क्या कर रहे हैं आजकल पंजाब के ‘कामरेड’?

सुखदेव

सी.पी.आई. तथा सी.पी.एम. जैसे संसदमार्गियों के अलावा इस समय पंजाब में अपने आप को कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी कहने वाले, मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद विचारधारा का जाप करने वाले लगभग आधा दर्जन संगठन सक्रिय हैं। कम्युनिस्ट पार्टियों, संगठनों के नाम पर सक्रिय ये भाँति-भाँति के ‘कम्युनिस्ट’ आजकल यह भूल ही गये हैं कि कम्युनिस्ट पार्टी/ संगठन सर्वहारा वर्ग का अगुवा दस्ता होता है, जिसके लिए सर्वहारा वर्ग के हित सर्वप्रथम होते हैं। इनके द्वारा निकाली जा रही अलग-अलग पत्र-पत्रिकाओं से आज मज़दूर ग़ायब है। मज़दूर वर्ग की लड़ाई, उसके सपने, उम्मीदें, दुख-दर्द तथा उसकी विचारधारा भी ग़ायब है। कुछ है तो वह है, किसानों को बचाने की चीख़-पुकार। किसानों में भी अमीर-ग़रीब किसानों के बीच कोई फ़र्क नहीं, बल्कि सभी किसानों को बचाने, उनके क़र्ज़ माफ़ कराने तथा उनके मुनाफ़े को बढ़ाने की चिन्ताएँ इन ‘कम्युनिस्टों’ के सिर चढ़कर बोल रही हैं। संक्षेप में कहें तो इन दिनों पंजाब में सक्रिय भाँति-भाँति के कम्युनिस्टों का धनी किसानों (कुलकों) या कृषि बुर्जुआजी से टाँका भिड़ा हुआ है।

पिछले कुछ सालों से पंजाब का किसान आन्दोलन स्थानीय मीडिया की सुखि़र्यों में है। राष्ट्रीय मीडिया में भी इसकी अक्सर चर्चा होती रहती है। लगभग दो साल पहले सी.पी.आई., सी.पी.एम. तथा पंजाब के अलग-अलग नक्सलवादी संगठनों द्वारा चलाये जाने वाले पाँच किसान संगठनों का साझा मोर्चा बनाकर एक आन्दोलन शुरू किया गया था जिसको इन्होंने ‘क़र्ज़ा मुक्ति तथा किसान बचाओ संग्राम’ का नाम दिया था। मगर किसानों में कोई ख़ास समर्थन न मिलने के कारण जल्दी ही यह मोर्चा बिखर गया था। मगर तीन महीने पहले यह बिखरा हुआ कुटुम्ब फि़र इकट्ठा हो गया। इस बार संगठनों की संख्या अधिक भी है क्योंकि कुछ किसान संगठनों में फ़ूट पड़ जाने से इस कुटुम्ब में दो नये सदस्य शामिल हो गये थे। इस बार मुद्दे भी कुछ अलग थे। इस बार मुख्य मुद्दा था धान की क़ीमत 600 रुपये प्रति कुन्तल से बढ़ाकर 750 रुपये करवाना। इसके अलावा और माँगें थीं, दूध की क़ीमत में बढ़ोत्तरी, किसानों का क़र्ज़ माफ़ करवाना, कैप्टन (अमरिन्दर सिंह – सं.) सरकार द्वारा शुरू किये गये किसानों के मोटर के बिजली-बिल माफ़ करवाना जो अकाली सरकार के समय माफ़ थे।

इन माँगों को लेकर इन कम्युनिस्ट किसान संगठनों ने आन्दोलन शुरू किया। मगर इस बार भी यह फ़्लॉप शो ही साबित हुआ। 29 अक्टूबर 2002 को इन्होंने ‘पंजाब बन्द’ का आह्वान किया। मगर पंजाब के लोगों ने इस आह्वान को तवज्जो नहीं दी। इन दिनों यह मोर्चा फि़र बिखरा हुआ है। अलग-अलग संगठन अलग-अलग रहकर किसानों से मोटरों के बिलों का बायकाट करवाने में जुटे हैं तथा बिजली कर्मचारियों से लड़-झगड़कर अपने लड़ाकूपन की नुमाइश लगा रहे हैं।

कोई भी वर्ग अपने हितों के लिए लड़ने को आज़ाद है। वह ख़ुशी से अपनी लड़ाई लड़े। मगर दुख की बात तो यह है कि पंजाब की धरती पर यह सब कुछ कम्युनिस्टों के भेस में हो रहा है। इन कम्युनिस्टों की रहनुमाई में लड़े जा रहे इन किसान आन्दोलनों की माँगें मज़दूर विरोधी तथा ग्रामीण धनी किसानों के हित में हैं। मज़दूरों के रोज़मर्रा के उपयोग की वस्तुओं जैसे, गेहूँ, धान तथा दूध आदि की कीमतों में बढ़ोत्तरी तो सीधे-सीधे मज़दूरों की जेब पर डाका है। ऊपर से सितम यह है कि इस डाकेज़नी में कोई और नहीं बल्कि ख़ुद को मज़दूर वर्ग के प्रतिनिधि कहने वाले रंग-बिरंगे कम्युनिस्ट ही जाने-अनजाने मददगार बन रहे हैं।

जहाँ तक किसानों के मोटरों के बिल माफ़ करने की माँग का सवाल है, जिस पर यह टिप्पणी लिखे जाने तक भी आन्दोलन जारी है, इसकी असलियत यह है कि ग़रीब किसानों (अर्द्धसर्वहाराओं) के पास तो बिजली की मोटरें हैं ही नहीं। ज़्यादातर ग़रीब किसानों के पास या तो सिंचाई का कोई साधन ही नहीं है, अगर है तो वह डीज़ल इंजन है। कम ज़मीन वाले ज़्यादातर किसान सिंचाई के लिए धनी किसानों पर निर्भर हैं। पंजाब की कुल बिजली की मोटरों की भारी संख्या धनी किसानों के पास है या कुछ एक में छोटे किसानों के पास। कई अमीर किसान (कृषि पूँजीपति) तो ऐसे हैं जिनका मोटरों का बिल लाखों में बनता है। जैसे कि जंगबहादुर सिंह संघा (नकोदर), प्रकाश सिंह बादल, पूर्व मुख्यमन्त्री, हरचरन सिंह बराड़ (मुक्तसर) आदि-आदि।

इस विश्लेषण से आसानी से यह अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि कम्युनिस्ट संगठनों/पार्टियों के नाम पर पंजाब में सक्रिय संगठन आज किसके हित में खड़े हैं और किसके विरोध में। यह है रूसी नरोदवाद के भारतीय संस्करण की एक झलक। नरोदवाद के इस भारतीय संस्करण की और चीरफ़ाड़ करना और मज़दूर जमात के बीच इसकी असलियत को उजागर करना भारत की सर्वहारा क्रान्ति को आगे बढ़ाने के लिए निहायत ज़रूरी है।


बिगुल, दिसम्बर 2002


 

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