40 प्रतिशत हैं बेरोज़गार, कौन है इसका जि़म्मेदार?
मुनीश मैन्दोला
भाजपा सरकार का 2 करोड़ प्रति वर्ष नयी नौकरियों के सृजन का वादा भी ”रामराज्य” वाली संघी-भाजपाई सरकार के हर वादे की तरह झूठा निकला! खोदा पहाड़, निकला कॉक्रोच! केन्द्रीय श्रम मन्त्री बण्डारू दत्तात्रेय ने 6 फ़रवरी 2017 को लोकसभा में बताया कि 2013-14 में बेरोज़गारी की दर 3.4 प्रतिशत थी जो 2015-16 में 3.7 प्रतिशत हो गयी। किन्तु यह सरकारी आँकड़ा बहुत ही भ्रामक है। इस आँकड़े को निकालने में यह मान लिया गया है कि यदि किसी व्यक्ति को एक वर्ष में केवल एक महीने काम मिलता है तो वो रोज़गारशुदा है! यानी कि साल के 11 महीने आप बेरोज़गार और भूखे रहे तो भी सरकार आपको रोज़गारशुदा मानेगी! इसी रपट में आगे बहुत शर्माते हुए पूँजीवादी सरकार के आँकड़ेबाज़ अर्थशास्त्रियों ने महज़ एक लाइन में बताया है कि बेरोज़गारी की वास्तविक दर तो दरअसल 40 प्रतिशत के क़रीब है!!
इस आँकड़े को निकालने में बेरोज़गारी की असली परिभाषा ली गयी है यानी कि अगर किसी व्यक्ति को साल में 12 महीने काम नहीं मिलता है तो वह बेरोज़गार है। इस परिभाषा के हिसाब से देश में 40 प्रतिशत लोगों को 12 महीने रोज़गार नहीं मिलता है! अन्य स्रोतों से भी यही स्पष्ट हो रहा है कि बेरोज़गारी की दर बहुत ज़्यादा है। आर्थिक सहकार एवं विकास संगठन (ओईसीडी) के आर्थिक सर्वेक्षण 2017 के हिसाब से भी 15-30 साल उम्र के 30 प्रतिशत भारतीय बेरोज़गार हैं। इसके अलावा 4 में से 3 परिवारों के पास कोई तनख़्वाह कमाने वाला सदस्य नहीं है। क़रीब 77 प्रतिशत परिवारों के पास कोई नियमित तनख़्वाह कमाने वाला सदस्य नहीं है और 67% से ज़्यादा लोगों की आय 10,000 रुपये प्रति माह से कम है। महिलाओं में बेरोज़गारी की दर 8.7 प्रतिशत है, जबकि पुरुषों मे यह दर 4 प्रतिशत बतायी गयी है जो कि आदर्श भाजपाई ”रामराज्य” के अनुरूप ही है!
नोटबन्दी के कारण लाखों लोग बेरोज़गार हो गये। इसकी सबसे बुरी मार असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले मज़दूरों पर पड़ी। सबसे अधिक रोज़गार देने वाले सेक्टरों में से एक, निर्माण क्षेत्र में मन्दी और नोटबन्दी की मार से कई लाख मज़दूरों का काम छिन गया है। जीएसटी के कारण परेशानी झेल रहे उद्योग और व्यापार जगत में रोज़गार निर्माण की दर और गिर गयी। दूसरी ओर, बड़ी कम्पनियों में भी छँटनी शुरू हो गयी है। लार्सन एण्ड टुब्रो अपने 11% अर्थात 14 हज़ार कर्मचारियों को निकाल चुकी है। एचडीएफ़सी बैंक भी पिछली 2 तिमाहियों में 11 हज़ार कर्मचारियों को निकाल चुका है। टाटा मोटर्स ने भी छँटनी की है। फ़्लिपकार्ट, स्नैपडील जैसी ई-कॉमर्स कम्पनियों से लेकर कॉग्निजेण्ट, इनफ़ोसिस, विप्रो, आदि बड़ी आईटी कम्पनियों में छँटनी शुरू हो चुकी है। उधर मोदी सरकार ख़ुद सरकारी क्षेत्र में जमकर छँटनी-तालाबन्दी करके कांग्रेसी सरकारों की विनाशकारी नीतियों को तेज़ी से आगे बढ़ा रही है जिससे बरोज़गारी की समस्या और भयानक हो गयी है। सरकारी नौकरियों में भर्ती पिछले 3 साल में 89% घटी है। भर्ती न करने की वज़ह से ख़ाली पड़े 2 लाख पदों को मोदी सरकार ने समाप्त कर दिया। रेलवे में 20 हज़ार पद एक झटके में समाप्त कर दिये गये। अन्य सार्वजानिक इकाइयों की भी यही स्थिति है। सरकारी बैंकों का आपस में विलय करके हज़ारों कर्मचारियों को निकाला जा रहा है। साथ ही वर्तमान कर्मचारियों को भी स्वैच्छिक (या ज़बरदस्ती) रिटायरमेण्ट का प्रस्ताव दिया जा रहा है। हर विभाग और दफ़्तर में ज़्यादा से ज़्यादा काम ठेके पर कराये जा रहे हैं ताकि स्थायी कर्मचारियों को धीरे-धीरे ठिकाने लगाया जा सके।
इस प्रकार सरकारी व निजी क्षेत्र दोनों जगह हालत बहुत खराब है और बेरोज़गारी की समस्या विकराल रूप धारण कर चुकी है। निजी सम्पत्ति और मुनाफ़े पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था में इस समस्या का कोई समाधान सम्भव नहीं है क्योंकि पूँजीवाद में पूँजीपति वर्ग जनता के लिए नहीं, अपनी तिजोरी भरने के लिए उत्पादन करता है। इसलिए पूँजीवाद में बेरोज़गारी बनी रहती है। बेरोज़गारों की फ़ौज हर समय बनाये रखना पूँजीवाद के हित में होता है क्योंकि इससे मालिकों को मनमानी मज़दूरी पर लोगों को रखने की छूट मिल जाती है। ये समस्या तभी ख़त्म की जा सकती है जब सामूहिक सम्पत्ति पर टिकी समाजवादी व्यवस्था का निर्माण किया जाये जहाँ उत्पादन निजी मुनाफ़े के लिए नहीं हो, बल्कि मानव समाज की ज़रूरतें पूरी करने के लिए हो। तभी रोज़गार-विहीन विकास के पूँजीवादी सिद्धान्त को धता बताकर हर हाथ को काम और हर व्यक्ति का सम्मानजनक जीवन का अधिकार सुनिश्चित किया जा सकेगा।
मज़दूर बिगुल,सितम्बर 2017
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