जिनकी मेहनत से दुनिया जगमगा रही है वे अँधेरे के साये में जी रहे हैं
– धर्मराज, अविनाश
इलाहाबाद में संगम के बग़ल में बसी हुई मज़दूरों-मेहनतकशों की बस्ती में विकास के सारे दावे हवा बनकर उड़ चुके हैं। आज़ादी के 75 साल पूरा होने पर सरकार अपने फ़ासिस्ट एजेण्डे के तहत जगह-जगह अन्धराष्ट्रवाद की ख़ुराक परोसने के लिए अमृत महोत्सव मना रही है वहीं दूसरी ओर इस बस्ती को बसे 50 साल से ज़्यादा का समय बीत चुका है लेकिन अभी तक यहाँ जीवन जीने के लिए बुनियादी ज़रूरतें, जैसे पानी, सड़कें, शौचालय, बिजली, स्कूल आदि तक नहीं हैं।
तकिया नाम की इस बस्ती में 250-300 झुग्गियाँ हैं जिनमें लगभग 900 वोटर हैं और कुल आबादी 1500-1600 के आसपास है। बस्ती की बड़ी आबादी दिहाड़ी मज़दूरी करती है। इसके अलावा यहाँ की आबादी साफ़-सफ़ाई, कबाड़ इकठ्ठा करने, ई-रिक्शा चलाने आदि के काम में लगी हुई है। बस्ती की महिलाएँ अल्लापुर, जार्ज टाउन आदि मध्यवर्गीय कॉलोनियों में घरेलू कामगार हैं। अपनी मेहनत से इलाहाबाद को चलाने वाले इन मेहनतकशों के घर पिछले 27 दिनों से अँधेरे में डूबे हुए हैं। उत्तर प्रदेश की फ़ासीवादी भाजपा सरकार माघ मेले की चकाचौंध रोशनी में अपने सारे पाप धुल देना चाहती है और इसलिए संगम के किनारे बसी इस बस्ती की बिजली को माघ मेले में स्थानान्तरित कर एक झटके में सैकड़ों परिवारों को अँधेरे में जीने के लिए मजबूर कर दिया गया। बिजली की समस्या के मद्देनज़र यहाँ के लोग तत्कालीन भाजपा विधायक हर्षवर्धन, पूर्व कांग्रेसी विधायक अनुग्रह नारायण और समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी सन्दीप यादव के घरों का चक्कर लगाते रहे लेकिन हर जगह से निराशा ही हाथ लगी। बिजली विभाग के अधिकारी लगातार इस मसले पर टाल-मटोल करते रहे और अपने बिचौलियों के माध्यम से इन मेहनतकशों से 5000-5000 एंठने की जुगत में थे। बाद में बिगुल मज़दूर दस्ता और दिशा छात्र संगठन (जो इस बस्ती में सावित्रीबाई फुले-फ़ातिमा शेख़ शिक्षा सहायता मण्डल भी चलाता है जिसके ज़रिए यहाँ के बच्चों को नि:शुल्क शिक्षा दी जाती है) के कार्यकर्ताओं ने मोहल्ले में इस मुद्दे को लेकर अभियान संगठित किया और लोगों के हस्ताक्षर जुटाकर लगातार बिजली विभाग के कर्मचारियों पर दबाव बनाया तब जाकर 28 दिन बाद बस्ती में बिजली सप्लाई बहाल हुई।
चुनावी पार्टियों के नारों और वादों की असली सच्चाई यह है कि इस बस्ती में पानी निकासी के लिए नालियों की कोई व्यवस्था ही नहीं है। बरसात के मौसम के अलावा सामान्य दिनों में भी बस्ती में जल भराव की समस्या बनी रहती है जिससे यहाँ के लोग लगातार कई तरह की बीमारियों से ग्रस्त रहते हैं। सबके लिए शौचालय बनवाने की डींग हाँकने वाली भाजपा पिछले पाँच वर्षों से केन्द्र, राज्य की सत्ता और इलाहाबाद के नगर निगम पर क़ाबिज़ है लेकिन इस बस्ती के 300 घरों के बीच एक भी शौचालय नहीं है। लोगों को शौच के लिए बस्ती से ढाई-तीन किलोमीटर दूर खुले में जाना होता है जहाँ आये दिन प्रशासन से झड़प होती रहती है।
पिछले दिनों शिक्षा की स्थिति को जानने के मद्देनज़र दिशा छात्र संगठन की टीम ने बस्ती का सर्वेक्षण किया। सर्वेक्षण में पाया गया कि बस्ती में एक भी विद्यालय नहीं है। सबसे पास में जो स्कूल है भी, वह केवल एक अध्यापक और एक शिक्षामित्र के भरोसे चल रहा है। पास के निजी स्कूलों की फ़ीस इतनी महँगी है कि बस्ती के लोग अपने बच्चों को वहाँ भेज ही नहीं पाते हैं। जिसका नतीजा यह है कि सर्वेक्षण में शामिल 8-15 वर्ष के 138 बच्चों में से 52 आज तक स्कूल गये ही नहीं और जो बच्चे स्कूल की दहलीज़ पर पहुँचे भी तो कोरोना महामारी के चलते सरकारी कुप्रबन्धन ने उनसे यह अधिकार भी छीन लिया है। 36 बच्चों ने कोरोना महामारी के बाद से स्कूल छोड़ दिया है।
वैसे तो बस्ती में मिली जुली आबादी है लेकिन फिर भी बस्ती में एक तरफ़ हिन्दू आबादी बहुसंख्या में है और दूसरी तरफ़ मुस्लिम आबादी। एक तरफ़ बस्ती में तमाम एनजीओ कभी कम्बल बाँटकर तो कभी बच्चों के लिए टॉफ़ी, किताब, कॉपी बाँटकर लोगों के ग़ुस्से पर ठण्डे पानी का छींटा मारते रहे हैं और लोगों की राजनीतिक वर्ग चेतना को धूमिल कर रहे हैं। दूसरी ओर बस्ती में संघी अपनी नफ़रती राजनीति भी फैलाने की जुगत में लगे हुए हैं। संघ परिवार से जुड़ा कुलदीप मिश्र जो कि एक्सीड सेवा संस्थान नाम का एक एनजीओ चलाता है, वह अपने काम के ज़रिए मसीहावाद की राजनीति कर रहा है और लोगों का साम्प्रदायीकरण कर रहा है।
यह स्थिति केवल एक बस्ती की ही नहीं बल्कि देशभर की लाखों बस्तियों की कहानी है। जिनकी मेहनत से दुनिया जगमगा रही है वह अँधेरे के साये में जी रहे हैं। लेकिन यह स्थिति भी अजर-अमर नहीं है। जिस दिन यह आबादी अपनी संगठित शक्ति को पहचान लेगी उस दिन न तो यह व्यवस्था रहेगी, न लुटेरे रहेंगे और न ही शोषण का नामोनिशान बचेगा।
मज़दूर बिगुल, मार्च 2022
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