मोनोपोली बनाम ‘बाकी सभी’! अपने वर्ग सहयोगवाद को जायज़ ठहराने के लिए “महासचिव” अजय सिन्हा की नयी “खोजें”!
अमित
हमारे माटसाब यानी “महासचिव” अजय सिन्हा भविष्य के समाजवादी राज्य का “प्रीमियर” बनाने की जल्दबाज़ी में रोज़ नये-नये सिद्धान्तों का प्रतिपादन करते हैं और मार्क्सवाद में नया इज़ाफ़ा करने का दावा ठोंक डालते हैं। यह दीगर बात है कि ऐसा करते हुए वे मूर्खता के नये शिखर को ही प्राप्त करते हैं और बार-बार प्रहसन के पात्र बनते हैं। माटसाब के नये “आविष्कार” के अनुसार अब इस घनघोर इज़ारेदार वित्तीय पूँजी के युग में एक ऐसा परिवर्तन आया है, जिसमें न सिर्फ़ सर्वहारा व समूचा किसान वर्ग (माटसाब के लिए किसान अब वर्ग विभाजित न होकर एकाश्मी समुदाय है!), बल्कि छोटे और मध्यम पूँजीपति वर्ग (जिसे माटसाब बड़ी चालाकी से “दरमियाने वर्ग” का नाम देते हैं!) अब मुक्ति के लिए आवाज़ लगा रहे हैं! अब ये भी आम जनसाधारण का हिस्सा बन चुके है, यानी मित्र वर्ग बन चुके हैं, इसलिए अब समाजवादी क्रान्ति के तीन वर्गों का मोर्चा पुरानी बात हो चुकी है! अब इस मोर्चे में सिर्फ़ मुट्ठीभर इज़ारेदार पूँजीपति घरानों को छोड़ कर, माटसाब सभी छोटे-मध्यम पूँजी वालों का दिल खोलकर स्वागत करेंगे! बस सर्वहारा वर्ग के “एकमात्र” हिरावल यानी हमारे माटसाब और इनकी साँचो-पाँजा़ओं की टोली उनके बीच जायेगी और उन्हें इस सच्चाई से अवगत करायेंगी कि इस वित्तीय इज़ारेदार पूँजी के साथ उनका कोई भविष्य नहीं है, इसलिए वे सर्वहारा वर्ग के साथ आ जायें और इज़ारेदार वित्तीय पूँजी के ख़िलाफ़ वर्ग मोर्चा बना लें! माटसाब के अनुसार, इससे वित्तीय इज़ारेदार पूँजी की शक्ति भी घटेगी और वह कमज़ोर होगी और फ़िर बहुत जल्द समाजवादी क्रान्ति का रास्ता साफ़ हो जायेगा! वैसे भी “महासचिव” अजय सिन्हा न जाने कब से अपनी पूरी कमिसारियत के समाजवादी सरकार सम्भालने के लिए तैयार बैठे हैं। लेकिन ससुरा दरमियाना पूँजीपति बात ही नहीं मान रहा है और फ़ासीवाद का दामन छोड़ ही नहीं रहा है!
हम देख सकते हैं कि माटसाब के इस नये “आविष्कार” में बुनियादी मार्क्सवादी-लेनिनवादी स्थापनाओं के साथ कुत्सित ज़ोर-ज़बरदस्ती के अलावा कुछ और नहीं है। इसलिए आगे हम इनकी एक-एक “आविष्कार” की पड़ताल करेंगे और इनकी इस नयी मूर्खता की पोल खोलेंगे।
माटसाब अपने इस नये “आविष्कार” को वैधता प्रदान करने के लिए इन शब्दों में भूमिका तैयार करते हैं,
“… श्रमिक और किसान आम जनसाधारण का एक बड़ा हिस्सा है। इसलिए हमें मज़दूरों और किसानों की जगह आम जनसाधारण जनता की बात करनी चाहिए और क्रान्तिकारी मज़दूर और किसान आन्दोलन की जगह क्रान्तिकारी जन-आन्दोलनों की बात करनी चाहिए।”
पहली बात तो यह है कि माटसाब यहाँ बड़ी चालाकी से किसान को एक एकाश्मी समुदाय की तरह प्रस्तुत कर रहे हैं। माटसाब के अनुसार अब धनी किसान और कुलक भी जनता का हिस्सा है, यानी समाजवादी क्रान्ति का मित्र वर्ग है, क्योंकि यह भी अब बड़े कॉरर्पोरेट पूँजी के हाथों “उत्पीड़ित” हो रहा है! इस प्रश्न पर हम इनके कुतर्कों की पोल पहले भी कई बार खोल चुके हैं। यहाँ माटसाब अजय सिन्हा यह भूमिका बनाने की कोशिश कर रहे हैं कि मज़दूर और किसान के अलावा छोटे और मध्यम पूँजीपति वर्ग भी अब जनसाधारण का हिस्सा बन चुके है! वैसे मार्क्सवादी-लेनिनवादी-माओवादी शब्दावली में आम मेहनतकश जनता (मज़दूर वर्ग, ग़रीब व मँझोले किसानों, तथा शहरी निम्न-मध्यवर्ग तर्था मध्यम मध्यवर्ग) के लिए पहले भी ‘जनता’, ‘जनसमुदाय’ व उनके आन्दोलनों के लिए ‘जनान्दोलन’ शब्द का इस्तेमाल लम्बे समय से होता रहा है, इसमें कुछ नया नहीं है। यानी, माटसाब अजय सिन्हा फालतू में एक नयेपन का दावा ठोंक रहे हैं। जिन बौद्धिक पिग्मियों के पास कहने के लिए नया कुछ नहीं होता, वे ऐसा ही करते हैं। लेकिन यहाँ माटसाब अजय सिन्हा जो ज़्यादा भयंकर काम कर रहे हैं कि वह ‘जनता’ या ‘जनसमुदायों’ की परिभाषा के दायरे में शोषक वर्गों को भी समेट रहे हैं ताकि अपनी वर्ग सहयोगवादी लाइन को वैध ठहरा सकें। हालाँकि आगे माटसाब इन इरादों को साफ़ तौर पर ज़ाहिर भी करते है
आगे माटसाब लिखते हैं,
“आज की दुनिया में सम्पत्ति हड़पने की अत्यधिक तीव्र लड़ाई यह स्पष्ट करती है कि छोटी और मध्यम पूँजियाँ बड़ी वित्तीय पूँजी के साथ सह-अस्तित्व में क्यों नहीं ज़िन्दा रह सकती हैं, जबकि ये ही पूँजी की दुनिया का संख्यात्मक रूप से सबसे बड़ा हिस्सा हैं। यह बात यह भी स्पष्ट करती है कि क्यों आज आम लोगों की दुनिया में छोटी और मध्यम पूँजियाँ भी शामिल होने को विवश हो रही हैं जिससे दोनों दुनिया आंशिक रूप से एक-दूसरे को ओवरलैप करती हैं। जैसे कि आम जनसाधारण की दुनिया यहाँ दूसरे यानी पूँजी की दुनिया के एक हिस्से, यानी छोटी और मध्यम पूँजियों को समाहित करती है। इस तरह यह साफ़-साफ़ देखा जा सकता है कि आम लोगों की दुनिया यहाँ स्पष्टतः बहुत बड़ी हो जाती है। यह स्पष्ट है कि बड़े वित्तीय शार्कों के प्रभुत्व में चलने वाली पूँजी की दुनिया से छोटी और मध्यम पूँजी का एक बड़ा हिस्सा लोगों की दुनिया में पलायन कर जाने की क़गार पर आ गया है। इस प्रकार पूँजी की दुनिया के प्रमुख वित्तीय पूँजी की शक्ति कमज़ोर हो रही है।”
यहाँ माटसाब स्पष्ट तौर पर खुल कर छोटी-मँझोली पूँजी के समर्थन में आ खड़े हुए हैं और इनको मित्र वर्ग घोषित कर रहे हैं! यानी अब ये भी समाजवादी क्रान्ति के रणनीतिक वर्ग संश्रय के हिस्सेदार होंगे! और माटसाब के अनुसार ऐसा इसलिए होगा क्योंकि अब ये छोटी-मँझोली पूँजी बड़ी वित्तीय पूँजी के साथ अस्तित्वमान नहीं रह सकते(?) और अब इसलिए इनका मेहनतकश जनता के साथ हित साझा है!
यह पूरी तर्क प्रणाली ही अज्ञानतापूर्ण है। निश्चित तौर पर इज़ारेदार पूँजी के युग में पूँजी का संकेन्द्रण और सान्द्रण गुणात्मक रूप से ऊँचे स्तर तक पहुँच जाता है, छोटी पूँजी का बड़ी इज़ारेदार पूँजी के साथ प्रतिस्पर्धा में टिक पाना कठिन हो जाता है और इसका एक हिस्सा तबाह भी हो जाता है। वैसे तो इजारेदारी के दौर के पहले से ही छोटी पूँजियों के एक हिस्से के बरबाद होने की प्रक्रिया जारी रहती है और वास्तव में इज़ारेदारी की मंज़िल स्वयं इसी प्रक्रिया का एक नतीज़ा होती है। यह बात मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र का ‘क ख ग’ जानने वाला कोई भी व्यक्ति जानता है। यह सिर्फ इज़ारेदारी के प्रधान प्रवृत्ति बनने के युग की अभिलाक्षणिकता नहीं है। लेकिन ऐसा कहना कि छोटी पूँजी इज़ारेदार पूँजी के सहअस्तित्व में नहीं रह सकती, बिल्कुल ग़लत और मूर्खतापूर्ण है। इज़ारेदारी कभी भी न तो एकल इज़ारेदारी (absolute single monopoly) में परिवर्तित हो सकती है (जैसा कि माटसाब को लगता है!) न ही छोटी और मध्यम पूँजी को पूरी तरह से ख़त्म कर सकती है। ऐसा इसलिए नहीं हो सकता है क्योंकि, पूँजी के केन्द्रों के केन्द्रीकृत होने की प्रक्रिया के साथ-साथ नये केन्द्रों के जन्म और पुराने केन्द्रों में से कुछ के विघटन की भी प्रक्रिया लगातार चलती रहती है, जैसा कि मार्क्स ने ‘पूँजी’ के पहले खण्ड में ही स्पष्ट किया है। साथ ही, आज दुनिया के उन देशों का उदाहरण भी इसे स्पष्ट करता है जहाँ इज़ारेदारीकरण की प्रक्रिया सबसे ज़्यादा विकसित हो चुकी है, मसलन, अमेरिका, इंग्लैण्ड, जर्मनी। इज़ारेदार पूँजी के वर्चस्व के साथ ही बहुत से आर्थिक क्षेत्रों में छोटी व मँझोली पूँजियों का बोलबोला है और कई जगहों पर इज़ारेदार पूँजी उन्हें पूरी तरह से नष्ट करने की बजाय सहयोजित भी करती है क्योंकि यह ज़्यादा फ़ायदेमन्द होता है।
दूसरा, पूँजीवादी उत्पादन विस्तारित पुनरुत्पादन की प्रक्रिया है और उत्पादन के नये क्षेत्रों या शाखाओं का पदार्पण भी होता रहता है। इज़ारेदार पूँजी अगर छोटी-मध्यम पूँजी के एक हिस्से को बर्बाद करती है तो पूँजीवादी उत्पादन पद्धति लगातार अपनी नैसर्गिक गति से छोटी व मँझोली पूँजियों को भी पैदा करती रहती है। इसलिए इज़ारेदारीकरण हमेशा एक रुझान के तौर पर मौजूद रहती है और कभी पूर्ण एकाधिकार के चरण में नहीं पहुँच सकती। उदाहरण के लिए, ऑटोमोबाइल सेक्टर में मारुती, होण्डा, सुज़ुकी, मर्सिडीज़ आदि बड़ी पूँजी के साथ, उत्पादन की मल्टी-टीयर (multi-tier) श्रृंखला में नीचे कई सारे छोटे और मध्यम पूँजीपति शामिल होते हैं। इस प्रकार की श्रृंखला का विकास उत्तर-फोर्डवाद के दौर में बड़ी इज़ारेदार पूँजी के लिए भी फ़ायदेमन्द है। इस पर बहुत-से मार्क्सवादी अध्ययन मौजूद हैं, इसके विस्तार में जाने की यहाँ आवश्यकता नहीं है। पूँजीवादी प्रतिस्पर्धा की वजह से पूँजीवादी विकास और उत्पादन, असमान और अराजकतापूर्ण होता है, और हमेशा गतिमान होता है। इसलिए उत्पादन की उन्नत तकनीक के साथ-साथ अपेक्षाकृत पिछड़ी तकनीक की भी मौजूदगी बनी रहती है। तीसरी बात, इज़ारेदार पूँजी आम तौर पर उत्पादन के सभी क्षेत्रों में और देश स्तर पर समूचे भौगोलिक क्षेत्रों में अकेले मौजूद नहीं रहती है, इसके लिए भी इसे स्थानीय छोटी और मँझोली पूँजी के साथ गठजोड़ की आवश्यकता होती है। इसलिए यह कहना कि अब इज़ारेदार पूँजी के साथ छोटी और मध्यम पूँजी सह-अस्तित्वमान नहीं रह सकती है, यह बेहद मूर्खतापूर्ण बात होगी और हम इसकी उम्मीद माटसाब से ज़रूर कर सकते हैं! वैसे भी यह तर्क पूर्ण इज़ारेदारीकरण के काऊत्स्कीपंथी तर्क की ओर जाता है। इसके अलावा, अगर माटसाब का मतलब किसी वित्तीय-औद्योगिक अल्पतन्त्र का वर्चस्व स्थापित होने से है तो उस सूरत में भी छोटे और मँझोले पूँजीपतियों का पूरा वर्ग कभी समाप्त नहीं हो जाता है। न तो इज़ारेदारी के पूरे युग में किसी उन्नत से उन्नत पूँजीवादी देश में ऐसा हुआ है और न ही ऐसा हो सकता है। यह पूँजीवाद की आन्तरिक गति को न समझने वाला व्यक्ति ही कल्पना कर सकता है। यह पूरा तर्क ही ग़ैर-द्वन्द्वात्मक है और पूँजीवादी उत्पादन पद्धति में जारी अन्तरविरोधी प्रक्रियाओं को नहीं समझ पाता है।
इज़ारेदार पूँजी भी आपस में प्रतिस्पर्धा करती है और कई बार इनकी आपसी प्रतिस्पर्धा में कोई एक इज़ारेदार घराना भी बर्बाद हो जाता है, या फिर बर्बादी का डर बना रहता है। माटसाब के तर्कप्रणाली के अनुसार तो फ़िर इन इज़ारेदार घरानों में से सापेक्षिक रूप से कमज़ोर घराने के साथ भी वर्ग मोर्चा बना लेना चाहिए! इससे तो इज़ारेदारी की शक्ति और भी कमज़ोर होगी और माटसाब के भविष्य के समाजवादी राज्य के “प्रीमियर” बनने का सपना और भी जल्द साकार हो जायेगा! साथ ही कुछ इज़ारेदार पूँजी के अलावा भी कई बड़ी पूँजियाँ भी मौजूद होती है और इनकी भी इज़ारेदार घरानों के साथ बेहद तीख़ी प्रतियोगिता होती है और कई बार इन प्रतियोगिताओं में पिछड़ने की वजह से इनके ऊपर भी तबाही की तलवार लटकती रहती है। फिर माटसाब को इनके साथ भी साझा मोर्चा बनाने से कोई गुरेज़ नहीं करना चाहिए! जिस तर्क से छोटी व मँझोली पूँजी के साथ रणनीतिक मोर्चा बन सकता है (“क्योंकि वे इजारेदारी के हाथों तबाह हो रही हैं!”) उसी तर्क से बरबाद होने वाली तमाम बड़ी पूँजियों के साथ रणनीतिक मोर्चा क्यों नहीं बन सकता है? दोनों ही उजरती श्रम के शोषक हैं, एक छोटे या मँझोले स्तर पर और एक बड़े स्तर पर! अब मोर्चे का यह आधार तो हो नहीं सकता कि कोई कम मज़दूरों का शोषण करता है तो उसके साथ मोर्चा बन सकता है और कोई अधिक मज़दूरों का शोषण करता है, तो उसके साथ मोर्चा नहीं बन सकता! यह भयंकर मूर्खतापूर्ण परिमाणात्मक तर्क है। सच यह है कि समाजवादी क्रान्ति की मंज़िल में उजरती श्रम के किसी भी शोषक वर्ग के साथ मोर्चा नहीं बन सकता और वे जनता व जनसमुदायों का अंग नहीं बन सकते, चाहे वे छोटे पैमाने पर श्रम के शोषक हों या बड़े पैमाने के या मँझोले पैमाने के। यह कोई अति–क्रान्तिकारी तर्क नहीं है, जैसा कि अल्प–क्रान्तिकारी हो चुके “महासचिव” अजय सिन्हा को प्रतीत होता है।
माटसाब, आगे और कहते हैं इन छोटे और मंझोले पूँजी का हित आम मेहनतकशों के साथ साझा है और ये पूँजीपति भी पूँजीवाद से “मुक्ति” की चाहत रखते हैं! माटसाब लिखते हैं:
“बड़ी पूँजी के परिप्रेक्ष्य और छोटी पूँजी के परिप्रेक्ष्य में निहित अन्तर को समझना नितान्त आवश्यक है। आजकल, मुक्ति (emancipation) जनता के बीच सबसे अधिक सुनाई देने वाला शब्द बन चुका है। अब इसका उपयोग न केवल मज़दूर वर्ग और मेहनतकशों द्वारा किया जाता है, बल्कि उन लोगों द्वारा भी किया जाता है जो निजी सम्पत्ति और पूँजी के मालिक हैं, लेकिन जो साथ में इज़ारेदार वित्तीय पूँजी की लूट के सामने मालिक के रूप में अपने अस्तित्व को ख़तरे में पाते हैं और इसे शिद्दत से महसूस भी करते हैं। इसलिए, मुक्ति शब्द का अर्थ अब पूँजी द्वारा आरोपित मज़दूरी प्रथा की दासता और शोषण की जंजीरों से मुक्ति के संदर्भ में अपने पुराने मज़दूर वर्गीय अर्थ की गूँज तक सीमित नहीं रह गया है। इसके अतिरिक्त अब इसने छोटे-मँझोले पूँजीपतियों के बीच बड़ी पूँजी की एकाधिकारी लूट से मुक्ति के मामले में भी, हालाँकि बिना मज़दूरी प्रथा की गु़लामी और आदमी द्वारा आदमी के शोषण को ख़त्म किए बिना ही प्रासंगिकता हासिल कर ली है।”
‘गजब खोपड़ी दोन किहोते!’ आगे माटसाब कहते हैं:
“लेकिन अब यह भी असम्भव है। सच तो यह है कि दरमियानी वर्ग भी तभी मुक्त हो सकते हैं जब पूँजीवादी व्यवस्था को ख़त्म कर दिया जाये…”
यानी माटसाब अब कुलकों के साथ–साथ, पटना के ठेकेदारों, एफ़डीआई से मार खा रहे बड़े दुकानदारों, मायापुरी–नारायणा के फैक्ट्री मालिकों को भी मुक्ति दिलायेंगे और उनके बीच भी समाजवाद का नारा बुलन्द करेंगे, जिनके बीच इनका संगठन कुछ कवायदें करता रहा है! कहा जा सकता है कि माटसाब ने मार्क्सवाद में नया इज़ाफ़ा करके यह नया नारा दिया है, “दुनिया के कुलकों, ठेकेदारों, व्यापारियों, छोटे-मँझोले फैक्ट्री मालिकों, एक हो!” माटसाब का तर्क है कि अब चूँकि ये छोटे और मध्यम पूँजीपति भी इज़ारेदार वित्तीय पूँजी की मार से त्रस्त है इसलिए इनका हित जनता के साथ साझा है। और ये भी मुक्ति की चाहत रखते हैं, और इन्हें मुक्ति सिर्फ़ समाजवाद में मिल सकती है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार ये समाजवाद में कुलकों को “उचित दाम” दिलायेंगे!
“महासचिव” अजय सिन्हा ने वर्ग संश्रय की मार्क्सवादी–लेनिनवादी समझदारी, यानी मित्र वर्ग और शत्रु वर्ग की परिभाषा को ही बदल दिया है! सवाल यह है कि समाजवादी क्रान्ति की मंज़िल में छोटे और मँझोले पूँजीपति वर्ग का हित आम मेहनतकश जनता के साथ साझा कैसे हो सकता है, जो खुद ही उजरती श्रम के शोषक हैं? इन पूँजीपतियों का अस्तित्व ही श्रम के शोषण पर टिका हुआ है। आम मेहनतकश जनता के अतिरिक्त श्रम की लूट ही इनके मुनाफ़े का एकमात्र स्रोत है। यह पूँजीपति वर्ग समाजवाद के नारे पर साथ क्यों आयेगा? क्या समाजवाद में इन्हें इनके उत्पादन के साधनों से बेदखल नहीं किया जायेगा? क्या इन्हें श्रम शक्ति ख़रीदने की आज़ादी होगी? इसका जवाब है, बिलकुल भी नहीं! फ़िर माटसाब इनको समाजवाद के लिए कैसे मनायेंगे, इसका जवाब तो सिर्फ़ वही दे सकते हैं! यह सच है कि छोटा और मँझोला पूँजीपति बड़े और इज़ारेदार पूँजीपति वर्ग से एक अन्तरविरोध रखता है। लेकिन मज़दूर वर्ग से उसके दुश्मनाना अन्तरविरोध और उसकी नफ़रत के बरक्स यह अन्तरविरोध दोस्ताना अन्तरविरोध है। इन अन्तरविरोध की पहचान करना कोई नयी बात नहीं है। मार्क्स ने ही इस अन्तरविरोध को रेखांकित कर दिया था और स्पष्ट किया था कि समाजवादी क्रान्ति की मंज़िल में बड़ी पूँजी से छोटी व मँझोली पूँजी के अन्तरविरोध के आधार पर जनता के वर्गों के मोर्चे पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता है। छोटे पूँजीपतियों की एक विचारणीय तादाद की नियति पूँजीवादी व्यवस्था में तबाही होती है, तो इसका यह अर्थ नहीं है कि एक छोटे या मँझोले पूँजीपति के तौर पर वह समझाने-बुझाने पर सर्वहारा वर्ग का मित्र वर्ग बन जायेगा! ऐसी प्रचण्ड मूर्खतापूर्ण बात की उम्मीद आप पटना के दोने किहोते यानी “महासचिव” श्री अजय सिन्हा से ही कर सकते थे।
पूँजीवादी व्यवस्था के केन्द्र में मुनाफ़ा और प्रतिस्पर्धा है। यहाँ सभी छोटे-बड़े पूँजीपति आपस में एक दूसरे से तीख़ी और गलाकाटू प्रतियोगिता में रहते हैं। और प्रतियोगिता के ज़रिए ही ये एक वर्ग के रूप में संघटित होते हैं। लेकिन ये प्रतियोगिता इनके बीच मित्रतापूर्ण अन्तरविरोध को ही अभिव्यक्त करता है। इनका आपसी अन्तरविरोध शत्रुतापूर्ण नहीं है। शत्रुतापूर्ण अन्तरविरोध का समाधान किसी सामाजिक व राजनीतिक क्रान्ति के ज़रिये समाज विकास की एक ऊँची मंज़िल में ही हो सकता है। जबकि पूँजीपति वर्ग (समूचा पूँजीपति वर्ग, इज़ारेदार, गैर-इज़ारेदार, बड़ा, छोटा और मध्यम) और सर्वहारा वर्ग के बीच शत्रुतापूर्ण अन्तरविरोध होता है! क्योंकि इनके अन्तरविरोध का हल पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे में सम्भव नहीं है। इसका हल समाजवादी क्रान्ति के ज़रिये ही हो सकता है, जब उत्पादन के साधनों यानी खेत-खलिहान, खान-खदान, कल-कारख़ाने हर चीज़ से निजी पूँजीवादी मालिकाना का ख़ात्मा कर इसे उत्पादक वर्गों की सामूहिक सम्पत्ति घोषित कर दिया जाता है, श्रमशक्ति का माल के रूप में अस्तित्व ख़त्म कर दिया जाता है, और जनता के सामूहिक आवश्यकतानुसार योजनाबद्ध उत्पादन नियोजित किया जाता है। इसलिए यह स्पष्ट है कि समाजवादी क्रान्ति की मंज़िल में पूँजीपति वर्ग का कोई भी हिस्सा मित्र वर्ग नहीं हो सकता, चाहे उनके बीच आपसी अन्तरविरोध कितना भी तीखा क्यों न हो!
माटसाब का एक और शौक़ है। वह है मूर्खतापूर्ण और मनमाने तरीके से नयी-नयी राजनीतिक शब्दावली गढ़ना।माटसाब ने नया शब्द गढ़ा है, “क्रान्तिकारी अवसरवाद!” उनके अनुसार इसकी अन्तर्वस्तु “लेनिनवादी” है!
आइये देखते हैं माटसाब स्वयं क्या फ़रमाते हैं:
“यह हमारे सामने एक ओर क्रान्तिकारी अवसरवादिता तथा दूसरी ओर सुधारवादी अवसरवाद के बीच में से किसी एक का चयन करने का प्रश्न प्रस्तुत करता है। क्रान्तिकारी अवसरवाद, लेनिनवाद में स्वाभाविक रूप से अन्तर्निहित है, जो हर क्रान्तिकारी अवसर और सम्भावना, जो भले ही अभी उभर ही रहा हो, या पूरी तरह नहीं उभरा हो, को एक ठोस क्रान्तिकारी ताकत व शक्ति के रूप में बदलना चाहता है। जब सम्पत्तिवान वर्ग (बेशक जो कम सम्पत्ति के स्वामी हैं) दैत्याकार वित्तीय पूँजी के आतंक से आतंकित होते हैं, तो हमें उनसे न तो अति-क्रान्तिकारी तिरस्कार भाव के साथ, और ना ही उनके प्रति सुधारवादी मीठी ज़ुबान के साथ बात करनी चाहिए। यदि पूँजी के तर्क को अपना अन्तिम मार्ग लेने के लिए छोड़ दिया जाता है और पूँजीवादी संचय के नियमों पर आधारित मौजूदा व्यवस्था को ख़त्म नहीं किया जाता है, तो क्यों नहीं उनके मुँह पर यह साफ़-साफ़ कहा जाना चाहिए कि वे एक निश्चित विनाश की प्रतीक्षा कर रहे हैं।”
माटसाब आमतौर पर चलने वाली राजनीतिक शब्दावली “क्रान्तिकारी रणकौशल” के बजाय अपने गढ़े हुए शब्द “क्रान्तिकारी अवसरवादिता” का इस्तेमाल करते हैं और इनके हिसाब से यह लेनिनवाद में स्वाभाविक रूप से अन्तर्निहित है! लेनिनवाद के बारे में इस शब्द “क्रान्तिकारी अवसरवाद” का इस्तेमाल भी आम तौर पर काउत्स्की व गॉर्टर जैसे लोगों ने लेनिन के रणकौशल को ग़लत ठहराने के लिए किया है (जब गॉर्टर लेनिन की पुस्तक “’वामपंथी” कम्युनिज्म: एक बचकाना मर्ज़’ की आलोचना कर रहे थे) या फिर कुछ अन्य ग़ैर-मार्क्सवादी प्रेक्षकों ने लेनिन के सर्वहारा यथार्थवादी रणकौशल के लिए एक नकारात्मक शब्द के तौर पर इसका इस्तेमाल किया है। यह देखिये, स्वयं लेनिन के बोल्शेविकों व लेनिनवादियों के लिए इस शब्द के इस्तेमाल के बारे में क्या विचार थे:
“बोल्शेविकों को उसूलों से रिक्त लोगों के तौर पर पेश करने के लिए, उन्हें “क्रान्तिकारी अवसरवादियों” (यह शब्द काउत्स्की ने अपनी पुस्तक में कहीं इस्तेमाल किया है, मैं भूल गया हूँ, किस सन्दर्भ में) के रूप में पेश करने के लिए, श्रीमान काउत्स्की ने अपने जर्मन पाठकों से यह तथ्य छिपा लिया है कि इन थीसीज़ में “बार–बार दुहरायी गयी” घोषणाओं के बारे में सीधा सन्दर्भ है।” (लेनिन, संग्रहीत रचनाएँ, खण्ड-28, पृ 266)
यानी, स्वयं लेनिन ने अपने सिद्धान्तों व उन्हें मानने वालों, यानी बोल्शेविकों या लेनिनवादियों के लिए इस शब्द के इस्तेमाल को ग़लत ठहराया है। मतलब, माटसाब अजय सिन्हा एक बार फिर से कहीं से चौर्यलेखन करते हुए पकड़े गये हैं। दरअसल, इस शब्द ‘क्रान्तिकारी अवसरवाद’ का कुछ समय पहले अन्तोनियो नेग्री ने ‘व्यू प्वाइण्ट’ पत्रिका में लेनिन के रणकौशल के सन्दर्भ में किया था, हालाँकि नेग्री इस शब्द के इस्तेमाल को अस्वीकार ही कर रहे हैं; इसी प्रकार कई अन्य नववामियों ने लेनिन पर इस शब्द को आरोपित किया है। इन्हीं में से किसी के लेख से “महासचिव” अजय सिन्हा ने चेंपा–चेंपी कर दी है माने कि चौर्य–लेखन कर दिया है और मूल स्रोत तक जाकर यह नहीं जाँचा कि स्वयं लेनिन ने इस शब्द के अपने उसूलों या रणकौशल के लिए विचारधारात्मक शत्रुओं द्वारा इस्तेमाल के बारे में क्या कहा है। इसके पहले भी हम “महासचिव” अजय सिन्हा को एक बार इण्टरनेट बाबा से चौर्यलेखन करते हुए पकड़ चुके हैं! लेकिन शर्म इन्हें आती नहीं! इसीलिए हमने इनको पहले भी समझाया था कि इण्टरनेट से चोरी करके नहीं लिखना चाहिए क्योंकि वहाँ अजय सिन्हा से बड़े–बड़े गुरू घण्टाल बैठे हुए हैं! बहरहाल, यहाँ “महासचिव” अजय सिन्हा इस शब्द “क्रान्तिकारी अवसरवादिता” का इस्तेमाल कर छोटी और मँझोली पूँजी के साथ वर्ग संश्रय करने का जुगाड़ लगा रहे हैं! मतलब, इस शब्द का इस्तेमाल कर काउत्स्की और गॉर्टर ने अपनी विचारधारात्मक-राजनीतिक करामातें की थीं और अब इस शब्द का इस्तमेाल कर अजय सिन्हा अपनी मूर्खतापूर्ण कलाबाज़ियाँ कर रहे हैं। कोई काउत्स्कीपन्थी ही बात को समझने में चूक कर सकता है कि वर्ग संश्रय क्रान्ति के कार्यक्रम और रणनीति के प्रश्न से जुड़ा हुआ है। इसे महज़ “अवसरवादिता” बताना और इसको सही साबित करने के लिए “क्रान्तिकारी” और “लेनिनवादी” शब्द के साथ जोड़ देना, सिर्फ़ अपनी मूर्खता को सही ठहराने के अलावा और कुछ नहीं है! अगर माटसाब का पर्याय रणकौशल था, तो भी रणनीतिक वर्ग संश्रय का मसला रणकौशल का मसला नहीं होता है। दरअसल माटसाब “क्रान्तिकारी अवसरवादिता” नहीं बल्कि “मूर्खतापूर्ण अवसरवादिता” के शिकार हैं!
माटसाब और इनका संगठन पीआरसी सीपीआई(एमएल) और इनकी यूनियन इफ्टू (सर्वहारा) पटना के लेबर चौक, दिल्ली के मायापुरी इलाक़े में मज़दूरों को संगठित करने की क़वायदों में लगी हैं। लेकिन सवाल तो यह है कि यहाँ के छोटे–मँझोले फैक्ट्री मालिक, ठेकेदार जिनके ख़िलाफ़ ये मज़दूरों को संगठित कर रहे हैं, वे तो बेचारे बड़ी वित्तीय पूँजी के मार से त्रस्त हैं और अब आम जनता का हिस्सा बन चुके है। इसका मतलब तो यह हुआ कि पटना के दोन किहोते श्री अजय सिन्हा व इनके साँचो पाँजाओं की बच्चा पार्टी इन मज़दूरों को अपने रणनीतिक वर्ग–मित्रों के ख़िलाफ़ ही भड़का रहे हैं! फ़िर तो समाजवादी क्रान्ति कैसे सम्भव होगी और माटसाब तो भविष्य के समाजवादी राज्य की अपनी भावी कमिसारियत को लेकर बैठे ही रह जायेंगे? क़ायदे से इनको तो इन मज़दूरों के बीच अपने फैक्ट्री मालिकों के साथ एकता बनाने का आह्वान करना चाहिए! हाँ, ये अलग बात है कि ऐसा करते ही मज़दूर इन्हें बहुविध और रुचिकर प्रकार की प्रतिक्रियाएँ दे सकते हैं जो ‘जनसाधारण’ में हश्र-मिश्रित आश्चर्य का कौतुहल का कारण बन सकती हैं और जिनमें से कुछ माटसाब व उनकी टोली के लिए हानिकारक भी हो सकती हैं! दरअसल, जनता पटना के दोन किहोते श्री अजय सिन्हा और इनके साँचो पाँजाओं की टोली के समान मूर्ख नहीं होती है। वह तब भी सहज वर्ग बोध से अपने वर्ग शत्रु को पहचानती है जब उसके पास कोई राजनीतिक नेतृत्व, विकल्प और कार्यक्रम नहीं होता है।
यह है माटसाब और इनके “यथार्थ” मूर्खमण्डली की राजनीतिक दिवालियापन और अवसरवादिता की हक़ीक़त। जैसा की हम पहले भी जेनुइन लेकिन असावधान साथियों को चेताते रहे हैं कि इन राजनीतिक जोकरों की वैचारिक कलाबाज़ियों और बन्दरकुद्दियों को समझना और इनसे सुरक्षित दूरी बनाये रखना आवश्यक है। बहुत-से साथियों को यह बात समझ में भी आयी है, जो कि खुशी की बात है।
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