उत्तरी कोरिया के मिसाइल परीक्षण और तीखी होती अन्तर-साम्राज्यवादी कलह
नवगीत
मई महीने के आखि़री तीन हफ़्तों में उत्तरी कोरिया ने लगातार तीन मिसाइल टेस्ट किये हैं। अगर पिछले डेढ़ वर्षों की बात करें तो 2016 के शुरू से लेकर अब तक उत्तरी कोरिया दर्जनों मिसाइल टेस्ट और दो परमाणु धमाके कर चुका है। इसके साथ ही उत्तरी कोरिया को “गम्भीर नतीजे” भुगतने की अमेरिकी साम्राज्यवादी धमकियाँ एक बार फिर ख़बरों में हैं। अमेरिका 1950 के दशक के कोरिया युद्ध से लेकर अब तक, लगातार उत्तरी कोरिया को “विश्व शान्ति और सुरक्षा” के लिए ख़तरा बताता रहा है, साम्राज्यवादी मीडिया तन्त्र से लेकर हॉलीवुड फि़ल्मों तक, सब तरह-तरह की झूठी सनसनीखेज़ कहानियाँ बनाकर अमेरिका के प्रचार को सच्चाई का जामा पहनाने में आज तक लगे हुए हैं। लेकिन क्या उत्तरी कोरिया जैसा एक ग़रीब देश जो चारों तरफ़ से अमेरिकी फ़ौजी शक्ति से घिरा हुआ है, वाक़ई कोई ख़तरा है? क्या उत्तरी कोरिया दुनिया को तबाह करने में लगा हुआ है? उत्तरी कोरिया द्वारा बार-बार मिसाइल और परमाणु परीक्षण करने के पीछे क्या कारण हैं? इन प्रश्नों के जवाब जानने के लिए हमें उत्तरी कोरिया के अस्तित्व में आने का इतिहास जानना होगा।
1910 में कोरिया पर जापानी साम्राज्यवाद क़ब्ज़ा कर लेता है। इससे पहले कोरिया पर कोरियाई सल्तनत का राज था। जापानियों ने क़ब्ज़ा करने के बाद कोरिया की जनता पर भयंकर ज़ुल्म किये; कोरियाई भाषा पर पाबन्दी लगा दी गयी, कोरिया की जनता को जापानी नाम रखने के लिए मज़बूर किया गया और इलाक़े की भयंकर आर्थिक और इंसानी लूट की गयी। 1945 में जब दूसरे विश्व युद्ध के ख़त्म होते-होते जापान मित्र शक्तियों से हार गया तो उस समय कोरिया में सोवियत और अमेरिकी सेनाएँ मौजूद थीं। इसके साथ, कोरिया की घरेलू राजनीतिक ताक़तें भी सक्रिय थीं, जिनमें मुख्य थीं – कम्युनिस्ट और राष्ट्रवादी, जो कोरिया की मुक्ति के लिए लड़ रही थीं। इसके अलावा दक्षिणपन्थी ताक़तें भी मौजूद थीं। 1945 में युद्ध की समाप्ति के बाद सोवियत यूनियन और साम्राज्यवादी ताक़तें जिनका चौधरी अब अमेरिका था, उनके बीच समझौता हो गया और तय हो गया कि 1948 तक कोरिया में आम चुनाव करवाकर सत्ता स्थानीय सरकार के सुपुर्द कर दी जाये, तब तक सोवियत फ़ौजें और अमेरिकी फ़ौजें अपने-अपने अधिकार-क्षेत्रों में बनी रहें। लेकिन अमेरिका इस समझौते से इंकार कर गया, क्योंकि कोरिया के घरेलू हालात साफ़ बता रहे थे कि चुनाव होने पर कम्युनिस्टों और राष्ट्रवादियों का गुट सत्ता में आयेगा और ऐसा अमेरिका किसी हालत में भी नहीं चाहता था। समझौते से इनकार करने के बाद, अमेरिका ने कोरिया के दो हिस्सों में अस्थायी बँटवारे को अलग-अलग देशों का रूप दे दिया व इसे और पक्का करने के लिए दक्षिणपन्थी नेता सिंगमान री को कोरिया का राष्ट्रपति बना दिया। सिंगमान री के राष्ट्रपति बनते ही कोरिया के दक्षिणी हिस्से जो अब दक्षिणी कोरिया हो गया था, में कम्युनिस्टों की धरपकड़ और क़त्लेआम शुरू हो गया। इसी दौरान दक्षिणी कोरिया के एक टापू “जेजू” में वामपन्थियों के नेतृत्व में बग़ावत हो गयी। इस बग़ावत को कुचलने के लिए कोरिया की फ़ौज ने अपने अमेरिकी अफ़सरों की हाज़िरी में लगभग 60,000 लोगों का क़त्लेआम किया और इस टापू के दो-तिहाई गाँवों को जलाकर राख कर दिया। इस क़त्लेआम को पिछले समय में दक्षिणी कोरिया सरकारी तौर पर मान चुका है।
इसी दौरान 1950 में कोरिया के राष्ट्रवादियों और कम्युनिस्टों ने देश को इकट्ठा करने के लिए हमला शुरू किया। यहाँ 1950-1953 का चार-वर्षीय कोरिया युद्ध का आरम्भ हुआ। उस समय विश्व स्तर पर समाजवादी शिविर अस्तित्व में आ चुका था और समाजवादी शिविर और पूँजीवादी शिविर का अन्तरविरोध विश्वस्तर पर मुख्य अन्तरविरोध बना हुआ था। उत्तरी कोरिया और दक्षिणी कोरिया की सरहद समाजवादी और पूँजीवादी शिविर के टकराव का बिन्दु बन गयी थी। उत्तरी कोरिया को सोवियत यूनियन की हिमायत हासिल थी, जबकि दक्षिणी कोरिया को अमेरिकी साम्राज्यवाद अपना फ़ौजी ठिकाना बनाकर रखने के लिए हर क़ीमत पर अलग देश बनाये रखना चाहता था। शुरू में उत्तरी कोरिया को सफलता मिली और उसने दक्षिणी कोरिया की फ़ौजों को एक छोटे से क्षेत्र में धकेल दिया। इस मोड़ पर अमेरिका सीधे ही युद्ध में शामिल हो गया, उसने दक्षिणी कोरिया को युद्ध के साजो-सामान देने के साथ ही 3,00,000 अमेरिकी फ़ौजी भी युद्ध में धकेल दिये। उत्तरी कोरिया पर अमेरिकी जहाज़ों ने “कार्पेट बॉम्बिंग” की। इस भारी बमबारी में बिना कोई निशाना बाँधे अन्धाधुन्ध बम फेंके जाते हैं। अमेरिका ने इस बमबारी के पहले दिन उत्तरी कोरिया के आबादी वाले क्षेत्रों में 650 टन बम फेंके, बाद में यह मात्रा बढ़कर 800 टन प्रतिदिन हो गयी। अकेले उत्तरी कोरिया पर इतने बम फेंके गये, जितने विश्व युद्ध के दौरान अमेरिका ने पूरे प्रशान्त क्षेत्र में नहीं फेंके थे। इसके परिणामस्वरूप उत्तरी कोरिया मलबे का एक ढेर बन गया, पूरे उत्तरी कोरिया में एक मंजि़ल से अधिक वाली एक भी इमारत नहीं बची रह गयी। यालू नदी पर बने बाँधों को निशाना बनाया गया, जिसके कारण बड़े इलाक़े में बाढ़ आयी और फ़सलें तबाह हो गयीं। कम्युनिस्टों के प्रभाव वाले इलाक़ों में साम्राज्यवादियों द्वारा बड़े-बड़े क़त्लेआम किये गये, जिनमें सबसे बड़ा क़त्लेआम ‘बोडो लीग क़त्लेआम’ है जिसमें अन्दाज़न 2 से 10 लाख के बीच कम्युनिस्ट, उनके हमदर्दों और साधारण नागरिकों, औरतों और बच्चों को मार डाला गया।
कम्युनिस्ट हार रहे थे। उधर साफ़ हो रहा था कि अमेरिका का निशाना सिर्फ़ कोरिया ही नहीं बल्कि क्रान्तिकारी चीन भी है, अमेरिकी साम्राज्यवाद क्रान्तिकारी चीन के खि़लाफ़ परमाणु बम इस्तेमाल करने की धमकियाँ देने लग गया था। परिणामस्वरूप चीन भी उत्तर कोरिया के पक्ष में युद्ध में शामिल हो गया। नये सिरे से ताक़तवर होकर कम्युनिस्टों ने दक्षिणी कोरिया और अमेरिकी फ़ौजों को 1950 के क़ब्ज़े वाले इलाक़े तक धकेल दिया। लेकिन यह स्पष्ट हो रहा था कि कोई भी मुक़म्मल जीत प्राप्त नहीं कर सकेगा। युद्धबन्दी का समझौता हो गया, लेकिन शान्ति सन्धि नहीं हुई और आज तक भी उत्तरी और दक्षिणी कोरिया में शान्ति सन्धि नहीं हुई है, क्योंकि अमेरिकी साम्राज्यवाद यह चाहता ही नहीं। चार वर्ष चले कोरियाई युद्ध में मरने वाली जनता की गिनती 25 लाख से ऊपर होने का अन्दाज़ा है, जिनमें 9 लाख चीनी फ़ौजी भी शामिल हैं। इस तरह यह युद्ध वियतनाम युद्ध जितना ही भयंकर था और साम्राज्यवादियों की क़रतूतें भी उतनी ही मानवता-विरोधी और वहशी थीं। इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को देखते कोई भी स्वाभाविक ही समझ सकता है कि उत्तरी कोरिया की जनता अमेरिकी साम्राज्यवादियों पर कितना विश्वास कर सकती है।
1953 का युद्ध ख़त्म होने और स्तालिन की मौत के बाद, उत्तरी कोरिया की अन्तरराष्ट्रीय समाजवादी शिविर में डाँवाँडोल परिस्थिति रही और उसने संशोधनवादी सोवियत यूनियन और माओवादी चीन दोनों से सम्बन्ध बनाये रखने की नीति अपनायी। 1976 में माओ के निधन और पूँजीवाद की पुनर्स्थापना के बाद उत्तरी कोरिया सोवियत संघ के और नज़दीक हो गया और चीन से दूरी बनानी शुरू कर दी। दक्षिणी कोरिया और उत्तरी कोरिया की सरहद सोवियत साम्राज्यवादियों और अमेरिकी साम्राज्यवादियों की कलह का बिन्दु बन गयी। इस पूरे अरसे के दौरान अमेरिका ने दक्षिणी कोरिया में परमाणु हथियार तैनात करके रखे हुए थे। परिणामस्वरूप कई दशकों तक उत्तरी कोरिया की जनता परमाणु हमले के साये में जीती रही। इसके जवाब में उत्तरी कोरिया ने ख़ुद परमाणु हथियार विकसित करने कोशिशें आरम्भ कीं। अब चाहे अमेरिका यह कहता है कि दक्षिणी कोरिया से उसने परमाणु हथियार हटा लिये हैं, लेकिन अमेरिकी “सच” का विश्वास कौन करे! 1991 में सोवियत संघ के टूटने के बाद एक बार फिर उत्तरी कोरिया ने चीन से सम्बन्ध सुधारने शुरू किये। 1994 में किम उल-सुंग (उत्तरी कोरिया के पहले राष्ट्रपति) की मौत के बाद उत्तरी कोरिया ने अमेरिका से एक समझौते के तहत परमाणु हथियार बनाने के कार्यक्रम को ठप्प करने की बात मानी, ताकि अमेरिका उत्तरी कोरिया को बिजली पैदा करने के लिए परमाणु रिएक्टर लगाने दे। लेकिन अमेरिका ने यह समझौता कभी भी लागू नहीं किया और 2002 में इस समझौते का अन्त हो गया। लेकिन उत्तरी कोरिया अपना पूरा ज़ोर लगाने के बावजूद अभी तक ऐसी कोई फ़ौजी ताक़त नहीं बना पाया है कि वह अमेरिका के लिए सीधे रूप में ख़तरा हो। उसके सारे “सैन्य” कार्यक्रम का मक़सद दक्षिणी कोरिया और जापान पर हमले की धमकी देकर अमेरिकी हमले से अपना बचाव करना है, जो कि इराक़, लीबिया तथा अन्य देशों की अमेरिका द्वारा की गयी हालत को देखते हुए समझा जा सकता है।
साम्राज्यवादियों की कठपुतली संयुक्त राष्ट्र ने उत्तरी कोरिया पर पिछले 60 वर्षों से व्यापारिक पाबन्दियाँ लगा रखी हैं। उत्तरी कोरिया इस समय विश्व में सबसे अलग-थलग पड़ा देश है, जिसके चलते उत्तरी कोरिया की साधारण जनता को भयंकर मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। 1991 से पहले सोवियत यूनियन के साथ होते व्यापार और उससे मिलती सहायता के बल पर उत्तरी कोरिया इन पाबन्दियों का असर ख़त्म करने में क़ामयाब था, लेकिन सोवियत यूनियन टूटने के बाद उत्तरी कोरिया की अर्थव्यवस्था और सामाजिक व्यवस्था बुरी तरह से हिल गयी है। एक ओर व्यापारिक पाबन्दियाँ, और दूसरी तरफ़ 1990 के दशक में सूखा और खराब हुई फ़सलों के कारण उत्तरी कोरिया में अनाज की उपलब्धता बुरी तरह से प्रभावित हुई है और इसके अलावा, दवाइयाँ और मेडिकल साजो-सामान का निर्यात भी पाबन्दियों के घेरे में होने के चलते उत्तरी कोरिया की स्वास्थ्य व्यवस्था भी बुरी हालत में है। 1990 के दशक में कुपोषण और स्वास्थ्य सुविधाओं के ख़त्म होने के कारण 10 लाख से अधिक लोगों के ग़ैर-प्राकृतिक तौर पर मारे जाने का अनुमान है। अब उत्तरी कोरिया अपने व्यापार के लिए लगभग पूरी तरह चीन पर निर्भर है, जिसका चीन पूरा लाभ ले रहा है।
बदले हालात, बदले रंग
1950 के कोरिया युद्ध के समय चीन और उत्तरी कोरिया में शुरू हुए फ़ौजी गठबन्धन को 1961 में बाक़ायदा एक समझौते का रूप दिया गया, जिसके तहत यह तय हुआ कि चीन किसी भी साम्राज्यवादी हमले की हालत में उत्तरी कोरिया की सुरक्षा करेगा। 1976 में चीन में प्रतिक्रान्तिकारी तख़्तापलट होने के बाद भी यह समझौता लागू रहा है, हालाँकि अब इसके पीछे पूँजीवादी हित थे, न कि साम्राज्यवादियों के खि़लाफ़ संयुक्त मोर्चे की भावना। भले ही अभी भी 2021 तक इस समझौते की अवधि बनी हुई है, लेकिन बदलती परिस्थितियों ने चीन का रुख़ भी बदलना शुरू कर दिया है। चीन के अन्दर भिन्न-भिन्न बुद्धिजीवी वर्गों (पूँजीवादी के थिंक टैंक जो राष्ट्रीय सुरक्षा संस्था, कमिशन, माहिर आदि नामों से ख़ुद को छुपाकर रखते हैं) में समझौते को नये हालात की नज़र में देखने की आवाज़ें उठनी शुरू हो गयी हैं। पूँजीवादी चीन के हित चाहते हैं कि ऐसे युद्ध से बचा जाये जो इस क्षेत्र में छिड़े और चीन के लिए व्यापक तबाही लेकर आये। लेकिन इसके साथ ही वे किसी भी सूरत में उत्तरी कोरिया में सत्ता-परिवर्तन या कोरिया की एकता की सूरत में समूचे कोरिया को अमेरिकी फ़ौजी अड्डे के रूप में नहीं देखना चाहते, क्योंकि ऐसी हालत में चीन की कोरिया से लगने वाली 1400 किलोमीटर सरहद सीधी अमेरिकी मोर्चा बन जायेगी। अमेरिकी साम्राज्यवादी भी चीन की उलझन भरी हालत को समझ रहा है। ट्रम्प एक ओर चीन को सीरिया और अफ़गानिस्तान पर मिसाइलें दागकर धमकियाँ दे रहा है। दूसरी ओर ट्रम्प का डिप्टी माइक पैंस “सभी हल सम्भव हैं” की कूटनीति खेल रहा है, जापान का प्रधानमन्त्री शिबो ऐबे उत्तरी कोरिया से निपटने के लिए अमेरिका का पूरा साथ देने का “वादा” कर रहा है। घरेलू परिस्थितियों और अन्तरराष्ट्रीय राजनीति के मद्देनज़र चीन का उत्तरी कोरिया के प्रति बदला रुख़ अब खुलके सामने आ रहा है।
चीन अब एक ओर अमेरिका को “संयम” के इस्तेमाल और कोई ऐसी स्थिति न पैदा करने की सलाह दे रहा है, जिसके चलते उसे उत्तरी कोरिया के अधिकार में युद्ध में उतरना पड़े। लेकिन इन खोखली बातों के पर्दे तले वह भी अमेरिकी सुर में सुर मिलाकर उत्तरी कोरिया को पाबन्दियों का डर न सिर्फ़ दिखा ही रहा है, बल्कि लागू भी कर रहा है। उत्तरी कोरिया का तीन-चौथाई व्यापार चीन से है, इसे चीन उत्तरी कोरिया का हाथ मरोड़ने का सही नुक्ता मान रहा है। इस वर्ष फ़रवरी से चीन ने उत्तरी कोरिया से कोयला ख़रीदना बन्द कर दिया है, उत्तरी कोरिया की विदेशी मुद्रा का 40% हिस्सा कोयला बेचने से ही हासिल होता है। इसके साथ ही दूसरे खनिजों की ख़रीद भी कम कर दी गयी है। उत्तरी कोरिया पैट्रोलियम के लिए पूरी तरह निर्यात, जिसका स्रोत चीन ही है, उस पर ही निर्भर है। चीन ने हवाई जहाज़ों में इस्तेमाल किया जाने वाला पैट्रोल सप्लाई करना बन्द कर दिया है, और बाक़ी पैट्रोलियम पदार्थों की सप्लाई बन्द करने की धमकी भी दे रहा है। चीन के इन सभी क़दमों का मक़सद उत्तरी कोरिया के परमाणु परीक्षण रोकना है, ताकि कोई भी सम्भावित अमेरिकी हमले को रोका जा सके। फि़लहाल उत्तरी कोरिया चीन की सलाहों और गीदड़ भभकियों को सुन नहीं रहा है, जिसके पीछे असली कारण उत्तरी कोरिया को एक ओर तरफ़ से हिमायत मिलने की उम्मीद बँधी है।
साम्राज्यवादी दुनिया में इस समय अमेरिका और रूस के सम्बन्ध बिगड़े हुए हैं। रूस ने पहले सीरिया में अमेरिकी “अश्वमेधी घोड़े” की राह रोकी है, अब वह इस घोड़े की लगाम उत्तरी कोरिया में कसने की तैयारी कर रहा है। जैसे-जैसे चीन उत्तरी कोरिया की परमाणु कार्यक्रम रोकने की कोशिश कर रहा है, रूस उसे न सिर्फ़ प्रोत्साहित कर रहा है, बल्कि उत्तरी कोरिया का नया “गार्डियन” बनकर सामने आ रहा है। ट्रम्प की धमकियों के जवाब में रूस ने अमेरिका को ऐसा कोई भी “दुस्साहसवादी क़दम” उठाने के खि़लाफ़ चेतावनी दी है। रूस का तेल उत्तरी कोरिया के जहाज़ों और पम्पों पर चीनी तेल की जगह लेनी शुरू कर चुका है और रूस की बन्दरगाह व्लादीवोस्तोक से उत्तरी कोरिया की बन्दरगाह राजिन तक परिवहन तेज़ी से बढ़ रहा है। उत्तरी कोरिया को मिले सोवियत दौर के सारे क़र्ज़े रूस ने पहले ही माफ़ कर दिये हैं। ये हैं साम्राज्यवादी देशों की मित्रताएँ-शत्रुताएँ!! साम्राज्यवादी देशों के आपसी अन्तरविरोध इतने उलझे होते हैं कि ये एक तरफ़ सुलझने की आस बँधाते हैं, तो किसी दूसरी तरफ़ और उलझने लगते हैं। सीरिया में रूस और चीन, इराक़ और सीरिया से साँझा मोर्चा खोल रहे हैं, लेकिन कोरिया तक पहुँचते-पहुँचते रूस के हित चीनी हितों से टकराने लगते हैं। इसकी एक और मिसाल ट्रम्प की ताज़ा अरब यात्रा के बाद उभरी परिस्थिति में भी दिखती है। अमेरिका र्इरान को क़ाबू में करने के लिए 41 इस्लामिक देशों का गुट क़ायम करने की स्कीम में है। इस गुट में शामिल होने वालों की जो सूची चौधरी ने जारी की है, उसमें पाकिस्तान की पर्ची भी निकल आयी है। पाकिस्तान न र्इरान से बिगाड़ना चाहता है और न ही चीन की नाराज़गी झेल सकता है। पाकिस्तान ने गुट में शामिल होने के बारे में सोचने के लिए अमेरिका से कुछ समय की मोहलत माँगी ली, अमेरिका ने पाकिस्तान की इस प्रार्थना के जवाब में 1.8 करोड़ डॉलर की एक “सहायता” को क़र्ज़े में बदल दिया है। पाकिस्तान का ऊँट किस करवट बैठता है, यह अभी देखना है।
कोरिया का पिछली एक सदी का इतिहास और इसका वर्तमान इस बात की गवाही भरता है कि कैसे अमेरिका छोटे देशों को अपने सैन्य अड्डे बनाकर विरोधियों को घेरने के लिए इस्तेमाल करता है और उनकी आर्थिक लूट करता है। जो देश इसकी इस “परियोजना” में शामिल नहीं होता, उसे “शैतान देश” घोषित करके अलग-थलग करना, व्यापारिक पाबन्दियाँ लगाकर ग़रीबी में धकेलना इसका मुख्य हथियार है। और अगर कोई यह भी झेल जाता है तो सीधा फ़ौजी हमला। सीरिया, इराक़, लीबिया, अफ़ग़ानिस्तान… साम्राज्यवादी चालों का शिकार बनने वालों की फ़ेहरिस्त बहुत लम्बी है।
मज़दूर बिगुल, जुलाई 2017
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन