विपक्ष का नया गठबन्धन ‘इण्डिया’ और मज़दूर वर्ग व मेहनतकश आबादी का नज़रिया
लता
भाजपा की मोदी सरकार के ख़िलाफ़ देश में बढ़ते असन्तोष, अलोकप्रियता और नाराज़गी को भाँपते हुए 2024 के लोकसभा चुनावों की तैयारी प्रमुख विपक्षी पूँजीवादी पार्टियों के बीच शुरू हो चुकी है। इस सिलसिले में ही 23 जून को नीतीश कुमार ने विपक्षी दलों की एक बैठक पटना में बुलायी थी। इस बैठक में कांग्रेस के अलावा तृणमूल कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल, पीडीपी, नेशनल कॉन्फ्रेन्स, समाजवादी पार्टी, एनसीपी, शिवसेना (यूबीटी), आम आदमी पार्टी, सीपीआई (एम) सहित 18 बड़ी व छोटी क्षेत्रीय पार्टियों के नेताओं ने हिस्सा लिया। 18 जुलाई को बेंगलुरु में इन पार्टियों की एक और बैठक हुई जिसमें 26 पार्टियों ने हिस्सा लिया। 2024 के लोकसभा चुनावों में भागीदारी के लिए विपक्ष के इस गठबन्धन का नाम इण्डिया यानी भारतीय राष्ट्रीय विकासोन्मुख समावेशी गठबन्धन रखा गया।
देश में भाजपा के प्रति बदलते मिज़ाज को देखते हुए पहली बैठक के बाद 8 और पार्टियों ने गठबन्धन की बैठक में हिस्सा लिया। काँग्रेस भी इस बार ज़्यादा लचीला रुख लिये नज़र आ रही थी वहीं छोटी विपक्षी पार्टियों व क्षेत्रीय पार्टियों का रुख़ भी पहले से नरम दिखायी दे रहा था। इसकी वजह यह है कि भाजपा और आरएसएस की ख़तरनाक फ़ासीवादी राजनीति के समक्ष विपक्ष को अहसास हो रहा है कि उनका अस्तित्व ख़तरे में है। भाजपा बेहद व्यवस्थित तरीके से पूँजीवादी विपक्ष को भी बर्बाद करने में लगी हुई है। अभी कुछ दिनों पहले ही गुजरात कोर्ट ने राहुल गाँधी पर मानहानि का आरोप लगाया, उनकी लोकसभा की सदस्यता रद्द कर दी गयी तथा दो साल की सज़ा का आदेश दे दिया गया। इतना ही नहीं अगले साल के चुनावों में हिस्सा लेने पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया गया। हालाँकि सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात कोर्ट के इस आदेश को रद्द कर दिया है लेकिन भाजपा और आरएसएस का फ़ासीवादी रवैया बुर्जुआ विपक्ष के लिए भी क्या स्थिति पैदा कर सकता है, इसकी बानगी सबके सामने थी। इसलिए अधिकांश बुर्जुआ विपक्षी दल एक मोर्चा बनाते हुए साथ आये हैं।
इस महागठबन्धन पर अन्य पार्टियों ने भी तुरन्त प्रतिक्रिया दी। वजह यह है कि अपने अस्तित्व पर फ़ासीवाद की लटकती तलवार उन्हें साफ़ नज़र आ रही है। जवाब में भाजपा ईडी और मनी लौंडरिंग ऐक्ट का पूरा इस्तेमाल करते हुए विपक्ष पर अपने हमले तेज़ कर रही है। हालाँकि अगर ईडी, आयकर विभाग और सीबीआई बुर्जुआ जनवादी पैमाने पर भी निष्पक्ष कार्रवाई करते तो समूची भाजपा इस समय जेल में पड़ी होती क्योंकि काले धन, भ्रष्टाचार, पूँजीपतियों से ग़ैर-क़ानूनी साँठ-गाँठ जिस कदर भाजपा की है, उतनी तो भारतीय पूँजीवादी राजनीति में किसी बुर्जुआ पार्टी की रही ही नहीं है। इस ख़तरे को भाँपते हुए विपक्षी दल भी लचीला रवैया अपनाकर एक हो रहे हैं। काँग्रेस दिल्ली सर्विस बिल का विरोध करने के लिए काफ़ी मोलभाव और खींचतान के बाद तैयार हुई, लेकिन फिर भी आम आदमी पार्टी तत्परता से इस महागठबन्धन इण्डिया का हिस्सा बनी रही। सतेन्द्र जैन, मनीष सिसोदिया पहले ही जेल में हैं, केजरीवाल पर भी ईडी के हमले हुए हैं। एनसीपी के नवाब मलिक और अनिल देशमुख, तृणमूल काँग्रेस के अभिषेक बनर्जी, काँग्रेस के डी.के. शिवकुमार पर ईडी के छापे पड़े हैं। पैसे के गबन के सिलसिले में राहुल गाँधी और सोनिया गाँधी से ईडी पूछताछ कर रही है। ईडी व अन्य एजेंसियों द्वारा आतंकित किये जाने के प्रयासों के विरुद्ध बुर्जुआ विपक्ष का ज़्यादातर हिस्सा एकजुट होता नज़र आ रहा है, कुछेक को छोड़कर जो कि पहले ही डर के मारे भाजपा की गोद में जाकर बैठ गये, जैसे कि अजित पवार।
देश में भाजपा की बढ़ती अलोकप्रियता, मोदी की फीकी पड़ती महामानव की छवि और भाजपा द्वारा विपक्ष पर बढ़ते हमलों ने विपक्षी पार्टियों के महागठबन्धन के बनने की पूर्वपीठिका तैयार की है। इस स्थिति के प्रति भाजपा भी सजग है और इसलिए विपक्ष पर अपने हमले को तेज़ करते हुए उसने भी अपने पुराने गठबन्धन एनडीए (नेशनल डेमोक्रैटिक अलायंस) की मीटिंग दिल्ली में ठीक 18 जुलाई को ही बुलायी जब बेंगलुरू में महागठबन्धन की बैठक हो रही थी।
इसके अलावा देश में व्यवस्थित तरीके से दंगों की आग भड़काने की शुरुआत पिछले कुछ महीनों से हो चुकी है। मार्च और अप्रैल में रामनवमी के दौरान पूरे देश में दंगे भड़काने का प्रयास किया गया जिसमें दिल्ली समेत मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार और महाराष्ट्र में दंगे भड़काये गये। मई से मणिपुर में जो आग लगी है उसमें आज तक वह झुलस रहा है। और अब हरियाणा के नूँह में बजरंग दल, विश्व हिन्दू परिषद, हिन्दू महासभा जैसे संगठन दंगे भड़काने कूद पड़े हैं। कई राज्यों के गवर्नर रहे सत्यपाल मलिक ने तो यहाँ तक दावा किया है कि भाजपा सत्ता की ख़ातिर कुछ भी करवा सकती है। अगर भाजपा को क़रीब से देखने वाला एक बुर्जुआ नेता यह कह रहा है, तो इस आशंका को नज़रन्दाज़ नहीं किया जा सकता। पिछले लगभग 1 वर्ष से देश की पूँजीवादी राजनीति और जनता के बीच माहौल में जिस दिशा में बदलाव हो रहे हैं, अगर वे उसी दिशा में जारी रहे, तो भाजपा की जीत पक्की नहीं रह जायेगी। भाजपा को इस समय यही भय सता रहा है और इसीलिए वे फिर से अपना पुराना तुरुप का पत्ता इस्तेमाल करने के फेर में है: यानी दंगे और साम्प्रदायिकता का खूनी खेल खेलना।
विपक्ष का नया गठबन्धन ‘इण्डिया’ और मज़दूर-मेहनतकश वर्ग
विपक्ष ने 18 जुलाई को बेंगलुरू में अपने नये महागठबन्धन की घोषणा की है और गठबन्धन के उद्देश्यों में सबसे ऊपर महँगाई और बेरोज़गारी दूर करने की बात कही गयी है। राहुल गाँधी ने इण्डिया को मोदी-भाजपा के ख़िलाफ़ पूरे देश की महत्वाकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करने वाला गठबन्धन बताया है। इस गठबन्धन में राहुल गाँधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ और कर्नाटक चुनावों में काँग्रेस के आक्रामक प्रचार ने भी भूमिका अदा की है। मोदी-शाह की जोड़ी के ख़िलाफ़ माहौल तैयार होने की ठोस सम्भावनाएँ नज़र आ रही हैं। विपक्ष इन्हीं सम्भावनाओं को हक़ीक़त में तब्दील करने की जुगत भिड़ा रहा है और महागठबन्धन इसी का एक हिस्सा है।
भाजपा और आरएसएस ने जिस तरह देश की आम मेहनतकश आबादी को तबाही और बर्बादी की कगार पर ला खड़ा किया है वैसे में ‘हिन्दू राष्ट्र’, ‘लव जिहाद’, ‘गोरक्षा’, ‘धर्म-परिवर्तन’ की जगह जो कोई भी रोज़गार, शिक्षा, स्वास्थ्य और सस्ते अनाज-सब्ज़ी-तेल की बात करेगा तो जनता उसे सुनेगी। लेकिन जनता यह भी जानती है कि सत्ता से बाहर होने पर सभी पूँजीवादी पार्टियाँ रोज़गार, शिक्षा और स्वास्थ्य की बात करती हैं, सत्ता में आने के बाद तो सेवा पूँजीपतियों की ही करती हैं। जनता इन पार्टियों से अपनी स्थिति में किसी मूलभूत बदलाव की उम्मीद नहीं रखती है इसलिए वह तात्कालिक राहत और वायदों के आधार पर वोट देती है। जनता को भी पता है कि इण्डिया में शामिल कई पार्टियाँ जैसे काँग्रेस, आम आदमी पार्टी, तृणमूल और जनता दल (यूनाइटेड) हिमाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, दिल्ली, पंजाब, पश्चिम बंगाल और बिहार में सरकार में होते हुए नवउदारवादी नीतियों को ही लागू कर रही हैं, बेरोज़गारी-महँगाई की स्थिति वहाँ भी बाक़ी देश जैसी ही है और मज़दूर-मेहनतकश आबादी का शोषण-उत्पीड़न एक समान ही है। लेकिन कोई विकल्प न होने पर जनता सत्ताधारी पार्टी या गठबन्धन से अपना गुस्सा अन्य पार्टियों को वोट देकर ज़ाहिर करती है, हालाँकि व्यापक मेहनतकश जनता को आज किसी भी पूँजीवादी चुनावी दल से यह उम्मीद नहीं है कि वह पूँजीपति वर्ग की सेवा छोड़कर जनता के हितों में नीतियाँ बनायेगी। भाजपा अन्य सभी पूँजीवादी पार्टियों से इस मायने में अलग है कि वह एक फ़ासीवादी पूँजीवादी पार्टी है जो पूँजीपति वर्ग की नग्न और बर्बर तानाशाही को लागू करती है और जनता की सबसे बड़ी दुश्मन है। आज भाजपा की मोदी सरकार की नीतियों के कारण पिछले 10 साल में आम जनता के लिए आयी तबाही के कारण मौजूदा सरकार की स्वीकार्यता तेज़ी से घट रही है। यही डर भाजपा को सता रहा है और इसीलिए इण्डिया गठबन्धन के बनने से वह बेचैन है।
लेकिन अगर इण्डिया गठबन्धन 2024 के चुनावों में जीत भी जाये, तो व्यापक मेहनतकश जनता के जीवन में कोई बुनियादी बदलाव आयेगा इसकी कोई उम्मीद नहीं है। मौजूदा संकटग्रस्त पूँजीवादी व्यवस्था में कोई भी पूँजीवादी दल या गठबन्धन सरकार बनाने पर जनता को कोई तात्कालिक राहत तभी देगा जब व्यापक मेहनतकश जनता रोज़गार के अधिकार, शिक्षा के अधिकार, आवास के अधिकार, अप्रत्यक्ष करों के बोझ से मुक्ति के अधिकार के सवाल पर जुझारू जनान्दोलन खड़ा करे। ऐसे जनान्दोलनों को खड़ा करने के लिए क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी के नेतृत्व और क्रान्तिकारी जनसंगठनों की सख़्त ज़रूरत है।
इस महागठबन्धन में संसदमार्गी यानी संशोधनवादी वाम पार्टियाँ जैसे कि सीपीआई, सीपीआई (एम), सीपीआई (एमएल) लिबरेशन भी शामिल हैं। इनका खुले तौर पर पूँजीवादी पार्टियों के साथ गठबन्धन बनाने का पुराना इतिहास रहा है। यह केवल फ़ासीवाद के ख़तरे की वजह से है, ऐसा नहीं है। सीपीआई और सीपीआई (एम) तो स्वयं भाजपा के साथ भी 1989 के विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार के गठबन्धन में शामिल थे। उसके पहले भी जनता पार्टी के दौर में सीपीआई (एम) ने जनसंघ के साथ सहकार किया था। संशोधनवाद वास्तव में मार्क्सवाद के चोगे में बुर्जुआ विचारधारा और राजनीति ही होता है। यह भी पूँजीपति वर्ग की सेवा करता है। बस यह थोड़ा संयम के साथ मज़दूर वर्ग को लूटने की नसीहत पूँजीपति वर्ग को देता रहता है, थोड़ा कल्याणवादी नीतियों को लागू करने की हिमायत करता रहता है, ताकि पूँजीवाद दीर्घजीवी हो सके। आज इण्डिया गठबन्धन में तमाम पूँजीवादी दलों के साथ इनका शामिल होना कोई ताज्जुब की बात नहीं है।
भाजपा और नरेंद्र मोदी की बौखलाहट की पड़ताल
बढ़ती अलोकप्रियता
देश में बेरोज़गारी और बढ़ती महँगाई का जो स्तर है वह पहले कभी नहीं था। जनता अपनी कमाई का 54-55 प्रतिशत सिर्फ़ भोजन पर खर्च कर रही है और शिक्षा, बीमारी और अन्य ज़िम्मेदारियों का बोझ या तो वह उठाने में अक्षम है या वह क़र्ज़ तले दबी जा रही है। 32 करोड़ बेरोज़गार का अर्थ है औसतन लगभग सभी घरों में एक या दो बेरोज़गार नौजवान। दूसरी तरफ़ पुलिस और छुटभैये नेताओं को मिली छूट ने मज़दूरों और मेहनतकशों की ज़िन्दगी को और कठिन बना दिया है। रेहड़ी-खोमचा लगाने पर पुलिस और छुटभैये नेताओं को रोज़ की कमाई से पैसे देना होता है। ठेकेदार छोटी-मोटी नौकरी के लिए भी खुले आम 20 से 25 हज़ार रुपये माँगते हैं। इतनी रकम देने के बाद भी ठेकेदार कहते हैं कि काम पसन्द नहीं आने पर निकाल देंगे। दुबारा कमाई के लिए मज़दूरों को निकाल भी देते हैं। भाजपा के शासन में नौकरी देने के नाम पर धाँधली पहले से कहीं अधिक बढ़ गयी है। सारे श्रम क़ानूनों को समाप्त करने के बाद इसकी ही उम्मीद की जा सकती है।
औरतों के ख़िलाफ़ बढ़ते अपराध और अपराधियों का संरक्षण भाजपा की नीति है। चाहे बिलकीस बानो के बलात्कारियों को आज़ाद करने की बात हो, गुजरात दंगे और बलात्कार में लिप्त बाबू बजरंगी, जगदीप पटेल की रिहाई हो या बृजभूषण शरण सिंह को संरक्षण का मामला हो, मोदी सरकार देश की जनता के सामने महिला सुरक्षा के मामले में नंगी हो चुकी है। आयुष, उज्ज्वला व अन्य योजनाओं की सच्चाई भी जनता के सामने है। जनता त्राहि-त्राहि कर रही है और देश का प्रधानमन्त्री या तो चुनाव प्रचारमन्त्री बना रहता है या विदेशों की यात्रा कर रहा होता है। इसके अलावा मोदी सरकार पानी की तरह पैसा विज्ञापन और प्रचार में बहा रही है। पिछले 5 सालों में 3,064 करोड़ रुपया मोदी सरकार ने विज्ञापनों पर लगाया है। देश में 5 हज़ार बच्चे भूख और कुपोषण से रोज़ाना मर रहे हैं और मोदी ने हज़ारों करोड़ की लागत से नये संसद भवन का निर्माण करवाया है। इन वजहों से मोदी सरकार जनता के बीच तेज़ी से अपना आधार खो रही है और इसकी बौखलाहट में नये सिरे से देश को छोटे-बड़े कई दंगों में झोंकने की साज़िश भाजपा और संघ परिवार खुले तौर पर शुरू कर चुके हैं, ताकि आने वाले चुनावों में धर्म के नाम पर वोटों का बँटवारा हो सके। लेकिन ये प्रयास अभी उतना रंग नहीं ला पा रहे हैं, जैसा कि नूँह में बजरंग दल द्वारा दंगे करवाने और हरियाणा में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करने के प्रयासों को मिली ठण्डी प्रतिक्रिया से साफ़ हो रहा है। ज़ाहिर है, संघ परिवार इसके जवाब में और आक्रामकता से दंगाई साज़िशों को अन्जाम देनेकी कोशिश करेगा जिससे जनता को सावधान रहना चाहिए।
क्षेत्रीय पार्टियों का असन्तोष
एनडीए (राष्ट्रीय जनवादी गटबन्धन) की कई पार्टियों को ऐसा लग रहा है कि भाजपा ने 2019 के चुनावों के नतीजों के बाद जीत के नशे में अपने गठबन्धन की पार्टियों को नज़रन्दाज किया है और कई जगह उन्हें कमज़ोर करने का प्रयास भी किया है। एनडीए से अपना असन्तोष व्यक्त करते हुए तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) के चन्द्रबाबू नायडू भाजपा गठबन्धन से पहले ही बाहर हो चुके हैं। नायडू का कहना है कि भाजपा आन्ध्र प्रदेश में अपनी ज़मीन मज़बूत करने के लिए उनकी पार्टी टीडीपी के प्रतिद्वन्दियों को मदद पहुँचा रही है जिसमें वाईएसआर काँग्रेस और पवन कल्याण की जन सेना पार्टी को बढ़ावा देना शामिल है। अभी जुलाई 18 की एनडीए की बैठक में पवन कल्याण की जन सेना पार्टी शामिल भी थी। दक्षिण भारत में पहले ही भाजपा की पकड़ कमज़ोर है, कर्नाटक चुनावों में हार के बाद भाजपा को और झटका लगा है और टीडीपी के एनडीए में नहीं होने से दक्षिण में भाजपा की हालत खस्ता है।
किसानों के बीच बढ़ते असन्तोष और विधानसभा चुनावों में अपने प्रदर्शन को देखते हुए अकाली दल भाजपा से दूर ही है और कश्मीर से धारा 370 हटाने वाली भाजपा से करीबी महबूबा मुफ़्ती की पीडीपी को महँगी पड़ती इसलिए वह पहले ही पल्ला झाड़कर महागठबन्धन की नाव पर सवार हो चुकी है।
एनसीपी और शिवसेना दो धड़ों में बँट गये हैं। हालाँकि दोनों का एक धड़ा एनडीए के साथ है लेकिन निश्चित ही इनकी ताकत बँट गयी है और दोनों का दूसरा धड़ा इण्डिया के साथ है। महाराष्ट्र के लोगों में एनडीए में जाने वाले धड़ों के प्रति भी गुस्सा है। वहीं एनडीए का पुराना साझीदार जनता दल (यूनाइटेड) अब एनडीए से बाहर है और इण्डिया में शामिल है।
ठीक 18 जुलाई को ही अपने गठबन्धन की बैठक बुलाना भी 2024 चुनावों के प्रति भाजपा की असुरक्षा और अनिश्चितता को ही दर्शाता है। हालाँकि एनडीए गठबन्धन के सम्बन्ध में कई क्षेत्रीय पूँजीवादी पार्टियाँ बीच-बीच में अपनी नाराज़गी ज़ाहिर कर चुकी हैं लेकिन क्षेत्रीय पूँजीवादी पार्टियों के लिए चुनावी राजनीति तो तमाम समीकरणों और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के आधार पर ही निर्धारित होती है। जिसका पलड़ा भारी दिखता है क्षेत्रीय पूँजीवादी पार्टियाँ और उनके नेता उसका पक्ष चुनते हैं ताकि अपना हित साध सकें। फ़िलहाल इतना कहा जा सकता है कि भाजपा और आरएसएस को भी 2024 के चुनावों को लेकर आत्मविश्वास की कमी दिख रही है।
भाजपा की बौखलाहट के परिणाम
कुछ लोगों का कहना है कि 38 पार्टियों के एनडीए गठबन्धन के पीछे की वजह ईडी के छापे हैं। यह आंशिक सत्य है। निश्चित तौर पर, ईडी व अन्य एजेंसियों द्वारा सताये जाने के कारण कई क्षेत्रीय दल भाजपा से कन्नी काट रहे हैं और कुछ डरकर भाजपा के साथ जा रहे हैं। लेकिन यह भी सच है कि ये क्षेत्रीय पूँजीवादी पार्टियाँ कुलकों, फ़ार्मरों, क्षेत्रीय पूँजीपतियों, व्यापारियों आदि की नुमाइन्दगी करती हैं। इनका नेतृत्व निकृष्ट कोटि के अवसरवाद और तुच्छ महत्वाकांक्षाओं से भरा रहता है। इसलिए इनका भाजपा के साथ जाना महज़ दबाव की बात नहीं है। ऐसा मौक़ापरस्त नेतृत्व भाजपा का दामन पकड़कर सत्ता का सुख भोगने के सपने भी देखता है। ऐसे में क्षेत्रीय पार्टियों में से कई विपक्षी गठबन्धन के लिए राह का रोड़ा भी बनेंगी।
बहरहाल, इन सबके बावजूद भाजपा 2024 की जीत को लेकर अब पहले की तरह आश्वस्त नहीं है। कठिनाई का अन्देशा होते ही संघ परिवार और भाजपा पूरे देश में दंगों की आग भड़काने में जुट गये हैं। मार्च-अप्रैल में रामनवमी के अवसर पर मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उत्तराखण्ड, उत्तरप्रदेश और दिल्ली में दंगें करवाये गये। उत्तराखण्ड और दिल्ली के शाहबाद डेयरी में ‘लव जिहाद’ के नाम पर दंगों की स्थिति पैदा की गयी जिसमें से दिल्ली में ‘भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी’ द्वारा जनता को एकजुट किये जाने के कारण इनके प्रयास नाकाम हो गये। उत्तराखण्ड में मुसलमानों को अपनी दुकानें बन्द कर वहाँ से जाने को मजबूर किया गया। मई से मणिपुर तो जल ही रहा था अब हरियाणा में दंगों की आग लगायी जा रही है।
मज़दूर-मेहनतकश वर्ग और भाजपा की उग्र साम्प्रदायिक लहर
हम जानते हैं कि सभी दंगों में मरने वाले ग़रीब मज़दूर-मेहनतकश व निम्नमध्यवर्गीय लोग ही होते हैं। हिन्दू धर्म की तथाकथित रक्षा-सेवा में ग़रीबों के बेटे-बेटियों को बुलाया जाता है जबकि इन नेताओं के बेटे-बेटियाँ विलायत में पढ़ते हैं, ऊँचे पदों पर आसीन होते हैं या बड़े व्यापार व धन्धे करते हैं। अमित शाह का बेटा करोड़ों का व्यापार करता है और क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड का अध्यक्ष भी है, भाजपा सांसद रविशंकर प्रसाद की बेटी अमेरिका की बोस्टन यूनिवर्सिटी से एमबीए कर रही है। स्मृति ईरानी की बेटी गोवा में रेस्टोरेंट और शराबख़ाना चलाती है और सुषमा स्वराज की बेटी वकील है और अब भाजपा टिकट से चुनाव लड़ने जा रही है। भाजपा के एक भी बड़े नेता या मन्त्री के बच्चे बजरंग दल या विश्व हिन्दू परिषद में लाठी भाँजने नहीं जाते।
यही नहीं मुसलमानों के बीच मौजूद साम्प्रदायिक नेता भी ग़रीब-मज़दूर-मेहनतकश मुसलमान के बेटे-बेटियों को इस्लाम की तथाकथित रक्षा के लिए उकसाते हैं। दोनों तरफ़ मरने वाले ग़रीब-मज़दूर-मेहनतकश के बच्चे होते हैं और वोटों की रोटियाँ ऊपर बैठे नेता-मन्त्रियों की सिंकती है। धर्मगुरु या नेता ग़रीब-मज़दूर-मेहनतकश के बेटे-बेटियों के दिमाग में ज़हर भरकर इन्हें धर्म के नाम पर अर्ध-पागल बनाते हैं और फिर ग़रीब बस्तियों को दंगों की आग में झोंक देते हैं। आग दोनों तरफ़ सुलगायी जाती है क्योंकि दंगों की आग जितनी ज़्यादा भड़केगी वोटों की रोटियाँ उतनी ही अधिक सिकेंगी।
इसके अलावा भाजपा की 9 साल की सरकार मज़दूरों-मेहनतकशों व आम जनता पर सबसे भारी पड़ी है चाहे वे किसी भी धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र या राष्ट्रीयता के क्यों न हों। नौकरियाँ हैं ही नहीं, जिनके पास नौकरी है उन पर काम का दबाव बहुत ज़्यादा है। एक व्यक्ति से 3-4 लोगों का काम लिया जा रहा है और वेतन बेहद कम। लागत कम करने के नाम पर मज़दूरों की छँटनी चल रही है। शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं की बदहाल स्थिति किसी से छुपी नहीं है। आज देश की बड़ी आबादी के लिए दो जून की रोटी का जुगाड़ भी मुश्किल पड़ रहा है।
ऐसे में मज़दूर-मेहनतकश वर्ग को यह समझना होगा कि संघ-भाजपा की आक्रामक दंगाई राजनीति की मार सबसे ज़्यादा उन्हें ही सहनी होगी। उन्हें यह भी समझना होगा कि पूँजीवादी व्यवस्था उन्हें कोई विकल्प नहीं दे सकती है। आप तात्कालिक तौर पर मौजूदा फ़ासीवादी सत्ताधारी पार्टी को दण्ड देने के लिए किसी अन्य दल या गठबन्धन को चुन सकते हैं। इससे आपको मोदी सरकार और उसकी फ़ासीवादी नीतियों से तात्कालिक राहत मिलने से ज़्यादा कोई सम्भावना ही नहीं है। साथ ही फ़ासीवादी भाजपा अगर सत्ता से बाहर भी हो गयी, तो वह पूँजीपति वर्ग के आतंकी दस्ते और अनौपचारिक सत्ता का काम करेगी, मज़दूरों-मेहनतकशों पर हमले जारी रखेगी, दंगाई प्रचार चलाती रहेगी।
क्या आपको लगता है कि कांग्रेस या किसी अन्य बुर्जुआ चुनावी गठबन्धन की सरकार भाजपा और संघ परिवार की गुण्डा वाहिनियों पर कोई लगाम लगायेगी? नहीं। क्योंकि पूँजीपति वर्ग को इन फ़ासीवादी ताक़तों की ज़रूरत है, चाहे वे सत्ता में रहें या न रहें। साथ ही, किसी भी अन्य बुर्जुआ गठबन्धन की सरकार भी पूँजीपति वर्ग को संकट से निजात नहीं दिला सकती और न ही जनता को बेरोज़गारी, महँगाई, आदि से निजात दिला सकती है। उसके द्वारा किये जाने वाले दिखावटी कल्याणवाद के जवाब में पूँजीपति वर्ग और मज़बूती से दोबारा फ़ासीवादियों को ही फिर से सत्ता में लाने की जुगत भिड़ायेगा और जनता के बीच मौजूद आर्थिक व सामाजिक असुरक्षा का लाभ उठाकर फ़ासीवादी संघ परिवार और भी आक्रामक तरीके से टुटपुँजिया वर्गों का प्रतिक्रियावादी उभार पैदा करेगा, जिसकी लहर पर सवार होकर वह फिर से सत्ता में पहुँचेगा। यानी, पूँजीवाद के दायरे के भीतर फ़ासीवाद की निर्णायक हार किसी चुनाव के ज़रिये नहीं हो सकती।
इसलिए 2024 में कोई भी पार्टी या गठबन्धन चुनाव जीते, तात्कालिक तौर पर हमें ऐसे जुझारू जनान्दोलन खड़े करने पड़ेंगे जो हमारी रोज़गार और शिक्षा की तथा अन्य बुनियादी माँगों पर केन्द्रित हों, जो सरकार को मजबूर करें कि वह हमारी इन माँगों पर ठोस कार्रवाई करे। दूरगामी तौर पर, पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर व्यापक मेहनतकश जनता को बेरोज़गारी और महँगाई से आज़ादी नहीं मिल सकती है, जुझारू जनान्दोलनों के दम पर केवल कुछ फ़ौरी राहत हासिल की जा सकती है और इसलिए सवाल समूची पूँजीवादी व्यवस्था को ही नेस्तनाबूद करने और मज़दूर सत्ता और समाजवाद की स्थापना करने का है। इस दूरगामी लक्ष्य को पूरा करने के लिए मज़दूर वर्ग को अपनी क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी की ज़रूरत है और उसके निर्माण के काम में हमें आज से ही शामिल हो जाना चाहिए। हमारा स्वतन्त्र राजनीतिक पक्ष तभी निर्मित हो सकता है और तभी हम इस या उस पूँजीवादी पार्टी का पुछल्ला बनने की विडम्बना से मुक्त हो सकते हैं। फ़ासीवाद की निर्णायक पराजय भी ऐसी मज़दूर क्रान्ति के ज़रिये ही सम्भव है, जो मज़दूर सत्ता और समाजवाद की स्थापना करे।
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