‘भगतसिंह राष्ट्रीय रोज़गार गारण्टी क़ानून’ अभियान
बिगुल संवाददाता
रोज़गार के अधिकार को संवैधानिक संशोधन द्वारा मूलभूत अधिकारों में शामिल करवाने और देश के हर नागरिक के लिए साल में कम से कम 200 दिनों के रोज़गार के अधिकार को हासिल करने लिए देश के विभिन्न शहरों में ‘भगतसिंह राष्ट्रीय रोज़गार गारण्टी क़ानून’ अभियान व्यापक रूप से चलाया जा रहा है। देश की राजधानी दिल्ली में भी ‘भगतसिंह राष्ट्रीय रोज़गार गारण्टी क़ानून’ (बसनेगा) पूरे ज़ोरो-शोरो से चलाया जा रहा है। दिल्ली के विभिन्न मेहनतकश इलाक़ों जैसे करावल नगर, ख़जूरी, वज़ीरपुर, शाहबाद डेरी, बवाना आदि में घर-घर जाकर (डोर टू डोर कैम्पेन द्वारा) लोगों को इस अभियान से जोड़ा जा रहा है। नुक्कड़ सभाओं के माध्यम से इलाक़े के हर मेहनतकश स्त्री-पुरुष, नौजवान और बुज़ुर्ग से इस अभियान से जुड़ने का आह्वान किया जा रहा है। गली मीटिंगों, हस्ताक्षर अभियान, नुक्कड़ नाटकों और क्रान्तिकारी गीतों के ज़रिये आम मेहनतकश आबादी को इस अभियान से जोड़ा जा रहा है। दिल्ली के मेहनतकश आबादी वाले इलाक़ों से लेकर दिल्ली यूनिवर्सिटी के एसओएल (स्कूल ऑफ़ ओपन लर्निंग) के छात्रों के बीच अभियान चलाकर और दिल्ली की बसों में रोज़ाना सफ़र करती लाखों की आबादी के बीच बस अभियान चलाकर उन्हें भी इस मुहीम से जोड़ा जा रहा है। दिल्ली की आँगनवाड़ी की वर्करों और हेल्परों के बीच भी सेण्टर-सेण्टर जाकर परचा वितरण किया जा रहा है। नौजवान भारत सभा, दिशा छात्र संगठन, क्रान्तिकारी मज़दूर मोर्चा, दिल्ली इस्पात उद्योग मज़दूर यूनियन, दिल्ली स्टेट आँगनवाड़ी वर्कर्स एण्ड हेल्पर्स यूनियन जैसे जनसंगठन और यूनियनें मिलकर इस अभियान को दिल्ली की जनता के बीच चला रहे हैं। हमारे देश की बहुसंख्या बेरोज़गारी से त्रस्त है। उच्च-शिक्षा हासिल करने के बाद भी हमारे देश के युवा बेरोज़गार घूम रहे हैं, वही 12 से 16 घण्टे काम करने वाले मज़दूरों के सर पर भी काम से निकाल दिए जाने की तलवार हमेशा लटकती रहती है। ऐसे में आज अगर रोज़गार के अधिकार को जीने का अधिकार कहा जाये तो यह कोई बड़ी बात नहीं होगी। ‘अच्छे दिन’ के हरकारे मोदी जी और उनकी भाजपा सरकार के विकास के नारों की सच्चाई तो आज देश की जनता के सामने नंगी हो ही चुकी है। वहीं ख़ुद को प्रधान-मन्त्री न कहकर “प्रधान-सेवक” कहने वाले मोदी जी रोज़गार के सवाल पर देश की 70 फ़ीसद आबादी की ग़ुरबत का मज़ाक़ बनाते हुए उन्हें ‘पकौड़े तलने’ का उपदेश दे रहे हैं। जो सरकार अपनी “छपन इंच” की छाती पीटते हुए हमसे यह वादा करते हुए सत्ता में आयी थी कि वह करोड़ों रोज़गार के अवसर पैदा करेगी, उसकी सच्चाई सरकारी विभाग के आँकड़ों से समझी जा सकती है। केन्द्रीय श्रम मन्त्रालय के आँकड़ो के मुताबिक़ वर्ष 2015 में केवल 1.55 लाख और 2016 केवल 2.31 लाख नयी नौकरियाँ सृजित हुईं जो पिछले आठ सालों में सबसे कम थी। सर्वे बताते हैं कि मोदी राज में संगठित-असंगठित क्षेत्र में 2 करोड़ रोज़गार छीने गये हैं। सरकारी आँकड़ों की सीमा को समझते हुए छिपी बेरोज़गारों और अर्ध-बेरोज़गारो को जोड़ दें तो बेरोज़गारों का असल आँकड़ा 25 करोड़ से भी ज़्यादा बैठेगा। मोदी सरकार के साढ़े तीन साल बीत जाने के बाद आधिकारिक श्रम ब्यूरो के आँकड़ों के मुताबिक़ सिर्फ़ 5 लाख नयी नौकरियाँ ही पैदा की गयी हैं। वर्ष 2012 में भारत की बेरोज़गारी दर 3.8 प्रतिशत थी जो 2015-16 में 5 प्रतिशत पहुँच चुकी है। र्इपीडब्ल्यू पत्रिका के एक लेख के मुताबिक़ रोज़गार में कमी 53 लाख तक पहुँच गयी है। लुब्बेलुबाब यह कि मोदी सरकार ने इस देश की मेहनतकश जनता की आँखों में धूल झोंकने और पीठ में छुरा भोंकने के अलावा कुछ नहीं किया। आम जनता का ध्यान इन ज़रूरी और अहम मुद्दों पर से हटाया जाये इसीलिए कभी लव-जिहाद, कभी गौ-रक्षा, कभी बाबरी मस्जिद विवाद जैसे मुद्दों को मीडिया और व्हाट्सएप के ज़रिये लोगों में फैलाते रहे। रोज़गार के अवसर पैदा करने की बजाय यह सरकार हमारे बीच कभी काले-धन पर रोक लगाने का जुमला उछालते हुए नोटबन्दी लाती है तो कभी जीएसटी, लेकिन इस सबका ख़ामियाज़ा आम-मेहनतकश जनता की पीठ पर ही लादा जाता है। नोटबन्दी से पहले कहा गया था कि काला-धन इकठ्ठा करके बैठे हुए सभी चोरों पर नकेल कसी जायेगी, लेकिन बैंकों के बाहर लम्बी-लम्बी लाइनों में न तो कोई अम्बानी, न ही अदानी, न बिरला, न गोयंका खड़ा दिखा। उल्टा धन्नासेठों ने अपना काला पैसा सफ़ेद कर लिया। लेकिन इस सबमें सबसे ज़्यादा नुक़सान हुआ आम जनता का, ख़ुद आरबीआई की रिपोर्ट के मुताबिक़ मुद्राचलन में से 99% पैसा वापिस जमा कर दिया गया। एक दलील जो सरकार और उसके समर्थक बेरोज़गारी के पक्ष में देते हैं, वो यह कि देश की आबादी ही इतनी है कि सबको रोज़गार कहाँ से दिया जाये। सबसे पहली बात तो यह है कि यह दलील बिलकुल बेबुनियाद है, हमारे देश में इतने मानव और प्राकृतिक संसाधन हैं कि सबको काम दिया जा सकता है, बशर्ते सरकार पूँजीपतियों के लिए नहीं बल्कि आम मेहनतकश जनता के लिए काम करे।
राज्यसभा में कैबिनेट राज्यमन्त्री जितेन्द्र प्रसाद ने ख़ुद माना था कि कुल 4,20,547 पद अकेले केन्द्र में ख़ाली पड़े हैं। देश भर में प्राइमरी-अपर-प्राइमरी अध्यापकों के क़रीब 10 लाख पद, पुलिस विभाग में 5,49,025 पद, ख़ाली पड़े हैं। केन्द्र और राज्यों के स्तर पर क़रीब बीसियों लाख पद ख़ाली हैं। तो ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि इन रिक्त पदों पर नियुक्तियाँ क्यों नहीं की जातीं? एक ओर बेरोज़गारी की भीषण आग में झुलसती जनता है, वहीं दूसरी ओर नेताओं और पूँजीपतियों की सम्पत्ति दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ रही है। एक संस्था ‘ऑक्सफ़ेम’ की ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक़ पिछले एक साल में देश में हुई कुल सम्पत्ति वृद्धि का 73 फ़ीसदी हिस्सा मात्र ऊपर के 1 फ़ीसदी अमीरजादों की जेब में गया। इसी बीच भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के बेटे जय शाह की कम्पनी ने 16,000 गुने का मुनाफ़ा कमाया। पिछले एक साल में देश के बड़े पूँजीपतियों ने 200 फ़ीसदी मुनाफ़ा कमाया। केन्द्रीय बजट में राष्ट्रपति और राज्यपाल के वेतन को दोगुना कर दिया गया है और सांसदों के वेतन-भत्ते भी बढ़ा दिये गये हैं। अदानी ग्रुप को ‘सेज़’ (विशेष आर्थिक क्षेत्र) बनाने के लिए 500 करोड़ का फ़ायदा तो पिछले साल ही दे दिया गया था, पूँजीपतियों को विभिन्न बैंकों द्वारा दिये गये लोन, जो 8,29,338 लाख रुपये के बराबर बैठते हैं, को ग़ैरवसूली खाते में डाल दिया गया है। यानी कि जनता की गाढ़ी कमाई को लूटकर सरकार धन्नासेठों को मालामाल कर रही है! ऐसे में अगर आज इस देश की मेहनतकश आबादी और युवा एकजुट होकर रोज़गार के अपने न्यायसम्मत अधिकार के लिए आवाज़ नहीं उठाते तो यह सरकार हमारी मेहनत, हमारे ख़ून-पसीने को सोने-चाँदी के सिक्कों में तब्दील कर पूँजीपतियों की तिजोरियाँ भरती रहेंगी। आम जनता का शोषण और उनके अधिकारों का हनन बदस्तूर जारी रहेगा और हमारे ही नरकंकालों पर से इन धन्नासेठों और पूँजीपतियों के ऐयाशी के रथ गुज़रते रहेंगे। यह कहानी केवल भाजपा सरकार के राज की नहीं है, कांग्रेस, आम आदमी पार्टी और तमाम रंगों वाले झण्डों की पार्टियाँ सिर्फ़ और सिर्फ़ चुनावी जुमलेबाज़ी करते हुए अपनी गोटियाँ लाल करने के अलावा कुछ नहीं करतीं। आज के समय में पूँजीपतियों की सबसे बेहतर मैनेजिंग कमिटी का काम भाजपा सरकार कर रही है। इन चुनावबाज़ पार्टियों से खोखले वादों के अलावा कोई और उम्मीद नहीं की जा सकती। इसीलिए अपनी बात को इस बहरी सरकार के कानों तक पहुँचाने और अपने हक़-अधिकारों को हासिल करने के लिए ‘भगतसिंह राष्ट्रीय रोज़गार गारण्टी क़ानून’ अभियान के तहत लाखों की संख्या में युवा-नौजवान-मेहनतकश आबादी 25 मार्च 2018 (रविवार) को रामलीला मैदान से संसद तक मार्च करेंगे।
मज़दूर बिगुल, फ़रवरी 2018
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन