कौन हैं देविन्दर शर्मा और उनका “अर्थशास्त्र” और राजनीति किन वर्गों की सेवा करती है?
– अभिनव सिन्हा
कोई भी संजीदा कम्युनिस्ट मौजूदा धनी किसान आन्दोलन की माँगों (मूलत: लाभकारी मूल्य की माँग) का समर्थन नहीं कर सकता है, क्योंकि पिछले कई दशकों के दौरान मार्क्सवादी और ग़ैर-मार्क्सवादी अध्येता यह दिखला चुके हैं कि लाभकारी मूल्य की पूरी व्यवस्था ग़रीब-विरोधी है और शुद्धत: धनी किसानों को राजकीय हस्तक्षेप द्वारा व्यापक मेहनतकश ग़रीब जनता की क़ीमत पर दिया जाने वाला बेशी मुनाफ़ा व लगान है। इस समय जारी धनी किसानों के आन्दोलन का समर्थन कर रहे अनेक मार्क्सवादियों को जब अपने पक्ष में कोई तर्क नहीं मिलता, तो वे देविन्दर शर्मा जैसों की शरण में पहुँच जाते हैं। काफ़ी लम्बे समय से देविन्दर शर्मा भारत में प्रगतिशील बुद्धिजीवियों के बीच किसानों और खेती के सवाल के विशेषज्ञ बने हुए हैं। आइए देख लेते हैं कि इन देविन्दर शर्मा की राजनीति और “अर्थशास्त्र” क्या है।
हमें आश्चर्य हुआ था जब हाल ही में हमने कुछ संजीदा मार्क्सवादी-लेनिनवादी बुद्धिजीवियों को मौजूदा किसान आन्दोलन और आज के भारत में किसान प्रश्न को समझने के लिए देविन्दर शर्मा जैसे “अर्थशास्त्रियों” को उद्धृत करते देखा। ताज्जुब की बात इसलिए थी कि कतिपय मार्क्सवादियों-लेनिनवादियों ने कृषि प्रश्न व किसान प्रश्न को समझने के लिए मार्क्स, एंगेल्स, काउत्स्की और लेनिन की शिक्षाओं को समझने और उन्हें लागू करने की बजाय, स्वामी रामदेव के क़रीबी सहयोगी देविन्दर शर्मा में अपने “महान शिक्षक” और “लीडिंग लाइट” को देखना शुरू कर दिया था!
वैसे इसकी वजह भी समझी जा सकती है। असल में, मार्क्सवाद-लेनिनवाद की शिक्षाओं की रोशनी में कोई भी संजीदा कम्युनिस्ट मौजूदा धनी किसान आन्दोलन की माँगों (मूलत: लाभकारी मूल्य की माँग) का समर्थन नहीं कर सकता है, क्योंकि पिछले कई दशकों के दौरान मार्क्सवादी और ग़ैर-मार्क्सवादी अध्येता यह दिखला चुके हैं कि लाभकारी मूल्य की पूरी व्यवस्था ग़रीब-विरोधी है और शुद्धत: धनी किसानों को राजकीय हस्तक्षेप द्वारा व्यापक मेहनतकश ग़रीब जनता की क़ीमत पर दिया जाने वाला एक बेशी मुनाफ़ा व लगान है।
ऐसे में, जो भी थोड़ा पढ़े-लिखे मार्क्सवादी बुद्धिजीवी हैं, वे मार्क्सवाद-लेनिनवाद की शिक्षाओं की रोशनी में मौजूदा आन्दोलन के पक्ष में कोई तर्क, कोई तथ्य या कोई उद्धरण नहीं ढूँढ़ पाते हैं। लेकिन उनमें धारा के विरुद्ध तैरने का साहस भी नहीं है। उल्टे मोदी के फ़ासीवादी शासन के बरक्स वे इस क़दर पराजयबोध और हताशा के शिकार हैं कि जो कोई भी मोदी शासन को चुनौती देता है या चुनौती देता नज़र आता है, वे उसी के सिजदे और पायबोस करने लग जाते हैं! यह और कुछ नहीं वही वायरल संक्रमण है, जिसे एक मार्क्सवादी बुद्धिजीवी ने कुछ वर्ष पहले “लिबरल वायरस” का नाम दिया था। हमारे ये मार्क्सवादी-लेनिनवादी बुद्धिजीवी इसी लिबरल वायरस की गिरफ़्त में हैं और अपनी हताशा और पराजयबोध में धनी किसानों की गोद में जा बैठे हैं, इस आस में कि शायद ये धनी किसान ही मोदी सरकार को मज़ा चखा दें! और इस प्रक्रिया में वे भूल गये हैं कि ये धनी किसान ही आज पंजाब, हरियाणा और पूरे भारत के गाँवों में ग्रामीण पूँजीपति वर्ग की भूमिका में हैं, जो मुनाफ़े, लगान और सूद के ज़रिये गाँव के ग़रीब मेहनतकशों (यानी ग़रीब किसान व खेतिहर मज़दूर) को लूटते और निचोड़ते हैं, जिनके लाभकारी मूल्य के ज़रिये मुनाफ़ाख़ोरी की क़ीमत सारे देश की ग़रीब जनता चुकाती है, जो गाँवों में दलित मेहनतकश आबादी के मुख्य शोषक और उत्पीड़क हैं। मोदी सरकार से इनकी मुख़ालफ़त केवल एक आर्थिक माँग के प्रश्न पर है, यह कोई राजनीतिक विरोध नहीं है और यह इस आन्दोलन प्रक्रिया में कई बार दिख भी चुका है और आगे भी दिखेगा। जैसे ही लाभकारी मूल्य के प्रश्न पर किसी प्रकार का समझौता होता है, यह आन्दोलन समाप्त हो जायेगा।
जब ऐसे मार्क्सवादियों को मार्क्सवाद-लेनिनवाद में मौजूदा धनी किसान आन्दोलन का तर्कपोषण करने के लिए कुछ नहीं मिलता तो वे देविन्दर शर्मा जैसों की शरण में पहुँच जाते हैं। तो आइए देख लेते हैं कि इन देविन्दर शर्मा की राजनीति और “अर्थशास्त्र” क्या है।
देविन्दर शर्मा ‘किसान एकता’ नामक एक मंच के संस्थापक हैं और उनका दावा है कि उससे 65 किसान संगठन व यूनियनें जुड़े हुए हैं। शर्मा का दावा यह भी है कि कुल 40 करोड़ किसान व खेत मज़दूर उनके मंच से जुड़े हुए हैं! (वैसे भारत में कुल खेतिहर आबादी केवल 26 करोड़ के क़रीब है!)
किसान एकता मंच की प्रमुख माँग क्या है? इसकी प्रमुख माँग है स्वामीनाथन आयोग की सिफ़ारिश मानते हुए कृषि की व्यापक लागत के ऊपर 50 प्रतिशत का मुनाफ़ा सुनिश्चित करने वाला लाभकारी मूल्य दिया जाय। यह किसकी माँग है? इस पर हम पहले भी लिख चुके हैं, लेकिन एक बार संक्षेप में फिर तथ्यों व आँकड़ों के ज़रिये देख लेते हैं कि यह किस वर्ग की माँग है।
लाभकारी मूल्य व्यापक लागत के ऊपर दिया जाने वाला मुनाफ़ा है। यह मुनाफ़ा 40 से 50 फ़ीसदी के बीच रहता है। व्यापक लागत में सभी लागतें शामिल होती हैं जैसे मज़दूरी, लगान, ब्याज़, खाद व कीटनाशक, खेती के उत्पादन के साधन, सिंचाई, और यहाँ तक कि पारिवारिक श्रम भी, (हालाँकि बिरले ही धनी किसान परिवार के लोग खेतों में ख़ुद श्रम करते हैं), आदि।
दूसरी बात, लाभकारी मूल्य का लाभ उसे ही मिल सकता है, जिसके पास बेचने योग्य पर्याप्त बेशी उत्पाद हो। भारत में 92 प्रतिशत किसान ग़रीब व सीमान्त किसान हैं, जिनके पास 2 हेक्टेयर से कम ज़मीन है। इन किसानों के पास आम तौर पर बेशी उत्पाद की कोई विचारणीय मात्रा होती ही नहीं है, या अगर होती भी है, तो उनकी लाभकारी मूल्य के पूरे तंत्र तक पहुँच ही नहीं होती है और यदि पहुँच होती भी है, तो वे साल भर में जितना अनाज बेचते हैं, उससे ज़्यादा ख़रीदते हैं, जिसके कारण लाभकारी मूल्य की व्यवस्था से उनको फ़ायदा नहीं बल्कि नुक़सान होता है।
यह सच्चाई सभी जानते हैं, लेकिन इसके बारे में चुप हैं, क्योंकि उन्हें मौजूदा राजनीतिक बयार में बहते हुए धनी किसानों की पालकी का कहार बनना है। पंजाब में यह प्रतिशत पूरे भारत के औसत के मुक़ाबले कुछ ज़्यादा है क्योंकि वह ‘हरित क्रान्ति’ की मूल ज़मीन है, जिसका मक़सद पूँजीवादी फ़ार्मरों के एक वर्ग को पैदा करना था। वहाँ पर 2 हेक्टेयर से कम वाले किसान 34 प्रतिशत के क़रीब हैं और 4 हेक्टेयर से कम वाले किसान क़रीब 68 से 70 प्रतिशत हैं। ऐसे में, लाभकारी मूल्य का लाभ उठाने वाले धनी किसानों का प्रतिशत पंजाब में भारत के औसत के मुक़ाबले ज़्यादा है। लेकिन पंजाब में भी 25 से 30 प्रतिशत किसानों को ही लाभकारी मूल्य का नेट प्रॉफ़िट मिलता है। पूरे भारत का औसत यह है कि कुल किसान आबादी में से 6 प्रतिशत को ही लाभकारी मूल्य का नेट प्रॉफ़िट मिलता है। लेकिन पंजाब में भी कुल किसान आबादी में लाभकारी मूल्य का नेट प्रॉफ़िट प्राप्त करने वाली आबादी 25 से 30 प्रतिशत से ज़्यादा नहीं है।
तीसरी बात, जो लोग कहते हैं कि लाभकारी मूल्य की व्यवस्था के बिना सरकारी ख़रीद और सार्वजनिक वितरण प्रणाली ख़त्म हो जायेगी, वे भी बिल्कुल उल्टी बात करते हैं क्योंकि ऊँचे लाभकारी मूल्य के कारण वास्तव में सार्वजनिक वितरण प्रणाली का नुक़सान होता है। वजह यह है कि लाभकारी मूल्य के कारण पंजाब और हरियाणा में एक मोनोकल्चर की व्यवस्था हावी हो गयी है और सरकारी ख़रीद की मौजूदा व्यवस्था के तहत जिस मात्रा में चावल व गेहूँ का उत्पादन होता है, वह देश की आबादी की आवश्यकता से कहीं ज़्यादा है। लाभकारी मूल्य के कारण अनाज की क़ीमतें वैश्विक क़ीमतों से ज़्यादा होने के कारण उनका निर्यात भी नहीं हो पाता है। और क़ीमतें ज़्यादा होने के कारण ही सरकारी ख़रीद के तहत जो अनाज ख़रीदा जाता है, उसे सरकार सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत रियायती दरों पर वितरित करने की बजाय, सड़ा देना और कम्पनियों को बेच देना पसन्द करती है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली लाभकारी मूल्य की व्यवस्था के पहले भी मौजूद थी और उसके बाद भी मौजूद रह सकती है, उसका लाभकारी मूल्य से कोई कारणात्मक सम्बन्ध नहीं है। अगर कोई कारणात्मक सम्बन्ध है, तो वह व्युत्क्रमानुपाती है, समानुपातिक नहीं है।
सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सरकार अलग कारणों से 1992 से ही नष्ट कर रही है। लेकिन 1992 से 2019 के बीच लाभकारी मूल्य की व्यवस्था को न सिर्फ़ क़ायम रखा गया है, बल्कि उसे और बढ़ाया गया है। सरकारी ख़रीद में भी बढ़ोत्तरी हुई है। अगर सार्वजनिक वितरण प्रणाली के साथ इसका कोई कारणात्मक सम्बन्ध होता तो इस दौर में सार्वजनिक वितरण प्रणाली और सुदृढ़ और विस्तारित होती। सच यह है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली को पंगु बनाना और उसे समाप्त करना शासक वर्गों का एक अलग एजेण्डा है, जिसके ख़िलाफ़ अलग से लड़ने की आवश्यकता है। इस लड़ाई को धनी किसानों की लाभकारी मूल्य की माँग से जोड़ना न सिर्फ़ ग़लत और नुक़सानदेह है बल्कि मूर्खतापूर्ण भी है।
लाभकारी मूल्य के कारण खाद्यान्न की बाज़ार क़ीमतों के लिए भी एक ऊँचा सन्दर्भ बिन्दु निर्धारित होता है और खाद्यान्न की महँगाई बढ़ती है जो पूरी मेहनतकश-ग़रीब आबादी को नुक़सान पहुँचाती है। यह भी मार्क्सवादी और ग़ैर-मार्क्सवादी अध्येताओं द्वारा स्थापित एक ऐसा तथ्य है, जिस पर सन्देह करने का प्रश्न ही नहीं उठता है। हम इसी श्रृंखला की पिछली कड़ियों में और मैंने अपनी वॉल पर इस बारे में कई लेख लिखे हैं, जिन्हें दिलचस्पी रखने वाले पाठक पढ़ सकते हैं। ऐसे में, लाभकारी मूल्य की पूरी माँग गाँव के 6 प्रतिशत धनी किसानों के मुनाफ़े की ख़ातिर व्यापक मेहनतकश जनता को लूटने की माँग है। इसकी वजह से न सिर्फ़ व्यापक मेहनतकश जनता की वास्तविक आय और जीवन स्तर नीचे जाता है, बल्कि उनका पोषण स्तर भी नीचे जाता है, क्योंकि खाद्यान्न पर पहले के मुक़ाबले ज़्यादा ख़र्च करने के बावजूद वे पहले से कम भोजन उपभोग कर पाते हैं और साथ ही अन्य वस्तुओं व सेवाओं का उनका उपभोग भी घटता है, क्योंकि उनकी आय का पहले से ज़्यादा बड़ा हिस्सा भोजन पर ख़र्च होता है। यह सब बातें स्थापित तथ्य हैं और सभी संजीदा विश्लेषक व अध्येता इससे वाक़िफ़ हैं। लेकिन इस पर भी वामपन्थी टीकाकारों तक ने साज़िशाना चुप्पी साध रखी है, क्योंकि मौजूदा धनी किसान आन्दोलन के बारे में कोई आलोचनात्मक विश्लेषण रखने का साहस वे नहीं जुटा पा रहे हैं। नतीजतन, वे देविन्दर शर्मा जैसे बौद्धिक नीम-हकीमों व बाबा रामदेव के क़रीबी सहयोगी की शरण में जा रहे हैं!
इन नीम-हकीमों का यह दावा कि भारत और यहाँ तक कि पंजाब और हरियाणा में कोई धनी किसान नहीं है, एक हास्यास्पद गप्प है। समूची किसान आबादी की औसत आय को रुपये 6800 प्रति माह के क़रीब दिखाकर ये मूर्ख पूछते हैं कि “कहाँ है धनी किसान?” ऐसे किसी भी औसत आँकड़े को आधार बनाया जाय तो भारत के नागरिकों की प्रति व्यक्ति आय रुपये 11000 प्रति माह दिखाकर पूछा जा सकता है कि “कहाँ है भारत में पूँजीपति, कहाँ है अम्बानी, अडानी, टाटा, वग़ैरह?” छठी कक्षा का छात्र भी जानता है कि औसत का क्या अर्थ होता है और ऐसे कुतर्क उसे भी मूर्ख नहीं बना सकते हैं। लेकिन कई मार्क्सवादी-लेनिनवादी भी धनी किसान आन्दोलन की आँधी में तिनका बन कर बहने के लिए ऐसे कुतर्कों का सहारा लेते हैं और बाबा रामदेव के भक्त देविन्दर शर्मा की शरण में पहुँच जाते हैं! थोड़ा शर्मनाक लगता है!
साथ ही, एक और दावा करके देविन्दर शर्मा जैसे लोग हमारे इन असावधान और मासूम मार्क्सवादियों-लेनिनवादियों को बहा ले जाते हैं: पंजाब के 80 प्रतिशत से ज़्यादा किसानों पर क़र्ज़ है! हम पिछली किश्त में दिखला चुके हैं कि 4 हेक्टेयर से अधिक जोत के किसान जो कि पूँजीवादी खेती करते हैं, उजरती श्रम का शोषण करके मुनाफ़ा करते हैं, कमीशनख़ोरी, सूदख़ोरी करके मुनाफ़ा कमाते हैं, वे भी पूँजीवादी निवेश करने के लिए ऋण लेते हैं। हर पूँजीपति निवेश के लिए ऋण लेता है। इस ऋण और उस ऋण में फ़र्क़ किया जाना चाहिए जो कि 2 हेक्टेयर से कम जोत वाला किसान अपनी खेती के लिए चालू पूँजी हेतु लेता है या अपने निजी ख़र्च जैसे कि शादी, वग़ैरह के लिए लेता है। यह भी आँकड़ों की घटिया क़िस्म की बाजीगरी है, जो कि एक आम मेहनतकश नागरिक और अम्बानी को एक क़तार में लाकर खड़ा कर देती है। निवेश ऋण और गुज़ारे या निजी ख़र्च के लिए मजबूरी में लिये गये क़र्ज़ में अन्तर किये बग़ैर एक एग्रीगेट एवरेज बताना और फिर धनी किसानों को बेचारा बताना उसी प्रकार की घटियाई है, जिस प्रकार की घटियाई बुर्जुआ क़ौमवादी दृष्टिकोण से कई अर्थशास्त्री करते हैं और दिखलाते हैं कि पूरा भारत ऋणी है, पूरे भारत का एक राष्ट्रीय हित है, वग़ैरह।
ये ही सारे तर्क देविन्दर शर्मा भी देता है और ठीक उसी प्रकार लोगों को मूर्ख बनाता है, जिस प्रकार बाबा रामदेव पतंजलि की दवाओं से जनता को मूर्ख बनाता है। लेकिन मूर्ख बनने के लिए आतुर लोगों की क़तार में कई मार्क्सवादी-लेनिनवादी भी जाकर खड़े हैं, जिन्होंने कृषि प्रश्न पर मार्क्स, एंगेल्स, काउत्स्की (जब तक वे मार्क्सवादी थे) और लेनिन की शिक्षाओं को सुविधाजनक रूप से भूल जाने और बाबा रामदेव व उनके सहयोगी देविन्दर शर्मा की पूँछ पकड़ लेने का रास्ता चुना है।
देविन्दर शर्मा बाबा रामदेव के बारे में क्या कहते हैं यह भी सुन लीजिए: “मेरे लिए – और उनके (बाबा रामदेव के लिए) भी – कृषि का जीर्णोद्धार करना और जनता का सशक्तीकरण करना सच्चे आर्थिक विकास, वृद्धि और प्रसन्नता की कुंजी है। इसलिए उनमें (बाबा रामदेव में) मैं इस सन्देश को बढ़ाने वाले एक व्यक्ति को देखता हूँ जो स्पष्ट शब्दों में और ऊँचे स्वर में इस सन्देश को लोगों तक पहुँचा सकता है। उनके अन्दर यह दिखलाने की शक्ति है कि एक और भारत सम्भव है। वह व्यावहारिक विकल्प उपलब्ध कराने में सहायता करने के लिए आतुर हैं।”
यह हैं वह महानुभाव जिनके शिष्य बनने के लिए मार्क्सवादियों-लेनिनवादियों में भी होड़ लग गयी है! सच्चाई यह है कि देविन्दर शर्मा धनी किसान व कुलक हितों की सेवा करने वाला एक दक्षिणपन्थी “बौद्धिक” है, जिसके “अर्थशास्त्र” और राजनीति की कलई उसके किसान एकता मंच की माँगों और इन महोदय के साक्षात्कार सुनते ही खुल जाती है।
आँकड़ों का एक सटीक विश्लेषण करने की बुनियादी तमीज़ भी जिस अर्थशास्त्री में न हो, क्या उसके पास अपने आपको अर्थशास्त्री कहने का कोई नैतिक अधिकार है? जो किसान आबादी के विभेदीकरण और धनी किसानों-कुलकों द्वारा ग़रीब किसानों व खेतिहर मज़दूरों के शोषण को छिपाने के लिए समूची किसान आबादी की औसत मासिक आय दिखाकर पूछता हो कि भारत में धनी किसान कहाँ है, क्या ऐसे व्यक्ति को गम्भीरता से लिया जा सकता है? जो 80 प्रतिशत किसानों के क़र्ज़ में होने को दिखलाकर पूछता हो कि ऐसे में धनी किसान का वजूद कैसे सम्भव है, क्या उसकी नीयत को साफ़ माना जा सकता है? गाँवों में किसानों का विभेदीकरण एक ऐसी नंगी सच्चाई है, जिसे छिपाना सम्भव ही नहीं है। 2011 की जनगणना में खेतिहर मज़दूरों की तादाद किसानों की तादाद से ज़्यादा कैसे हो गयी? 92 प्रतिशत किसानों के पास 2 हेक्टेयर से कम ज़मीन होना और 2-3 प्रतिशत किसानों के पास 4 हेक्टेयर से अधिक ज़मीन होने का क्या अर्थ है? क्या कारण है कि पंजाब तक में 2019 में आत्महत्या करने वाले 3330 किसानों में से 94 प्रतिशत 2 हेक्टेयर से कम ज़मीन वाले थे? क्या वजह है कि भारत में 92 प्रतिशत छोटे व सीमान्त किसानों की आय का 60 प्रतिशत से ज़्यादा हिस्सा खेती से नहीं बल्कि उजरती श्रम से आता है? और क्या कारण है कि ऊपर के 5 प्रतिशत किसानों की आय का 80 प्रतिशत से ज़्यादा हिस्सा खेती और अन्य भी सूदख़ोरी व कमीशनख़ोरी से आता है? ये दोनों क्या किसान आबादी के दो अलग-अलग वर्ग नहीं हैं? और क्या सच नहीं है कि इनमें से बाद वाला, यानी ऊपर के 5 प्रतिशत, नीचे के 92 प्रतिशत का शोषण करके ही अमीर और समृद्ध बने हैं?
ऐसे नक़ली “अर्थशास्त्री” गाँवों को जानने का दावा करते हैं, लेकिन ये गाँवों के धनी किसानों-कुलकों के हितों की सेवा करने के लिए आँकड़ों के साथ दुराचार करके झूठ की ऐसी आँधी चलाते हैं जिसमें अध्ययन की कमी या अपने लोकरंजकतावाद और मौक़ापरस्ती के कारण कई मार्क्सवादी-लेनिनवादी भी बह जाते हैं और बेशर्मी के साथ देविन्दर शर्मा जैसे लोगों के इण्टरव्यू सुन-सुनकर और उसे उद्धृत करते हुए फ़ेसबुक पोस्टें लिखने लगते हैं! मार्क्सवाद की बुनियादी शिक्षाओं को भूलते हुए और कुलकवादी और दक्षिणपन्थी “बौद्धिक” देविन्दर शर्मा सरीखों को उद्धृत करते हुए पूछते हैं कि भारत में कहाँ है धनी किसान? ऐसे लोगों का या तो गाँव से कोई राबता नहीं है, या बचपन में ही टूट गया था, या फिर वे अपनी मौक़ापरस्ती में उस झूठ की पूँछ पकड़े भिनभिनाते हुए घिसट रहे हैं, जो देविन्दर शर्मा जैसे लोग फैला रहे हैं।
संजीदा मार्क्सवादियों-लेनिनवादियों को इस प्रश्न पर सोचना चाहिए और साहस के साथ वैज्ञानिक मार्क्सवादी अवस्थिति को अपनाना चाहिए, चाहे इसके लिए उन्हें धारा के विरुद्ध ही क्यों न तैरना पड़े। और ऐसे बुद्धिजीवियों के समक्ष यह अपील हम विशेष तौर पर रखेंगे कि देविन्दर शर्मा जैसों का अनुसरण करने से पहले कृषि प्रश्न और किसान प्रश्न की एक सही व सन्तुलित मार्क्सवादी समझदारी बनाने के लिए मार्क्स (‘पूँजी’ खण्ड-3 में भूमि लगान पर आधारित अध्याय), एंगेल्स (‘फ़्रांस और जर्मनी में किसान प्रश्न’), काउत्स्की (दो खण्डों में ‘कृषि प्रश्न’ नामक काउत्स्की की प्रसिद्ध पुस्तक), लेनिन (‘गाँव के ग़रीबों से’, ‘पूँजीवाद और खेती’, ‘रूस में पूँजीवाद का विकास’, ‘ए कैरेक्टराइज़ेशन ऑफ़ इकोनॉमिक रोमाण्टिसिज़्म’, और अन्य कई रचनाएँ!) को पढ़ना चाहिए। हमें पूरा यक़ीन है कि उसके बाद देविन्दर शर्मा सरीखों को उद्धृत करने में भी उन्हें अवश्य ही शर्म आयेगी, जो कि आँकड़ों के साथ दुराचार कर धनी किसान-कुलक वर्ग के शोषण और उत्पीड़न पर पर्दा डालने का काम करते हैं।
अगली कड़ी में एक अन्य सुधारवादी, संशोधनवादी बुद्धिजीवी पी. साईनाथ के किसान प्रश्न पर चिन्तन और आँकड़ों के साथ की जाने वाली हेराफेरी के बारे में थोड़ी पड़ताल करेंगे और दिखलायेंगे कि उपरोक्त क़िस्म के मार्क्सवादियों-लेनिनवादियों के लिए किस प्रकार वे दूसरी “अथॉरिटी” और “लीडिंग लाइट” बने हुए हैं।
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