हमारे आन्दोलन को संविधान-रक्षा के नारे और स्वत:स्फूर्ततावाद से आगे, बहुत आगे, जाने की ज़रूरत क्यों है?
अभिनव (सम्पादक, ‘मज़दूर बिगुल‘)
यह बात बार-बार दुहराने की आवश्यकता नहीं है कि 1970 के दशक के बाद के प्रचण्ड जनान्दोलन के बाद नागरिकता संशोधन कानून, राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर, व राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर के खिलाफ देश भर में खड़ा हुआ आन्दोलन सम्भवत: सबसे बड़ा आन्दोलन है। अगर अभी इस पहलू को छोड़ दें कि इन दोनों ही आन्दोलनों में क्रान्तिकारी नेतृत्व की समस्या का समाधान नहीं हो सका था, तो भी यह स्पष्ट है कि क्रान्तिकारी राजनीतिक नेतृत्व के उभरने की सूरत में इन आन्दोलन में ज़बर्दस्त क्रान्तिकारी जनवादी और प्रगतिशील सम्भावनासम्पन्नता होगी। 1970 के दशक के आन्दोलन में एक सशक्त क्रान्तिकारी धारा के मौजूद होने के बावजूद, क्रान्तिकारी शक्तियां ग़लत कार्यक्रम, रणनीति और आम रणकौशल के कारण आन्दोलन के नेतृत्व को अपने हाथों में नहीं ले सकीं थीं और नेतृत्व और पहलकदमी जयप्रकाश नारायण के हाथों में चली गयी, जिसने इस जनउभार में अभिव्यक्त हो रहे क्रान्तिकारी गुस्से और जनअसन्तोष को मौजूदा व्यवस्था के दायरे के भीतर ही सीमित कर दिया, हालांकि काफी आमूलगामी जुमलों का शोर पैदा करते हुए। यानी वही काम जो प्रेशर कुकर में सेफ्टी वॉल्व करता है। बहरहाल, चूंकि मौजूदा आन्दोलन अभी जारी है, इसलिए ऐसे नेतृत्व के उभरने की उम्मीदें फिलहाल कम होने के बावजूद पूरी तरह से ख़त्म नहीं मानी जा सकतीं।
लेकिन यदि ऐसा कोई नेतृत्व इस बार नहीं भी उभर पाता है, तो ऐसे आन्दोलन हमेशा ही जनसमुदायों के लिए सकारात्मक और नकारात्मक राजनीतिक शिक्षा की एक पाठशाला साबित होते हैं। जनता की सामूहिक स्मृतियों में ऐसे आन्दोलनों की अस्पष्ट छवियां, इसके सबक और इसकी यादें कहीं न कहीं मौजूद रहती हैं और भावी आन्दोलनों में जनता को शिक्षित करने की एक ज़मीन बनती हैं। इस रूप में मौजूदा आन्दोलन पहले ही एक ऐसे मुकाम पर पहुंच चुका है, जहां यह जनस्मृतियों की चट्टान में अमिट रूप में उकेरा जा चुका है। इन अर्थों में हम काफी-कुछ हासिल कर चुके हैं। लेकिन जो हमें हासिल करना है, उसकी तुलना में जो हासिल हुआ है उसे ज्यादा से ज्यादा मामूली ही कहा जा सकता है। इसलिए हमें पहले इसे पर बात करनी चाहिए कि इस हासिल को ज़्यादा से ज़्यादा कैसे बनाया जा सकता है। यहां हम इसी पर चर्चा करेंगे।
हमने इस आन्दोलन के मातहत सीएए-एनआरसी-एनपीआर की असलियत के बारे में हिन्दू जनसमुदायों, विशेषकर मेहनतकश व टटपुंजिया जनसमुदायों में, प्रचार की आवश्यकता पर अन्यत्र बात रखते हुए पहले ही इंगित किया था कि यदि यह किया जाता है तो संघ परिवार इस आन्दोलन का मुकाबला नहीं कर पाएगा। कारण यह कि वह इस आन्दोलन को ”मुसलमानों का आन्दोलन”, ”पाकिस्तानपरस्त लोगों का आन्दोलन” आदि के तौर पर व्यापक गैर-मुसलमान आबादी में प्रचारित करने में नाकामयाब हो जायेगा। इसलिए सबसे बड़ी ज़रूरत है कि इस आन्दोलन में सक्रिय राजनीतिक ताक़तें पहले से सहमत लोगों को सहमत करने और उनके जुटानों के आधार पर आन्दोलन को विजयोन्मुख के दावे करने की बजाय, या 24 घण्टा धरना प्रदर्शनों के 30, 50 या 70 दिन जारी रहने के जश्नों से आगे जाए और वॉलण्टियरों की टीमें गठित करके, सरल भाषा में सीएए-एनआरसी की असलियत बताने वाले पर्चों के लेकर शहरों व गांवों की गली-गली में घर-घर जाकर प्रचार करें। लेकिन यह भी काफी नहीं है। इससे ज्यादा से ज्यादा यह सफलता हासिल होगी कि एनपीआर का जनबहिष्कार ज्यादा कामयाब होगा और फिलहाल एनआरसी करने की भाजपा सरकार की चाल नाकामयाब हो जाये। इसके साथ आन्दोलनकारी घरों को लौट जाएंगे। लेकिन कल भाजपा सरकार फिर से कोई नया फासीवादी फरमान या कानून लेकर आयेगी। यह सरकार फासीवादियों की है। वे फिर से जनता के पैस्सिव होने का इन्तज़ार करेंगे। और फिर अपनी नयी चाल खेलेंगे। इसलिए अगर हम चाहते हैं कि मौजूदा आन्दोलन को एक आम फासीवाद-विरोधी आन्दोलन में तब्दील करके मोदी-शाह की सत्ता के पतन तक ले जाएं और फिर उससे भी आगे, तो फिर हमें इस आन्दोलन की दो राजनीतिक कमियों को दूर करना होगा।
आन्दोलन में संगठन, संरचना और राजनीतिक नेतृत्व का अभाव, उसकी आवश्यकता और उसके प्रति सचेतन प्रतिरोध की अराजकतावादी भावना
पहली राजनीतिक कमी है इस आन्दोलन में एक ऐसी प्रवृत्ति का मौजूद होना जो कि सचेतन तौर पर किसी भी प्रकार संगठन, सुनियोजित योजना और संरचना के विकसित होने का विरोध करती है। उसका मानना है कि जनता की स्वत:स्फूर्त रचनात्मकता ही काफी है। जो भी लोग इस आन्दोलन में शुरू से लगातार मौजूद रहे हैं वे जानते हैं कि ये काफी नहीं है। लोगों को स्पष्ट राजनीतिक विज़न की और राजनीतिक नेतृत्व की ज़रूरत है और वे इसकी मांग भी कर रहे हैं। उन्हें इस बात की ज़रूरत महसूस हो रही है कि आन्दोलन में एक राजनीतिक नेतृत्व को यह स्पष्ट करना चाहिए कि आगे क्या करना है। आन्दोलन में के उन्नत तत्व स्वयं ही पूछ रहे हैं कि क्या सिर्फ एक जगह बैठे रहने से काम चल जायेगा? या फिर आगे का कोई स्पष्ट कार्ययोजना होनी चाहिए? यह समझना ज़रूरी है कि हम जिस ताक़त से टकरा रहे हैं वह एक काडर-आधारित अनुशासित फासीवादी संगठन यानी संघ परिवार है। यह फासीवादी संगठन आज सत्ता में है। जब यह सत्ता में नहीं भी रहता तो यह मज़दूरों, धार्मिक अल्पसंख्कों, दलितों, स्त्रियों और आदिवासियों के विरुद्ध लम्बी योजना के साथ संगठित रूप से काम करता है। क्या ऐसी ताक़त को सिर्फ जनता की रचनात्मक स्वत:स्फूर्तता के आधार पर हराया जा सकता है? यह असम्भव है। कोई भी तार्किक और व्यावहारिक व्यक्ति इस बात को समझ सकता है।
अगर मौजूदा आन्दोलन के समक्ष कुछ समय के लिए मोदी-शाह की फासीवादी सरकार को पीछे भी हटना पड़ता है, तो भी जनान्दोलन के समाप्त होते ही और जनता के राजनीतिक रूप से सापेक्षिक रूप से निष्क्रिय होते ही अपनी अगली चाल की तैयारी शुरू कर देंगे। क्योंकि ये फासीवादी ताकतें स्वत:स्फूर्तता के भरोसे नहीं है, बल्कि सचेतन तौर पर और सक्रियता के साथ एक फासीवादी एजेण्डा पर काम कर रहे हैं। वे अपनी जीत का जश्न मनाने या हार का मातम मनाने में ज़्यादा वक़्त ज़ाया नहीं करते हैं। हमारे वे युवा साथी जो कि मानते हैं कि संगठन (ऑर्गनाइजेशन) कोई दानवी शक्ति है, जो कि जनता पर ही तानाशाही करने लगने के लिए बाध्य है और इसलिए जो कि हर सूरत में जनता की स्वत:स्फूर्त रचनात्मकता को मार देती है, तो उन्हें समझना चाहिए कि यह सामान्य संगठन-विरोध, संरचना-विरोध और प्राधिकार-विरोध वास्तव में आन्दोलन के लिए नुकसानदेह है।
इसका बुनियादी कारण यह है कि जब तक वर्ग समाज मौजूद है तब तक जनता राजनीतिक व मानसिक तौर पर भी अलग-अलग संस्तरों में बंटी रहेगी। जब तक मानसिक श्रम और शारीरिक श्रम के बीच अन्तर मौजूद है तब तक जनता का राजनीतिक व मानसिक तौर पर कई संस्तरों में बंटा होना अपने आपको नेतृत्व करने वालों और नेतृत्व लेने वालों में विभाजन के रूप में अनिवार्य रूप में अभिव्यक्त करेगा। यह किसी भी व्यक्ति की इच्छा से स्वतन्त्र है। वर्गविहीन समाज में भी नेतृत्व करने और नेतृत्व प्राप्त करने में अन्तर होता है, लेकिन तब यह विभाजन अनमनीय नहीं रह जाता है और दूसरा नेतृत्व करने वालों और नेतृत्व प्राप्त करने वालों की भूमिकाओं में एक हीन या प्रतिष्ठित नहीं मानी जाती है और इस रूप में इन भूमिकाओं के साथ जुड़े सत्ता-मूल्य समाप्त हो जाते हैं। आपकी कितनी भी सदिच्छा हो लेकिन ऐसे वर्ग विहीन समाज के अस्तित्व में आने और मानसिक और शारीरिक श्रम के बीच के अन्तर के समाप्त होने से पहले आप मनमुआफिक तरीके से इस अन्तर को समाप्त नहीं कर सकते हैं। ऐसा सोचना या प्रयास करना यह मनोगतवाद (subjectivism) है।
कैम्पसों में उत्तराधुनिकतावाद और अराजकतावाद के अकादमिया में प्रभाव के कारण बहुत से ईमानदार युवा साथी ऐसी सदिच्छा लेकर इस आन्दोलन में आये हैं। उनमें से भी समझदार साथी कहीं न कहीं इस बात की ज़रूरत को महसूस कर रहे हैं कि एक स्पष्ट कार्यक्रम होना चाहिए और ऐसे स्पष्ट कार्यक्रम के निर्माण और उसकी स्वीकार्यता के लिए एक राजनीतिक नेतृत्व का विकास करना अनिवार्य है। लेकिन फूकोवादी उत्तराधुनिकतावाद और अराजकतावाद को प्रगतिशील और विद्रोही मानने की भूल करने वाले (क्योंकि जुमलों में यह काफी आमूलगामी लगता है!) तमाम युवा साथी अभी भी अपनी सामाजिक प्रगतिशीलता के बावजूद इस प्रतिक्रियावादी विचारधारा के प्रभाव में हैं, जिसका काम ही जनता से अभिकरण को छीन लेना है। ये साथी शानदार युवा हैं और हमारे आन्दोलन के भावी अगुवा तत्व हैं। इन्हें जितनी जल्दी हो सके इस विषैली विचारधारा से मुक्त हो जाना चाहिए और समाज के गति के विज्ञान से खुद को वाकिफ कराना चाहिए।
”संविधान बचाओ” का नारा और संविधानवाद हमारे आन्दोलन के लिए घातक है
अब आते हैं उस प्रमुख समस्या पर जिसका इस आन्दोलन में समाधान करना ही होगा। यह समस्या है संविधानवाद और अम्बेडकरवादी व्यवहारवाद के असर की समस्या जो कि आन्दोलन के तात्कालिक और दूरगामी हितों के साथ अन्तरविरोध रखता है। बहुत-से लोग इस अन्तरविरोध की बात सुनकर नाराज़ हो जाएंगे और हमें जातिवादी, ब्राह्मणवादी और सवर्णवादी जैसी उपाधियों से नवाज़ देंगे। उनसे भी हम कहेंगे कि इन पूर्वाग्रहों और भावुकता को किनारे रखकर एक बार हमारी बात सुनें और यह समझें कि राजनीतिक आलोचना और गाली देने में फर्क होता है। यदि तथ्यों और तर्कों के आधार में हमारी बात में कोई कमी है, तो निश्चित तौर पर आलोचनाओं का स्वागत है। अम्बेडकर द्वारा बनाये गये संविधान या अम्बेडकर की राजनीतिक विचारधारा (ड्यूईवादी व्यवहारवाद) की आलोचना करके कोई जातिवादी या ब्राहम्णवादी नहीं हो जाता है।
कुछ लोगों को शायद हमारी बातों पर ताज्जुब होगा क्योंकि उन्हें हमारे संविधान के ”महान जनवादी”, ”महान सेक्युलर” चरित्र के बारे में इतना कुछ बचपन से लेकर आज तक बताया गया है कि उन्हें इस बात पर यक़ीन ही नहीं होगा कि न तो हमारे संविधान और समूची विधिक व्यवस्था का जनवाद बहुत मज़बूत बुनियाद पर है और न ही इसके सेक्युलर मूल्य वास्तव में सेक्युलर मूल्य माने जा सकते हैं। लेकिन किसी को अच्छा लगे या बुरा, सच यही है और इस लेख में यह बात प्रमाण के साथ दिखलाएंगे।
हम सभी जानते हैं कि मौजूदा आन्दोलन में हमारे विरोध प्रदर्शनों को कुचलने के लिए जिस धारा का सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया गया है वह है आईपीसी की धारा 144। भारतीय दण्ड संहिता जिसे कि 1860 के दशक में अंग्रेज़ों ने बनाया और लागू किया था, दुनिया की सबसे पुरानी, सबसे ग़ैर-जनवादी और तानाशाहाना दण्ड संहिता है। कोई भी धारा 144, धारा 149, राजद्रोह के कानून (धारा 124 ए), धारा 295ए पढ़कर इसे समझ सकता है। आप यदि इन धाराओं को पढ़ें तो आपके दिमाग़ में पहला सवाल यह आयेगा कि एक लोकतन्त्र होने का दावा करने वाले देश की दण्ड संहिता में ऐसी धाराएं कैसे हो सकती हैं? आज़ादी के बाद कानून मन्त्रालय ने भारतीय दण्ड संहिता को लगभग ज्यों का त्यों अपना लिया। ग़ौरतलब है कि पहले कानून मन्त्री डा. अम्बेडकर थे। वास्तव में, आईपीसी का पूरा आठवां अध्याय ही सभी जनवादी और नागरिक अधिकारों को कुचलने के रास्ते और तरकीबें सरकारों को बताता है, और उनके कानूनी अधिकार भी सरकारों को देता है। हम आग्रह करेंगे कि सभी पाठक एक बार इस अध्याय को पढ़ लें जिसका नाम है सार्वजनिक शान्ति के खिलाफ अपराध। बताने की ज़रूरत नहीं है कि सरकार हर उस चीज़ को सार्वजनिक अशान्ति का नाम देती है, जिससे कि उसे डर लगता है।
आप कहेंगे संविधान में धारा 19 में स्वतन्त्र अभिव्यक्ति का अधिकार दिया गया है। लेकिन 1951 में ही जनता के इस अधिकार को कुचलने के लिए धारा 19बी जोड़ दी गयी जिसके अनुसार इस अधिकार पर ”तर्कसंगत” सीमाएं होंगी। कौन-सी सीमाएं तर्कसंगत होंगी, ये सरकार और न्यायपालिका तय करेगी! जाहिर है, सरकार और व्यवस्था हमेशा ही अपने खिलाफ होने वाली अभिव्यक्ति को ”अतर्कसंगत” कह सकती है। वैसे आपको पता है कि यह संशोधन करने वाली कैबीनेट कमेटी में यह रोक लगाने का प्रावधान का प्रस्ताव किसने रखा था? डा. अम्बेडकर ने। इसका तर्क यह था िक यह लोगों को धार्मिक रूप से भड़काऊ व साम्प्रदायिक वैमनस्य फैलाने वाले भाषण देने से रोकने के लिए था। यह पूरा तर्क बेकार है क्योंकि इसके लिए कायदे से सरकार को संविधान में संशोधन करके इस िवषय पर अलग से एक धारा जोड़नी चाहिए थी। संविधान में ‘अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता’ के अधिकार वाली धारा को संशोधित करके उसे बाशर्त कानून बनाने का इस्तेमाल हमेशा जनता के खिलाफ ही होना था, ये सभी जानते थे। इसका सबूत यह है कि पिछले 72 वर्षों में इसका इस्तेमाल हमेशा अपने हक़ों के लिए लड़ रही जनता के खिलाफ ही हुआ है। क्या आपको याद है कि कभी इसका इस्तेमाल वास्तव में उन लोगों के खिलाफ हुआ है जो कि साम्प्रदायिक ज़हर घोलने का काम करते हैं जैसे कि योगी आदित्यनाथ, आडवाणी, वाजपेयी, तोगडि़या, प्रवेश वर्मा, कपिल मिश्रा? नहीं! क्या आप ऐसे कुछ उदाहरण दे सकते हैं जब इन प्रावधानों का इस्तेमाल क्रान्तिकारियों, जनान्दोलन के नेताओं, आदि के खिलाफ हुआ हो? यदि आप अखबार पढ़ते रहे है और समाचार सुनते रहे हैं तो पिछले 15 वर्षों से ही आप ऐसे दर्जनों उदाहरण दे सकते हैं। इसलिए अभिव्यक्ति के अधिकार से खिलवाड़ के बिना ही धार्मिक व साम्प्रदायिक वैमनस्य फैलाने वाली राजनीतिक शक्तियों पर रोक लगाना सम्भव था। लेकिन जानबूझकर अभिव्यक्ति के अधिकार को ही तथाकथित ”तर्कसंगत सीमाओं” में रख दिया गया, जिन्हें परिभाषित करने का उत्तरदायित्व सरकारों का होगा! इससे अच्छा तो सीधे ही लिख देना था कि सरकार का विरोध करने का हक़ केवल उसी हद तक होगा जितना कि सरकारों को बर्दाश्त हो! इससे हमारा संविधान ज्यादा ईमानदार भी बन गया होता और इतना भारी-भरकम भी नहीं होता, क्योंकि जनता के हर अधिकार की धारा के साथ आपको वह अधिकार छीनने वाली धारा भी जोड़नी हो, तो संविधान लम्बा तो हो ही जायेगा।
संशोधनों की बात छोड़ भी दी जाय, तो हमारे मूल संविधान में ही ऐसे प्रावधान मौजूद हैं, जो कि सरकार को यह ताकत देते हैं कि वह तमाम प्रकार के सरकार के जनविरोध व प्रतिरोध को ”आंतरिक सुरक्षा” के लिए ख़तरा क़रार दे दे और उसे ग़ैर-कानूनी घोषित कर दे। याद रहे कि आपातकाल के प्रावधान हमारे संविधान में मौजूद थे और इन्दिरा गांधी को आपातकाल लगाने के लिए किसी संवैधानिक संशोधन की आवश्यकता नहीं पड़ी थी। आपातकाल के बाद 44वां संशोधन किया गया था कि आपातकाल लगाने के कारण के तौर पर सरकार को ”आंतरिक अशांति” की बजाय युद्ध या विद्रोह की स्थिति को दिखलाना पड़ेगा या यह साबित करना पड़ेगा कि आन्तरिक विद्रोह का ख़तरा मौजूदा है! हम जानते हैं कि यह भी कोई मुश्किल काम नहीं है। संविधान के भाग अट्ठारह में वे सभी ग़ैर-जनवादी प्रावधान मौजूद हैं, जो कि सभी जनवादी अधिकारों को छीनने की शक्ति सरकार को देते हैं। आइये ऐसे कुछ प्रावधानों को देखते हैं।
धारा 352 के अनुसार, कैबीनेट द्वारा लिखित रूप में अनुशंसा किये जाने पर राष्ट्रपति आपातकाल लागू कर सकता है। यह आपातकाल पूरे देश पर या किन्हीं राज्य/राज्यों पर लागू किया जा सकता है। संसद में सरकार हर तीस दिन पर इस आपातकाल को जारी रखने का निर्णय पारित करवा सकती है।
धारा 353 के अनुसार, एक बार आपातकाल लागू हो जाने के बाद राज्यों के सारे संघीय संवैधानिक अधिकार रद्द हो जाएंगे। संघ अथवा राज्यों के सरकारी अधिकारियों के लिए केन्द्र सरकार आदेश देने में सक्षम होगी और उसके आदेश बाध्यताकारी होंगे। धारा 355 के अनुसार, केन्द्र सरकार बाह्य हमले या आंतरिक अशांति के कारण सरकार की रक्षा करेगी।
आपातकाल लागू होने पर सभी भारतीय नागरिकों के सभी मूलभूत अधिकार रद्द हो जाएंगे। आपातकाल ‘आंतरिक अशांति’ या ‘आंतरिक विद्रोह’ के होने या ‘उसका ख़तरा/आशंका होने पर’ लागू किया जा सकता है। आंतरिक अशांति या विद्रोह हो रहा है या होने का ख़तरा है, यह कौन तय करेगा? यह सरकार तय करेगी! यानी, जब भी सरकार अपने दमन के खिलाफ उठती आवाज़ से दमन के ज़रिये नहीं निपट पाएगी और ”ख़तरा” महसूस करेगी, तो वह आपातकाल लागू कर सकती है! और ऐसे में आपके सारे अधिकार समाप्त हो जाएंगे।
हम सभी साथियों से पूछना चाहते हैं: क्या आप इन धाराओं को भी बचाना चाहते हैं? इसमें तो भाजपा और संघ परिवार भी आपसे भी ज़्यादा तेज़ आवाज़ में आपका समर्थन करेंगे! जब आप ”संविधान बचाओ” का नारा देते हैं, तो उसका यह अर्थ नहीं होता है कि ”60 प्रतिशत संविधान बचाओ” या ”70 प्रतिशत संविधान बचाओ”। इसका मतलब होता है कि पूरे संविधान को बचाओ। जब आप पूरे संविधान को बचाते हैं, तो आप भाग अट्ठारह की इन ग़ैर-जनवादी और तानाशाहाना धाराओं को भी बचाते हैं। तब आप आईपीसी और सीआरपीसी को भी बचाते हैं, जो कि संविधान का अंग तो नहीं हैं, लेकिन संवैधानिक व विधिक ढांचे का अंग ही हैं। इसकी भी सभी भयंकर दमनकारी औपनिवेशिक धाराओं को 1950-51 में कानून मन्त्रालय द्वारा की गयी समीक्षाओं में बदला नहीं गया था, जैसे कि धारा 144, धारा 124 (ए), वगैरह। यह डा. अम्बेडकर की अध्यक्षता बनी कानून मन्त्रालय की समीक्षा समिति द्वारा भी नहीं हटाई गईं थी। धारा 19 में भी अभिव्यक्ति के अधिकार पर ”तर्कसंगत सीमाएं” भी डा. अम्बेडकर के सुझाव पर ही जोड़ा गया था, जिन ”तर्कसंगत सीमाओं” की व्याख्या करने की जिम्मेदारी सरकार की होगी।
अब आप ही बताएं ऐसा संविधान किस हद तक जनवादी और नागरिक अधिकारों की, विरोध करने के अधिकार की और शांतिपूर्ण रूप से एकत्र होने के अधिकार की रक्षा कर सकता है? यह तो हो गयी सैद्धान्तिक बात। अब आनुभविक बात पर सोचें। क्या संविधान आज़ादी के बाद के 72 वर्षों में जनता के जनवादी और नागरिक अधिकारों की हिफ़ाज़त कर पाया है? जब तक सरकार और व्यवस्था के लिए कोई विरोध-प्रदर्शन और आन्दोलन अपने वर्चस्व (हेजेमनी) के दायरे के भीतर पचा लेने योग्य है, तब तक उसकी आज्ञा दी जाती है। यदि कोई आन्दोलन या विरोध इस दायरे का अतिक्रमण करने लगता है, तो धारा 144, धारा 149, धारा 124 (ए), संविधान की धारा 352, 353, 355, आदि का इस्तेमाल करके उसे ग़ैर-कानूनी बना दिया जाता है और फिर उसे पुलिस या सेना का इस्तेमाल करके कुचलने की पूरी आज़ादी सरकार को मिल जाती है। यह भारत के आज़ाद होने के बाद बार-बार हुआ है।
आप यहां यह तर्क नहीं दे सकते हैं कि यह तो इसलिए हुआ क्योंकि संविधान को लागू करने वाले बदमाश थे। यह अपने आपको मूर्ख बनाने वाली बात होगी और कोई भी समझदार व्यक्ति ऐसा क्यों करेगा? वास्तव में, ”बदमाश लोग” भी ऐसा इसीलिए कर पाते हैं क्योंकि संविधान में बदमाशी करने की इजाज़त देने वाले प्रावधान हैं। यह तो संविधान का काम होता है कि अगर ”बदमाश लोग” भी सत्ता में आएं तो वे जनता के जनवादी हकों को न छीन पाएं क्योंकि सत्ता में हमेशा ”सदाचारी लोग” (!!??) पहुंचे न तो इसकी गारण्टी ली जा सकती है और अगर ऐसे ”सदाचारी लोग” सत्ता में पहुंच भी जाएं तो उनके ”सदाचारी” बने रहने की कोई गारण्टी नहीं होती है। अभी तो हम उन बदमाशियों की बात ही नहीं कर रहे हैं जो कि शासक वर्ग और उसके कारकून संविधान को ताक पर रखकर करते हैं। वह तो एक थाने का कांस्टेबल ही ग़रीबों के साथ रोज़ ही करता है।
साथ ही, सही मायने में हमारा संविधान सेक्युलर भी नहीं है। सेक्युलरिज्म से जुड़ी हुई संविधान में तीन धाराएं हैं जो कहती हैं कि हर किसी को अपने धर्म का पालन करने की आज़ादी है, राज्य का कोई आधिकारिक धर्म नहीं होगा और तीसरा कि किसी के साथ धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं किया जायेगा। लेकिन क्या सेक्युलरिज्म का यही अर्थ होता है? नहीं! सेक्युलरिज्म का अर्थ होता है राज्य और सामाजिक जीवन का धर्म से पूर्ण विलगाव। यदि हमारा राज्य सही मायने में सेक्युलर होता हो चुने गये पदाधिकारी ईश्वर के नाम पर शपथ नहीं लेते, अदालतों में गीता की शपथ नहीं दिलवाई जाती, स्कूली में धार्मिक प्रार्थनाएं नहीं करवाई जातीं और धार्मिक आधार पर बने पर्सनल लॉ नहीं होते। उल्टे ये चीज़ें तो ग़ैर-कानूनी और असंवैधानिक होतीं। जैसा कि हमने पहले जिक्र किया नफरत फैलाने वाले धार्मिक भाषणों पर रोक लगाने के नाम पर 1951 में अम्बेडकर की अध्यक्षता वाली कैबीनेट कमेटी ने धारा 19 द्वारा दिये जाने वाले अभिव्यक्ति के अधिकार पर ”तर्कसंगत सीमाएं” लगाने का संशोधन प्रस्तावित किया था, जो कि बाद में पारित भी हुआ और भारत के संविधान का पहला संशोधन बना। लेकिन हम फिर पूछते हैं कि क्या आप बता सकते हैं कि आज तक किसी भी धार्मिक नफरत फैलाने वाले फासीवादी या धार्मिक कट्टरपंथी नेता पर यह प्रावधान क्यों नहीं लगा या क्यों नहीं असरदार हुआ? अगर यह प्रावधान वास्तव में धार्मिक नफरत फैलाने वाले नेताओं पर वाकई रोक लगाने के लिए होता तो अब तक सारे भाजपाई जेल में होते! अगर वास्तव में मकसद यह था कि धार्मिक नफरत फैलाने वाले नेताओं पर रोक लगाई जाए, तो फिर नेहरू सरकार और अम्बेडकर को इसके लिए एक अलग धारा जोड़नी चाहिए थी, जो स्पष्ट रूप में बताती और परिभाषित करती कि धार्मिक घृणा फैलाने वाली शक्तियों को सज़ा देने के लिए क्या प्रावधान होंगे और इसकी कड़ी से कड़ी सज़ा निर्धारित करने के लिए भारतीय दण्ड संहिता में धारा जोड़ी जाती। आईपीसी में पहले से ही घृणा भड़काने वाले भाषणों पर रोक लगाने वाले कई प्रावधान हैं, मगर अव्वलन वे निष्प्रभावी हैं और दूसरा उनके मातहत जितनी सख़्त सज़ा का प्रावधान होना चाहिए, वह नहीं है। लेकिन दूसरी ओर धारा 149 के मातहत शान्तिपूर्ण रूप से एकत्र होने वालों पर भी ऐसे नियम लागू कर दिये गये हैं, जो कि उनके लगभग सभी मौलिक अधिकार तक छीन लेते हैं! लेकिन संविधान में और आईपीसी में धार्मिक कट्टरपंथी राजनीति पर पूर्ण रोक लगाने और ऐसा करने वालों के लिए कठोरतम दण्ड निर्धारित करने की बजाय, इसके रोकने की नौटंकी करते हुए संविधान की धारा 19 में ही ”अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता” को बाधित कर दिया गया। अब इसका नतीजा क्या हुआ है पिछले 72 वर्षों में यह सभी जानते हैं। डा. कफील खान जेल जाते हैं और फासीवादी योगी आदित्यनाथ पूरे देश में साम्प्रदायिक भाषण देते हुए घूमता है। और ऐसा केवल भाजपा के केन्द्र सरकार में होने पर नहीं होता है। योगी को तो अपना राजनीतिक जीवन शुरू करते ही कोई सही मायने में सेक्युलर और जनवादी संवैधानिक व्यवस्था जेल की सलाखों के पीछे डाल देती और वह भी धारा 19 में जनता के बुनियादी जनवादी अधिकार के साथ कोई खिलवाड़ या छेड़छाड़ किये बिना। लेकिन हुआ उसका उल्टा। गौतम नवलखा, सुधा भारद्वाज और यहां तक कि रामचन्द्र गुहा और योगेन्द्र यादव और प्रशान्त भूषण तक को झूठे आरोपों में या शान्तिपूर्ण प्रदर्शन करने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया जाता है या डिटेन कर लिया जाता है और योगी, कपिल मिश्रा, प्रवेश वर्मा जैसे फासीवादी गुण्डे धार्मिक नफरत फैलाने वाले और दंगे करवाने वाले भाषण देते घूमते रहते हैं! ज़ाहिर है कि इसमें इस बात की भी एक भूमिका है कि सत्ता में कौन है, लेकिन इस बात से इंकार करना भी अपने आपको भुलावे में रखना होगा कि हमारे संविधान में वास्तव में ऐसी धाराएं हैं, जो कि आम मेहनतकश जनता, आन्दोलनकारियों और विरोध-प्रतिरोध करने वालों के सारे नागरिक व जनवादी अधिकारों को छीनने के हथियार सत्ता में बैठे लोगों को देती हैं।
इसलिए यह गम्भीरता से सोचना होगा कि क्या हमारे मौजूदा आन्दोलन के लिए ”संविधान बचाओ” का नारा सही नारा है या फिर एक आत्मघाती नारा। हम संविधान बचाने की गुहारें लगाए बिना संविधान द्वारा मिलने वाले कुछ जनवादी और नागरिक अधिकारों की हिफ़ाज़त के लिए संघर्ष कर सकते हैं और हमें ऐसा ही करना चाहिए। संविधान में जो भी सीमित अर्थों में जनवादी है, उसको खत्म करने के खिलाफ हमें लड़ना चाहिए, लेकिन बिना ”संविधान बचाओ” का नारा दिये क्योंकि इन्हीं जनवादी अधिकारों को छीन लेने का भी पूरा अधिकार संविधान में ही है। हमारे आन्दोलन का रास्ता संविधानवाद या अम्बेडकरवादी व्यवहारवाद नहीं हो सकता है। जाति उन्मूलन के प्रति डा. अम्बेडकर के सरोकार को हम भी साझा करते हैं। लेकिन उनकी राजनीतिक विचारधारा (ड्यूईवादी व्यवहारवाद) के चरित्र को समझना भी अनिवार्य है [डा. अम्बेडकर की राजनीतिक विचारधारा, उसकी सीमा और उनके योगदानों विषय में हमारा नज़रिया जानने के लिए निम्न लिंक्स को खोलें:
- https://redpolemique.wordpress.com/2017/05/04/caste-question-marxism-and-the-political-legacy-of-b-r-ambedkar/
- https://www.youtube.com/watch?v=Y5NHnmC558g
- https://www.youtube.com/watch?v=4qpsmhvHvu0
जैसा कि एजाज़ अहमद ने एडवर्ड सईद के बारे में लिखते हुए कहा था, ”आलोचना न करना एकजुटता प्रदर्शित करने का सबसे बुरा तरीका होता है।” इसलिए हमें अम्बेडकर के योगदानों को समझना होगा, लेकिन उनकी राजनीतिक विचारधारा और उनके राजनीतिक कार्यक्रम के बेहद सीमित सुधारवादी चरित्र को भी समझना होगा जो कि सरकार (राज्य) को सर्वाधिक तार्किक अभिकर्ता मानता है, जनता के सामूहिक प्रयास से नीचे से बदलाव को ग़लत मानता है, समाज में पूर्ण रूप से क्रमिक विकास के सुधारवादी सिद्धान्त की हिमायत करता है। चूंकि वे सरकार को सर्वाधिक तार्किक अभिकर्ता मानते हैं इसीलिए वह आपात स्थिति को तय करने का अधिकार भी सरकार को ही देते हैं, हालांकि हर सरकार के आपात स्थिति का अर्थ होता है कि उसके लिए आपात स्थिति या ख़तरे की स्थिति है, जनता के लिए नहीं। लेकिन चूंकि अम्बेडकर राज्य को शासक वर्गों के दमन का उपकरण नहीं मानते थे बल्कि एक वर्गेतर संस्था मानते थे, जो कि ‘महान मध्यस्थकर्ता’ और ‘सर्वाधिक तार्किक अभिकर्ता’ की भूमिका निभाती है, इसलिए उनके अनुसार सरकार के ये विशेषाधिकार वैध हैं। इसी राजनीतिक विचारधारा से समस्या की शुरुआत होती है और इसीलिए यह आज हमारे फासीवाद-विरोधी आन्दोलन का आधार नहीं बन सकती है। न ही संविधानवाद और ”संविधान बचाओ” का नारा हमारे आन्दोलन की बुनियाद बन सकता है।
हम आज के दौर में इन प्रश्नों पर आपको सोचने के लिए इसलिए आमन्त्रित कर रहे हैं क्योंकि आज हमारा आन्दोलन एक दोराहे पर खड़ा है। आगे हमें कहां जाना है, इसकी कोई एक सोची-समझी रणनीति और विज़न अभी तैयार किया जाना है। यही कारण है कि इन राजनीतिक और विचारधारात्मक प्रश्नों को हम कोरे सैद्धान्तिक प्रश्न समझकर नज़रन्दाज़ नहीं कर सकते हैं। धार्मिक अल्पसंख्यकों और दलित मेहनतकश आबादी के भी जो तमाम जेनुइन राजनीतिक कार्यकर्ता हैं, उनसे भी हम दिली अपील करेंगे कि अपने जज़्बातों को किनारे रखकर एक बार तार्किक और वैज्ञानिक तौर पर सोचें। यह हमारे आन्दोलन के भविष्य का प्रश्न है। इसी प्रश्न पर साम्प्रदायिक फासीवादी मोदी-शाह की जोड़ी पर हमारी जीत निर्भर करती है।
मज़दूर बिगुल, मार्च 2020
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन