दौर की फ़ैक्टरी व्यवस्था की इस विशिष्टता को नहीं पहचान पाये। मैन्युफ़ैक्चरिंग के दौर में, स्मिथ के लिए उत्पादकता को बढ़ाने का एकमात्र स्रोत श्रम विभाजन था। और, स्मिथ के अनुसार, यह अपने आप में आम तौर पर पूँजी निवेश में श्रमशक्ति के ऊपर निवेश के हिस्से को उत्पादन के साधनों पर निवेश के हिस्से की तुलना में सापेक्षिक तौर पर घटाता नहीं है। इसलिए स्मिथ यह नहीं समझ पाये कि पूँजीवादी उद्योग के विकास और पूँजी संचय के साथ मज़दूर वर्ग ख़ुशहाल नहीं होता जाता बल्कि सापेक्षिक तौर पर दरिद्र होता जाता है। यही वजह है कि स्मिथ पूँजीवादी विकास को मज़दूर वर्ग के हित के लिए अच्छा मानते हैं, क्योंकि वह नहीं समझ पाते कि पूँजी के आवयविक संघटन का बढ़ते जाना पूँजीवाद में पूँजीपति वर्ग की आपसी प्रतिस्पर्द्धा और पूँजीपति वर्ग और मज़दूर वर्ग के बीच के संघर्ष की एक नैसर्गिक और अनिवार्य आम प्रवृत्ति है।

यह आम प्रवृत्ति नहीं समझ पाने के कारण ही स्मिथ यह भी नहीं समझ पाये कि पूँजीवाद में मुनाफ़े की औसत दर में गिरने की आम दीर्घकालिक प्रवृत्ति का क्या कारण है। वह उत्पादन के एक क्षेत्र के भीतर तो उसकी व्याख्या पूँजी के अतिप्रवाह और अतिउत्पादन के तौर पर कर पाते हैं लेकिन समूची पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में इस आम प्रवृत्ति की वह व्याख्या नहीं कर पाते हैं, हालाँकि वह इस तथ्य से बख़ूबी परिचित थे कि पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में मुनाफ़े की औसत दर में गिरने की दीर्घकालिक प्रवृत्ति होती है। इसलिए आवर्ती क्रम में आने वाले पूँजीवादी संकट, यानी मुनाफ़े की दर के संकट, के कारणों की भी एक वैज्ञानिक समझदारी स्मिथ नहीं विकसित कर सके थे।

लेकिन इन सभी कमियों के बावजूद एडम स्मिथ ने मूल्य के श्रम सिद्धान्त की बुनियाद भी रखी और यह उनका एक महान योगदान था जिसे मार्क्स ने भी पहचाना। वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने आम तौर पर इस बात को पहचाना कि समाज में पैदा होने वाले हर माल का विनिमय मूल्य या सापेक्षिक क़ीमत उसमें लगने वाले प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष श्रम से ही पैदा होती है। इसलिए रूप में उन्होंने पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की गतिकी की समझदारी को विकसित करने में निश्चित ही एक आधारभूत योगदान दिया, चाहे वह कितना ही अधूरा क्यों न हो और इस बात को मार्क्स ने अलगअलग जगहों पर कई बार इंगित किया है। इसके अलावा, स्मिथ ने उत्पादक व अनुत्पादक श्रम, मुनाफ़े की दर के गिरने की प्रवृत्ति, भूमि-लगान आदि पर भी बहुत-कुछ लिखा, जिसके अपने सकारात्मक और नकारात्मक थे। इनका मार्क्स ने आलोचनात्मक विवेचन किया और सकारात्मकों को विकसित किया और नकारात्मकों को ख़ारिज किया। लेकिन हम यहाँ उनके विस्तार में नहीं जा सकते हैं। अभी हमारी दिलचस्पी इस बात में थी कि एडम स्मिथ का मूल्य का श्रम सिद्धान्त क्या था, उसकी उपलब्धि क्या थी और उसकी सीमाएँ क्या थीं।

डेविड रिकार्डो ने एडम स्मिथ के मूल्य के श्रम सिद्धान्त की कुछ समस्याओं को दूर किया हालाँकि वह भी मार्क्स के समान मूल्य के श्रम सिद्धान्त यानी मूल्य के नियम को वैज्ञानिक सम्पूर्णता में विकसित नहीं कर सके और बेशी मूल्य के सिद्धान्त तक नहीं पहुँच सके। लेकिन इसके बावजूद डेविड रिकार्डो ने वैज्ञानिक राजनीतिक अर्थशास्त्र को अपने समय के अनुसार शीर्ष पर पहुँचाया। इसीलिए मार्क्स रिकार्डो के सिद्धान्तों को सम्पूर्णता में बुर्जुआ राजनीतिक अर्थशास्त्र के शिखर के रूप में देखते थे, हालाँकि रिकार्डो के मूल्य के श्रम सिद्धान्त, व्यापार के सिद्धान्त और भू-लगान के सिद्धान्त की मार्क्स ने आलोचना की, उनकी कमियों और ग़लतियों को दूर किया। अगले अंक में हम संक्षेप में देखेंगे कि मूल्य के श्रम सिद्धान्त को डेविड रिकार्डो ने किस तरह से विकसित किया।

मज़दूर बिगुल, नवम्बर 2022


 

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मज़दूरों के महान नेता लेनिन

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