शहीदेआज़म भगतसिंह के 114वें जन्मदिवस पर
मज़दूरों और मेहनतकशों की मुक्ति को समर्पित महान क्रान्तिकारी और चिन्तक थे हमारे भगतसिंह
आशीष
हमें तुम्हारा नाम लेना है
इसलिए कि तुम्हारे नामलेवा नहीं।
संसद के खम्भे भी तुम्हारा
नाम लेते हैं
बिना किसी उच्चारण दोष के
और वातानुकूलित सभागारों में
तुम्हारी तस्वीरें हैं और
फूल-मालाएँ हैं
और धूपबत्तियों का ख़ुशबूदार
धुआँ है।
एक ख्यातिलब्ध राजनयिक
कहता है
कि तुम प्रयोग कर रहे थे
क्रान्ति के साथ
और बाज़ार सुनता है
और रक्त-सने हत्यारे हाथों से
विमोचित हो रही है
तुम्हारी शौर्य-गाथा पर आधारित
नयी बिकाऊ किताब
और एक बूढ़ा विलासी
पियक्कड़-पत्रकार
अपने अख़बारी कालम में तुम्हें
याद करता हुआ
अपने पूर्वजों के पाप धो रहा है।
हमें तुम्हारा नाम लेना है
कि वे लोग ख़ूब ले रहे हैं
तुम्हारा नाम
जिन्हें ख़तरा है
लोगों तक पहुँचने से तुम्हारा नाम
सही अर्थों में।
(शशिप्रकाश की कविता ‘नयी सदी में भगतसिंह की स्मृति’ से)
23 साल की उम्र में देश की आज़ादी के लिए फाँसी के फन्दे पर झूल जाने वाले एक बहादुर नौजवान भगतसिंह की तनी हुई मूँछें और टोपी वाली तस्वीर तो आपने देखी होगी। असेम्बली में बम फेंकने और वहाँ से भागने के बजाय अपनी गिरफ़्तारी देकर बहरी अंग्रेज़ी सरकार को चुनौती देने वाली कहानियों से कई लोग परिचित होंगे। भारतीय शासक वर्ग की पूरी जमात हमारे महान पूर्वज शहीदेआज़म भगतसिंह के जन्मदिवस और शहादत दिवस पर उनके जीवन के केवल इन्हीं पक्षों पर ज़ोर देते रहते हैं क्योंकि उन्हें यह डर लगातार सताता रहता है कि कहीं जनता इनके विचारों को जानकर अन्याय के विरुद्ध विद्रोह न कर दे। शहीदों के सपनों के हत्यारे बुर्जुआ चुनावबाज़ दलों व संशोधनवादी पार्टियों और सुधारवादी ट्रेड यूनियन के नेता हर बार भगतसिंह की तस्वीरों और प्रतिमाओं पर फूलमाला चढ़ाकर उनकी क़ुर्बानियों के क़िस्से सुनाकर ख़ुद को शहीदों के सच्चे वारिस बताते हैं। शासक वर्ग के ये सेवादार हमें अपने महान पूर्वज भगतसिंह के जीवन के दूसरे पहलुओं से क्यों अनजान रखने की कोशिशें करते रहते हैं? भगतसिंह और उनके साथी असल मायने में कौन थे? क्या वे केवल बहादुर और देशभक्त नौजवान थे? राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, खालिस्तानियों जैसी प्रतिक्रियावादी शक्तियाँ भगतसिंह को “राष्ट्रवादी” या सिख विद्रोही के तौर पर पेश करने की कोशिश करती हैं, तो दूसरी ओर अम्बेडकर के व्यवहारवादी सुधारवादी विचारों के साथ भगतसिंह के विचारों को मिलाने वाली ग़द्दार संशोधनवादी पार्टियाँ तथा अन्य अस्मितावादी ताक़तें भगत सिंह और उनके साथियों का नाम लेकर उनके विचारों को दूषित करने का प्रयास करती हैं, ताकि शहीदेआज़म भगतसिंह के विचारों पर धूल और राख की परतें चढ़ायी जा सकें।
आख़िर क्या थे उनके विचार? आज भी शासक वर्ग इनके विचारों को जनता के बीच क्यों नहीं पहुँचने देना चाहते? भगतसिंह और उनके साथी न केवल बहादुर और देशभक्त थे बल्कि वे अपने समय तक के क्रान्तिकारियों की पीढ़ी में सबसे विचारवान एवं उन्नत चेतना से लैस क्रान्तिकारी थे। अपने जीवन के आरम्भिक दिनों में भगतसिंह कांग्रेस और गाँधी की राजनीति से प्रभावित थे लेकिन जल्दी ही उन्हें यह बात समझ में आ गयी कि कांग्रेस ज़मीन्दारों-रायबहादुरों-धन्नासेठों और पूँजीपति वर्ग की पार्टी है और अपने वर्ग हितों के हिसाब से जनता के आन्दोलन का इस्तेमाल कर रही है।
जिस समय भगतसिंह क्रान्तिकारी आन्दोलन से जुड़े उस समय क्रान्तिकारी आन्दोलन में क्रान्तिकारी आतंकवाद की धारा प्रचलित थी। क्रान्तिकारी आतंकवाद की धारा से निर्णायक विच्छेद करने में भगतसिंह की भूमिका बेहद अहम थी। 1925 से 1929 के दौरान भगतसिंह, भगवतीचरण वोहरा और सुखदेव आदि ने रूस में मज़दूर वर्ग के नेतृत्व में सम्पन्न बोल्शेविक क्रान्ति और उसके नेताओं के विचारों का गहन अध्ययन किया। उन्होंने अपने अन्य साथियों को भी अध्ययन के लिए प्रेरित किया। 1928 के अन्त तक भगतसिंह तथा उनके साथी समाजवाद को अपना लक्ष्य बताने लगे और अपने संगठन का भी नाम ‘हिन्दुस्तान प्रजातंत्र संघ’ से बदलकर ‘हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र संघ’ कर दिया। भगतसिंह अपनी फाँसी के समय तक मार्क्सवाद का अध्ययन करते रहे और मार्क्सवादी नज़रिए से अतीत, वर्तमान और भविष्य के मुद्दों पर अपने विचार प्रकट करते रहे। अदालत में अपने प्रसिद्ध बयान में भगतसिंह ने कहा था आज़ादी से हमारा अभिप्राय है एक ऐसे समाज का निर्माण जिसमें एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र तथा एक व्यक्ति द्वारा किसी दूसरे व्यक्ति का शोषण बिल्कुल असम्भव हो जाये। अगर कांग्रेस के नेतृत्व में आज़ादी हासिल हुई तो वह सिर्फ़ ऊपर के 10 प्रतिशत लोगों की आज़ादी होगी, पूँजीपतियों-साहूकारों की आज़ादी होगी; देश के 90 प्रतिशत मज़दूरों-किसानों की ज़िन्दगी को शोषण और लूट से आज़ादी नहीं मिलेगी। उनकी यह चेतावनी एकदम सही साबित हुई।
लम्बे संघर्ष और अकूत क़ुर्बानियों की बदौलत 15 अगस्त 1947 को जो राजनीतिक आज़ादी मिली वह आधी-अधूरी और विकलांग क़िस्म की आज़ादी थी क्योंकि पूँजीपति वर्ग को तो राजनीतिक सत्ता मिल गयी, लेकिन आम मेहनतकश जनता के सपने पूरे नहीं हुए। आज देश का शासन भारतीय पूँजीपति वर्ग के हाथ में है और वही लोगों की मेहनत और संसाधनों का सबसे बड़ा लुटेरा भी है। साथ ही, इस लूट को जारी रखने और बढ़ाने के लिए वह पूँजी और तकनोलॉजी साम्राज्यवादी देशों से भी लेता है और बदले में इस लूट का एक हिस्सा उन्हें भी देता है।
आज़ादी मिलने के बाद दो प्रकार के भारत का निर्माण हुआ। एक मेहनत की लूट करने वाले मुट्ठीभर लोगों का भारत, जिसमें रहने वाले लुटेरों की सम्पत्तियों और अय्याशी के साधनों में दिन दूनी और रात चौगुनी वृद्धि हुई। दूसरा भारत वह है जिसमें अपनी श्रमशक्ति को बेचकर ज़िन्दा रहने वाली विशाल आबादी रहती है। जीवनभर हाड़-तोड़ मेहनत करने वालों के हिस्से में ग़रीबी, भुखमरी, बेघरी, और तंगहाली ही आयी है। चाहे कांग्रेस, भाजपा या क्षेत्रीय पार्टियाँ या फिर नक़ली लाल झण्डे वाली भाकपा, माकपा या लिबरेशन जैसी पार्टियाँ सत्ता में रहें, दूसरे दर्जे के हिन्दुस्तान में बसने वाली मेहनतकश अवाम की हालत दिनों-दिन बद से बदतर ही होती जा रही है। कोरोना महामारी के दौरान ग़रीबों-मेहनतकशों की रोज़ी-रोटी का इन्तज़ाम किये बिना लगाये गये अनियोजित लॉकडाउन और सरकारी कुप्रबन्धन की क़ीमत भी करोड़ों-करोड़ आम लोगों ने ही चुकायी। बड़े पूँजीपति तो इस दौरान भी “आपदा में अवसर” का लाभ उठाते हुए अपनी तिजोरियाँ भरते रहे।
15 अगस्त 2022 के समय देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी आज़ादी के 75वें साल ‘हर घर तिरंगा’ को लटकाकर जश्न मनाने की बात रहे थे। ठीक इसी समय 13 अगस्त को राजस्थान के जालौर में 10 साल के दलित बच्चे को मटके से पानी पी लेने पर उसे एक जातिवादी शिक्षक ने पीट पीट कर मार डाला। अभी हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने 16 साल पुराने एक मामले में मानवाधिकार कार्यकर्ता हिमांशु के ऊपर पाँच लाख रुपये का ज़ुर्माना लगाया क्योंकि उन्होंने छतीसगढ़ के सुकमा ज़िला स्थित गोमपाड़ गाँव में पुलिस और सुरक्षाबलों द्वारा फ़र्ज़ी मुठभेड़ में 16 निर्दोष आदिवासियों के नरसंहार के लिए इन्साफ़ की माँग की। आज से क़रीब बीस साल पहले गुजरात में बिलकिस बानो नामक एक अल्पसंख्यक महिला के साथ सामुहिक बलात्कार और उनकी तीन वर्षीय बेटी समेत परिवार के सात लोगों की हत्या को अंजाम देने वाले 11 अपराधियों को सज़ा पूर्ण होने के पहले ही इसी स्वतंत्रता दिवस के दिन जेल से रिहा कर दिया गया। रिहाई के बाद इन अपराधियों का फूल-माला से ऐसे स्वागत किया गया जैसे कि उन्हें अपने फ़ासीवादी आपराधिक कुकर्मों का ईनाम दिया जा रहा हो। इन चन्द घटनाओं से आज़ादी के जश्न की असलियत का पर्दाफ़ाश हो जाता है। क्या ऐसी ही आज़ादी के लिए हमारे क्रान्तिकारियों ने अपनी शहादतें दी थीं?
भगतसिंह और उनके साथी इस ग़ैर-बराबरी, अन्याय, लूट और शोषण के ख़िलाफ़ थे। वे जनता की एकजुटता के दम पर ऐसे समतामूलक समाज की स्थापना चाहते थे जिसमें उत्पादन से लेकर राजकाज के पूरे ढाँचे पर आम मेहनतकश लोगों का अधिकार हो। इन शहीदों के विचारों से आज भी लोग अगर परिचित हो जायेंगे और एकजुट होकर संघर्ष करेंगे तो लुटेरों और उनकी नुमाइन्दगी करने वाली तमाम पार्टियों की लूट और शोषण के सभी हथियार ध्वस्त हो जायेंगे। लोग क्रान्तिकारियों के सही विचारों को नहीं जानें, आपस में बँटकर रहें, लूट-शोषण का खेल चलता रहे, ऐसी कोशिश तो सभी बुर्जुआ पार्टियाँ करती हैं लेकिन इस काम में फ़ासिस्ट संगठन आर.एस.एस. और उसके चुनावी चेहरे भाजपा और अनेक अनुषांगिक संगठनों का कोई जोड़ नहीं है। देश में साम्प्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने के उद्देश्य से संघी फ़ासिस्ट मन्दिर-मस्जिद, लव जिहाद, गौरक्षा, हिजाब जैसे नक़ली मुद्दों को हवा देते रहते हैं।
आज त्योहारों में भी साम्प्रदायिक उन्माद का रंग घोला जा रहा है, राजनीतिक गोटी लाल करने के मंसूबे से साम्प्रदायिक दंगे तक करवाये जाते हैं। आज पूरे देशभर में साम्प्रदायिक तनाव का माहौल तैयार करने में हिन्दुत्ववादी फ़ासिस्ट शक्तियों के साथ इस्लामिक कट्टरपन्थी ताक़तों की भूमिका पूरक के रूप में ही है। इन प्रतिक्रियावादियों की मदद करने में भारतीय बुर्जुआ मीडिया सहयोगी के रूप में कार्यरत है।
जाति और धर्म के नाम पर फैलाये जा रहे वैमनस्य के बारे में भगतसिंह ने ‘साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाज’ नामक अपने लेख में सीधे शब्दों में कहा था – “लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग-चेतना की ज़रूरत है। ग़रीब मेहनतकश व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूँजीपति हैं, इसलिए तुम्हें इनके हथकण्डों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ न करना चाहिए। संसार के सभी ग़रीबों के, चाहे वे किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं। तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताक़त अपने हाथ में लेने का यत्न करो। इन यत्नों में तुम्हारा नुक़सान कुछ नहीं होगा, इससे किसी दिन तुम्हारी ज़ंजीरें कट जायेंगी और तुम्हें आर्थिक स्वतंत्रता मिलेगी।”
हमें भगतसिंह के इस कथन पर ग़ौर करते हुए वर्गीय आधार पर एकता क़ायम करते हुए अपने सभी हक़ और अधिकार को हासिल करने के लिए आगे आना होगा। जिस मिशन के लिए हमारे क्रान्तिकारी शहीद हुए थे उसे आगे बढ़ाने के लिए आज मज़दूर-मेहनतकश आवाम और ख़ासकर उनके बेटे-बेटियों को भगतसिंह सरीखे क्रान्तिकारियों के जीवन-संघर्ष से परिचित होना होगा, उनके लेखन को पढ़ना होगा और उसे समझकर उस महान लक्ष्य को आगे बढ़ाने के दिशा में काम करना होगा। यही भगतसिंह की सच्ची यादगारी हो सकती जिसे आज शासक वर्ग द्वारा भुला देने की पुरज़ोर कोशिश जारी है।
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