शिक्षा के क्षेत्र में राजस्थान सरकार की नंगई
बड़े पैमाने पर सरकारी स्कूलों को निजी हाथों में सौंपने की तैयारी
विजय
राजस्थान सरकार ने बड़े पैमाने पर सरकारी स्कूलों को निजी हाथों में सौंपने की तैयारी कर ली है। बिजली बोर्ड, जल बोर्ड, किंचित स्वास्थ्य-सेवाओं, रोडवेज़-बस जैसी बुनियादी सेवाओं को तो पहले ही पीपीपी मॉडल के नाम पर निजी हाथों में सौंप दिया गया है। निजीकरण का यह पीपीपी मॉडल अब शिक्षा जैसे अहम क्षेत्र में भी लागू किया जा रहा है। इस नीति के पहले चरण के अन्तर्गत सरकार नये सत्र 2018-19 से प्रदेश के 300 सरकारी स्कूल पीपीपी मॉडल के नाम पर निजी हाथों में सौंपने की कवायद पूरी कर चुकी है। सरकार ने सभी 300 सरकारी स्कूलों को चिन्हित कर निजी हाथों में सौंपने की प्रक्रिया को अन्तिम रूप दे दिया है। ऐसा करने के पीछे सरकार का तर्क है कि इससे सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता में सुधार होगा, समाज के ग़रीब तबक़े के बच्चों को बढ़िया शिक्षा मिल सकेगी।
बताया जा रहा है कि चयनित स्कूलों का पूरा स्टाफ़ बदला जायेगा। निजी कम्पनियाँ अपने स्तर पर ही भर्तियाँ करेंगी। इसके अलावा उन स्कूलों के रखरखाव और नियमित संचालन का पूरा काम निजी फ़र्म के हाथ में होगा। सरकारी शिक्षा विभाग का एकमात्र काम होगा – निगरानी का!
वैसे सरकार निगरानी से भी पीछा छुड़ा लेती तो भी स्थिति में कोई ख़ासा फ़र्क़ नहीं पड़ता।
नयी नीति के अनुसार अब से ‘वन टाइम इंवेस्टमेण्ट’ के तहत कोई भी फ़र्म एक स्कूल में 75 लाख का निवेश कर सकेगी। निजी फ़र्म द्वारा किये गये इस निवेश को सरकार द्वारा 12 प्रतिशत ब्याज़ सहित 7 वर्ष में फ़र्म को मूल धन सहित वापस चुकाना होगा। है ना निजी कम्पनियों के लिए बढ़िया इंवेस्टमेण्ट स्कीम! इतना ब्याज़ तो बैंकों से भी नहीं मिलता। इसके अलावा सरकार प्रत्येक स्कूल के लिए फ़र्म को प्रति वर्ष करोड़ों रुपये पुनर्भरण भी देगी। आपको बता दें कि गाँवों और शहरों में सरकारी स्कूलों के पास करोड़ों-करोड़ की ज़मीनें और इमारतें हैं। अब छोटे-बड़े पूँजीपतियों के लिए शिक्षा क्षेत्र में कोई बहुत बड़ा निवेश करने की ज़रूरत भी नहीं रह जायेगी। राजस्थान सरकार ने नारा उठाया है – मालिको! आओ, स्कूल खोलने के लिए आपको ना ज़मीन ख़रीदने की ज़रूरत है ना बिल्डिंगें बनाने की! बस बिल्डिंगों पर थोड़ी चमकीला रंग-रोगन करने की ज़रूरत है। वैसे चिन्ता ना करें, रंग-रोगन का ख़र्चा भी हम ब्याज़ सहित अदा करेंगे।
जिन स्कूलों को पीपीपी मॉडल के तहत लाया जा रहा है उनमें ग्रामीण क्षेत्र के 225 तथा शहरी क्षेत्र के 75 स्कूलों को चिन्हित किया गया है। चिन्हित भी ऐसे स्कूलों को किया गया है जिनमें विद्यार्थियों की संख्या 1000 से ज़्यादा है। यहाँ ग़ौर करने की बात यह है कि कुछ महीनों पहले ही राजस्थान सरकार ने सरकारी स्कूलों में छात्रों की संख्या कम होने को आधार बनाकर स्कूलों के समायोजन की योजना लागू की थी। यानी छोटे स्कूलों को बन्द करके उनमें पढ़ने-पढ़ाने वाले छात्रों व अध्यापकों को बड़े स्कूलों में स्थानान्तरित कर दिया था। उस योजना के तहत 19000 से अधिक छोटे स्कूलों को बन्द कर दिया गया था। इससे हुआ यह कि बड़े स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों की संख्या बढ़ गयी। अब चुन-चुनकर उन बड़े सरकारी स्कूलों को ही निजी हाथों में सौपा जा रहा है। इसे यूँ भी कह सकते हैं कि अगर उन 19000 स्कूलों का ठेका सीधे निजी हाथों में देने का क़दम उठाया जाता तो यह बड़ा मुद्दा बन जाता इसलिए घुमाकर कान पकड़ा गया है।
सरकार का कहना है कि छात्रों को मिलने वाली सुविधाएँ (मिड-डे मील व मुफ्त किताबें) पहले की तरह ही चालू रहेंगी। यहाँ ग़ौर करने लायक बात यह है कि सरकार की उक्त सुविधाएँ स्कूल के 40% छात्रों के लिए ही होंगी। बाक़ी 60% छात्र निजी प्राधिकार के तहत नामांकित होंगे। उन 60% छात्रों से तो निजी फ़र्म अपने नियम-क़ानून व मुनाफ़े के हिसाब से फ़ीस वसूल करेगी लेकिन बाक़ी के 40% छात्रों से कितनी फ़ीस वसूली जायेगी यह अभी साफ़ नहीं किया गया है। वैसे भी निजी क्षेत्र नुक़सान वाले सौदों में हाथ नहीं डालता। वह अपने ख़र्च की भरपाई और मुनाफ़े के लिए फ़ीस बढ़ाने का काम करेगा ही करेगा। अगर सरकार सब्सिडी देकर उसके ख़र्च की भरपाई करती है, तो इसका मतलब यह निकलता है कि यह प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष करों के ज़रिये जनता से वसूला गया पैसा सरमायेदारों के हाथों में पहुँचाने का कुटिल षड्यन्त्र है! बात यहीं पर नहीं रुकती। निजी फ़र्म को दिये जाने वाले टेण्डर प्रस्ताव के अनुसार स्कूलों में छात्रों की संख्या भी सीमित रखी जायेगी। इसके पीछे सरकार का तर्क है कि छात्रों की संख्या सीमित होने से शिक्षा के स्तर में सुधार होगा। परन्तु सरकार ने यह नहीं बताया है कि उन छात्रों का क्या होगा जो स्कूल कि पहुँच से बाहर कर दिये जायेंगे? क्या उनके लिए नये सरकारी स्कूल खोले जा रहे हैं या फिर उन्हे पूरी तरह निजी स्कूलों के भरोसे छोड़ दिया जायेगा? यहाँ यह साफ़-साफ़ समझा जा सकता है कि सरकार ग़रीब तबक़े के छात्रों को बढ़िया शिक्षा के नाम पर महँगी शिक्षा का डोज पिलाना चाहती है। परन्तु वह जिस सच्चाई से आँख मूँद रही है वह यह कि उस ग़रीब तबक़े के पास महँगी या “बढ़िया” शिक्षा (सरकार के शब्दों में) ख़रीदने के पैसे होते तो उनके बच्चे सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ते। वे भी अमीरजादों की औलादों की तरह महँगे-महँगे, ऊँचे-ऊँचे स्कूलों में पढ़ते। अब इस क़दम से होगा यह कि ग़रीब तबक़े के उन छात्रों के लिए सरकारी स्कूल के द्वार भी बन्द हो जायेंगे।
इस मसले का एक अन्य पहलू यह भी है कि एक मोटे आंकलन के अनुसार इन 300 स्कूलों से क़रीब 15000 अध्यापकों के पद समाप्त हो जायेंगे। इतना तो पहले चरण में ही हो रहा है, दूसरे-तीसरे चरण के आते-आते लाखों अध्यापकों के पद समाप्त होना तय है। यानी नयी अध्यापक भर्तियाँ भी बन्द होंगी। साथ ही साथ इन 300 स्कूलों को पीपीपी के अन्तर्गत ला देने से क़रीब 2.50 लाख छात्र स्कूल छोड़ने पर मजबूर हो जायेंगे। कहा जा सकता है कि शिक्षा को बिकाऊ माल बना देने की इस नीति से बड़े ठेकेदारों के तो ख़ूब वारे-न्यारे हैं, परन्तु ग़रीब तबक़े के छात्रों के लिए शिक्षा हासिल करना दूभर हो जायेगा। हालाँकि शिक्षा को माल बनाकर बेचने का काम तो कई दशकों से होता आ रहा है, लेकिन ग़रीब बच्चों को नाममात्र के लिए जो मुफ्त सरकारी शिक्षा उपलब्ध हुआ करती थी सरकार अब उसको भी ख़त्म कर देने पर आमादा है। यह ग़रीब तबक़े के साथ सरासर अन्याय व निजी स्कूलों की लूट को बढ़ावा देना नहीं तो और क्या है?
यह सब तब हो रहा है जब प्रदेश में सरकारी स्कूलों के छात्रों ने मेरिट में प्राइवेट स्कूलों को पछाड़ा है और सरकारी स्कूलों में 30% एडमिशन बढ़े हैं। फिर ऐसी क्या आपदा आन पड़ी कि सरकार को ऐसा क़दम उठाना पड़ रहा है? इसका जवाब हमें सम्पूर्ण पूँजीवादी व्यवस्था के संकट में तलाशना होगा। 1990 के बाद से देश भर में जारी उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के पीछे उद्देश्य ही यही था कि सभी सार्वजनिक क्षेत्रों का निजीकरण कर दिया जाये ताकि बड़े पूँजीवादी घराने मन्द पड़ चुकी मुनाफ़े की रफ़्तार को बढ़ा सकें। 2008 से व्यवस्था मन्दी के विश्वव्यापी संकट की चपेट में है; वह अपने संकट का बोझ आम आदमी की जेब से उसकी आमदनी का एक-एक कतरा निचोड़कर हल्का करना चाहती है। यह तय है कि आने वाले दिनों में ग़रीब-मेहनतकश जनता पर महँगाई व अप्रत्यक्ष करों का बोझ और बढ़ेगा। मज़दूरों की छँटनी, कारख़ानों की तालाबन्दी व बेरोज़गारी की सीमा अपने चरम पर है और यह सिलसिला रुकने वाला नहीं। सरकारें जनकल्याण के हर क्षेत्र से अपने हाथ खींच रही हैं, जनता की सम्पत्ति बड़े मालिकों के हाथों में सौंप रही हैं। यह सिर्फ़ राजस्थान की ही बात नहीं है, पूरे देश के पैमाने पर यही सब हो रहा है। ऐसे हालात में इस सबके विरोध में प्रदेश के छात्र-नौजवानों सहित व्यापक ग़रीब आबादी को देर-सवेर सड़कों पर आना ही होगा। अपने हितों की रक्षा की ख़ातिर जनता को संगठित होकर ख़ुद लड़ना होगा। किसी भी चुनावी पार्टी से कुछ भले की उम्मीद करना मूर्खता होगी क्योंकि सभी चुनावी पार्टियाँ मालिकों की ही सेवा करती हैं और सभी सरकारें मालिकों की मैनेजिंग कमेटियाँ ही होती हैं।
मज़दूर बिगुल, फ़रवरी 2018
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