हिण्डेनबर्ग की दूसरी रिपोर्ट में सट्टा बाज़ार विनियामक सेबी कटघरे में
वित्तीय पूँजी की परजीवी दुनिया की ग़लाज़त की एक और सच्चाई उजागर
आनन्द
निवेश शोध और शॉर्ट सेलर संस्था हिण्डेनबर्ग रिसर्च ने अडानी घोटाले से सम्बन्धित अपनी दूसरी रिपोर्ट सार्वजनिक की है जिसमें सट्टा बाज़ार की विनियामक संस्था सेबी (प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड ऑफ़ इण्डिया) और उसकी चेयरपर्सन माधबी पुरी बुच और उनके पति धवल बुच की अडानी ग्रुप के घोटाले में संलिप्तता के प्रमाण प्रस्तुत किये हैं। याद रहे कि पिछले साल जनवरी में हिण्डेनबर्ग रिसर्च ने अडानी घोटाले की सनसनीखेज सच्चाई उजागर की थी जिसके बाद सट्टा बाज़ार में भूचाल आ गया था। इस रिपोर्ट में दिखाया गया था कि अडानी समूह ने इतने कम समय में जो पूँजी का साम्राज्य खड़ा किया है उसके पीछे दशकों से स्टॉक क़ीमतों और बही-खातों की हेराफ़ेरी, विदेशी ‘टैक्स हैवेन’ में मौजूद अपने परिजनों द्वारा संचालित फ़र्जी शेल कम्पनियों के ज़रिये अपने पैसे को अपनी ही कम्पनी में फिर से निवेश करके उसके शेयर की क़ीमतों को कृत्रिम रूप से बढ़ाने और इन ऊँची शेयर क़ीमतों को दिखाकर देश और दुनिया की तमाम वित्तीय संस्थाओं से भारी-भरकम क़र्ज़ लेने की तिकड़म काम कर रही है। इसे कॉरपोरेट जगत के सबसे बड़े घोटाले की संज्ञा दी गयी थी। वित्तीय पूँजी की परजीवी दुनिया की सड़ाँध उजागर होने के बावजूद अडानी समूह के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं हुई। प्रधानमन्त्री के जिगरी यार अदानी के ऊपर भला काई कार्रवाई हो भी कैसे सकती थी! मामला उच्चतम न्यायालय तक भी गया, लेकिन वहाँ भी इस लुटेरे पूँजीपति का बाल भी बाँका नहीं हुआ। बस सेबी के नेतृत्व में एक कमेटी बनाकर मामले को ठण्डे बस्ते में डाल दिया। सेबी ने आजतक इस महाघोटाले पर अडानी के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की है। हिण्डेनबर्ग की दूसरी रिपोर्ट आने के बाद यह साफ़ हो गया है कि सेबी की इस उदासीनता की वजह क्या थी।
अपनी दूसरी रिपोर्ट में हिण्डेनबर्ग ने दिखाया है कि सेबी की चेयरपर्सन माधबी पुरी बुच ने सेबी में ज्वाइन करने से पहले और उसके बाद भी अपने पति धवल बुच के साथ मिलकर विदेशों में ऐसे ऑफ़शोर फ़ण्ड में निवेश किया जिन्हें गौतम अडानी का भाई विनोद अडानी संचालित करता था। ग़ौरतलब है कि विनोद अडानी ही वह शख़्स है जो अडानी समूह के गोरखधन्धों को विदेशी टैक्स हैवेन में दर्जनों फ़र्जी शेल कम्पनियों के ज़रिये संचालित करता है और काले धन को सफ़ेद धन में बदलता है। माधबी बुच 2017 में सेबी की पूर्णकालिक सदस्य बनी थीं और 2022 में उन्हें सेबी का चेयरपर्सन बनाया गया था। हिण्डेनबर्ग रिपोर्ट में दिखाया गया है कि माधबी और धवल बुच ने 2015 में बरमूडा और मॉरीशस जैसे विदेशी ‘टैक्स हैवेन’ में ऐसे फ़ण्ड में निवेश किये थे जिनके तार विनोद अडानी से जुड़े हैं। यही नहीं बुच दम्पत्ति सिंगापुर स्थित अगोरा पार्टनर्स और भारत स्थित अगोरा एडवाइज़री को भी संचालित करते रहे हैं जो अभी भी कन्सल्टेन्सी के ज़रिये मुनाफ़ा कमाती हैं। यह सेबी के नियमों के भी ख़िलाफ़ है। रिपोर्ट में यह भी दिखाया गया है कि सेबी के चेयरपर्सन बनने के 2 हफ़्ते पहले माधबी बुच ने अगोरा में अपनी हिस्सेदारी धवल बुच के नाम कर दी थी।
इतने संगीन आरोपों के सामने आने के बावजूद मोदी सरकार कान में तेल डालकर बैठी हुई है। गोदी मीडिया और बीजेपी का आईटीसेल निहायत ही बेशर्मी से बुच दम्पत्ति को भुक्तभोगी के रूप में प्रस्तुत करके इस पूरे मामले को भारत के ख़िलाफ़ एक अन्तरराष्ट्रीय साज़िश का हिस्सा बता रहा है। बुच दम्पत्ति ने एक संयुक्त बयान जारी करके हिण्डेनबर्ग रिपोर्ट को दुर्भावनापूर्ण बताया और अपने लम्बे ‘सम्मानित’ कॉरपोरेट कॅरियर की दुहाई दी है। लेकिन जिन निवेशों का हवाला हिण्डेनबर्ग रिपोर्ट में दिया गया है, उनसे बुच दम्पत्ति द्वारा इन्कार नहीं किया गया है। माधबी बुच ने दावा किया है कि उन्होंने सेबी का चेयरपर्सन बनने के बाद अपने निवेशों की जानकारी उस संस्था को दे दी थी। परन्तु जब पिछले साल हिण्डेनबर्ग की पहली रिपोर्ट में अडानी समूह के महाघोटाले का पर्दाफ़ाश हुआ था उस समय भारत की जनता इस सच्चाई से अनजान थी कि सेबी के चेयरपर्सन के निवेश के तार अडानी समूह से जुड़े हैं। उसके बाद उच्चतम न्यायालय के आदेश के बाद सेबी के नेतृत्व में कमेटी का भी गठन होता है, लेकिन उस समय भी हमें यह नहीं बताया जाता है कि जिस शख़्स को जाँच का जिम्मा सौंपा गया है उसके ख़ुद के हित अडानी के हितों से जुड़ हुए हैं। ऐसे में भला यह जाँच निष्पक्ष कैसे हो सकती है?
यह पूरा प्रकरण आज के पूँजीवाद के परजीवी व लुटेरे चरित्र और उसकी ग़लाज़त को उजागर करता है। वित्तीय पूँजी के आवारा, परजीवी और मानवद्रोही चरित्र पर पर्दा डालने के लिए सेबी जैसे विनियामक संस्थाओं को बनाया जाता है और उन्हें स्वायत्त व निष्पक्ष संस्थाओं के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। लेकिन हिण्डेनबर्ग रिपोर्ट से यह दिन के उजाले की तरह साफ़ हो गया है कि ऐसी संस्थाओं की स्वायत्तता और निष्पक्षता एक छलावा है। ऐसी संस्थाएँ बनायी ही इसलिए जाती हैं कि तमाम लूट-खसोट और घोटालों के बावजूद लोगों का भरोसा पूँजी की इस मानवद्रोही दुनिया में बना रहे और निष्पक्षता और स्वायत्तता का ढोग-पाखण्ड करके लोगों की आँख में धूल झोंकी जाती रहे। लेकिन इस व्यवस्था के ही अन्तरविरोधों के चलते यह ढोंग-पाखण्ड लम्बे समय तक बरकरार नहीं रह पाता। अब जबकि सेबी की सच्चाई लोगों के सामने आ चुकी है, इस व्यवस्था के पैरोकार बुद्धिजीवी और थिंक टैंक ‘डैमेज कन्ट्रोल’ की कवायद में जुट गये हैं। कोई सेबी को वाकई निष्पक्ष, पारदर्शी और स्वायत्त बनाने के लिए कुछ नियम-क़ानूनों में बदलाव की बात कर रहा है तो कोई ज्वाइंट पार्लियामेण्टरी कमेटी गठित करने की माँग उठा रहा है, ताकि इस व्यवस्था से लोगों का भरोसा न उठ जाए। लेकिन क्या हम भूल सकते हैं कि ऐसी कमेटियों और नियम-क़ानूनों में बदलावों के बावजूद घोटालों का आकार और उनका रूप समय के साथ ज़्यादा से ज़्यादा व्यापक होता गया है। 1990 के दशक में हर्षद मेहता का घोटाला हुआ था, उस समय भी सट्टाबाज़ार को विनियमित करने के लिए नये नियम-क़ानून बनाए गये और सेबी जैसी संस्थाओं को ज़्यादा स्वायत्त और निष्पक्ष करने का ढोंग-पाखण्ड रचा गया। लेकिन उसके बाद से सट्टा बाज़ार में क़िस्म-क़िस्म के घोटाले लगातार होते रहे हैं और अब तो इन घोटलों के तार सीधे सेबी की मुखिया आ जुड़े हैं। इसलिए मज़दूर वर्ग को लूट-खसोट और सट्टाख़ोरी पर टिके वित्तीय पूँजी के इस मानवद्रोही तन्त्र को विनियमित करने की नहीं बल्कि उसपर ताला लगाने की तैयारी करनी चाहिए। जब तक पूँजीवाद रहेगा, तब तक उसमें सट्टाबाज़ी, जालसाज़ी और भाँति-भाँति के घोटाले होते ही रहेंगे।
मज़दूर बिगुल, अगस्त 2024
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